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दुनिया के बाकी तमाम विकसित देशों की तरह अमरीका एक बड़ा साफ-सुथरा और खूबसूरत देश है। लोगों की जिंदगी में साफ-सफाई की आदत है और आमतौर पर लोग जरा सा भी कचरा डालने घूरे के डिब्बे तक चलकर जाते हैं। लेकिन इसमें एक अलग नौबत तब दिखाई पड़ती है जब बेकार लोग सडक़ किनारे दिखते हैं। इनमें से अधिकांश अधिक उम्र के हैं और इनमें आदमी अधिक दिखते हैं, औरतें कम। इनके सामान अक्सर किसी बड़े सुपर बाजार के भीतर ग्राहकों के लिए रखी गई ट्रॉली पर लदे दिखते हैं और ऐसे सामानों में मोटे कपड़े और कंबल शायद इसलिए अधिक रहते हैं कि इन्हें खुले आसमान तले ठंड में रहना होता है। इनमें से कुछ लोग न्यूयार्क के सबवे में जमीन के नीचे बने रेल्वे स्टेशनों में भी दिखे जहां कि ठंड कुछ कम रहती है और मौसम की बाकी मार भी। ऐसा ही एक इंसान वहां पर एक तख्ती लिए दिखा- आई लव न्यूयार्क । ढाई बरस पहले जब मैं कैलिफोर्निया के ही बर्कले विश्वविद्यालय के सेमिनार में बुलाया गया था तब भी वहां के लोगों ने मुझे बताया था कि शहर के एक बड़े बगीचे पर बेकार लोगों ने पूरी तरह से कब्जा कर लिया था और राजनीतिक रूप से बहुत ही जागरूक और अपनी वामपंथी विचारधारा के लिए जाना जाने वाला बर्कले बगीचे से ऐसे बेबस लोगों का कब्जा हटाने के पक्ष में भी नहीं था। नतीजा यह था कि ये लोग वहां बसे हुए थे और बगीचे को खाली कराना आसान नहीं था। यह ऐसा शहर था जहां पर उन दिनों विश्वविद्यालय के अहाते के पेड़ों को कटने से रोकने के लिए वहां के छात्र -छात्राएं बड़ी संख्या में उन पेड़ों पर चढक़र बस गए थे और उन्हें वहां जीते हुए शायद कुछ महीने हो रहे थे। विश्वविद्यालय की पुलिस ने उन्हें हटाने की तमाम कोशिशें कर ली थीं लेकिन आखिर में उन पेड़ों को शायद काटा नहीं जा सका।
बेकार लोगों की बात मैं समझने की कोशिश कर रहा था लेकिन इस बार मेरे साथ चले लोगों में से किसी का बेकार लोगों का सीधा वास्ता नहीं था, और पिछली बार मुझे यह भी सुनने मिला था कि कुछ लोग आदतन बेकार रहना पसंद करते हैं क्योंकि सरकार ने उनके लिए जो इंतजाम किए भी हैं उन्हें वे अपनी आजादी में खलल मानते हैं और अपनी मर्जी से रहना चाहते हैं। यह तर्क हिन्दुस्तान में भी फुटपाथी बच्चों के लिए बनाए गए रैनबसेरों को लेकर सुनाई पड़ता है जहां बच्चे अधिक टिकते नहीं हैं और अपनी आजादी के लिए वे बार-बार से वहां से भाग निकलते हैं। बर्कले विश्वविद्यालय में एंथ्रोपोलॉजी पढ़ाने वाले मेरे दोस्त प्रो. लॉरेंस कोहेन की एक छात्रा ऐसे बेकार लोगों पर पीएचडी कर रही हैं, और लॉरेंस ने मुझसे ईमेल पर उसकी मुलाकात करवाने का वायदा किया था, लेकिन-...चलो बस हो चुका मिलना, न तुम खाली न हम खाली,..., के अंदाज में शायद न उन्हें याद रहा और मैं याद दिला पाया, इसलिए बेकार लोगों की चर्चा में आज इससे अधिक कोई समझ मेरे पास नहीं है।
बहुत से लोग जगह-जगह घूरों के डिब्बों के भीतर से तरह-तरह के सामान निकालकर, छांटकर ले जाते भी दिखे और खाते हुए भी दिखे। लेकिन उनका हुलिया वहां के बहुत से दूसरे लोगों की ही तरह का था और कचरे के डिब्बों में उन्हें झुका हुआ न देखें तो यह अंदाज लगाना मुश्किल होगा कि वे कामकाजी हैं या कचरे में से कुछ बीनने वाले हैं। शायद इसी वजह से एक दिलचस्प वाकया मेरे साथ दांडी मार्च-2 के दौरान यह हुआ कि सान फ्रांसिस्को के पास एक शहर में जब सुबह हम एक बगीचे से पदयात्रा शुरू करने पहुंचे तो अपने सारे