जीमेल में ईमेल कैसे भेजें


ई-मेल का उपयोग करना वर्तमान समय में कोई बड़ी बात नहीं है किन्‍तु जो इसके लिये नये हैं उनके लिए जीमेल खाते से ईमेल भेजने की क्रमिक जानकारी हम यहां अपने पाठकों के लिए प्रस्‍तुत कर रहे हैं। इंटरनेट उपयोग करने वालों के लिए यद्धपि इस पोस्‍ट की कोई उपयोगिता नहीं है किन्‍तु मेरे कुछ मित्रों का अनुरोध था इसलिये इसे प्रस्‍तुत किया जा रहा है -
आपके Gmail खाते से ईमेल संदेश कैसे भेजें
1. एक्‍सप्‍लोरर, क्रोम, सफारी या फायर फाक्‍स ब्राउज़र के एड़ेस बार में www.gmail.com टाइप करें और एंटर की प्रेस करें या माउस क्लिक करें।
2. अपना पासवर्ड आईडी डालें।
3. अपने मित्र को ई-मेल भेजने के लिए नीचे दिए गए चित्रानुसार 'कम्‍पोज' बटन को क्लिक करना होगा।

4. यहां सर्वप्रथम जिसे ई-मेल भेजना है उसका पूरा पता लिखना होगा, सब्‍जेक्‍ट खाने में संदेश का विषय लिखना होगा व उसके नीचे दिए गए संदेश बक्‍से में संदेश लिखना होगा, या पहले से किसी फाईल में लिखे संदेश को यहां पेस्‍ट करना होगा-

5. आप अपने संदेश के शब्‍दों को को माउस से सलेक्‍ट कर, रंगबिरंगा एवं बोर्ड, इटालिक आदि रूपों में टैक्‍स्‍ट फारमेटिंग बार का उपयोग कर सजा सकते हैं।  जिसमें बोल्ड और / या इटैलिक. फ़ॉन्ट का आकार और फ़ॉन्ट प्रकार . चयनित पाठ में रंग . पाठ हाइलाइटिंग . वेब पता (URL) लिंक . इमोशन . बुलेटेड आदि -

यहां सामान्‍य टेक्‍स्‍ट में संदेश लिख सकते हैं या  उपर दिये गये टैक्‍स्‍ट फारमेटिंग बार के सहारे संदेश में वेब लिंक, बोलते चित्र और अंग्रेजी के विभिन्न फोंटों का प्रयोग करते हुए संदेश लिख सकते हैं। यहां एक बात उल्‍लेखनीय है कि यदि आप चाहें तो अपने संदेश को बिना भेजे सेव भी कर सकते हैं, जिसे आप बाद में कुछ अतिरिक्‍त जोड़कर या कम करके पुन: भेज सकते हैं। देखें उपर 'सेव नाव' का विकल्‍प है।
जी मेल में मेल पढ़ना - हमें प्राप्‍त सभी मेल सामान्‍यत: हमारे इनबाक्‍स में होते हैं जिसमें से बिना पढ़े या नये आये मेल की संख्‍या लिखी होती है। हमें प्राप्‍त मेल को पढ़ने के लिए इनबाक्‍स को क्लिक करें, यहां मेल भेजने वाले का नाम व उसका सब्‍जेक्‍ट लाईन नजर आता है, यहां नये मेल या एसे मेल जिन्‍हें हम पढ़ नहीं पाये हैं वे बोल्‍ड अक्षरों में नजर आते हैं। 
हमें जिस मेल को पढ़ना है उसे क्लिक करने पर वह मेल खुलता है, उसे पढ़ने के बाद यदि आपको लगता है कि उसका प्रतिउत्‍तर देना है तो मेलबाक्‍स के नीचे रिप्‍लाई मेलबाक्‍स में संदेश लिखकर प्रतिउत्‍तर दिया जा सकता है। कई मेल सेदेश ऐसे होते हैं जो हमारे साथ ही अनेकों लोगों को एक साथ भेजे गए होते हैं ऐसे मेल संदेशों को रिप्‍लाई के लिए जीमेल में एक और विकल्‍प है जिससे आप उन सभी व्‍यक्तियों को एक साथ रिप्‍लाई कर सकते हैं इसके लिए आपको मेलबाक्‍स के उपर रिप्‍लाई के बाजू के डाउन एरो को क्लिक करना होगा जिसमें रिप्‍लाई टू आल विकल्‍प को चुनने से आपके द्वारा लिखा संदेश(प्रतिउत्‍तर) सभी को प्राप्‍त होगा। यदि आप रिप्‍लाई नहीं देना चाहते तो दूसरे मेल को पढ़ने के लिए पुन: इनबाक्‍स को क्लिक करें।

मेल को डिलीट करना - यदि आप अपने मेल बाक्‍स के संदेशों को हटाना चाहते हैं तो इसके लिए दो प्रकार का विकल्‍प उपयोग में लाया जाता है जिसे नीचे के चित्र में समझाया गया है। 1. यदि आप किसी एक मेल को डिलीट करना चाहते हैं तो जिस मेल को डिलीट करना है उस मेल के सामने छोटे से बाक्‍स में क्लिक करें और मेलबाक्‍स के उपर डिलीट की को क्लिक करें। 2. व 3. यहां बल्‍क आप्‍शन भी उपलब्‍ध है जिसके लिए आप आरकाइव के बाये बिलो एरो बटन को क्लिक करें वहां एक छोटा विंडो खुलेगा वहां आप सभी, पढ़े गए, बिना पढ़े गए जैसे मेलों को एक क्लिक से सलेक्‍ट कर सकते हैं और उन्‍हें 4 एकसाथ डिलीट कर सकते हैं -    

मेल में सिगनेचर डालना - यदि आप अपने द्वारा भेजे गए प्रत्‍येक मेल संदेश के साथ अपना नाम, कोई कोटेशन और अपने वेब या ब्‍लॉग का पता डालना चाहते हैं तो इसके लिए जीमेल के सेटिंग में इसे एक बार डालना होता है उसके बाद जब भी आप किसी को मेल करते हैं यह सिगनेचर आपके मेल संदेश के नीचे में जुड़ जाता है। इसके लिये जीमेल के दाहिने कोने पर सेटिंग को क्लिक करें। इसेनीचे दिये गए चित्र में दर्शाया गया है -

इसे क्लिक करते ही सेटिंग पेज खुलेगा जिसमें नीचे दिये गए चित्रानुसार एक बक्‍सा दिखेगा, इस बक्‍से में अपना नाम, कोई कोटेशन और अपने वेब या ब्‍लॉग का पता डाल सकते हैं जैसे मैंनें डाल रखा है -  

यहां सामान्‍य टेक्‍स्‍ट में संदेश लिख सकते हैं या  उपर दिये गये टैक्‍स्‍ट फारमेटिंग बार के सहारे संदेश में वेब लिंक, बोलते चित्र और अंग्रेजी के विभिन्न फोंटों का प्रयोग करते हुए संदेश लिख सकते हैं। यहां एक बात उल्‍लेखनीय है कि यदि आप चाहें तो अपने संदेश को बिना भेजे सेव भी कर सकते हैं, जिसे आप बाद में कुछ अतिरिक्‍त जोड़कर या कम करके पुन: भेज सकते हैं। देखें उपर सेव नाव का विकल्‍प है।
मेरे ब्‍लॉग तकनीक पोस्‍टों को देखने के लिए यहॉं क्लिक करें. 
संजीव तिवारी  

ब्‍लॉग ट्रिक : ब्‍लाग से नवबार (Navigation Bar) को हटाना

How To Remove Blogger Navigation Bar in Draft Template Designer ब्लागर डाट काम में जो ब्‍लॉगर साथी, ब्‍लॉगर के द्वारा उपलब्‍ध कराए गए टैम्‍पलेट का उपयोग कर रहे हैं, उनमें से कई ब्‍लॉगर संगी ब्‍लॉग के उपर में ब्‍लागर के नवबार को हटाने के संबंध में अक्‍सर प्रश्‍न पूछते रहते हैं।



ब्‍लागर के नवबार को हटाने से ब्‍लॉग का लुक कुछ वेबसाईट जैसा लगता है एवं उपर हेडर के लिए कुछ अतिरिक्‍त स्‍थान मिल जाता है। हम इस पोस्‍ट में आपको न्‍यू ब्‍लॉगर टैम्‍पलेट डिजाइनर के माध्‍यम से ब्‍लागर के नवबार को हटाने का जुगाड़ बता रहे हैं -

ब्‍लॉगर में लागइन होवें - डैशबोर्ड (Dashboard) - डिजाइन (Design) - टेम्‍पलेट डिजाइनर (Template Designer) - उन्‍नत (Advanced) - CSS जोड़ें (Add CSS)

यहां नीचे दिये गये कोड को कापी कर, पेस्‍ट कर देवें -
#navbar-iframe {display: none !important;}
अब उपर दायें कोने पर ब्‍लॉग पर लागू करें (Apply to Blog)  को क्लिक करें, देखें आपके ब्‍लॉग से ब्‍लागर नवबार हट गया है -


मेरे जुगाड़ू ब्‍लॉग तकनीक यहां देखें, कोड कापी नहीं हो रहा है ? .. इस पोस्‍ट को मेरे वर्डप्रेस ब्‍लॉग में देखें।

ब्‍लाग ट्रिक Attribution कापीराईट विजेट को हटाना

How to Remove Attribution Widget / Copyright widget line at the bottom on Blogger      यदि आप अपने ब्‍लॉग में ब्‍लॉगर के  Template Designer से टैम्‍पलेट चुन कर लगाया है तो आपके ब्‍लॉग के एकदम नीचे Attribution कापीराईट विजेट नजर आता है ऐसा -



