बाजार और सरकार की मिली-जुली साजिश वाला अमरीका


पिछले दिनों राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी का संस्‍मरण हमने अपने पाठकों के लिए छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित किया था. महत्‍वपूर्ण एवं विश्‍व भर में चर्चित कारवां के बाद सुनील कुमार जी, अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में भारतीय मूल के लोगों द्वारा गांधी की 1930 की ऐतिहासिक दांडी-यात्रा की याद में निकाली गई 240 मील की पदयात्रा में भी शामिल हुए। इस पदयात्रा का संस्‍मरणात्‍मक विवरण दैनिक छत्‍तीसगढ़ के अप्रैल अंकों में प्रकाशित हुआ है. टैक्‍स्‍ट आधारित सर्च इंजनों में चाणक्‍य पीडीएफ समाचार पत्रों के आलेखों की अनुपलब्‍धता के कारण हम इस आलेख को ब्‍लॉगर दस्‍तावेजीकरण करते हुए, यहॉं क्रमश: पुन: प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्‍तुत है दसवीं किस्त ....


 दांडी मार्च-2 के दौरान कुल एक बार ऐसा मौका आया जब ट्रेन में बैठना नसीब हुआ। अमरीका में रेलगाडिय़ों का चलन नहीं के बराबर है। हर कोई अपनी बड़ी-बड़ी निजी कारों पर निर्भर रहता है और लंबी दूरी का सफर लोग विमान से तय करते हैं। ऐसे में सान फ्रांसिस्को शहर में गांधी प्रतिमा पर समापन समारोह के पहले उस इलाके में इस पदयात्रा के कुछ पर्चे वहां आसपास के भारतीय मूल के लोगों को देने के मकसद से एक दिन पहले उस दिन का आखिरी 6 मील का हिस्सा हम लोगों ने वहां जाकर तय किया। इसके लिए पास के एक शहर में पहले 12-13 मील चलने के बाद एक रेल्वे स्टेशन पहुंचे और वहां से ‘बार्ट’ में सवार होकर गए। वहां रेलगाड़ी को बार्ट कहा जाता है और स्टेशन की पार्किंग से लेकर प्‍लेटफार्म और रेल के डिब्‍बों तक काम के दिन में काम के घंटे और शाम के घंटे ऐसे सुनसान पड़े हुए थे मानो रेलगाड़ी का दिवाला निकला हुआ हो। जाहिर था कि लोग वहां रेलगाड़ी के भरोसे जिंदगी नहीं चला सकते हैं। अमरीका में शहर के भीतर और शहरों के बीच सार्वजनिक परिवहन को ऑटोमोबाईल उद्योग ने सोच-समझकर साजिश के साथ तबाह किया ताकि गाडिय़ां बिक सकें। मुझे साथ चलने वाले लोगों ने कहा कि जनरल मोटर्स ने अमरीका की रेलगाडिय़ों को खरीदकर पटरियों को उखाडक़र खत्‍म कर दिया ताकि एक वक्त की अमरीका की यह सबसे बड़ी कंपनी अपनी गाडिय़ों के लिए लोगों को मजबूर कर सके। यह चर्चा मैं बरसों से सुनते आ रहा था और अभी जब इस बारे में लिखते हुए इंटरनेट पर पढ़ रहा हूं तो यह जानकारी मिल रही है कि 1950 के पहले ही जनरल मोटर्स और कुछ दूसरी कंपनियों ने शहरों के भीतर चलने वाली ट्राम गाडिय़ों को खरीदकर उन्‍हें कबाड़ घर भेज दिया और उनकी जगह अपनी बनाई बसों को खपाना शुरू किया। इस साजिश के बारे में कुछ फिल्में बनीं और मीडिया में इसके बारे में लिखा भी गया।
1946 में एक रिटायर्ड नौसेना अफसर ने पूरे देश में इस सबसे महत्‍वपूर्ण जनसुविधा को खत्‍म करने की साजिश का भांडाफोड़ किया। इसके बाद 1949 जनरल मोटर्स और दूसरी कंपनियों के बसों की बिक्री में एकाधिकार खड़ा करने की साजिश का कसूरवार पाया गया और सजा सुनाई गई। लेकिन इस दौरान वहां के 45 बड़े शहरों में बसों की पूरी सर्विस को थोप दिया गया था। और आज वहां गिने-चुने ऐसे शहर हैं जहां पर लोकल ट्रेन या ट्राम बच गई हैं।

