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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

श्रीलंका- विलुप्त हुए चीते

वेल्‍लूपिल्‍लई प्रभाकरन
जनश्रुतियां व लोक साहित्य किस तरह से इतिहास को पुष्ट करती हैं, इसका बेहतरीन उदाहरण मलिक मोहम्मद जायसी के 'पद्मावत' में देखा जा सकता है। इस ग्रंथ के आरंभ में सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती के लिए मेवाड़ के गोहिल राजा रतन सिंह की सिंहलद्वीप (श्रीलंका) की यात्रा का रोचक विवरण है। यह जनश्रुति (वस्तुतः यह जनश्रुति ही है जिसका पद्मावत में उपयोग कर लिया गया है), उस इतिहास पर भारी पड़ गयी जिसके अनुसार यह माना जाता रहा कि श्रीलंका को तमिलों ने आबाद किया, क्योंकि भाषाशास्त्रियों व नृतत्वशास्त्रियों ने ऐसे ढेरों प्रमाण दिये जिससे स्‍पष्‍ट होता है कि प्रारम्भिक श्रीलंकाई विशेषकर सिंहली, तमिलों के बजाय गुजरात के काठियावाड़ व राजस्थान के मेवाड़ के लोगों से अधिक नजदीक है, जो सदियों पहले व्यापार के लिए, साहसिक अभियानों में यहां आए। सिंहली और तमिल समाज का यही नस्ली विभाजन वहां चले गृहयुद्ध का प्रमुख कारण भी था।

स्पष्टतः श्रीलंका अपने प्रारम्भिक काल से ही भारत से जुड़ा रहा है। पौराणिक काल की रामायण हो या चेरों व चोलों का ऐतिहासिक विवरण, सभी में श्रीलंका का उल्लेख है। श्रीलंका के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण मोड़ संघमित्रा व महेन्द्र के वहां पहुंचने के बाद आया। जब पूरा देश उनके उपदेशों से प्रभावित होकर धम्म के मार्ग पर चलने को राजी हो गया। तब बहुत से बौद्ध विद्वान भी अपने धार्मिक ग्रंथों के साथ यहां आये। इन ग्रन्थों को कैण्डी के प्रसिद्ध दंत मंदिर में बहुत ही श्रद्धापूर्वक सहेज कर रखा गया, जहां वे उन मुस्लिम आक्रांताओं से भी सुरक्षित थे जो उस समय उत्तर भारत में उत्पात मचा रहे थे। कालांतर में इन्हीं धर्मग्रन्थों में से दीपवंश व महावंश, भारतीय इतिहास में तिथि निर्धारण व पुनर्रचना के लिए महत्वपूर्ण साबित हुए। श्रीलंका के इतिहास में और भी बहुत से रोचक तथ्य है पर उनकी चर्चा फिर कभी। फिलहाल उस युद्ध की चर्चा, जिसे वेल्लु पिल्‍लई प्रभाकरन व उनके तमिल चीतों ने दशकों तक लड़ा।

तमिल, यद्यपि श्रीलंका में बहुत पहले से थे, पर औपनिवेशिक शासन के दौरान उन्हें मजदूरों के रुप में बड़ी संख्‍या में लाया गया। 1948 में श्रीलंका की आजादी तक, उनकी संख्‍या बढ़कर, कुल जनसंख्‍या का 17% तक हो गया। आजादी के बाद आयी सिंहली सरकार ने तमिलों के साथ धार्मिक व नस्ली आधार पर भेदभाव किया व विरोध करने पर उसे बर्बरता से कुचला, जिसके प्रतिरोध में तमिल उग्रवादी आन्दोलन का जन्म हुआ। प्रारंभ में ऐसे कई संगठन थे, जो हथियारों के दम पर राजनैतिक सुधारों के लिए लड़ रहे थे, किन्तु प्रभाकरन ने जाफना के मेयर की हत्या करके जिस नये संगठन एलटीटीई-लिट्टे (लिबरेशन टाईगर ऑफ तमिल ईलम) की नींव रखी, वह अपने पूर्वगामियों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली व खूंखार था तथा जिसने स्वतंत्र तमिल राष्ट्र को लक्ष्य बनाकर श्रीलंकाई सरकार के खिलाफ यु़द्ध ही छोड़ दिया।