इसमें आप अपना नाम डाल सकते हैं किन्‍तु इसे आप हटाना चाहेंगें तो यह विजेट हटता नहीं है क्‍योंकि इसे एडिट करने पर यहां रिमूव का विकल्‍प नहीं होता -



तो लीजिए हम इसे हटाने का जुगाड़ क्रमिक रूप से बतलाते हैं - अपने ब्‍लॉगर आईडी के साथ लागईन होवें > डैशबोर्ड > डिज़ाइन > एडिट एचटीएमएल यहॉं एक्‍सपांड विजेट टैम्‍पलेट के सामने दिये गये छोटे बाक्‍स को क्लिक करें -



अब  नीचे जो एचटीएमएल कोड नजर आ रहा है उसमें  "attribution" शब्‍द को फाइन्‍ड विकल्‍प से खोजें. यहां Attribution widget code कुछ ऐसा दिखेगा -



यहां "true" के स्‍थान पर  "false" लिखें, अब कोड बाक्‍स के  नीचे दिये गए टैम्‍पलेट सेव बटन को क्लिक कर सेव करें.  पुन: वापस  > पेज इलेमेंट में जाए,  अब Attribution कापीराईट विजेट को एडिट करके देखें -



अब यहां रिमूव बटन का विकल्‍प आ गया है, रिमूव को क्लिक करें  Attribution कापीराईट विजेट हट जायेगा, यदि आप इसे हटाना नहीं चाहते तो यह विजेट आपके ब्‍लॉग के साईड बार या अन्‍य बार में आपके पसंद की जगह मूव भी हो जायेगा.

संजीव तिवारी

मुझे माफ कर मेरे हम सफर ....


दीपक, तुमने मेरे लोगों के विरूद्ध हो रहे निरंतर अत्याचार के विरूद्ध लिखने के लिए बोला और मैं अपनी समस्याओं और मजबूरियों का पिटारा खोल बैठा .. तो क्या करू मेरे भाई मेरे देश का प्रधान मंत्री जब इस कदर निरीह और लाचार होकर राष्ट्रीय प्रसारणों में बोलता है तो मैं तो एक साधारण सा कलमकार हूं, मुझे तो समस्‍याओं से मुह मोड़ने का अधिकार है। हॉं जिस दिन मैं अपने आपको इन सब प्रमेयों से दूर इंसान समझने लगूंगा उस दिन इस मसले पर अवश्य लिखूंगा क्योंकि कलमकारी में भी अब राजनीति हावी है इसलिए इसके अर्थ पर संवेदना की आस मत कर।

संजीव तिवारी

दीपक तुमने आज केवल छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री को पत्र नहीं लिखा है, इसके मजमूनों में तुमने हमस सब को लपेटा है जो किसी ना किसी रूप में इस सिस्टम के मोहरें हैं ... पर क्या करें मेरे भाई, हमारे सामने हमारी बेटियॉं लुट रही हैं और हमारे मुह पर ‘पैरा बोजाया’ हुआ है। हम मजे से मुह में दबे पैरे को कोल्हू के बैल की तरह ‘पगुराए’ जा रहे हैं क्योंकि हममें सिर उठाकर ‘हुबेलने’ की हिम्मत नहीं है, क्योंकि हमारे पेट में दिनों से भूख ने सरकारी जमीन समझ कर एनक्रोचमेंट कर झोपड़ी बना लिया है। हमें शासन व पुलिस के कोडे और कूल्हेू में चुभने वाले ‘तुतारी’ का भी भय है। हम चाहकर भी ‘मरकनहा बईला’ नहीं बन पा रहे हैं और सिर नवाए जुते जा रहे हैं। तुममे माद्दा है, तुममे जोश और उत्साह है तुमने जनता की संवेदना उकेरी है अपने पत्र में। इसके बावजूद मेरे रगो में अपनो के प्रति हो रहे अन्याय के विरूद्ध खून नहीं खौल रहा है। सिस्टम नें हमारे खूंन को फ्रिज करके रखा है, सिर्फ अपने और अपने परिवार वालों के भरण पोषण और विलासिता की चीजें बटोरने के अतिरिक्त कुछ और सोंचने का समय ही नहीं दिया है।

तुमने मेरे अंतरमन में छुपे बैठे कवि और लेखक को भी ललकारा कि, मैं कुछ लिखूं किन्तु क्या करूं मुझे अभी अपनी नई किताब के प्रकाशन के लिए सरकार से मोटी रकम उगाहना है। यदि मैंनें इस पर कुछ लिखा तो मेरी किताब लफड़े मे पड़ जाएगी। सरकार और पुलिस की वक्र दृष्टि से मुझे अगले वर्ष मिलने वाला राज्य पुरस्कार भी नहीं मिल पायेगा। मेरे प्रोपोगंडा के गोष्ठियों में संस्कृति विभाग किसी भी प्रकार की सहायता नहीं देगा, मंत्रीगण मुख्य अतिथि नहीं बनेगें और मुझे अपने महान लेखक और कवि होने का चोला सम्हालना मुश्किल हो जावेगा। .. इसलिये दीपक मेरे भाई मुझे कुछ लिखने को मत बोल।


तुमने मेरे ब्लॉगिंग को ललकार कर मेरी रही सही अस्तित्व पर भी कुल्हाड़ी चला दिया, भाई मैं ब्लॉगिंग अंग्रेजी ब्लॉगों की तरह किसी सार्वजनिक मुहिम के लिए नहीं करता किन्तु निजी मुहिम के लिए करता हूं, मुझे उन्हीं विषयों पर पोस्टे लिखना है जिनसे भेंड बकरियां मेमियाये और टिप्पणियों की बौछार लग जाए। मेरी ब्लॉगिंग भी एक प्रकार की राजनीति है जिसमें मैं जुगाड़ और चापलूसी तकनीकि का प्रयोग करता हूं। छत्तीसगढ़ की ग्रामीण असहाय बालिका के बलत्कार पर लिखने से मेरी पोस्टों को सत्ता के नुमाइंदे पढ़ना बंद कर देंगें, एसी पोस्टें चिट्ठा चर्चों में स्थान भी नहीं पायेंगी ... और मेरे ब्लॉग का रेंक भी बढ़ नहीं पायेगा और प्रदेश में मिलने वाले सम्मान या पुरस्कार जिसमें आजकल पुलिस प्रमुख ही मुख्य अतिथि होते हैं वे पुरस्कार व सम्मान भी मुझे नहीं मिल पायेंगें। सच मान मेरे भाई मुझे इस ब्लॉगिंग के सहारे नोबल पुरस्कार प्राप्त करने की लालसा है इसलिए तू मुझे उस असहाय निरीह बालिका के संबंध में लिखने को मत बोल।


भाषा पर आक्रमण

छत्‍तीसगढि़या सबले बढि़या

क्षेत्रीय भाषा छत्‍तीसगढ़ी पर हो रहे बेढ़ंगे प्रयोग से मेरा मन बार बार उद्वेलित हो जाता है, लोग दलीलें देते हैं कि क्‍या हुआ कम से कम भाषा का प्रयोग बढ़ रहा है धीरे धीरे लोगों की भाषा सुधर जाएगी किन्‍तु क्‍यूं मन मानता ही नहीं, हिन्‍दी में अंग्रेजी शब्‍दों नें अतिक्रमण कर लिया है किन्‍तु उन शब्‍दों के प्रयोग से भाषा यद्धपि खिचड़ी हुई है पर उसके अभिव्‍यक्ति पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा है। किन्‍तु छत्‍तीसगढ़ी के शब्‍दों को बिना जाने समझे कहीं का कहीं घुसेड़ने से प्रथमत: पठनीयता प्रभावित होती है तदनंतर उसका अर्थ भी विचित्र हो जाता है। वाणिज्यिक आवश्‍यकताओं नें धनपतियों व बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनियों को क्षेत्रीय भाषा के प्रति आकर्षित किया है वहीं गैर छत्‍तीसगढ़ी भाषा-भाषी क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग से प्रदेश के प्रति अपना थोथा प्रेम प्रदर्शित करने की कोशिस कर रहे हैं। मेरा आरंभ से मानना रहा है कि यदि आपको छत्‍तीसगढ़ी नहीं आती है तो इसे सीखने का प्रयास करें किन्‍तु बिना छत्‍तीसगढ़ी सीखे छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों का गलत प्रयोग ना करें। पिछले दिनों प्रदेश के प्रसिद्ध कथाकार सतीश जायसवाल जी नें अमृता प्रीतम की कहानियों में छत्‍तीसगढ़ व ढत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों के प्रयोग के संबंध में लिखा है जिसे पुरातत्‍ववेत्‍ता व संस्‍कृति कर्मी राहुल सिंह जी नें भी प्रवाह दिया है। जिसमें उन्‍होंनें लिखा है कि अमृता प्रीतम जी नें छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों का सटीक प्रयोग किया है किन्‍तु वर्तमान में देखने में आ रहा है कि लोग कुछ भी कहीं भी छत्‍तीसगढ़ी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं एवं हमारी भाषा का न केवल अपमान कर रहे हैं बल्कि हमारा भी अपमान कर हे हैं इसके लिये सभी छत्‍तीसगढिया भाषा-भाषी लोगों को विरोध में स्‍वर उठाना चाहिए। मैंनें इसके पूर्व छत्‍तीसगढ़ की विदूषी कथाकारा जया जादवानी की एक कहानी में छत्‍तीसगढ़ी भाषा के गलत प्रयोग के संबंध में 'भाषा के लोकतंत्र की रक्षा का दायित्व हर भाषा-भाषी के ऊपर है' लिखा था जो क्षेत्रीय समाचार पत्रों के संपादकीय पृष्‍टों में प्रकाशित भी हुआ था।

