पिछले दिनों राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे दैनिक छत्तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी का संस्मरण हमने अपने पाठकों के लिए छत्तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित किया था. महत्वपूर्ण एवं विश्व भर में चर्चित कारवां के बाद सुनील कुमार जी, अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में भारतीय मूल के लोगों द्वारा गांधी की 1930 की ऐतिहासिक दांडी-यात्रा की याद में निकाली गई 240 मील की पदयात्रा में भी शामिल हुए। इस पदयात्रा का संस्मरणात्मक विवरण दैनिक छत्तीसगढ़ के अप्रैल अंकों में प्रकाशित हुआ है. टैक्स्ट आधारित सर्च इंजनों में चाणक्य पीडीएफ समाचार पत्रों के आलेखों की अनुपलब्धता के कारण हम इस आलेख को ब्लॉगर दस्तावेजीकरण करते हुए, यहॉं क्रमश: पुन: प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्तुत है नवीं किस्त ....
कैलिफोर्निया में सान फ्रांसिस्को और बर्कले के आसपास का इलाका बे एरिया कहे जाने वाले इलाके में आता है जो कि समंदर से लगा हुआ है। इस समंदर के किनारे तक हम चल रहे थे और समंदर को देखते हुए चलने की जितनी हसरत थी वह पूरी की पूरी सर्द तेज हवाओं की मार से काफी जल्दी हवा हो गई थी। कुछ लोगों ने मुझे पहले ही एक टोपी लगाने की सलाह दी थी जो वहां जाकर एकदम सही लग रही थी। यह इलाका इसी राज्य के हॉलीवुड वाले इलाके से दूसरे कोने पर था और अपनी जागरूकता के मामले में बिल्कुल अलग भी था। इसी सान फ्रांसिस्को और बर्कले के इलाके में तरह-तरह के पूंजीवादी विरोधी , युद्ध विरोधी , नस्लभेद विरोधी , मानवाधिकार वादी आंदोलन खड़े होने पर लंबा इतिहास है। यहां पर दांडी मार्च-2 के सफर का दूसरा हिस्सा पूरा करते हुए गुजरात से रिटायर होकर आए अंग्रेजी के प्राध्यापक प्रो. ओम जुनेजा साथ में थे और उनसे कुछ घंटे बहुत दिलचस्प बातें होती रहीं। वे बर्कले विश्वविद्यालय में भारतीय इतिहास का एक हिस्सा पढ़ा भी रहे हैं और इसके लिए उन्होंने किसी नियमित पाठ्यक्रम के बजाय एक नया विषय ढूंढा है, गांधी और सावरकर के तुलनात्मक अध्ययन का। उन्होंने गांधी की किताब ‘हिन्द स्वराज’ और विनायक दामोदर सावरकर की हिन्दुत्व पर एक किताब का व्यापक अध्ययन करके इन दोनों की विचारधारा की तुलना की है और भारत की संस्कृति, भारत की आजादी, हिन्दुत्व, गैरहिन्दू जैसे कई मुद्दों पर इन दोनों की सोच में एकरूपता या विचारधारा को वे इतिहास की क्लास में पढ़ा रहे हैं। चूंकि मुझे इन दोनों किताबों के बारे में इतनी अधिक जानकारी नहीं थी इसलिए मैं उनके एक छात्र की तरह उत्सुकता और जिज्ञासा से सबकुछ सुनता और जानता रहा। उन्हें मैंने बताया कि छत्तीसगढ़ के एक बड़े वकील और प्रमुख लेखक कनक तिवारी हिन्द स्वराज पर हमारे अखबार और साप्ताहिक पत्रिका के लिए बहुत विस्तार से लिख चुके हैं और वे इस विषय के बहुत जानकार और विद्वान भी हैं। मैंने उनसे यह भी कहा कि मैं आप दोनों का संपर्क करवाकर इस विषय को और आगे बढ़ाना चाहूंगा।