सामान के साथ मैं बगीचे की पार्किंग में फुटपाथ पर बैठकर बाकी लोगों के आने का इंतजार कर रहा था। इसलिए कि पदयात्री अलग-अलग घरों में बंटकर रूकते थे ताकि सुबह तैयार होने में देर न हो। मुझे फुटपाथ पर सामान सहित बैठे देखकर वहां टहलने निकली एक बुजुर्ग चीनी महिला चलकर आई और अपने हाथ का पैकेट मेरी ओर बढ़ाकर बोली-क्या कुछ केक खाना पसंद करोगे? मुझे यह तो समझ आ गया कि वह मुझे फुटपाथ पर जी रहा बेकार समझ रही थी, मेरे आसपास के सामान की वजह से, और शायद वहां बैठे मैं अपने पैरों की तीमारदारी कर रहा था इसलिए भी।
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ढाई बरस पहले के अमरीका प्रवास के दौरान मैं बर्कले में यह देखकर हक्का-बक्का रह गया था कि एक नौजवान और खूबसूरत लडक़ी हाथ में एक तख्ती लिए एक रेस्त्रां के शीशों के बाहर खड़ी थी और उसका तख्ती पर बड़ी अश्लील बात लिखी हुई थी कि वह एक खाने के एवज में क्या करने के लिए तैयार है। वैसा तकलीफदेह कोई नजारा इस बार सामने नहीं आया। अमरीकी फुटपाथ और वहां की शहर के भूमिगत रेल्वे स्टेशन ऐसे लोगों से भरे हुए दिखते हैं जो कि तरह-तरह का संगीत पेश करके लोगों से बिना भीख मांगे एक किस्म की बख्शीश बाते रहते हैं। इनमें से बहुत से ऐसे संगीतकार होते हैं जो अपनी खुद की सीडी या डीवीडी बनाकर बिक्री के लिए सामने रख देते हैं और आते-जाते लोग 5 या 10 डॉलर की यह सीडी उठाकर उतने पैसे एक बय्से में डालते हुए आगे निकल जाते हैं। इस तरह संगीत का एक हुनर लोगों को खासी रोजी दिला देता है। लोग अगर कुछ देर भी वहां रूककर गाना सुनते हैं तो एक डॉलर का नोट वहां डालकर ही आगे बढऩे वाले लोग काफी रहते हैं। दिन भर में अगर ऐसा एक संगीतकार सौ-पचास डॉलर कमा लेता होगा तो मुझे हैरानी नहीं होगी। इसी तरह लोगों के स्केच बनाकर कुछ कमा लेने वाले लोग भी सडक़ों किनारे जगह-जगह दिखते हैं। फिलीस्तीन के गाजा में एक बहुत सर्द सुबह नंगे पैर बचचों की भीड़ सिक्के मांगते हमारे आसपास थी।
अमरीकी कानून या सामाजिक व्यवस्था में इस तरह के कोई बच्चे या कोई बाल मजदूर इन दो प्रवासों में गुजारे पांच हफ्तों में एक बार भी मुझे देखने नहीं मिले। जबकि कुछ ऐसे शहरों से भी हम गुजरे जहां पर व्यापार कमजोर होने से बाजार में दर्जनों इमारतें खाली पड़ी थीं और जो किरायेदार ढूंढ रही थीं या बिकने की मुनादी कर रही थीं। लेकिन अमरीका का मेरा अनुभव वहां के एक सबसे संपन्न प्रदेश कैलिफोर्निया और दूसरे सबसे संपन्न शहर न्यूयार्क , और एक बड़े पर्यटन केंद्र फ्लोरिडा जैसी जगहों का ही था। हो सकता है कि बाकी का अमरीका इतना चमकदार न हो। इसी चमकदार अमरीका में तो मुझे वहीं के किसी संगठन द्वारा लगाया गया वह बड़ा सा बोर्ड दिखा था जिसमें लिखा था कि हर छठवां अमरीकी भूख का शिकार है। और यह लिखते-लिखते ही मुझे याद पड़ता है कि बर्कले के आसपास के किसी इलाके में वहां की मेरी एक दिन की मेजबान आभा शुक्ला किसी गरीब बस्ती में लोगों को खाना देने के लिए जाने वाली थीं और अपनी पदयात्रा के चलते मैं चाहकर भी उनके साथ नहीं जा पाया था। लेकिन जिस तरह भारत के सबसे चमचमाते हिस्सों में भी भीख मांगते बच्चों की भीड़ लगी दिखती है, वैसा एक भी बच्चा इन पांच हफ्तों में अगर न दिखे तो वह उस देश के लिए एक अच्छी बात तो है ही।
कमश: ....
सुनील कुमार
बहुत अच्छा लग रहा है यह श्रृंखला पढ़ना।
जवाब देंहटाएंकुछ उभरा, कुछ दबा देश।
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