पिछले दिनों राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे दैनिक छत्तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी का संस्मरण हमने अपने पाठकों के लिए छत्तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित किया था. महत्वपूर्ण एवं विश्व भर में चर्चित कारवां के बाद सुनील कुमार जी, अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में भारतीय मूल के लोगों द्वारा गांधी की 1930 की ऐतिहासिक दांडी-यात्रा की याद में निकाली गई 240 मील की पदयात्रा में भी शामिल हुए। इस पदयात्रा का संस्मरणात्मक विवरण दैनिक छत्तीसगढ़ के अप्रैल अंकों में प्रकाशित हुआ है. टैक्स्ट आधारित सर्च इंजनों में चाणक्य पीडीएफ समाचार पत्रों के आलेखों की अनुपलब्धता के कारण हम इस आलेख को ब्लॉगर दस्तावेजीकरण करते हुए, यहॉं क्रमश: पुन: प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्तुत है ग्यारहवीं किस्त ....
दांडी मार्च-2 शुरू होने के पहले अमरीका के हॉलीवुड वाले शहर लॉस एंजल्स में मेरे पास एक दिन का वक्त खाली था। वहां के आयोजकों ने मुझे एक दिन पहले आने की सलाह इसलिए दी थी कि दांड़ी में 12 घंटे से अधिक का पडऩे वाला फर्क मैं झेल सकूं। दिन की जगह रात, और रात की जगह दिन कुछ लोगों पर भारी पड़ते हैं। लेकिन कुछ बार दुनिया में बाहर जाने से मेरा यह अनुभव हो गया था कि कहीं पहुंचकर दिन में सोने के बजाय अगर सीधे काम पर जुट जाए तो ‘जेट लैग’ कहा जाने वाला यह असर कम होता है। इसलिए मैंने मेरे मेजबान श्रीपाल से कहा कि मैं इस दिन का इस्तेमाल घूमने-फिरने के लिए करना चाहूंगा न कि आराम करके वक्त बर्बाद करने में।
उन्होंने मेरे लिए हॉलीवुड के यूनिवर्सल स्टूडियो का दिन भर का एक टिकट खरीदकर दिया और सुबह वहां पहुंचा दिया। मैं आमतौर पर पर्यटकों की तरह ऐसी दर्शनीय या मशहूर जगहों पर कम से कम जाता हूं लेकिन फिल्मों में अपनी पुरानी दिलचस्पी और फिल्म निर्माण की तकनीक की बहुत हल्की सी समझ के चलते मुझे यह स्टूडियो देखने में दिलचस्पी भी थी। एक पहाड़ी सी जगह पर बसा हुआ यह स्टूडियो एक तरफ तो इसकी बनी हुई फिल्मों की एक झलक ही दिखाता है और दूसरी तरफ यह भी दिखाता है कि आने वाली टेक्नालॉजी किस तरह की है। अब तक सिनेमाघरों में थ्रीडी फिल्में चलती हैं लेकिन यहां पर फोरडी फिल्में दिखाई जा रही थीं। त्रिआयामी से अधिक कोई आयाम कैसे हो सकता है यह कल्पना आसान नहीं थी। लेकिन जब खास बने सिनेमाघरों में फिल्मों के साथ कुर्सियां हिलती हों, कहीं से पानी आकर गिरता हो, कहीं कानों में तेजी से हवा आ जाती हो, कहीं छत और स्क्रीन से कोई कलाकार उतरकर फिल्म के परदे की कहानी के साथ जुड़ जाते हों, कहीं परदे की फिल्म पर बारिश के साथ-साथ सिनेमाघर की छत पर बिजली कौंधने लगती हो तो वह फिल्म देखना नहीं होता, उसका अनुभव करना होता है। वहां के कई सिनेमाघरों में ऐसी खास बनी हुई फिल्में दिखाई जा रही थीं जिनमें परदा और सिनेमाघर एक हो गया था और फिल्म एक नाटक की तरह, स्टंट की तरह जिंदा भी थी। कब परदे से निकलकर कोई मोटरसाइकिल पर हॉल में आ जाता था और कब छत से रस्सी उतरकर कोई परदे में चला जाता था, यह एक हैरान कर देने वाली तकनीक थी । ऐसे सिनेमाघरों में नोटिस लगे थे कि दिल के मरीज और गर्भवती महिलाएं सबसे आखिर की कतार में बैठें, जहां की सीटें नहीं हिलेंगी।