मैंने उनसे उनकी राजनीतिक विचारधारा के बारे में नहीं पूछा लेकिन वे कदम-कदम पर गांधी की बहुत सारी सोच को हिन्दुत्व के मुद्दे पर सावरकर की सोच के करीब पा रहे थे और अपनी कम जानकारी पर मुझे अफसोस हो रहा था कि इस व्याख्यान को मैं बहस में तब्दील नहीं कर पा रहा था। दोपहर जब हम एक परिवार में खाने के लिए रूके तो एक बड़े कमरे में प्रोफेसर जुनेजा बाबा रामदेव का योग और प्राणायाम सिखाने लगे और पदयात्रियों में से करीब दर्जन भर उसका फायदा पाने में जुट गए। बर्कले विश्वविद्यालय के एक दूसरे प्रोजेक्ट के बारे में उनसे पता लगा कि भारत-पाक के विभाजन के इतिहास का दस्तावेजीकरण करने का एक प्रोजेक्ट यह विश्वविद्यालय कर रहा है और इसके लिए विभाजन से प्रभावित लोगों के साक्षात्कार दर्ज किए जा रहे हैं। भारत से हजारों मील दूर, भारत के ठीक दूसरे सिरे पर, जिस वक्त भारत और पाकिस्तान सोते हैं, उस वक्त यहां के इतिहास का बहुत गंभीरता से एक दस्तावेजीकरण अमरीका में लोग कर रहे हैं और शोध कार्य के आम भारतीय स्तर को अगर देखें तो कई बार ऐसा लगता है कि पश्चिम के देशों के बहुत से विद्वान भारत के मुद्दों पर अधिक महत्वपूर्ण और तटस्थ, पूर्वाग्रह रहित काम कर पाते हैं। यह एक अलग बात है कि भारत पर पश्चिमी लेखकों की लिखी किताबों को भारत के बहुत से लोग एक अच्छी तगड़ी हिकारत के साथ देखते हैं और अपने इतिहास को वे स्लेट पट्टी की तरह मिटाने का मौलिक अधिकार चाहते हैं। इस मुद्दे पर अपने सोचने को यहां पर और अधिक लिखने के बजाय मैं अगर फिर पदयात्रा की सडक़ों पर लौटूं तो भारत-पाक विभाजन मुझे इस विश्वविद्यालय के इतिहास लेखन से परे सडक़ों पर अच्छा खासा दिखा।
दांडी मार्च-2 शुरू होने के वक्त अधिकतर सिखों और कुछ बौद्ध लोगों वाला विरोधी जत्था यह पदयात्रा खत्म होने के वक्त सान फ्रांसिस्को की गांधी प्रतिमा पर एक बड़ी मौजूदगी के साथ नारे लगा रहा था। उनके नारे और बैनर पहले के मुकाबले अधिक हमलावर थे और नाथूराम गोडसे की जिंदाबाद के नारे कुछ अधिक तेज थे। सिखों की शिकायत गांधी को विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए लाखों सिखों की मौतों के लिए गांधी को हत्यारा ठहरा रही थी। दूसरी तरफ बौद्ध अपनी अंबेडकरवादी सोच के मुताबिक गांधी को मनुवादी वर्णव्यवस्था का एक झंडाबरदार करार देते हुए उन्हें घोर नस्लवादी साबित कर रहे थे। गांधी की प्रतिमा के सामने एक तरफ तो इस पदयात्रा के साथ चलते हुए लोग पहुंचे थे और कुछ लोग वहां पहले से थे। लेकिन गांधी वादी या भ्रष्टाचार विरोधी लोगों की छोटी भीड़ से आगे लोग तो गांधी को गालियां देते हुए भी थे। एक तरफ दूसरे पदयात्रियों के साथ-साथ मेरा भी सम्मान हो रहा था और हम सभी से कुछ कहने के लिए कहा जा रहा था, दूसरी तरफ गांधी को गालियां देने वाले धीरे -धीरे इस पूरे कार्यक्रम के चारों तरफ घेरा डाल चुके थे और वे नाथूराम गोडसे के नारे को छोडऩे की अपील को भी खारिज कर चुके थे। पास ही अमरीकी पुलिस खड़ी हुई थी और वह दोनों तरफ के लोगों को बिना हिंसा सिर्फ जुबानी और पोस्टरी मतभेद के खड़े हुए नारे लगाते पा रही थी और उसमें अपने दखल का उसे कुछ नहीं लग रहा था।
पिछले कुछ दिनों में हमारे साथ अलग-अलग हिस्सों में पैदल चलने वाले लोग आकर बधाई दे रहे थे कि हमने 240 मील की लंबी पदयात्रा पूरी कर ली, कुछ लोग साथ में तस्वीरें खिंचा रहे थे, और हमारे कुछ पदयात्रियों के परिवार सैकड़ों मील दूर से सफर करके इस मौके के लिए पहुंचे थे। जो छह लोग पिछले पन्द्रह दिनों से रात-दिन साथ चलते और रहते आए थे, न लोगों को यह अहसास भी खा रहा था कि अगले कुछ मिनटों में हम अलग-अलग होने जा रहे थे और उस हिसाब से भी भरी आवाज में हर कोई एक-दूसरे से लिपट रहा