कुछ दिन पहले आइडिया मोबाईल नें अभिषेक बच्‍चन के चित्रों के साथ बड़े बड़े होर्डिंग में छत्‍तीसगढ़ी भाषा में विज्ञापन प्रदर्शित किया था उसी की देखा देखी वोडाफोन नें अब छोटी छोटी तख्‍ती अपने फुटकर रिचार्ज वाले पीसीओ, दुकानों व पान ठेलों में लगाया है जिसमें अंग्रेजी के वोडाफोन मोनों के साथ छत्‍तीसगढ़ी में लिखा है ‘एती मिलत हावे.’ छत्‍तीसगढ़ी भाषी एक नजर में इसे नकार देगा। इधर मिलता है, किधर मिलता है भाई, ये कहो जहां तख्‍ती लगा है वहां मिलता है यद्धपि कम्‍पनी इसका मतलब ‘यहां मिलता है’ से लगा रही है। सही भाषा में इसे ‘इहॉं मिलथे’ ‘इहॉं मिलत हावय’ होना चाहिए। ‘एती’ शब्‍द का शाब्दिक अर्थ ‘इधर’ होता है, प्रयोग में यहॉं के लिए ‘एती’ शब्‍द की जगह ‘इंहॉं’ ज्‍यादा प्रचलित है एवं ग्राह्य है। छत्‍तीसगढ़ी हिन्‍दी शब्‍दकोश में डॉ.पालेश्‍वर शर्मा जी ‘एती (विशेषण)’ का ‘एतेक’ के संदर्भ में अर्थ बतलाते हैं  ‘इतना’ व ‘एती (क्रिया विशेषण)’ का मतलब बतलाते है ‘इस ओर’ यानी ‘एती’ किसी निश्चित स्‍थान को इंगित नहीं करता। इसी प्रकार छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दकोश में चंद्रकुमार चंद्राकर जी ‘एती (विशेषण)’ का मतलब ‘इधर’ लिखते हैं जो निश्चिचताबोधक नहीं है। अभी बुधवार 16 फरवरी के भास्‍कर के मधुरिमा परिशिष्‍ठ में छत्‍तीसगढ़ी की सुप्रसिद्ध भरथरी (लोकगाथा) गायिका एवं भास्‍कर वूमन ऑफ द ईयर सुरूज बाई खाण्‍डे के संबंध में आशीष भावनानी ने बहुत सुन्‍दर जानकारी प्रकाशित की है किन्‍तु लेखक नें यहां भी वही गलती की है, उन्‍होनें अति उत्‍साह में ‘यही है’ के स्‍थान पर छत्‍तीसगढ़ी भाषा में लिखा ‘ए ही हवै’ सुरूजबाई. जो अटपटा सा लग रहा है। मेरे अनुसार से यहां ‘इही आय’ ही सटीक बैठता है,  ‘हवय’ का मतलब यद्धपि ‘है’ से है किन्‍तु हवय का प्रयोग किसी के पास रखी वस्‍तु के लिए किया जाता है किसी के परिचय के लिए नहीं। अगली पीढ़ी इसे पढेगी और इसे ही सहीं छत्‍तीसगढ़ी मानेगी क्‍योंकि मानकीकरण की बातें अकादमिक रहेंगी व्‍यवहार में जो भाषा आयेगी उसे ये माध्‍यम इसी प्रकार बिगाड़ देंगें, क्‍या हमारी भाषा का ऐसा ही विकास होगा।
संजीव तिवारी

