चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस का प्रसिद्ध कथन है कि ‘‘दूसरों से वैसा व्यवहार न करें, जैसा आप स्वयं के लिए पसंद न करते हो’’ पर आजकल उनके देशवासी याद रखने योग्य सिर्फ कामरेड माओ की उक्तियों को ही मानते है। भारतीय तेल व गैस उत्खनन कम्पनी ओएनजीसी विदेश को वियतनाम के दक्षिण चीन सागर में खनन की मिली अनुमति को चीन के विदेश मंत्रालय ने चीन-वियतनाम के आपसी विवाद में भारत का बेवजह दखल करार दिया है। उनसे पूछा जाना चाहिए कि कि वैधानिक रूप भारत में शामिल पाक अधिकृत काश्मीर पर चीनी सैनिकों द्वारा बनाये जा रहे काराकोरम राजमार्ग पर उनकी क्या राय है। उनकी राय का पता नहीं, पर लगता है कि भारत ने ड्रैगन की दुम पर पैर रख दिया है और यह भारत सरकार का सोच-समझकर उठाया गया कदम है।
चीन में बुद्ध |
आधुनिक चीन एक विशाल देश है जिसमें हान प्रमुख जातीय समूह है। इसके अतिरिक्त हुई मांचू, तिब्बती व उईधुर समूह भी है। जिसमें उईधुर मुस्लिम है जो पश्चिमी चीन में खानाबदोश ढ़ंग से रहते हैं। चीन का मांचू सम्राज्य 1911 में समाप्त कर दिया गया और गणतंत्र की स्थापना हुई, जिसमें कुओं मीन तंग (नेशनल पीपुल्स पार्टी) के डॉ. सनयात सेन राष्ट्राध्यक्ष बने। उन्होंने चीन का आधुनिकीकरण प्रारंभ किया, उनके उत्तराधिकारी च्यांगकाई शेक ने लौकिक कन्फ्यूशियसवाद पर देश चलाने की कोशिश की पर 1937 के जापानी आक्रमण को रोकने के लिए उन्हें जमीन पुनर्वितरण के मुद्दे पर ताकतवर होती, माओत्सेतुंग की साम्यवादी पार्टी से समझौता करना पड़ा। युद्ध के पश्चात सत्ता पर नियंत्रण को लेकर दोनों दल आपस में भिड़ गये और 1949 में माओत्सेतुंग ने मुख्य भूमि पर साम्यवादी सरकार की स्थापना की, जबकि च्यांगकाई शेक ने ताईवान जाकर गणतांत्रिक सरकार बनायी। चीन की नई साम्यवादी सरकार की फौजें 1950 में तिब्बत में घुस आयी और उसे अपना प्रांत घोषित कर दिया। 1958 में तिब्बतियों ने चीनी कब्जे के खिलाफ विद्रोह किया जिसे कुचल दिया गया और तिब्बती धर्मगुरु व प्रमुख नेता दलाईलामा अपने अनुयायी सहित भारत आ गये। भारत द्वारा दलाईलामा को शरण देना चीन को नागवार गुजरा और यही 1962 के भारत-चीन युद्ध का कारण बना।
थियेनमेन चौंक का छात्र आन्दोलन |
दरअसल चीन व भारत दुनिया की तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाएँ है, जिन्हें अपनी तीव्र आर्थिक विकास दर को बनाये रखने के लिए ऊर्जा संसाधनों व तैयार माल के लिए बाजार की जरूरत है, इसीलिए चीन पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को विकसित कर रहा है, ताकि खाड़ी देशों से तेल व गैस को पाईप लाईन से पाक अधिकृत काश्मीर होकर पश्चिमी चीन तक पहुंचाया जा सके और उसके जहाजों को हिन्द महासागर का चक्कर न लगाना पड़े जहां भारत मजबूत स्थिति में है। भारत ओएनजीसी तथा कोल इंडिया, विदेश के माध्यम से कई देशों में तेल व कोयले का खनन कर रहा है, जिसे वह निर्बाध रूप से नौ परिवहन कर भारत पहुचांना चाह रहा है। भारत गंगा-मैकांग परियोजना के तहत पूर्वी एशियाई देशों से अपने संबंध लगातार बढ़ा रहा है और आसियान समूह के देशों की अर्थव्यवस्था में भी अपना हिस्सा लगातार बढ़ा रहा है। अफ्रीकी व लैटिन अमेरिकी देशों के बाजारों पर दोनों ही देशों की नजर है। जैसे-जैसे दोनों अर्थव्यवस्थाएं फैलाती जायेंगी, यह आर्थिक टकराव भी बढ़ेगा, जो सैनिक संघर्ष में भी बदल सकता है। भारत के लिए बेहतर यही होगा कि वह अपने अधिकतम आर्थिक हित वाले क्षेत्रों को रेखांकित कर अपनी सैनिक क्षमता को इतना बढ़ा ले कि अपने आर्थिक हितों को सुरक्षित रख सके।