था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ इस लड़ाई में फिर किसी दिन हम सब मिलेंगे और आगे बढ़ेंगे। हमारे सबसे बुजुर्ग साथी, 71 बरस के केवल परनामी मुझे याद दिला रहे थे कि मुझे भारत से भ्रष्टाचार विरोधी एक और पदयात्रा का जो न्यौता मिला है वह मैं उन्हें याद से भेजूं। इस पदयात्रा में शामिल होने से इंटरनेट पर इतना नाम या इतना बदनाम हो गया है कि गौहाटी से दिल्ली तक करीब ढाई हजार किलोमीटर की एक पदयात्रा का न्यौता मुझे वहां रहते-रहते पहुंच गया था और केवल सचमुच ही करीब तीन महीने की इस पदयात्रा में दिलचस्पी ले रहे थे। वे अपनी बुजुर्ग पत्नी को दोनों घुटनों के जोड़ बदले जाने के कुछ हफ्तों के भीतर ही घर पर छोडक़र इस पदयात्रा के लिए आए थे और इस एक पखवाड़े को सबसे अधिक आसानी से उन्होंने ही झेला था। पदयात्रा के पहले दिन मैंने विरोध करने वाले सिख और बौद्ध नेताओं को अपना कार्ड देते हुए उनसे अनुरोध किया था कि वे अपने तर्क और अपना पक्ष मुझे ईमेल से भेजें और उनके बारे में लिखने में मुझे खुशी होगी। लेकिन पहले दिन का वायदा आज पांच हफ्तों बाद भी वे पूरा नहीं कर पाए इसलिए उनके नारों से परे उनके तर्कों के बारे में लिखने को मेरे पास अधिक कुछ नहीं है। लेकिन मैं उम्मीद करता हूं कि बर्कले विश्वविद्यालय के जो लोग भारत-पाक विभाजन के इतिहास लेखन के लिए लोगों के इंटरव्यू दर्ज कर रहे हैं उनमें ऐसी और बातें सामने आ सकेंगी और अगर वे किसी किताब की शक्ल में छपेंगी तो भारत में एक और किताब को जलाने का मौका लोगों को मिलेगा।
लेकिन मैं भारत में किसी विचारधारा या शोध पूर्ण विश्लेषण और निष्कर्ष के विरोध की बात जब सोचता हूं तो एक छोटी सी बात मुझे और दिखाई देती है। राजनीतिक रूप से बहुत जागरूक अमरीका के इस इलाके में ढाई बरस पहले जब मैं भारत के नक्सल मुद्दों से जुड़े कई पहलुओं पर अपना एक पेपर पढक़र लौटा था तो मुझे अपनी सोच की वजह से लोगों का कुछ विरोध भी झेलना पड़ा था। शायद उसी में से कुछ लोग इस बार भी मेरा विरोध करने इस पदयात्रा के दौरान प्रदर्शन करने के लिए आने वाले थे। वह तो नहीं हुआ लेकिन फिर भी एक बात मुझे अब भी खटकती है कि ढाई बरस पहले के उस सेमिनार में वहां के जो लोग मुझसे वैचारिक रूप से असहमत रहे, उनमें से बहुत से इस बार मेरे वहां पहुंचने की खबर मुझसे पाने के बाद भी जवाब देने से दूर रहे। ऐसा करने की लोगों की अपनी-अपनी मजबूरी या अपनी-अपनी पसंद और नापसंद भी हो सकती है, लेकिन मैं यह भी सोचता हूं कि क्या यह एक वैचारिक असहमति की वजह से उपजी हुई नापसंदगी है? जो कि भारत के किताब जला देने जैसी हमलावर तो नहीं है लेकिन नापसंदगी तो दिखती है। लेकिन मेरे इस छोटे से महत्व हीन अनुभव से परे दुनिया के इन दो बड़े देशों में लोकतांत्रिक असहमति के लिए समाज में आमतौर पर मौजूद जगहों में खासा फर्क है। अमरीका में शायद वैचारिक असहमति के लिए अराजकता की हद तक आजादी है और वहां घोषणा करके कुरान के पन्ने जलाकर भी कोई बने रह सकता है। दूसरी तरफ भारत की सामाजिक स्थितियां और राजनीतिक दकियानूसीपन शायद इतना तंगदिल है कि इस देश में ऐतिहासिक शोध संस्थानों को साम्प्रदायिक ताकतों के हाथों जलना नसीब है। यही सब सोचते हुए यह पदयात्रा गांधी प्रतिमा पर पूरी हुई। पैर थम गए लेकिन सोचना जारी है। इसके बाद के कुछ दिनों के बारे में शायद एक-दो किस्तें और ....