राजघाट से गाजा तक कारवां-7

राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी के इस संस्‍मरण के संपादित अंश बीबीसी हिन्‍दी में क्रमश: प्रकाशित किए गए हैं. हम अपने पाठकों के लिए सुनील कुमार जी के इस पूर्ण संस्‍मरण को, छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित करेंगें. प्रस्‍तुत है सातवीं और अंतिम कड़ी ...
(पिछली किस्त से आगे)
दिल्ली से गाजा तक के सफर में जिस गाजा की हम कल्पना करते पहुंचे थे, वह कुछ मायनों में उससे बेहतर था और कुछ में बदतर। एक तो हमलों के निशाने पर बिरादरी, दूसरी तरफ आसपास के कुछ मुस्लिम पड़ोसी देशों की भी हमदर्दी उसके साथ नहीं है। संयुक्त राष्ट्र जितनी राहत करना चाहता है, वह भी इजराइल की समुद्री घेरेबंदी के चलते मुमकिन नहीं है। लेकिन उम्मीद से बेहतर इस मायने में था कि कई नए मकान और नई इमारतें बनते दिख रही थीं और बच्चे स्कूल-कॉलेज जाते हुए भी।
गाजा में हम एक ऐसे मुहल्ले में गए जहां एक ही कुनबे के 28-29 लोग हवाई हमले में मारे गए थे। पूरा इलाका अब मैदान सा हो गया है और वहीं एक परिवार कच्ची दीवारें खड़ी करके प्लास्टिक की तालपत्री के सहारे जी रहा है। इस बहुत ही  गरीबी में जी रहे परिवार ने तुरंत ही कॉफी बनाकर हम सबको पिलाई।
परिवार की एक महिला को कसीदाकारी करते देखकर मैंने पूछा कि इसका क्या होता है? पता लगा कि बाजार में उसे बेच देते हैं। मेरी दिलचस्पी, और पूछने पर उसने कुछ दूसरे कपड़े दिखाए जिन पर कसीदा पूरा हो गया था। लेकिन कई कपड़े फटे-पुराने दिख रहे थे जो कि इजराइली हवाई हमले में जख्मी हो गए थे। मैंने जोर डालकर दाम देकर ऐसा एक नमूना लिया। परिवार की महिलाओं की आंखों में आंसू थे और आगे की जिंदगी का अंधेरा भी।
यह शहर मलबे के बीच उठते मकानों, उठती इमारतों का है, जिनके ऊपर जाने किस वक्त बमबारी हो जाए। कहने को फिलीस्तीन लोग भी घर पर बनाए रॉकेटों से सरहद पर हमले करते हैं, लेकिन आंकड़े देखें तो फिलीस्तीनी अगर दर्जन भर को मारते हैं तो इजराइली हजार से अधिक। एक गैरबराबरी की लड़ाई वहां जारी है।
फिलीस्तीन में अब सिवाय इतिहास, कोई हिन्दुस्तान की दोस्ती का नाम भी नहीं जानता था। उनकी आखिरी यादें इंदिरा गांधी की हैं जिस वक्त यासिर अराफात के साथ उनका भाई-बहन सा रिश्ता था। अब तो इस दबे-कुचले जख्मी देश से भारत का ही कोई रिश्ता हो, ऐसा गाजा में सुनाई नहीं पड़ता।
गाजा के इस्लामिक विश्वविद्यालय में मैंने एक विचार-विमर्श के बाद, बमबारी के मलबे के बगल खड़े हुए दो युवतियों से भारत के बारे में पूछा, एक का कहना था इंदिरा गांधी को अराफात महान बहन कहते थे।
दूसरी युवती का कहना था कि वह पढऩे के लिए भारत आना चाहती है लेकिन कोई रास्ता नहीं है।
ऐसा भी नहीं कि फिलीस्तीन में इंटरनेट नहीं है। तबाही के बीच भी धीमी रफ्तार का इंटरनेट है और नई पीढ़ी ठीक-ठाक अंगे्रजी में तकरीबन रोज ही मुझसे लिखकर बात कर लेती है। लेकिन इस पीढ़ी ने महज यह कारवां भारत से आते और जाते देखा है। इस कारवां से परे भारत की हमदर्दी का उसे कोई एहसास नहीं है और मुझसे पूछे जाने पर जब जगह-जगह मैंने कहा कि लगभग पूरा हिन्दुस्तान फिलीस्तीन के मुद्दे से नावाकिफ है तो इससे वे लोग कुछ उदास जरूर थे। लेकिन इसके साथ ही हिन्दुस्तान के बारे में कहने के लिए मेरे पास एक दूसरा यह सच भी था कि लगभग पूरा हिन्दुस्तान खुद हिन्दुस्तान के असल मुद्दों से नावाकिफ है और सिर्फ अपनी जिंदगी के सुख या अपनी जिंदगी के दुख ही अमूमन उसके लिए मायने रखते हैं। ऐसे में मैं न सिर्फ फिलीस्तीन की नौजवान पीढ़ी बल्कि रास्ते के देशों में राजनीतिक चेतना के साथ उत्तेजित खड़े मिले नौजवानों से भी यह कहते गया कि ऐसी जागरूकता की जरूरत हिन्दुस्तान को भी बहुत अधिक है।
एक अनाथाश्रम बच्चों से भरा हुआ था जहां फेंके गए जिंदा बच्चे लाकर बड़े किए जा रहे थे। फिलीस्तीन के समाज में औरत मर्द का संतुलन गड़बड़ा गया है, मर्द शहीद और औरतें अकेली। मुस्लिम रीति-रिवाज ही क्यों, आज के भारत में ही कौन अकेली मां को उसके बच्चे पैदा करने पर बर्दाश्त कर सकता है? नतीजन ऐसे बहुत से बच्चे यतीमखाने में थे। समाज में आबादी और पीढ़ी का अनुपात वैसे ही गड़बड़ा गया है जैसे विश्वयुद्धों के बाद कई देशों में गड़बड़ा गया था।
मानवीय सहायता पहुंचाने का मकसद तो वहां पहुंचकर पूरा हो गया, पूरे रास्ते के देशों को देखना तो हो पाया था लेकिन एक अखबारनवीस की हैसियत से फिलीस्तीन को देखना बहुत कम हो पाया। हमारे साथ वहां घूमते कुछ गैरसरकारी नौजवानों के बारे में भी हमारे एक साथी को शक था कि वे सत्तारूढ़ पार्टी हमास के लिए हमारी निगरानी करते हो सकते हैं। इतने कम वक्त में क्या पता चलता है?
लेकिन एक बात तय थी कि चार दिन के हमारे-रहने का अधिक से अधिक वक्त हमास और सरकार के लोग आयोजित कार्यक्रमों में बरबाद करके हमें लोगों से दूर रखना चाहते थे। हो सकता है कि खतरों के बीच चौकन्नेपन की उनकी आदत हो।
फिलीस्तीन की नई पीढ़ी के पास न वहां से बाहर निकलने की राहें हैं, न दुनिया के अधिक देशों में उनके लिए फैली बाहें हैं। बगल के सीरिया में जो फिलीस्तीन शरणार्थी आधी सदी से बसे हैं, वे जरूर दसियों लाख हैं और सीरिया की सरकार उनका ख्याल रखती है, सरकारी नौकरी देती है। लेकिन इजराइली घेरेबंदी के चलते उनको अपनी ही जमीन पर आज तक लौटना नसीब नहीं हो पाया। इस तरह फिलीस्तीन में भीतर रह गए लोग भीतर हैं और बाहर चले गए लोग बाहर।
गाजा में एक जगह हमलों में हुई मौतों और जख्मों की तस्वीरों की प्रदर्शनी लगी थी। इसमें हमारे साथ की कुछ भारतीय युवतियां बहुत विचलित सी दिखीं। उनकी तस्वीर लेते हुए जब उनके चेहरों पर राख सी पुती दिखी तो उनका कहना था कि ऐसा नजारा उन्होंने कभी नहीं देखा था और ऐसे में मैं उनकी तस्वीर न लूं। लेकिन मैंने उन्हें समझाया कि मौतों के ऐेसे मंजर को देखकर तो इंसान विचलित होंगे ही और यह तस्वीर सिर्फ उसी को कैद कर रही है। लेकिन अपनी ही साथी इस लड़की से बात करते-करते मैं यह सोचते रहा कि जिस फिलीस्तीन में आए वक्त लोग असल मौतों को न सिर्फ देखते हैं बल्कि भुगतते हैं, जहां घायलों को उठाते हुए गर्म लहू की तपन हाथों को लगती है, जहां लहू की गंध भी देर तक सांसों में बसी रहती है, वहां की नौजवान पीढ़ी कितनी विचलित नहीं होती होगी।
यही वजह थी कि विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में एक हिन्दुस्तानी सवाल के जवाब में एक फिलीस्तीनी छात्रा का कहना था-जिस इजराइल ने हमारे पूरे कुनबे को मार डाला है, उसके पड़ोस में रहना या उसे पड़ोस में रहने देने का तो सवाल ही नहीं उठता।
गाजा में एक कार्यक्रम में ऐसी औरतों और ऐसे बच्चों की भीड़ थी जो इजराइली जेलों में बंद अपने घरवालों की तस्वीरें लिए बंदी थीं। इनमें शहीदों के घरवाले भी थे। लेकिन हिन्दुस्तान में भी पंजाब वगैरह में ऐसी तकलीफदेह जिंदगी होगी जिसे देखना मुझे अब तक नहीं मिल पाया है। दिल्ली में कश्मीरी पंडि़तों के शरणार्थी शिविरों तक जाना भी अभी नहीं हो पाया है और बस्तर में हिंसा से बेदखल लोगों के बीच में महज एक बार मेरा जाना हुआ है।
इसलिए गाजा में जब एक टेलीविजन कार्यक्रम में मुझसे पूछा गया कि इस कारवां की मैं क्या कामयाबी मानता हूं? तो सोचकर मैंने कहा कि डेढ़-दो महीने से फिलीस्तीन के बारे में सोचते-सोचते अब आत्ममंथन से यह भी दिख रहा है कि हिन्दुस्तान के भीतर दबे-कुचले तबकों से बेइंसाफी वाले कितने फिलीस्तीन जगह-जगह बिखरे हुए हैं। अगर यह कारवां गाजा के जख्मों के देखने के बाद भारत के भीतर के ''फिलीस्तीनियों' के जख्म देख पाता है तो वह कारवां की कामयाबी होगी। बिना इजराइली बमबारी और गोलीबारी के भी हिन्दुस्तान के कमजोर तबकों पर रोज हमले हो रहे हैं और बेइंसाफी जारी है।
मतलब यह कि सिर्फ अमरीकी या इजराइली हमलों से गाजा घायल नहीं होता, वह तो हिन्दुस्तान के भीतर भी लोकतांत्रिक कही जाने वाली सरकारों के हमलों से घायल होता है और यहां की बाजारू ताकतों के हमलों से भी। पांच हफ्तों के इस सफर में दूसरों के जख्म देखते हुए अपनों के जख्मों के बारे में भी सोचने का कुछ मौका मिला और शायद कारवां कुछ दूसरी तरफ भी जा सकेंगे।
गाजा और रास्ते के सफर से जुड़ी कई बातें फिर कभी, किसी और शक्ल में।
सुनील कुमार
यात्रा के फोटो कैप्‍शन के साथ हम अगली पोस्‍ट में प्रस्‍तुत करेंगें. 
कारवां .....
राजघाट से गाजा तक कारवां-1
राजघाट से गाजा तक कारवां-2
राजघाट से गाजा तक कारवां-3
राजघाट से गाजा तक कारवां-4
राजघाट से गाजा तक कारवां-5
राजघाट से गाजा तक कारवां-6

