राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे दैनिक छत्तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी के इस संस्मरण के संपादित अंश बीबीसी हिन्दी में क्रमश: प्रकाशित किए गए हैं. हम अपने पाठकों के लिए सुनील कुमार जी के इस पूर्ण संस्मरण को, छत्तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित करेंगें. प्रस्तुत है पहली कड़ी ...
भारत से लेकर फिलीस्तीन तक का बहुत लंबा सफर जब सड़क के रास्ते से तय करने की बात हुई तो पता लगते ही मुझे लगा कि इस पर जाना ही है। एक तो यह मकसद कि फिलीस्तीनियों के लिए मानवीय सहायता लेकर जाना, दूसरा उन तमाम देशों से होकर गुजरना, जहां मेरा जाना कभी हुआ नहीं था। मेरे दोस्त, 'भोजन के अधिकार' मोर्चे पर सक्रिय भारत के एक प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता बिराज पटनायक से मिली खबर, और सफर में उनका साथ भी। लेकिन पहले दिन से लेकर अगले पांच हफ्तों तक यह अहसास मुझे नहीं था कि यह सफर कैसी-कैसी विसंगतियों, विरोधाभासों और विविधताओं से भरा-पूरा रहेगा। न सिर्फ सड़क के रास्ते तीस दिनों में आधा दर्जन देशों के सफर की बात, बल्कि विचारधारा और आस्था की बात भी इससे ऐसी जुड़ी हुई थी कि बस। अपने घर-दफ्तर से करीब चालीस दिन दूर रहने की कीमत पर भी मुझे आज यही लगता है कि एशिया से गाजा यह कारवां जिसने नहीं जिया, उसने शायद जिंदगी का यह अनोखा मौका खो ही दिया।
इजराइल की मार के आगे दम तोड़ती अपनी पीढिय़ों वाला फिलीस्तीन दुनिया में बेइंसाफी की एक बहुत बड़ी मिसाल है। एक नजरिए से देखें तो अमरीकी विदेश नीतियों और इजराइल की हमलावर नीतियों के सामने जिंदा रहने की लड़ाई लड़ते फिलीस्तीनी टैंकों और हवाई हमलों के मुकाबिले पत्थर लिए खड़ा देश है। अपने घर से बेदखल फिलीस्तीनों को गांधी और नेहरू की हमदर्दी हासिल रही लेकिन आज दुनिया की बाजारू बाजार व्यवस्था में अमरीका-इजराइल एक अधिक समझदारी कारोबारी भागीदार लगने लगे हैं, नेहरू और गांधी के देश को भी। नतीजा यह हुआ कि महीनों पहले से चल रही तैयारी के बाद भी भारत सरकार का रूख इस कारवां के लिए अडिय़ल और बेरूखी का ही रहा।
जिन विसंगतियों और विरोधाभासों की मैंने बात की, उसकी एक बड़ी मिसाल भारत की विदेश नीति रही। गांधी और नेहरू तो फिलीस्तीनियों के हक के बारे में लिखते रहे, इंदिरा गांधी फिलीस्तीन मुक्ति मोर्चे के प्रतीक चिन्ह नेता यासिर अराफात की बहन ही मानी जाती थीं, लेकिन अब उदार अर्थव्यवस्था वाली कांग्रेस अगुवाई की सरकार का हाल यह है कि भारत-इजराइल का शायद सबसे बड़ा कारोबारी-भागीदार है।
नतीजा यह हुआ कि दो दिसंबर को कारवां दिल्ली के राजघाट से कई देशों से पचास से अधिक लोगों के साथ रवाना तो कर दिया गया लेकिन पाकिस्तान की सरकार का वीजा एक दिन बाद मिला। उसे लेकर अमृतसर के आगे वाघा सरहद-चौकी तक पहुंचे तो पता लगा कि भारत सरकार वहां से सरहद पार करने की इजाजत नहीं दे रही। वाघा चौकी पर दिन भर पड़े रहकर कारवां भारत सरकार के खिलाफ नारेबाजी करता लौट गया। दिल्ली पहुंचने के पहले ही रास्ते में लोग रूके क्योंकि भारत सरकार के कई लोगों से सामाजिक मोर्चे के कई लोगों ने दखल देकर इस इजाजत की सिफारिश की थी।