एलटीटीई एयर विंग के लड़ाके

सिंहली प्रताड़ना से त्रस्त तमिल जनता को प्रभाकरन उद्धारक की तरह नजर आया और जाफना से शुरु हुआ यह विद्रोह धीरे-धीरे समस्त उत्तर-पूर्वी श्रीलंका में फैल गया तथा इन क्षेत्रों का नियंत्रण श्रीलंका की सरकार के हाथों से निकलकर लिट्टे के पास आ गया। लिट्टे की इस चमत्कारिक सफलता के पीछे भारतीय खुफिया ऐजेन्सी 'रा' (RAW) का भी महत्वपूर्ण योगदान था, जो उसे सैन्य प्रशिक्षण, हथियार व खुफिया सूचनाएं उपलब्ध करा रही थी। भारत में प्रशिक्षित लिट्टे के पहले दस्ते में (जिन्हें हिमाचल व उत्तराखण्ड में प्रशिक्षण दिया गया था), वे लोग भी शामिल थे जिन्होंने बाद में पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
दरअसल तत्कालीन भारतीय सरकार श्रीलंका में तमिलों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार के सख्‍त खिलाफ थी और उनको वाजिब अधिकार दिलाना चाहती थी। इसीलिए जब श्रीलंकाई सरकार ने लिट्टे द्वारा अधिकृत किये गये क्षेत्रों की आर्थिक नाकेबंदी कर दी, तब तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भारतीय वायुसेना की मदद से यहां खाद्यान्न, दवाईयां, ईधन व अन्य जरूरी वस्तुएं भिजवाईं, जिन्हें ले जा रहे मालवाही विमानों के साथ युद्धक विमान भी थे। लिट्टे को भारत सरकार के इस खुले समर्थन से श्रीलंकाई सरकार न सिर्फ घबराई, वरन् खीझते हुए उसने तमिलों को समान नागरिक अधिकार व स्वायत्त राज्य देने को सहमत हो गयी, बशर्ते तमिल अपना सशस्त्र संघर्ष त्याग दें। भारत सरकार की मध्यस्थता में एक समझौता भी हुआ जिसमें राजीव गांधी, प्रेमदास व प्रभाकरन के हस्ताक्षर थे (ये तीन ही इस युद्ध के भेट चढ़े), परन्तु वापस जाफना लौटते ही प्रभाकरन, दिल्ली के अशोका होटल में हुए अपने अपमान को आधार बनाकर इस समझौते से मुकर गया और युद्ध पुनः शुरु हो गया। अब भारत सरकार के सामने विचित्र स्थिति थी क्योंकि वह इस समझौते की मध्यस्थ व गारंटर थी। अतः उसे वहां शांति स्थापित करने के लिए सेना भेजनी पड़ी, जिसे श्रीलंकाई सरकार के उचित सहयोग न मिल पाने की वजह से बिना किसी खास उपलब्धि के वापस लौटना पड़ा। प्रमाकरन इतने से ही संतुष्ट नहीं हुआ उसने 1991 में श्री पेराम्बदूर की चुनावी जनसभा में राजीव गांधी की हत्या करा दी। इसी तरह 1993 में एक आत्मघाती हमले में प्रेमदास को भी मार डाला गया।

राजीव गांधी की हत्या ने पूरे संघर्ष की दिशा ही बदल दी। यह बदलाव धीरे-धीरे पर निर्णायक हुआ। 1991 में सत्ता में आयी पीवी नरसिंहराव की सरकार ने यद्यपि लिट्टे के खिलाफ कोई कठोर कार्यवाही तो नहीं की, पर लिट्टे को मिलने वाला भारतीय समर्थन खत्म कर दिया। हालांकि लिट्टे पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि उसने अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा व मलेशिया इत्यादि देशों में रहने वाले तमिलों के माध्यम से धन व हथियारों का इंतजाम कर लिया, परन्तु जब 2005 में सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए सत्ता में आयी तो उसने न सिर्फ हिन्द महासागर से लिट्टे के लिए होने वाली हथियारों की आपूर्ति पर रोक लगाना शुरु किया वरन् श्रीलंकाई सरकार को भी लिट्टे के दमन के लिए आवश्‍यक हथियारों की खरीद करने की छूट दे दी, जिसका परिणाम हुआ कि लिट्टे के नियंत्रण क्षेत्र का दायरा धीरे-धीरे सिमटने लगा। बढ़ते दबाव से लिट्टे में भी फूट पड़ गयी और एक समूह जनरल करुणा ने नेतृत्व में अलग हो गया। लगभग इसी समय यह तय हो गया कि अब प्रभाकरण के पास गिनती के ही दिन बचे है और अंततः वह 18/05/09 को वन्नी के पास हुई मुठभेड़ के बाद अपने साथी पोट्टू अम्मोन व पुत्र चार्ल्स एंटोनी के साथ मृत पाया गया। शायद पराजय सुनिश्‍िचत जानकर सभी ने आत्महत्या कर ली।
मृत प्रभाकरन 