राजघाट से गाजा तक कारवां-6

राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी के इस संस्‍मरण के संपादित अंश बीबीसी हिन्‍दी में क्रमश: प्रकाशित किए गए हैं. हम अपने पाठकों के लिए सुनील कुमार जी के इस पूर्ण संस्‍मरण को, छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित करेंगें. प्रस्‍तुत है छठवीं कड़ी ...
(पिछली किस्त से आगे)
हम जिस नजरिए से गाजा पहुंचे थे, उसके मुताबिक इजराइल आए दिन गाजा पर छोटे-मोटे हमले करते ही रहता है। पहले वह बड़े हमले भी कर चुका है और एक पिछली लड़ाई की इबारत इमारतों के मलबे की शक्ल में वहां बिखरी पड़ी थी। ऐसे अनगिनत मकान दिखते हैं जिसकी दीवारें गोलियों की बौछारों से छिदी पड़ी हैं। ऐसे अनगिनत परिवार हैं जहां के लोग शहीद हुए हैं। कहने को संयुक्त राष्ट्र संघ यहां मदद करता है लेकिन इजराइली घेराबंदी के चलते वहां सामान कुछ सुरंगों से तस्करी से पहुंचता है।
इजराइल और फिलीस्तीन के बीच के पूरे तनाव का खुलासा यहां पर मुमकिन नहीं है लेकिन उसे लोग आगे-पीछे खबरों में पढ़कर जान और समझ सकते हैं। कारवां की दास्तां में उसका बड़ा लंबा ब्यौरा ठीक नहीं।
जिस फिलीस्तीन की जमीन पर पहुंचने की राह हर कोई महीने भर से देख रहा था, वहां पहुंचकर कारवांई पिघल गए। कई नौजवान आंखों में आंसू थे। मैं चूंकि दो-दो कैमरे लिए पूरी लगन से फोटोग्राफी में लगा था इसलिए आंखों में कुछ आने की गुंजाइश नहीं रखी जा सकती। इसलिए उस जमीन पर पांव रखकर शरीर को सिर्फ रोंगटे खड़े करने की छूट दी।
गाजा के इस करीब साढ़े तीन सौ किलोमीटर के इलाके को हमास नाम की जिस पार्टी की सरकार चलाती है, उसके चुनाव जीतने को अमरीका वगैरह नहीं मानते, नतीजन वहां के प्रधानमंत्री इब्राहीम हन्नान को कुछ लोग विवादास्पद प्रधानमंत्री लिखते हैं। इस सरकार और इस पार्टी के सरकारी या गैरसरकारी सुरक्षा दस्ते ने पल-पल जिस तरह कारवां के एक-एक को बंधक सा बनाकर रखा, वह किसी सदमे से कम नहीं था। कहने को वहां के बड़े अफसरों का यह कहना था कि यह इजराइली हमले से, साजिश से हमें बचाने के लिए किया गया इंतजाम है, लेकिन बात इससे अधिक कुछ थी।
पूरी तैयारी के साथ हमारे मेजबान हमें किसी शहीद के घरवालों से मिलवाने ले जाते थे, या किसी मस्जिद ले जाते थे, तो वहां भी आसपास किसी से बात करने की कोशिश की भी इजाजत नहीं थी। एक कार्यक्रम में सर्द शाम नंगे पैर बच्चों की भीड़ थी। उनसे बात करने की कोशिश शुरू ही की तो इंतजाम में लगे पिस्तौलबाज आकर जबरदस्ती करने लगे कि मैं जाकर कुर्सी पर बैठूं। यही हाल विश्वविद्यालय की युवतियों से बात करते हुए हुआ, तो तमंची मुझे लगभग धकेलकर बस में ले गए। सरकारी निगाहों से परे किसी से मिलने की पल भर की इजाजत नहीं थी। नतीजा यह हुआ कि दूसरे या तीसरे दिन मैंने बौखलाकर एक बड़े अफसर से कहा- हम आए थे फिलीस्तीन की आजादी की लड़ाई का साथ देने के लिए, लेकिन यहां पांव धरते ही जो पहली चीज हमने खोई, वह है हमारी अपनी आजादी।
लेकिन इस बात का भी कोई असर नहीं हुआ। और सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी पता नहीं हमसे क्या छुपाती रही। एक टीवी चैनल के लोग एक बहस की रिकॉर्डिंग के लिए जब ले गए, तब वहां एक रेस्तरां के बीच सेट बनाया गया था। वहां कई लोग सीधे-सीधे सरकार को कोसते हुए मिले। लेकिन लहूलुहान खंडहर फिलीस्तीन ही क्यों, भारत जैसे मजबूत लोकतंत्र में भी लोग सरकार को तो कोसते ही हैं।
अब बात फिलीस्तीन जनता की करें तो वह मौत के साये में जिंदा रहती है और किसी को आने वाले कल का कोई भरोसा नहीं है। गाजा इस्लामिक विश्वविद्यालय की छात्राओं से भारतीय छात्रों ने सवाल किए तो एक जवाब साफ था- हमारी पीढिय़ों की मौत के जिम्मेदारी इजराइल को यहां बने रहने देने वाला कोई रास्ता कभी मंजूर नहीं होगा।
बमबारी में इस विश्वविद्यालय की इमारतें ही खत्म नहीं हुईं, लोगों के दिल-दिमाग में किसी समझौते की जगह भी खत्म दिख रही थी।
कारवां के कई लोग इजराइल के पूरे खात्मे की बात करते थे तो कई लोग फिलीस्तीनियों और इजराइलियों के सहअस्तित्व की। लेकिन गाजा के लोगों का मन साफ था, इरादा पक्का था, आखिरी इजराइली के रहने तक भी आखिरी फिलीस्तीनी चैन से नहीं बैठेगा।
सड़क किनारे हमलों के निशान गहरे थे और समंदर में बोट रूकने की जेटी पर भी बमबारी का मलबा बिखरा हुआ था। आखिरी रात तक सुरक्षा अधिकारी मामूली नर्म हुए थे और वे कड़ी निगरानी में ऐसी जेटी और तक ले जाने को तैयार हुए। जहां पहाड़ की तरह मलबा बिखरा पड़ा था। यहां पूरे अंधेरे में भी मेरे किसी हुनर के बिना मेरे शानदार कैमरों ने बहुत अलग किस्म की तस्वीरें खींचीं। इस बेदखल बिरादरी की इंसाफ की उम्मीदें इसी तरह चूर-चूर बिखरी पड़ी हैं।
इस पूरी निगरानी के बीच कहां, किस तरह, किन लोगों से हमारी दोस्ती हुई उसकी अधिक जानकारी उन दोस्तों पर खतरा बन जाएगी। लेकिन उनके साथ अपने रोज के कई घंटों के संपर्क के बारे में मैंने आज ही किसी और को लिखा कि फिलस्तीनी लोग कई किस्म के मरहम के जरूरतमंद हैं और हम जैसों से मोहब्बत, हम जैसों की मोहब्बत वैसा ही एक जज्बाती मरहम है। मैंने इन तमाम देशों में गाजा के हमारे दोस्तों जैसे बेसब्र दोस्त नहीं पाए जो कि मानो हाथ थामे बिना बात न कर पाते हों।
जब जिंदगी और मौत के बीच कम्प्यूटर की-बोर्ड की एक बटन दबने जितना ही फासला हो, तो वैसी बिरादरी शायद दोस्ती को बहुत बड़े-बड़े घूंट भरकर जीती है।
हमसे किसी भी मदद की उम्मीद के बिना जब हमलों तले जीते दोस्त कहते हैं कि पता नहीं दुबारा बात भी हो या न हो, तो चार दिनों में बनी ऐसी दोस्ती भारी लगती है। और ऐसे में ही मैंने अपने फेसबुक पर लिखा- जिनके दोस्त हमले की निशाना व्यक्तियों में बसते हैं, वे लोग कभी चैन की नींद नहीं सो सकते।
ये दिन कुछ वैसे ही गुजर रहे हैं। किसी ई-मेल या एसएमएस का जवाब आ जाए तो ही अहसास होता है कि वे हैं। सच तो यह है कि उन्हें पहले किससे नुकसान होगा, इजराइली हमले से या अपनी ही सरकार से यह भी साफ नहीं है। मेरी नजर में हमारी होटल के सामने सर्द सुबह नंगे पैर भीख मांगते आधा दर्जन बच्चे हैं और उन्हें बार-बार भगाते हुए आधा दर्जन पिस्तौलबाज। वहां की जिंदगी आसान नहीं है और हमलों में पीढिय़ां सी खो गई हैं। 