एक दिन बरबाद करके, किसी तरह दिल्ली ने यह इजाजत दी तो कारवां के पास पाकिस्तान के लाहौर में गुजारने के लिए एक पूरा दिन भी नहीं बचा था। पाक सरकार ने कारवां के एक तिहाई लोगों को वीजा से मना कर दिया था, और यह इजाजत भी नहीं दी थी कि वहां से गुजर कर कारवां ईरान जाए। इसलिए महज लाहौर जाने की इजाजत दो तिहाई कारवां को मिली, और वहां के लगभग प्रतीकात्मक दौरे के बाद कारवां दिल्ली लौट गया, हवाई रास्ते से ईरान जाने के लिए।
दुनिया के अधिकांश मुस्लिम देश, शायद पूरी मुस्लिम बिरादरी जिस तरह जख्मी, बेघर फिलीस्तीनियों के साथ हैं, उनसे ठीक उल्टे पाकिस्तान का रुख फिलीस्तीन के लिए बेरूखी का रहा। कारवां के लोग जब दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायुक्त से मिलकर ईरान तक जाने देने के लिए रास्ते की इजाजत की गुजारिश कर रहे थे, तो उन्होंने खुलकर कहा-आपके लिए फिलीस्तीन की आजादी का मुद्दा है, हमारे लिए तो कश्मीर मुद्दा है।
लेकिन एक दिक्कत और थी। पाकिस्तान के भीतर बलूचिस्तान के रास्ते से कारवां का ईरान जाना तय किया गया था। उस बलूचिस्तान में भी आजादी के लिए बागी तेवरों के साथ दहशतगर्दी जारी है और भारत पर यह तोहमत भी लगती है कि वहां की बदअमनी के पीछे इसका हाथ है। पाक उच्चायोग का यह भी कहना था कि कारवां के इतने लंबे सड़क-सफर की हिफाजत का इंतजाम मुमकिन नहीं है।
कारवां की शुरूआत में ही भारत और पाकिस्तान की सरकारों से वीजा और इजाजत के मोर्चे पर जूझने से यह साफ हो गया कि जिन देशों के लिए कोई बीस बरस पहले तक इजराइल अछूत था, उन देशों के लिए आज इजराइल का क्या दर्जा है। गांधी-नेहरू का भारत और इस्लामी पाकिस्तान, इन दोनों के लिए आज यह कारवां अछूत था जो फिलीस्तीनियों के लिए इंसानी मदद की शक्ल में मेडिकल सामान लेकर जा रहा था।
कारवां लौट भी आया, लेकिन भारत सरकार ने इन सामानों को देश के बाहर ही नहीं जाने दिया। सरकार की इजाजत न मिलने से पचीस लाख की जांच-मशीनें दिल्ली में पड़ी रह गईं और इसकी राह देखते कारवां की बसें सर्द देशों में रात-दिन सफर करती रहीं। विश्व बाजार व्यवस्था में फिलीस्तीनियों के लिए ऐतिहासिक हमदर्दी और एकजुटता किस तरह हवा हो गई है यह कारवां के पहले देश भारत-पाक से भी समझ आया और आखिरी देश इजिप्ट से भी।
विदेश नीति के इतिहास के साथ आज का यह टकराव उस हिन्दुस्तान में तो हिंसक लगता है जहां गांधी हिंसा को बर्दाश्त करने को भी हिंसा मानते थे और फिलीस्तीनियों के साथ थे। लेकिन ये विसंगति और विरोधाभास सरकारों के कल और आज तक सीमित नहीं थे, खुद कारवां के भीतर ऐसे कई टकराव थे। (बाकी अगली किस्तों में)।
सुनील कुमार
सुनील कुमार
कारवां के वृत्तान्त को समाचार पत्र में पढते हुए आख़िरी किश्त का इंतज़ार कर रहे हैं ! पूरा पढ़ लें तो टिप्पणी करें !
जवाब देंहटाएंआपने अच्छा किया जो इसे ब्लॉग में प्रकशित कर दिया !
देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध कोई यात्रा निकाली जाये। बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना।
जवाब देंहटाएंप्रवीण जी से सहमत
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