यह स्टूडियो फिल्मों को बनाने के साथ-साथ एक बहुत बड़ा पर्यटन उद्योग बन गया है और 1930 के पहले से यहां पर फिल्में बनना और पर्यटकों को घुमाना दोनों काम चल रहा है। मेरे जैसे नए लोग जब ऐसे आधुनिक और व्यस्त फिल्म उद्योग को उसकी सबसे नई तकनीक के साथ देखते हैं तो लगता है कि फिल्मों की संभावनाएं परदे से परे भी कितनी है। एक वक्त इस स्टूडियो की पहाड़ी और जगह पर बाग-बगीचे भी थे जिनमें होने वाले फल-सब्जी पर्यटकों को बेचे भी जाते थे। लेकिन अब एक कस्बे की तरह बड़ा यह स्टूडियो अब फिल्म निर्माण की जानकारी वहां आए पर्यटकों को देने के साथ-साथ एक ऐसा थीम-पार्क भी है जो कि अमरीका में पर्यटकों के लिए जगह-जगह बने हुए हैं।
दुनिया के कई देशों से आए हुए कई हजार पर्यटक इस स्टूडियो में एक साथ मौजूद थे और इसकी दसियों हजार लोगों को एक साथ समाने की क्षमता उस दिन पूरी इस्तेमाल नहीं हो रही थी। करीब घंटे भर में इस स्टूडियो की सैर कराने वाली 3 डिब्बों वाली बस के लिए खासी लंबी कतार लगती है और इसका एक-एक मिनट लोगों को अलग-अलग नजारे दिखाने वाला रहता है। कहीं एक तालाब में उस शार्क मछली का हमला दिखाया जाता है जो कि बरसों पहले आई ‘जॉज’ (जबड़े) का एक रोमांचक नजारा पेश करती है। इसी तरह एक चर्चित फिल्म ‘जुरासिक पार्क’ का नजारा महसूस कराने के लिए एक सुरंग में ले जाकर बस खड़ी कर दी जाती है और उसकी दीवारों पर इस फिल्म के डायनासॉर झपटकर आते, आपस में लड़ते और बस में बैठे पर्यटकों पर पानी फेंकते दिखते हैं। उनकी चिंघाडऩे की आवाज के साथ जब चारों तरफ से वे झपटते हैं, और पूरी की पूरी बस बुरी तरह से डगमगाने लगती है, आसपास यह दिखता है कि किस तरह एक दानवाकार डायनासॉर ने बस के एक डिब्बे को उठाकर फेंक दिया है तो बस में बैठे पर्यटक चीख पड़ते हैं। यह नजारा ऐसा त्रिआयामी था कि मेरा कैमरा उसके लायक नहीं था, और कोशिश करने पर भी कैमरे के भीतर इसमें से कोई तस्वीर तो नहीं आई, कैमरे के बाहर ‘डायनासॉर’ का फेंका हुआ पानी जरूर आ गया। किसी बस को झिंझोड़ते हुए उस बस से कई गुना बड़ा डायनासॉर किस तरह दिल दहला सकता है इसका अंदाज ऐसी फिल्मों को सिनेमाघर में देखने से नहीं लग सकता क्योंकि वहां पूरा हॉल तो हिल नहीं सकता और यहां किसी खास तरह से बने हुए सुरंग के प्लेटफॉर्म पर पूरी बस मानो भूकंप का शिकार थी।