सुनील कुमार
दांडी मार्च-2 शुरू होने के वक्त अधिकतर सिखों और कुछ बौद्ध लोगों वाला विरोधी जत्था यह पदयात्रा खत्म होने के वक्त सान फ्रांसिस्को की गांधी प्रतिमा पर एक बड़ी मौजूदगी के साथ नारे लगा रहा था। उनके नारे और बैनर पहले के मुकाबले अधिक हमलावर थे और नाथूराम गोडसे की जिंदाबाद के नारे कुछ अधिक तेज थे। सिखों की शिकायत गांधी को विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए लाखों सिखों की मौतों के लिए गांधी को हत्यारा ठहरा रही थी। दूसरी तरफ बौद्ध अपनी अंबेडकरवादी सोच के मुताबिक गांधी को मनुवादी वर्णव्यवस्था का एक झंडाबरदार करार देते हुए उन्हें घोर नस्लवादी साबित कर रहे थे। गांधी की प्रतिमा के सामने एक तरफ तो इस पदयात्रा के साथ चलते हुए लोग पहुंचे थे और कुछ लोग वहां पहले से थे। लेकिन गांधी वादी या भ्रष्टाचार विरोधी लोगों की छोटी भीड़ से आगे लोग तो गांधी को गालियां देते हुए भी थे। एक तरफ दूसरे पदयात्रियों के साथ-साथ मेरा भी सम्मान हो रहा था और हम सभी से कुछ कहने के लिए कहा जा रहा था, दूसरी तरफ गांधी को गालियां देने वाले धीरे -धीरे इस पूरे कार्यक्रम के चारों तरफ घेरा डाल चुके थे और वे नाथूराम गोडसे के नारे को छोडऩे की अपील को भी खारिज कर चुके थे। पास ही अमरीकी पुलिस खड़ी हुई थी और वह दोनों तरफ के लोगों को बिना हिंसा सिर्फ जुबानी और पोस्टरी मतभेद के खड़े हुए नारे लगाते पा रही थी और उसमें अपने दखल का उसे कुछ नहीं लग रहा था।
पिछले कुछ दिनों में हमारे साथ अलग-अलग हिस्सों में पैदल चलने वाले लोग आकर बधाई दे रहे थे कि हमने 240 मील की लंबी पदयात्रा पूरी कर ली, कुछ लोग साथ में तस्वीरें खिंचा रहे थे, और हमारे कुछ पदयात्रियों के परिवार सैकड़ों मील दूर से सफर करके इस मौके के लिए पहुंचे थे। जो छह लोग पिछले पन्द्रह दिनों से रात-दिन साथ चलते और रहते आए थे, न लोगों को यह अहसास भी खा रहा था कि अगले कुछ मिनटों में हम अलग-अलग होने जा रहे थे और उस हिसाब से भी भरी आवाज में हर कोई एक-दूसरे से लिपट रहा था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ इस लड़ाई में फिर किसी दिन हम सब मिलेंगे और आगे बढ़ेंगे। हमारे सबसे बुजुर्ग साथी, 71 बरस के केवल परनामी मुझे याद दिला रहे थे कि मुझे भारत से भ्रष्टाचार विरोधी एक और पदयात्रा का जो न्यौता मिला है वह मैं उन्हें याद से भेजूं। इस पदयात्रा में शामिल होने से इंटरनेट पर इतना नाम या इतना बदनाम हो गया है कि गौहाटी से दिल्ली तक करीब ढाई हजार किलोमीटर की एक पदयात्रा का न्यौता मुझे वहां रहते-रहते पहुंच गया था और केवल सचमुच ही करीब तीन महीने की इस पदयात्रा में दिलचस्पी ले रहे थे। वे अपनी बुजुर्ग पत्नी को दोनों घुटनों के जोड़ बदले जाने के कुछ हफ्तों के भीतर ही घर पर छोडक़र इस पदयात्रा के लिए आए थे