सुनील कुमार
(बाकी आखिरी किस्त में)

राजघाट से गाजा तक कारवां - 5

राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी के इस संस्‍मरण के संपादित अंश बीबीसी हिन्‍दी में क्रमश: प्रकाशित किए गए हैं. हम अपने पाठकों के लिए सुनील कुमार जी के इस पूर्ण संस्‍मरण को, छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित करेंगें. प्रस्‍तुत है पांचवी कड़ी ...
(पिछली किस्त से आगे)
गाजा से कुल एक देश, इजिप्ट, की दूरी पर ठहरे हुए हम सीरिया के दो शहरों में वक्त गुजारते रहे और फिलीस्तीनी शरणार्थियों की बस्तियों में जाते रहे। हिन्दुस्तान में आज यह लिखते हुए टीवी पर सामने एक रिपोर्ट है कि किस तरह दिल्ली में शरणार्थी कैम्पों में एक-एक कमरों में वे कश्मीरी पंडित परिवार रह रहे हैं जिन्हें अलगाववादी-आतंकी कश्मीरियों ने वहां से भगा दिया था। यह मिसाल मैंने कारवां के कई लोगों के सामने रखी, लेकिन किसी के पास इस बात का आसान जवाब नहीं था कि भारत के भीतर ऐसा करवां कश्मीर से बेदखल, बेघर हुए लोगों के लिए क्यों नहीं निकलना चाहिए?
लेकिन अभी चर्चा गाजा की।
सीरिया में दमिश्क में डेरा कुछ लंबा रहा और वहीं के एक दूसरे शहर लताकिया में भी। जब बाकी लोग दमिश्क में थे तब कारवां के करीब तीस लोग दो दिनों के लिए लेबनान भी हो आए। लेकिन मेरी बारी उनमें नहीं लगी इसलिए वहां का बखान मुमकिन नहीं।
ईरान से रवाना होते हुए वहां के एक नौजवान साथी रूउल्ला की बीवी और बच्ची भी कारवां में आ गए। एक दूसरा पाकिस्तानी जोड़ा भी अपने तीन बेटों के साथ कारवां में पहुंच गया और यह फैसला धरे रह गया कि कोई परिवार या बच्चे कारवां में नहीं रहेंगे क्योंकि ऐसा पिछला कारवां इजराइली हमले में बीस जानें खो चुका था।
रूउल्ला कश्मीरी है और चार बरस की उम्र में पिता के साथ जो ईरान आया तो यहीं बसा हुआ है। बीवी भी कश्मीरी और बेटी भी। इसलिए आठ महीने की नन्हीं हन्नाने के साथ उन्हें गाजा तक जाने का मौका मिल गया। इजिप्ट ने एक भी ईरानी को गुजरने का वीजा भी नहीं दिया था।
गुडिय़ा सी खूबसूरत और प्यारी हन्नाने पूरे कारवां की गोद में घूमते रहती थी और उसकी वजह से कारवां के लोगों के बीच आपस के कई तनाव भी हवा होते दिखे। रूउल्ला की दमदार लीडरशिप जो कि बहुत पुरूषवादी भी थी, और ईरान की संस्कृति की थी, उससे खफा लोग भी इस बच्ची के आने से पिघल गए। लेकिन बहुत कड़े इस सर्द सफर में ये बच्चे चलते ही रहे।
सीरिया में रहते हुए उन जहाजों का इंतजाम हुआ जो सहायता-सामाग्री लेकिन इजिप्ट के अल अरिश तक जाते और मुसाफिरों को लेकर भी। ऐसे दो बहुत महंगे भाड़े वाले जहाजों का इंतजाम मुस्लिम दुनिया ने यूं किया मानो वे किसी तीर्थयात्रा की सड़क किनारे भंडारा लगा रहे हों। लेकिन 8-10 दिन दो शहरों में गुजारने के बाद जब इजिप्ट की इजाजत मिली तो उसमें किसी ईरानी का नाम नहीं था।
कुछ लोगों की सोच थी कि इसका विरोध करने के लिए, और ईरान के साथ एकजुटता दिखाने के लिए कुछ या सभी साथी वीजा मिलने के बाद भी जाना रद्द कर दें और इजिप्ट का विरोध करें। लेकिन गनीमत कि यह सोच टिक नहीं पाई।
इजिप्ट की सरकार पूरी तरह मेजबान थी और उसके आला अफसर जहाज लदने के वक्त वहां मौजूद थे, गवर्नर भी। कई एम्बुलेंस, सोलर बिजली जनरेटर, दवाएं, चिकित्सा उपकरण और बाकी सामान। करोड़ों का सामान जहाज पर लदा तो घंटों तक कारवां के लोगों को बिना पिए नशा सा रहा और कई देशों के गाने सब मिलकर गाते रहे।
दो दिन बाद इसी जहाज पर आठ चुनिंदा कारवांई भी सवार हुए क्योंकि इजिप्ट ने उतने ही लोगों को जाने की इजाजत दी थी। बाकी करीब सवा सौ लोग एक विशेष विमान पर दमिश्क जाकर सवार हुए और इजिप्ट पहुंचे। पानी के जहाज पर सवार होकर जाने वालों को, शहादत के लिए रवाना होने जैसी बिदाई दी गई क्योंकि हमले का खतरा तो था ही इस खतरे के बाद भी कारवां का हर कोई इन आठ लोगों में जहाज पाने को लगे रहा, मैं भी अपने कैमरों के साथ जाना चाहता था लेकिन नंबर लगा नहीं।
इतने तमाम मुस्लिम या इस्लामी देशों से गुजरते हुए जो सबसे अजीब बात मुझे लगी, वह था अखबारों की गैरमौजूदगी। ईरान के फुटपाथों पर तो बहुत अखबार थे लेकिन बाकी तमाम जगहों पर लगभग नदारद। लोग पढ़ते हुए तो दिखते ही नहीं थे, और तो और होटलों की लॉबी तक में अखबार नहीं थे। मैं पता नहीं क्यों इस पूर्वाग्रह को नहीं छोड़ पाता कि अखबारों की मजबूत मौजूदगी सीधे-सीधे लोकतंत्र की मजबूती से जुड़ी बात है। हालांकि इसके खिलाफ भी मिसालें हैं और पाकिस्तान में तो अखबार निकलते ही हैं।
लेकिन इस पूरी मध्य पूर्व की दुनिया में इंटरनेट तक लोगों की पहुंच खूब दिखी और पूरे देशों में रोक दी गई 'फेसबुक' जैसे वेबसाईटों तक पहुंचने का तोड़ हर किसी के पास था। इन तमाम देशों में हमारे नए बने दोस्त ऐसी वेबसाईटों का रास्ता जबरन खोलकर ही रात-दिन हमारे साथ रहते हैं।
एक दूसरी बात यह कि इन देशों में जहां-जहां भी औरत हिजाब, चादर या बुर्के में कैद है, वहां भी वह घर में कैद नहीं है। वह, कम से कम, शहरों में तो कामकाजी है और देश और दुनिया से बात करना जानती हैं। ईरान की महिला फिल्म निर्देशिकों का काम दुनिया भर में जाना और माना जाता है और ऐसी होनहार महिला से मेरी मुलाकात फिल्म समारोहों में होती ही रहती थी। औरतों से गैरबराबरी बहुत है लेकिन पढ़ाई जैसे दायरों में लड़कियां लड़कों के बराबर, या आगे हैं।
सफर की बात करें, तो हर जगह एक मुल्क से दूसरे की सरहद पार करते वक्त अपना पूरा सामान ढोकर लंबी दूरी तय करनी होती थी। मेरे साथ तो 7-8 किलो का कैमरा बैग और उससे कुछ ही हल्के लैपटॉप बैग थे ही, 15 किलो से अधिक भारी बैक पैक, तमाम जानने के बाद भी मैं सर्द मौसम के खतरे से सामान इससे कम नहीं कर पाया था और पैंतीस किलो के करीब ढोते चल रहा था। लेकिन बहुत नाजुक छोटी युवतियां या बहुत बुजुर्ग भी अपना पूरा बोझ ढोते चल रहे थे। ऐसे ही कारवां इजिप्ट और फिलीस्तीन के गाजा शहर के बीच की रफा चौकी पर पहुंचा। जहां दूसरी तरफ फिलीस्तीनी मेजबान अपनी बसें लिए खड़े थे। 
सुनील कुमार
(बाकी अगली किस्त में।)