इस पूरे दिन का दांडी मार्च के साथ रिश्ता इतना ही था कि मैं वहां अमरीका के एक मोबाईल फोन से वहां के अलग-अलग शहरों में बसे अपने दोस्तों से यह बताते चल रहा था कि मैं इस सिलसिले में यहां पहुंचा हूं और वे भी कोशिश करके कम से कम एक दिन के लिए दांडी मार्च में आने की कोशिश करें। उनको यह भरोसा नहीं हो रहा था कि मैं इतना सिरफिरा काम कर सकता हूं और पैदल चलने के लिए हिन्दुस्तान से अमरीका अपने खर्च पर आ सकता हूं। इनमें से कई दोस्त ऐसे थे जिन्होंने इंटरनेट पर मेरे गाजा कारवां को पढ़ा था और उनमें से कुछ को यह लगा कि फिलीस्तीन तक का वह सफर इजराइल और अमरीका के खिलाफ था इसलिए अब मैं प्रायश्चित करने अमरीका पहुंचा हूं। इस एक दिन में दर्जनों दोस्तों से कोई एक दर्जन अमरीकी शहरों में बात हुई और उनमें से कुछ अपने-अपने शहरों में दांडी मार्च-2 के आखिरी दिन होने वाले कार्यक्रम में शामिल होने को तैयार भी हुए। उन लोगों को इस पदयात्रा के लिए मेरा आना जितना अजीब लग रहा था उतना ही अजीब मुझे दांडी मार्च के लिए पहुंचकर यह स्टूडियो देखना लग रहा था। लेकिन यह मार्च शुरू होने के पहले का दिन था और इसके बाद फिर किसी दिन किसी मनोरंजन की कोई गुंजाइश अगले पखवाड़े नहीं निकलनी थी, और नहीं निकली।
दुनिया भर से आए पर्यटकों में से जिन लोगों ने इस स्टूडियो में बनी हुई बड़ी-बड़ी फिल्में देखी थीं वे उन फिल्मों के सेट्स पर दिखाई जाती करतबों का मजा बहुत अधिक ले रहे थे लेकिन उन फिल्मों को देखे बिना भी मैं यहां की एक्शन के एक-एक पल को देखते ही रह गया। ‘वॉटर वल्र्ड’ शायद किसी फिल्म का नाम था और उस फिल्म के सेट को एक स्टेडियम की तरह बनाकर एक साथ हजारों दर्शकों को वहां जिस तरह की एक्शन दिखाई जाती है वह किसी फिल्म के मुकाबले बहुत ही अधिक रोमांचक रही। इस सेट के छोटे से तालाब में जिस तरह बाहर से आकर एक पूरा हवाई जहाज गिरता है वह तकनीकी बारीकी देखने लायक है। स्टूडियो के एक हिस्से में एक विमान दुर्घटना के बाद का नजारा दिखाता हुआ एक पूरा विमान बिखरा पड़ा था। स्टीवन स्पीलबर्ग की किसी फिल्म के लिए यह असली विमान लाकर उसे चूर-चूर करके विमान दुर्घटना पर वह फिल्म बनी थी और यहां पहुंचने वाले लोगों के लिए विमान दुर्घटना का नजारा देखने का जिंदगी का शायद यह इस किस्म का अकेला ही अनुभव रहेगा। फिल्मों के बहुत से पात्रों की तरह बने हुए वहां पर लोग घूम रहे थे और उनके साथ बच्चे- बड़े सभी लोग तस्वीर खिंचाने में भी लगे थे। अमरीका किस तरह एक बहुत ही कामयाब बाजार बना लेता है यह देखना हो तो एक तरफ तो कैलिफोर्निया के इस पश्चिम तट पर इस स्टूडियो जैसी जगह है जहां से कुछ दूरी पर ही उस दिन सुनामी के आने के खतरे के हिसाब से तैयारी चल रही थी और लोगों का समंदर के किनारे जाना रोक दिया गया था।
दूसरी तरफ जब इस दांडी मार्च-2 के खत्म हो जाने के बाद मैं कैलिफोर्निया के पूर्वी तट पर न्यूयार्क पहुंचा तो वहां 11 सितंबर के हमले के शिकार विश्व व्यापार केंद्र की खत्म हो चुकी इमारतों की जगह बन रहे स्मारक के स्मृति चिन्हों की एक सरकारी दूकान ही लगी हुई थी। वहां लादेन के विमानों के हमले से इमारतों के गिरने के साथ-साथ आसपास के जिन पेड़ों से पत्तियां गिर गई थीं, उन पत्तियों की शक्ल के स्मृति चिन्ह भी इस दूकान में थे, जो कि किसी कलाकार द्वारा धातु की प्लेट पर बनाए गए थे। 