अमरीकी कंपनियों के साथ साजिश में हिस्सेदारी करके वहां की सरकार ने टैय्स का ढांचा ऐसा बनाया कि निजी गाडिय़ां लेना और उन पर चलना लोगों के लिए आसान लगने लगा और इससे इन कंपनियों की बिक्री बढ़ी और सार्वजनिक परिवहन को खत्‍म करने की साजिश जारी रही। इस पूरे मामले को ‘ग्रेट अमेरिकन स्ट्रीटकार स्कैंडल’ कहा गया और यह अमरीकी इतिहास में एक बड़े भ्रष्टाचार के रूप में दर्ज है। इस भ्रष्टाचार में रिश्वत का लेन-देन दर्ज हुआ हो या न हुआ हो, बाजार और सरकार मिलकर किस तरह एक देश के चलते-फिरते ढांचे को खत्‍म कर सकते हैं ये देखने लायक मामला है। सरकार और अदालतों की कार्रवाई में जगह-जगह यह लिखा गया कि किस तरह जनरल मोटर्स जैसे एकाधिकारीवादी शैतान की अगुवाई में पेट्रोलियम और टायर कंपनियों ने मिलकर अपने धंधों के लिए गाडिय़ों को बढ़ावा दिया। आज की अमरीका की सडक़ों को देखें तो न्‍यूयार्क जैसे इक्का-दुक्का टापूनुमा शहर को छोड़ दें जहां कि अधिक गाडिय़ों की जगह ही नहीं है तो फिर बाकी पूरे देश में ऐसा लगता है कि आटोमोबाईल उद्योग ही देश का मालिक है। एक-एक इंसान ट्रक जैसी गाडिय़ों में चलते हैं और सैकड़ों मील की दूरी को कोई दूरी नहीं मानता। जब मैंने साथ चल रहे एक साथी से पूछा कि क्‍या बिना गाड़ी कोई यहां जी सकता है, तो उसका कहना था कि मकान और बीवी के बिना तो कोई जी सकता है लेकिन गाड़ी के बिना नहीं। ऐसे देश में जब हम लंबा पैदल चल रहे थे तो वह एक हिसाब से अजीब था और एक हिसाब से नहीं भी था। पैदल चलने के हिसाब से नहीं लेकिन कसरत के हिसाब से लोग वहां दौड़ते और साइकिल चलाते दिखते हैं। कुछ तो मौसम साथ देता है और कुछ कम्‍प्‍यूटरों के धंधों पर जिंदा कैलिफोर्निया में लोगों को काम करने के घंटों का लचीलापन भी बहुत जगहों पर है इसलिए दिन और रात के हर वक्त लोग दौड़ते दिख जाते हैं। खेल के कपड़ों और जूतों का बाजार भी उसी तरह बड़ा सा है।

जो देखा और सुना उसके मुताबिक वहां पर आबादी दो किस्म में बंटी, आंखों से ही दिख जाती है। ऐसे लोग जो खूब कसरत करके अपने बदन को देखने लायक बनाकर रखते हैं, और ऐसे लोग जो खाने-पीने की लापरवाही से अपने बदन का ऐसा हाल कर लेते हैं कि उनके लिए ट्रिपल एक्‍स एल साईज के बाद के कपड़ों की दुकानें अलग रहती हैं। मोटापा इस कदर वहां फैला हुआ है और जिस अफ्रीकन समुदाय के लोगों को अपेक्षाकृत गरीब माना जाता है, उनके बीच भी मोटापा चारों तरफ पसरा दिखता है। यह अतिसंपन्नता की वजह से हो यह जरूरी नहीं है, वहां पर बाजार व्यवस्था में खाने-पीने के तमाम सामान की पैकिंग और उनका आकार इतना बड़ा रखा है कि लोग या तो उसका कुछ हिस्सा जूठा छोड़ देते हैं या फिर जरूरत से अधिक खाकर चर्बी बढ़ाते हैं। और अगर आटोमोबाईल उद्योग की साजिश के साथ लोगों के मोटापे को जोडक़र देखें तो यह बात साफ है कि लोगों को अपने घर के दरवाजे पर ही गाडिय़ां देकर अमरीकी बाजार व्यवस्था उनके जरा भी पैदल चलने की संभावना को कम कर देती है। लेकिन वहां एक नई सोच यह चल रही है कि जो मोटे हैं उनके मोटापे को लेकर समाज के भीतर जो पूर्वाग्रह खड़ा हो रहा है उससे एक नए किस्म का भेदभाव समाज में आ गया है। इसे एक अन्‍यायपूर्ण बात मानते हुए वहां अभी यह चर्चा चल रही है कि मोटापे को समस्या कहकर उसकी चर्चा करना गलत है क्‍योंकि इससे एक तबके के भीतर हीन भावना खड़ी होती है और दूसरे तबके के भीतर मोटे लोगों के लिए हिकारत की बात उपजती है। मैं दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे बड़ी अपराध वाली बाजार व्यवस्था के बीच से गुजरते हुए लगातार यह भी सोचते रहा कि क्‍या मोटापे के लिए यह हमदर्दी उस बाजार ने एक अगली साजिश की तरह तो खड़ी नहीं कर दी है क्‍योंकि बढ़ते ही चले जाने वाला मोटापा बाजार में बढ़ती चली जाने वाली ग्राहकी भी पैदा करता है। जब बाजार की ही बात हो रही है तो एक बात यह भी कि वहां के बाजार ग्राहकों को खरीददारी के लिए उकसाने को क्‍या -क्‍या करते हैं। 