राजघाट से गाजा तक कारवां-4

राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी के इस संस्‍मरण के संपादित अंश बीबीसी हिन्‍दी में क्रमश: प्रकाशित किए गए हैं. हम अपने पाठकों के लिए सुनील कुमार जी के इस पूर्ण संस्‍मरण को, छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित करेंगें. प्रस्‍तुत है चौथी कड़ी ...
(पिछली किस्त से आगे)
फिलीस्तीन के लिए मानवीय सहायता और दोस्ताना हमदर्दी लेकर निकले इस कारवां के पांच हफ्ते के लंबे सफर पर कई गैरराजनीतिक बातें भी छाई रहीं। ''हम क्या चाहते... आजादी...'' का दमदार नारा बसों में उस वक्त ''हम क्या चाहते... डब्ल्यूसी...'' में तब्दील हो जाता था जब बस कई घंटे थमने का नाम नहीं लेती थी। डब्ल्यूसी यानी वेस्टर्न कमोड। मूत्रालय के लिए इस पूरी मुस्लिम दुनिया में इस काम के लिए बनी जगह की ही प्रथा है और हिन्दुस्तान की तरह नहीं कि मर्द किसी भी जगह खड़े हो जाएं। फिर बसों में महिलाएं भी तो थीं।
नतीजा यह था कि ड्राइवर या स्थानीय आयोजक जब घंटों बस न ठहराते, तो ये नारे लगने लगते। मजे की बात है कि जिसे ये तमाम देश वेस्टर्न कमोड कहते हैं, वह है हिन्दुस्तान देशी अंदाज का शौचालय। लेकिन पश्चिम से परहेज के चलते भी उसे वेस्टर्न कहा जाता है। आम तौर पर इसके लिए बड़े बस अड्डों या मस्जिदों में बसें थमतीं क्योंकि हर बड़े बस अड्डे पर नमाज पढऩे और हर मस्जिद में नमाज के पहले फारिग हो जाने की पूरी सहूलियत रहती थी। मैंने अपने फोन के स्क्रीन पर शौचालय की तस्वीर लगा ली थी ताकि उसे दिखाकर ड्राइवर को समझाया जा सके।
लेकिन नमाज के पहले की गजब की सफाई, वहां के लोगों खाने-पीने में नहीं दिखती थी। न खाने के पहले हाथ धोने का कहीं रिवाज, और न ही एक-दूसरे के जूठे का ख्याल। बिना धुले हाथों से या जूते उतारने के तुरंत बाद लोग खाने लगते, बड़ी-बड़ी रोटियां मेज पर सीधे पड़ी रहतीं और तमाम लोग गंदे हाथों से ही उसे तोड़ते रहते। नमाज के पहले जैसी साफ-सफाई, खाने के पहले भी होती तो ऊपरवाले के दिए गए बदन और सेहत की भी बेहतर देखभाल हो जाती।
लेकिन तमाम खानों के  वक्त जो गजब की बात देखने मिली, वह थी सामाजिक बराबरी की। हमारी बसों के तमाम ड्राइवर, कंडक्टर, क्लीनर हमारे ही साथ की टेबिलों या दरी पर साथ-साथ खाते थे। किसी जानकार ने बताया कि अल्लाह ने सबको बराबरी का कहा है और इस मुस्लिम दुनिया में उस पर पूरा अमल होता है। इन आधा दर्जन देशों में मैंने छोटे से छोटे काम वाले लोगों को बड़े अफसरों और मंत्रियों तक से पूरी बराबरी से बात करते देखा, बिना डरे-सहमे या झिझके। सभी बस कर्मचारी हमारी ही होटलों में रूकते, हमसे सीधे नाम लेकर बात करते और बस में अपना खाना भी हमें खिलाते रहते।
वह शायद टर्की ही था जहां एक बस कंडक्टर मेरे साथी फोटोग्राफर स्वप्निल के बगल में बैठे उसके गले में हाथ डाले गाने पर नाच सा रहा था। जिस मुस्लिम दुनिया को कई लोग पिछड़ा मानते हैं, उसमें छोटे समझे जाने वाले काम की इज्जत भी देखने लायक थी। हिंदुस्तान की बिरादरी तो गैरबराबरी पर फख्र करते हुए जिंदा है। टर्की के जिस रेस्तरां में हम एक शाम गुजारने पहुंचे थे वहां का वेटर अपना गिलास भरकर खुद आ गया और हम लोगों के साथ बैठकर गिलास टकरा रहा था, हमारे कैमरों पर तस्वीरें देख रहा था।
जगह-जगह बाजारों में, दूकानों और सड़कों पर लोग हमें स्कार्फ, मफलर या चेहरे-मोहरे से पहचान लेते थे क्योंकि इन तमाम देशों में गाजा जा रहे लोगों को तीर्थयात्रियों सी इज्जत मिल रही थी। कई जगह लोग चाय-कॉफी के पैसे लेने से मना कर देते थे या सामानों के दाम घटा देते थे। तकरीबन तमाम जगहों पर 'गाजा' को 'गजा' कहा जाता था और उसे हम उसी रफ्तार से सीख गए थे जिस रफ्तार से शुक्रिया की जगह शुकरान कहना सीख गए थे। इसी आसान शिनाख्त की वजह से जिस शाम हम लोग एक शराबखाने गए, उस वक्त अपने तमाम जैकेट, मफलर और स्कार्फ छोड़ गए थे ताकि कारवां से नाम वहां पर न जुड़ा रहे।
मेरी तरह के कोई पौन दर्जन शाकाहारी थे जिनको खाने की कमी भी रही और कई बार हमारे फेर में पूरे के पूरे कारवां को शाकाहारी ही खाना पड़ा। ऐसे में लोग मेरे सरीखे कट्टर शाकाहारियों को कोसते भी रहे। इन तमाम देशों में लोग इतने भयानक पैमाने पर सिगरेट और हुक्का पीते हैं कि बस। शायद इसलिए कि शराब और दूसरे नशों पर कई देशों में बड़ी कड़ी पाबंदी है। मैं अपने जिन साथियों की सिगरेट छुड़ाना चाहता था, वे तो मानो अपने ननिहाल में पहुंच गए थे।
सीरिया के दमिश्क (डमैस्कस) में तो हमारे कई साथी एक बड़ी धार्मिक अहमियत वाली मजार पर गए जहां कोई सौ-पचास एकड़ पर हजारों लोग एक वक्त पर थे। वहां हमारे एक ईरानी-पाकिस्तानी साथी पहले तो कहते रहे कि किस तरह उन्हें ऐसे तीर्थ पर चार-पांच घंटे भी कम लगते हैं, और फिर घंटे भर रूकने वाली जगह पर वे खासा वक्त एक हुक्का बार में मजा लेते बैठे रहे। इस गुडग़ड़ाने की तस्वीरें लेकर जब बिराज (पटनायक) दिखाने लगे तो हम सब तीर्थयात्रा के इस अंदाज पर हक्का-बक्का रह गए।
वहीं पर जब हमारी एक साथी उज्मा का बटुआ चोरी हो गया और रिपोर्ट लिखाने हम मजार पुलिस थाने गए तो वहां के आला अफसर ने गाजा यात्री होने की वजह से पूरी अहमियत दी। और सिगरेटों के धुएं से भरे कमरे में वह स्कूल के बचपन में, लेकिन कोर्स से परे पढ़ी रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता याद करके सुनाने लगा। टैगोर के अलावा स्कूली दिनों में ही उसने माक्र्वेज सरीखे कई लोगों को पढ़ लिया था जिन्हें बाद में साहित्य का नोबल पुरस्कार मिला था। दमिश्क का थानेदार और बचपन में पढ़े टैगोर की कविता अब तक याद!! मुझे शर्म लगी कि यह कविता तो मैंने कभी पढ़ी तक नहीं थी (बाकी लगभग तमाम कविताओं की तरह)।
टर्की और सीरिया के बाजारों में एक तरफ तो दूकानें हिजाब से सिर ढंकी पुतलियों से सजी थीं तो ठीक वहीं पर महिलाओं के भीतरी कपड़े बड़े उत्तेजक अंदाज में सजे हुए थे। सार्वजनिक जगहों पर ढंकी रहने वाली मुस्लिम महिलाओं की निजी जिंदगी में फैशन की बहार थी और बाजारों में ऐसे कपड़े परखकर लेती महिलाओं की तस्वीरें लेने का हौसला आखिर तक नहीं जुट पाया।
सीरिया के दमिश्क शहर के बीच बसा एक ऐसा पुराना बाजार था जिसकी फर्श तक जगह-जगह धंस गई थी और जिसे लोग 5-6 सौ बरस पुराना बताते थे। वह लगता भी वैसा ही था और अब वह पर्यटक बाजार बन चुका था। दमिश्क के ही एक दूसरे बहुत बड़े बाजार में हम शुक्रवार को जा पाए इसलिए वह लगभग बंद मिला। लेकिन वहां के एक कालीन दूकानदार ने बताया कि वह दुनिया के सबसे पुराने और आज जिंदा, बाजारों में से एक है और एक वक्त वह घोड़ों की खरीद बिक्री के लिए बना था। इसी बाजार में मध्यपूर्व के देशों में सबसे पुरानी होने का दावा करती आईसक्रीम दूकान मिली जिसकी दीवारों पर वहां के पुराने तमाम शासकों की तस्वीरें लगी थीं, उस वक्त की जब वे वहां आईसक्रीम खाने आए थे। वहां कूट-कूट कर आईसक्रीम बनाने की एक नई ही तकनीक दिखी और घन से चलाते नौजवान कर्मचारियों की मजबूत मांसपेशियों पर हमारे काफिले की कुछ युवतियां फिदा होकर लौटीं, तो महज लैपटॉप पर कसरत करने वाले आदमियों के चेहरे उतर गए।
किसी भी देश में एक भी कुत्ता नहीं था क्योंकि इस्लाम में उसे एक गंदा जानवर माना जाता है। इसलिए बिल्लियों की मौज थी। वे गली-गली, घर-दूकान हर कहीं राजसी अंदाज में बिखरी दिखती थीं। एक तो बिल्ली का मिजाज ही सिर चढ़ा होता है, फिर कुत्तों की फिक्र न हो तो वह सड़क किनारे की दूकानों पर कालीनों पर धूप सेंकते पसरी रहती थीं और भारी-भरकम कैमरों के शटर की आवाज से भी उनकी आंखें नहीं खुलती थीं।
ईरान, टर्की, सीरिया के तौर तरीके एक दूसरे से अलग थे। बड़े कड़े नियमों वाले ईरान से बिल्कुल अलग सीरिया। वहां सड़क किनारे नाच-गाने के ऐसे इश्तहार लगे थे, मानो पश्चिम के किसी देश में आ गए हों। याद रखना हो तो सुरा-सुंदरी और सीरिया, ये सब स से शुरू होते हैं।
इजिप्ट से वीजा मिलने की राह तकते तो हम 4-5 दिन दमिश्क रहे और 4-5 दिन लताकिया। सीरिया के ये दोनों शहर ऐसे महफूज थे कि कारवां के लड़के-लड़कियां रात भर सड़कों पर घूमकर आ जाते थे, बिना किसी दिक्कत। लेकिन खुफिया एजेंसियों के कर्मचारी और खुले, छिपे सुरक्षा कर्मचारी तमाम जगहों पर मौजूद थे। रात तीन बजे भी हम उन्हें सड़कों के किनारे कहीं-कहीं देख और पहचान लेते थे। सभी पर यह तनाव था कि कारवां पर हमला हो सकता है। टर्की में तो हमें किसी अनजान का दिया खाने से भी सख्त मनाही कर दी गई थी। और ईरान में भी हमें लगते रहा कि हर वक्त, हर जगह कुछ फोटोग्राफर हम लोगों के चेहरों की ही तस्वीरें ले रहे थे जो कि साधारण बात नहीं लग रही थी।
इजिप्ट पहुंचने के पहिले के करीब दस दिन दमिश्क और लताकिया में राजनीतिक चर्चाओं, फिलीस्तीनियों की राहत कॉलोनियों में आने-जाने के साथ-साथ कुछ आराम और कुछ पर्यटन में भी गुजरे... (बाकी आने वाली किस्तों में)
सुनील कुमार