11 सितंबर के हमले के स्मारक-चिन्हों की बिक्री देखकर मुझे यह भी याद आया कि किस तरह ढाई बरस पहले इसी शहर में अमरीका के मूल निवासियों के एक सरकारी संग्रहालय में आदिवासी कला के सामानों की एक दूकान भी थी। और वहां पर एक दान पेटी लगी हुई थी जिस पर लिखा था कि मूल निवासियों की मदद के लिए कृपया दान दें। मुझे अभी तक उस वक्त के लिखे हुए सफरनामे की याद है जिसमें इस संग्रहालय की इमारत में ही ठीक बगल में अमरीका की दीवाला-अदालत थी जहां पहुंचकर कोई भी व्यक्ति अपने दीवालिए हाल को कानूनी दर्जा दिलवा सकता है। जहां पर खरबपति कंपनियां दीवाला निकालकर सरकार को चूना लगाती हों वहीं पर वहां के मूल निवासियों (भारत की जुबान में आदिवासियों) के संग्रहालय में उन सबसे पहले बाशिंदों के लिए सरकार दान मांग रही थी।
अमरीका हो, ऑस्ट्रेलिया या हिन्दुस्तान , मूल निवासियों का बेहाल शायद एक सरीखा है। और यह बात मुझे उस वक्त भी लगी थी जब अवतार नाम की फिल्म देखकर मैं उसकी समीक्षा लिख रहा था। न्यूयार्क में दुनिया में आतंक के इस सबसे बड़े हादसे को देखने लोग वहां लगातार आ-जा रहे थे, ग्राउंड जीरो कही जाने वाली इस खाली हो गई जमीन पर इमारतें अभी तक बन ही रही हैं और उसके चारों तरफ जिंदगी जारी है। इस एक जगह कुछ घंटे अकेले बैठकर मैं इस स्मारक की इमारतों को भी देखते रहा और अमरीका के खिलाफ हुए इस आतंकी हमले के बारे में, इसके पीछे की वजहों के बारे में और आगे के खतरों के बारे में सोचते हुए, तकरीबन बिना देखते हुए तस्वीरें भी लेते रहा। इस जगह आते-जाते लोगों में हिन्दुस्तानियों का हिस्सा इतना अधिक था कि एक पल को यह भी लगता था कि यह न्यूयार्क न होकर मुंबई है और यहां विदेशी पर्यटक इस पल थोड़े से अधिक दिख रहे हैं। बाद में मेरे दोस्त आनंद ने बताया कि फायनांस सेक्टर में हिन्दुस्तानी बहुत बड़ी संख्या में हैं और यहां आसपास उस तरह के दफ्तर बहुत अधिक हैं।
बाजार के छोटे-छोटे इश्तहार वहां सडक़ों के किनारे बिजली के खंभों पर कील से ठोंक देने का चलन है। कुछ लोगों को यह देखकर हैरानी भी हो सकती है कि किस तरह अमरीका के सबसे विकसित राज्यों में से एक, कैलिफोर्निया में बिजली के शायद अधिकतर खंभे लकड़ी के हैं। ऊंचे-ऊंचे 30-30 फीट लंबे खंभे, किसी एक पेड़ के तने के ही हैं और उन पर बिजली के भारी-भरकम हाई वोल्टेज तार भी टंगे हैं और बिजली के उपकरण भी। ऐसे में इन तनों पर बाजार अपने इश्तहार टांग देता है और उनके निकल जाने के बाद उनकी कीलें इन खंभों पर टंगी रह जाती है और ऐसी दर्जनों तस्वीरें लेते हुए मेरे दिमाग में इनके लिए एक ही बात आती रही-बाजार का सलीब। ईसा मसीह के नाम के साथ जुड़े हुए सलीब के साथ जैसा दर्द जुड़ा हुआ है शायद वैसा ही दर्द एक बाजार व्यवस्था पूरी दुनिया के लिए खड़ा करते रहती है।
क्रमश: अंतिम किश्त ...
सुनील कुमार
हालीवुड की यात्रा अच्छी लगी . 'आरंभ'में प्रकाशित करने के लिए आभार .
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