और इस एक पखवाड़े को सबसे अधिक आसानी से उन्होंने ही झेला था। पदयात्रा के पहले दिन मैंने विरोध करने वाले सिख और बौद्ध नेताओं को अपना कार्ड देते हुए उनसे अनुरोध किया था कि वे अपने तर्क और अपना पक्ष मुझे ईमेल से भेजें और उनके बारे में लिखने में मुझे खुशी होगी। लेकिन पहले दिन का वायदा आज पांच हफ्तों बाद भी वे पूरा नहीं कर पाए इसलिए उनके नारों से परे उनके तर्कों के बारे में लिखने को मेरे पास अधिक कुछ नहीं है। लेकिन मैं उम्मीद करता हूं कि बर्कले विश्वविद्यालय के जो लोग भारत-पाक विभाजन के इतिहास लेखन के लिए लोगों के इंटरव्यू दर्ज कर रहे हैं उनमें ऐसी और बातें सामने आ सकेंगी और अगर वे किसी किताब की शक्ल में छपेंगी तो भारत में एक और किताब को जलाने का मौका लोगों को मिलेगा।
लेकिन मैं भारत में किसी विचारधारा या शोध पूर्ण विश्लेषण और निष्कर्ष के विरोध की बात जब सोचता हूं तो एक छोटी सी बात मुझे और दिखाई देती है। राजनीतिक रूप से बहुत जागरूक अमरीका के इस इलाके में ढाई बरस पहले जब मैं भारत के नक्सल मुद्दों से जुड़े कई पहलुओं पर अपना एक पेपर पढक़र लौटा था तो मुझे अपनी सोच की वजह से लोगों का कुछ विरोध भी झेलना पड़ा था। शायद उसी में से कुछ लोग इस बार भी मेरा विरोध करने इस पदयात्रा के दौरान प्रदर्शन करने के लिए आने वाले थे। वह तो नहीं हुआ लेकिन फिर भी एक बात मुझे अब भी खटकती है कि ढाई बरस पहले के उस सेमिनार में वहां के जो लोग मुझसे वैचारिक रूप से असहमत रहे, उनमें से बहुत से इस बार मेरे वहां पहुंचने की खबर मुझसे पाने के बाद भी जवाब देने से दूर रहे। ऐसा करने की लोगों की अपनी-अपनी मजबूरी या अपनी-अपनी पसंद और नापसंद भी हो सकती है, लेकिन मैं यह भी सोचता हूं कि क्या यह एक वैचारिक असहमति की वजह से उपजी हुई नापसंदगी है? जो कि भारत के किताब जला देने जैसी हमलावर तो नहीं है लेकिन नापसंदगी तो दिखती है। लेकिन मेरे इस छोटे से महत्व हीन अनुभव से परे दुनिया के इन दो बड़े देशों में लोकतांत्रिक असहमति के लिए समाज में आमतौर पर मौजूद जगहों में खासा फर्क है। अमरीका में शायद वैचारिक असहमति के लिए अराजकता की हद तक आजादी है और वहां घोषणा करके कुरान के पन्ने जलाकर भी कोई बने रह सकता है। दूसरी तरफ भारत की सामाजिक स्थितियां और राजनीतिक दकियानूसीपन शायद इतना तंगदिल है कि इस देश में ऐतिहासिक शोध संस्थानों को साम्प्रदायिक ताकतों के हाथों जलना नसीब है। यही सब सोचते हुए यह पदयात्रा गांधी प्रतिमा पर पूरी हुई। पैर थम गए लेकिन सोचना जारी है। इसके बाद के कुछ दिनों के बारे में शायद एक-दो किस्तें और ....
सुनील कुमार
यह यात्रा भी 1930 की दांडी यात्रा की तरह ऐतिहासिक यात्रा साबित होगी .प्रकाशन के लिए धन्यवाद .
जवाब देंहटाएंरोचक।
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