राजघाट से गाजा तक कारवां - 3

राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी के इस संस्‍मरण के संपादित अंश बीबीसी हिन्‍दी में क्रमश: प्रकाशित किए गए हैं. हम अपने पाठकों के लिए सुनील कुमार जी के इस पूर्ण संस्‍मरण को, छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित करेंगें. प्रस्‍तुत है तीसरी कड़ी ...
(पिछली किस्त से आगे)
ईरान की बात एशिया से गाजा के सफर के महज एक मुल्क तक नहीं रह सकती, सच तो यह है कि ईरान पार हो जाने के बाद भी कारवां का खासा बोझ ईरान तरह-तरह से उठाते रहा। भारत सरकार ने जब चिकित्सा उपकरण ले जाने की इजाजत नहीं दी, तो ईरान ने करोड़ों के सामान दिए, और वहां के आधा दर्जन सांसदों सहित दर्जनों लोग कारवां में इजिप्ट के पहले तक गए। उनकी आशंका के मुताबिक इजिप्ट ने ईरानियों को वीजा देने से मना कर दिया और ईरानी साथी फिलीस्तीन नहीं जा पाए।
मैं देशों के खाते-बही की असलियत पर नहीं जा रहा लेकिन कारवां की पालकी को तीन कंधे तो ईरान के ही लगे थे। मैं तो इस काफिले में अखबारनवीस की हैसियत से शामिल था, लेकिन फिलीस्तीन की हिमायत में, इजराइल के खिलाफ अपनी पक्की सोच के चलते भी, या चलते ही, मैं यहां आया था। इसलिए जब बीबीसी या किसी और मीडिया से मुझसे बात की गई तो निजी विचारों में एक राजनीतिक आक्रामकता मुंह से निकल ही जाती थी।
रही बात ईरान की, तो महिलाओं के साथ अलग दर्जे का बर्ताव यूं खटकते रहा मानों बाजार से लाई गई रोटी में कोई कंकड़ निकला हो। ईरानी महिला को समाज से बस यह सहूलियत दिखी कि उसे रोटी नहीं बनानी पड़ती। मध्यपूर्व के देशों के बारे में दिखा कि वहां हर जगह सिर्फ बाजार में रोटी मिलती है। महिला के लिए यह तो राहत की बात थी, लेकिन दूसरी तरफ ईरान में आयोजकों की ओर से ही बताया गया कि वहां लोगों को अधिक से अधिक बच्चे पैदा करने पर तरह-तरह के नगद पुरस्कार सरकार देती है। मतलब यह कि रोटी बनाने की मशीन बाजार में, और बच्चों को पैदा करने...। ईरानी महिला को हिजाब और चादर में देख-देखकर यह तो लगता था कि बादलों के बीच चांद निकला हो, लेकिन महिलाओं के लिए रौशनी देने में ईरान सुबह से काफी पीछे चल रहा था।
ईरान के कई शहरों के विश्वविद्यालयों के कार्यक्रमों में छात्र-छात्राएं अमरीका-इजराइल के खिलाफ युद्धोन्माद से लेकर धर्मोन्माद तक में डूबे दिखते थे, लेकिन कारवां के लोग उन्हें पूजनीय लगते थे। लड़कियों और महिलाओं का तो लड़कों-आदमियों से अधिक बात करने का रिवाज वहां है नहीं, इसलिए जब कारवां से कोई युवती बीच में रहती तो हमारी बात हो पाती थी। लेकिन कई जगहों पर लोग कारवां की मंजिल की चर्चा होने पर रोने लगते थे। एक कम उम्र लड़़के ने जब एक ईरानी विश्वविद्यालय में मुझसे ठीकठाक अंग्रेजी में कहा- ''आप लोग बहुत महान हैं, मैं बड़ा होकर आप जैसा बनना चाहूंगा,'' तो मैं उसकी इस उम्मीद के सामने अपने आपको बहुत बौना महसूस करने लगा।
एक दूसरे विश्वविद्यालय में अमरीका के झंडे को रौंदते हुए ही मंच तक जाने का इंतजाम था। इसे देखकर मंच पर पहुंचे भारतीय मूल के, अमरीका में बसे एक मुसलमान बुजुर्ग ने माइक से कहा- अगर ऐसा बर्ताव कोई ईरान के झंडे से करे तो उस पर तो अल्लाह भी लिखा हुआ है।
लेकिन तेजाब के सैलाब में ऐसी बात कहीं दूर जा गिरी और जगह-जगह लोग अमरीकी-इजराइल के झंडे जलाते रहे। ईरान में एक विश्वविद्यालय में चल रहे कार्यक्रम के बीच अचानक वहां राष्ट्रपति अहमदीनेजाद पहुंच गए। साधारण, आम इंसान से कपड़े, वही अंदाज, और हर किसी से गले मिल लेने की बेतकल्लुफी। उनके आने की कोई खबर नहीं थी लेकिन उनकी सहजता इस सच से मिलती हुई थी कि वे राजधानी तेहरान की एक साधारण इमारत के एक साधारण फ्लैट में ही रहते हैं। जहां कि वे राष्ट्रपति बनने के पहले से रहते आए हैं। एशिया से गाजा कारवां को इससे बड़ा समर्थन और क्या मिल सकता था?
लेकिन महीने भर चले इस काफिले का ईरान से आगे बढऩा भी जरूरी है इसलिए मैं टर्की की तरफ बढ़ता हूं, जहां हफ्ते-दस दिन के बाद कारवां के लोगों की आंखों के सामने शराबखाने आने थे। कारवां के कई वामपंथी, उदारवादी या मीडियाकर्मी टर्की की देशी दारू 'राकी' की राह देख रहे थे, लेकिन पहली शाम के बाद यह विचार हुआ कि चूंकि तमाम मेजबान इस्लामी संगठन हैं, इसलिए लोगों का न पीना ही ठीक है। इस पर कुछ वैचारिक तनाव रहा लेकिन मोटे तौर पर कारवां के मकसद को देखते हुए टर्की की स्थानीय खूबी से दूर रहने की बात तय हुई।
टर्की में फिर औरत-बच्चे, मर्द, सभी कोई कारवां की खातिर में गर्मजोशी से मौजूद थे और वहां आईएचएच नाम का जो संगठन मेजबान था, वह हमारी हिफाजत को लेकर खासा फिक्रमंद था। उनका मानना था कि कुछ बाहरी और कुछ भीतरी बागी ताकतें कारवां पर हमला कर सकती हैं, इसलिए हमें सबसे अधिक चौकन्ना यहां किया गया। लेकिन हममें से कुछ लोगों के भीतर एक सैद्धांतिक खतरा भी खड़ा हो गया था। दुनिया के कुछ मुल्क आईएचएच को आतंकी संगठन मानते हैं, ऐसे में उसकी मेजबानी लेना कितना जायज है? मामला कुछ ऐसा था कि मानो भारत में कुछ कट्टपंथी-धार्मिक संगठन गांधीवादियों के साथ मिलकर पदयात्रा कर रहे हों और कट्टर-धार्मिक संगठन, कथित आतंकी संगठन मेजबानी कर रहे हों। लेकिन कारवां के बीच इस दिमागी जमा खर्च से जब कोई राह न सूझी तो मैंने एक ही मकसद के लिए अलग-अलग काम करते गांधी और भगत सिंह दोनों को याद करके ध्यान हटा लिया।
बर्फ से ढंकी पहाडिय़ों वाले टर्की में जब एक बास्केटबॉल कोर्ट में जाकर काफिला रूका, तो उसे बस के सफर के बारह घंटे हो चुके थे। लेकिन जवान-बुजुर्ग, दर्जनों कारवांई घंटों तक गेंदों को लेकर जिस तरह टूट पड़े, वह देखने लायक था। आईएचएच (इंसानी यार्दिम वक्फी) के बारे में कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि इसके रिश्ते अलकायदा से रहे हैं। टर्की की सरकार ने भी इस संगठन पर बड़े छापे मारे थे। इस संगठन के दो सबसे बड़े नेताओं से हम कुछ लोगों के लंबे सवाल-जवाब भी हुए, लेकिन उसकी जगह यहां पर नहीं है। यहां इतना लिखना जरूरी है कि इजराइल का एक बयान मीडिया में आया कि इस कारवां में आतंकी शामिल हैं और अलकायदा के लोग भी। इसे इंटरनेट पर पढ़कर लोगों के बीच यह चर्चा शुरू हुई कि क्या यह किसी हमले के लिए माहौल बनाया जा रहा है?
ईरान के बाद टर्की एक खुला हुआ, योरप की तरफ बढ़ा हुआ, अंग्रेजी वाली रोमन लिपि को अपनाया हुआ देश मिला जहां पर चांद रंग-बिरंगे बादलों के बीच निकले हुए थे। जुबान की दिक्कत थी लेकिन रीति-रिवाज ईरान से कुछ अलग थे। एक भाषण के बाद हमारे एक-दो नौजवान कारवांईयों को टर्की की युवतियों ने जिस तरह घेरा और जिस तरह उनके आटोग्राफ लिए, ई-मेल पते लिए, वह देखने लायक था।
लेकिन टर्की के पहले बड़े सड़क समारोह में सैकड़ों तस्वीरें खींचकर जब मैं एक ट्रक से उतरा, तो बच्चों ने घेर लिया। वे झंडों पर, कागजों पर मेरा आटोग्राफ चाहते थे। मेरे गले में फिलीस्तीन के यासिर अराफात की तरह वाला एक स्कार्फ था, और मेरी शहादत बस उतनी ही थी। लेकिन जब मैंने बच्चों और लड़कियों की कलाई पर दस्तखत से मना कर दिया तो एक लड़की ने जिद करके अपनी जैकेट पर मुझसे दस्तखत लिए।
अंग्रेजी समझने वाले एक को पकड़कर मैंने 12-13 बरस की दिखती इस लड़की से जैकेट खराब करवाने की वजह पूछी तो उसने कहा- 'गाजा जाने वालों की याद उसके पास हमेशा बनी रहेगी।' मेरे लिए यह अफसोस का वक्त भी था क्योंकि इसके साथ मेरी एक तस्वीर लेने वाला भी कोई आस-पास नहीं था। आगे हमारे और साथी भी आटोग्राफ देते-देते घिरे रहे।
ईरान से टर्की में आते हुए ही सरहद पर हमारी एक साथी अजाम को रोक दिया गया। पचपन बरस की अजाम, ईरान में पैदा लेकिन अब अमरीकी नागरिक भी है। अपने अमरीकी पति के साथ वह इन दिनों भारत में रह रही हैं और पहले पल से वह कारवां में सबके लिए फिलीस्तीनी टोपियां बुनते चल रही थी। ईरान उसकी कमजोर नब्ज थी और बीती यादों ने उसे वहां के सबसे बड़े धार्मिक नेता अयातुल्ला खुमैनी की समाधि पर जाने से रोका था। लेकिन टर्की ने उसे आने नहीं दिया कि उसका नाम वहां पुरानी किसी सक्रियता के चलते अवांछित लोगों की फेहरिस्त में है।
हमारे कारवां के लोग सहम गए और टर्की के बाद जब कारवां सीरिया पहुंचा, तो वहां सीधे पहुंची अजाम को आगे साथ रखने से मना कर दिया गया। विजय तेंदुलकर के नाटक ''शांतता कोर्ट चालू आहे...'' की तर्ज पर उसके खिलाफ सौ बातें कही जाने लगीं और इंसाफ को छोड़कर कारवां आगे बढ़ गया। इस दौरान अरब दुनिया से तरह-तरह के लोग आकर जुड़ते गए लेकिन उस एक अकेली महिला जैसी कोई जांच-पड़ताल और किसी की न हुई। कारवां के भीतर महिलाओं के बराबर के हक की बात उस दुनिया में रहने तक ताक पर धर दी गई थी और कारवां के गांधीवादी भी इस पर चुप ही थे।
एक राजनीतिक मकसद को लेकर जा रहा यह कारवां अपने भीतर की एक बहुत ही समर्पित साथी पर लगे राजनीतिक सक्रियता के आरोप से पल भर में दहशत में आ गया था और अजाम हम लोगों की आंखों से ही फिलीस्तीन देख पाई।
सुनील कुमार

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