किसी भी दूकान से कोई सामान लें तो अगले पूरे पखवाड़े में कभी भी जाकर उस सामान को लौटाया जा सकता है और न उस पर सवाल होता न कोई दूसरा सामान लेने की मजबूरी होती और उस सामान का पैसा लोगों को उनके क्रेडिट कार्ड पर वापिस भी मिल जाता है। नतीजा यह होता है कि लोग पूरे भरोसे से और पूरी लापरवाही से सामान खरीदते हैं और जाहिर है कि ऐसा बहुत सा सामान वे बाद में रख भी लेते हैं। ऐसे तेज-तर्रार और आक्रामक बाजार में ग्राहक को धीरे - धीरे यह अहसास होना बंद हो जाता है कि वह कब जरूरत से अधिक खरीददारी कर रहा है। मुझे वहां अपने लिए और कुछ दोस्तों की फरमाईश वाले ऐसे सामान लेने थे जो बाजार में जाकर लेने के बजाय इंटरनेट पर घर बैठे क्रेडिट कार्ड से लेना अधिक आसान और खासा अधिक सस्ता होता। मेरे लिए साथ चलते दोस्त अपने फोन के इंटरनेट से ऐसे सामान लेकर उन्‍हें मेरे कुछ दिन बाद के न्‍यूयार्क के पते पर रवाना करते जा रहे थे और उन्‍हें यह फिक्र नहीं थी कि सामान पसंद नहीं आया तो क्‍या होगा क्‍योंकि देश भर में किसी भी जगह उस दूकान में जाकर वह सामान लौटाया जा सकता था। हमारी खासी दिलचस्पी हि‹दुस्तानी दुकानों में थी क्‍योंकि वहां आसपास आते-जाते हिन्‍दुस्तानी ग्राहक दिख जाते थे और उनमें से कुछ हमारे साथियों की बातें सुनने को तैयार भी हो जाते थे। ऐसी दुकानों के बोर्ड वहां हर शहर में हर बस्ती में थे और यह अमरीका की उस खूबी का एक हिस्सा भी थे जिसके तहत किसी भी देश से आए हुए लोग वहां पर अपनी संस्कृति, अपने रीति-रिवाज को पूरी तरह मान भी सकते हैं और उससे किसी शिवसेना या राज ठाकरे की स्थानीय क्षेत्रीय भावना को नुकसान भी नहीं पहुंचता। पदयात्रा पूरी होने के बाद जब न्‍यूयार्क में मैं अपने दोस्त आनंद के साथ घूम रहा था तो उसने शहर के बीच एक ऐसी सडक़ ही दिखाई जिसका नाम कोरिया स्ट्रीट था। वहां की तमाम दुकानें कोरिया से आए हुए लोगों की थीं और उनके तमाम बोर्ड भी कोरिया की ही भाषा में थे। उन पर वहां कालिख पोतने वाला कोई ठाकरे नहीं था। 
क्रमश: ...
सुनील कुमार

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