भारत और चीन के बीच एक तीसरा पक्ष अमेरिका भी है। चीन ने जिस दबावपूर्ण ढंग से हांगकांग (बिट्रेन) व मकाओं (पुर्तगाल) को वापस लिया है और पूर्वोत्तर एशिया में दखल देना प्रारंभ किया है, उससे अमेरिका आशंकित है क्योंकि उसके भी सैनिक-आर्थिक हित जापान, ताईवान, दक्षिण कोरिया व फिलीपिन्स तक फैले हैं।
चीन की लाल सेना |
चीन भी अपनी सेना व भारतीय सीमा से लगे चीनी क्षेत्र में राजमार्गों का नवीनीकरण कर रहा है। वह पाकिस्तान को मिसाइल व परमाणु बम बनाने की तकनीक देकर भारत से उलझना चाहता है। भारत भी शायद वियतनाम लाओस या फिलीपिन्स को मध्यम दूरी की मिसाइलों की तकनीक देकर चीन के खिलाफ खड़ा करना चाहे, पर फिलहाल वह चीन पर ही ध्यान केfन्द्रत किये हुए है और भारतीय रक्षा तैयारियां पहाड़ी युद्धों को ध्यान में रखकर की जा रही है। हाल के वर्षों में भारतीय सेना में माऊंटेन डिविजन लगातार बढ़ रही है। साथ ही दुर्गम क्षेत्रों में उतर कर युद्ध करने में सक्षम एयरबार्न यूनिट भी, जिनके लिए हाल ही में सी-13 हरकुलिस व 130 ग्लोबमास्टर जैसे मालवाही विमान खरीदे गये हैं।
कारगिल युद्ध में बोफोर्स तोप |
चीन ने यदि 1962 की तरह इस बार फिर आक्रमण किया तो उसे युद्ध के पहले ही दौर में यह पता चल जायेगा कि इस बीच भारत कितना बदल गया है पर यह आर्थिक प्रतिस्पर्धा पूर्णकालिक युद्ध में बदलेगी भी, इसकी संभावना कम है क्योंकि दोनों देशों के पास परमाणु हथियार हैं व एक दूसरे के क्षेत्र में भीतर तक घुसकर मार करने की क्षमता भी, जो विनाश को और भी व्यापक बना देगा। चूंकि दोनों देशों का उद्देश्य आर्थिक विकास है सो अंततः समान क्षमता वाले प्रतिद्वंदी से भिड़कर कोई भी विनाश को निमंत्रित नहीं करेगा पर चीन जैसा धूर्त देश भारत को कमजोर करने के लिए पाकिस्तान का उपयोग करना चाहेगा, जबकि अमेरिका उसे रोकने के लिए भारत को मजबूत करेगा। ये कूटनीतियां अभी लगातार चलती रहेंगी और सीधे संघर्ष से बचते हुए दोनों देश अपने-अपने आर्थिक हितों को साधते रहेंगे। पर 1965 की तरह यदि हमने अपनी सैनिक तैयारियों में ढील दी तो हमें अपने महत्वपूर्ण सामरिक व आर्थिक हितों से हाथ धोना पड़ सकता है। हमें चौथी सदी ई.पू. के चीनी विचारक सुनत्सु की पुस्तक ‘‘आर्ट ऑफ वार’’ के कथन को ध्यान में रखना चाहिए कि ‘‘अपने शत्रु के हर कदम पर नजर रखो और उसकी विशेषताओं को कभी नजरअंदाज मत करो।’’
विवेक राज सिंह
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सराहनीय कार्य कर रहे हो
जवाब देंहटाएंभारत को भी समय रहते चेतना होगा।
जवाब देंहटाएंव्यापक दृष्टिकोण, हालातों की संतुलित समीक्षा, बधाई.
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षा, आभार...
जवाब देंहटाएंबढिया विश्लेषण!!
जवाब देंहटाएंसही दिशा को गति देती लेख और शोधपूर्ण !
जवाब देंहटाएंविकसित देशों की श्रेणी में खुद को शामिल करने के लिए बेकरार चीन और भारत की प्रतिद्वन्द्विता और उनके राजनीतिक आर्थिक संबंधों की पृष्ठभूमि को बेहतरीन ढंग से लेख में समेटा है। लेखक को बधाई।
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