लिट्टे अब तक सभी आतंकवादी संगठनों में सबसे अधिक दुर्दान्त था। इसकी मारक क्षमता के आगे अल कायदा, हमास, पीएलए, तलिबान या आईआरए सभी बौने पड़ते हैं। यह एकमात्र ऐसा आतंकवादी संगठन था जिसके पास अपनी नौसेना व वायुसेना भी थी। इसकी वायुसेना ने कोलम्बो तक पर सफलतापूर्वक हवाई हमला किया और नौसेना ने श्रीलंका से सैकड़ों समुद्री नाटीकल मील दूर मालदीव पर हमला कर उस पर कब्जा करने की कोशिश की। गनीमत कि सही समय पर भारतीय नौसेना वहां पहुंच गयी, अगर कुछ घंटों की देरी होती तो मालद्वीप के राष्ट्रपति सहित पूरा देश लिट्टे के कब्जे में होता। इसके अलावा आत्मघाती हमलों की शुरुआत भी लिट्टे ने की थी। इसका कैडर इतना समर्पित था कि ये पकड़े जाने की स्थिति में सायनाइड की कैप्सूल खाकर आत्महत्या कर लेते। यद्‌यपि तमिल दिलेरी से लड़े पर उनका शीर्ष नेतृत्व अपनी सैनिक सफलता को राजनैतिक सफलता में बदलने में न सिर्फ असफल रहा वरन कई मौकों पर गजब की राजनैतिक मूर्खता भी दिखाई।
कैंडी का दंतस्‍तूप 
दरअसल सभी पृथकतावादी आन्दोलनों में शस्त्र उठाने का प्रमुख उद्‌देश्‍य अपनी ताकत प्रदर्शित करना भर होता है, ताकि विरोधी पक्ष को समझौते की मेज तक ला कर अपनी मांगे मनवायी जा सकें। फिलिस्तिनी मुक्ति मोर्चा के यासिर अराफात इसके सटीक उदाहरण हैं जिन्होंने आपेक्षाकृत कम खून बहाया और इजराईल-अमेरिका जैसे अधिक शक्तिशाली देशों से आखिरकार स्वतंत्र फिलिस्तीन ले ही लिया। अगर प्रभाकरन भी दिल्ली समझौते के अनुरूप स्वायत्त राज्य के लिए सहमत हो जाते तो उन्हें भारत का समर्थन भी मिलता रहता और स्वतंत्र राष्ट्र बनाने का विकल्प भी खुला रहता है। पर उन्होंने एक समुदाय के अधिकारों की लड़ाई को अपने व्यक्तिगत अहंकार की लड़ाई में बदलकर तमिलों का जो अहित किया, उसे तमिल सदियों तक न भूल सकेंगे। 

अब चूंकि श्रीलंकाई सरकार यह युध्द जीत चुकी है तब उसे चाहिए कि उदार मन से तमिलों को समान नागरिक अधिकार देते हुए उनकी न्यायोचित मांगो को पूरा कर उन कारणों को ही खत्म कर दे जिसके चलते लिट्टे का जन्म हुआ था ताकि शांति स्थायी हो सके। 




समाज कल्‍याण में स्‍नातकोत्‍तर शिक्षा प्राप्‍त विवेकराज सिंह जी स्‍वांत: सुखाय लिखते हैं।अकलतरा, छत्‍तीसगढ़ में इनका माईनिंग का व्‍यवसाय है. 
इस ब्‍लॉग में विवेक राज सिंह जी के पूर्व आलेख - 

सभी चित्र गूगल खोज से साभार

टिप्पणियाँ

  1. स्वान्तः सुखाय लिखना और इतना शोधपूर्ण लिखना ...इस श्रम के लिए साधुवाद के पात्र है यह ...आपकी सोच को सलाम ऐसे लेखकों से परिचय के लिए ....!

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  2. लगा कि किसी राष्‍ट्रीय अखबार का संपादकीय पढ़ रहे हों, लेखक और प्रस्‍तुतकर्ता दोनों के लिए कोटिशः बधाई.

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  3. तटस्थ रूप से लिखा गया शानदार लेख सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला है आपने। लिट्टॆ तो खत्म हो गया पर आतंकवाद का जो नया पैमाना उसने स्थापित कर दिया है उसे खत्म होने मे सदियो लग जायेंगे।

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  4. बहुत ही तथ्यपूर्ण और गहन आलेख, निष्कर्षों से सहमति है।

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  5. गहन शोधपूर्ण आलेख...
    सादर बधाई...

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  6. यह लेखक के लिए स्वांत: सुखाय हो सकता है लेकिन पाठक के लिए तो शोधपूर्ण है। निश्चित ही उम्दा।

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  7. आतंक के अध्याय की एक प्रामाणिक जानकारी ..आभार !
    मगर चित्र में चीता नहीं तेंदुआ प्रभाकरन की गोंड में बैठा है !

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  8. जी सर वो तेंदुआ ही है.भारत या कहे तो एशिया में चीता १९४८ में ही विलुप्त हो गया था .चीतों का अंतिम रेकोर्ड कोरिया रियासत[chhattishgarh ] से मिलता है जहा के राजा ने अंतिम एशियाई चीतों[कुल- तीन] को एक शिकार अभियान के दौरान १९४८ में मैनपाट के पास मारा था.

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  9. जी सर वो तेंदुआ ही है.भारत या कहे तो एशिया में चीता १९४८ में ही विलुप्त हो गया था .चीतों का अंतिम रेकोर्ड कोरिया रियासत[chhattishgarh ] से मिलता है जहा के राजा ने अंतिम एशियाई चीतों[कुल- तीन] को एक शिकार अभियान के दौरान १९४८ में मैनपाट के पास मारा था.

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