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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

राजघाट से गाजा तक कारवां - 2


राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी के इस संस्‍मरण के संपादित अंश बीबीसी हिन्‍दी में क्रमश: प्रकाशित किए गए हैं. हम अपने पाठकों के लिए सुनील कुमार जी के इस पूर्ण संस्‍मरण को, छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित करेंगें. प्रस्‍तुत है दूसरी कड़ी ...
भारत से गाजा के लिए रवाना हुए 'एशिया से गाजा कारवां की तैयारी में एक तरफ भारत के कुछ मुस्लिम नेता और संगठन लगे थे, तो दूसरी तरफ वामपंथी रूझान वाला एक मजदूर संगठन एनटीयूआई भी। इनके बीच विचारधारा और तौर-तरीकों की खाई थी, लेकिन एक मकसद साफ था कि फिलीस्तीनियों के साथ एकजुटता के लिए एशिया के देश कारवां की शक्ल में वहां पहुंचें। इसलिए इस कारवां में पांच वक्त के नमाजी भी थे और मेरी तरह के नास्तिक भी। मुस्लिम दुनिया फिलीस्तीन को एक सबसे बड़ा मुस्लिम मुद्दा मानती है, लेकिन इस कारवां में काफी गैरमुस्लिम भी थे और यह बात हर देश में लोगों को छू भी रही थी। आपस की वैचारिक विविधता से परे भी इस कारवां के सामने कई दुविधाएं थीं। रास्ते के देशों में जो सरकारें या संगठन कारवां का इंतजाम कर रहे थे, वे तमाम न तो अनिवार्य रूप से शांतिप्रिय थे और न ही मानवाधिकारों को लेकर उनका रिकॉर्ड बेदाग था। लेकिन सारी विसंगतियों के साथ ही चलना तय हुआ था और यह भी तय हुआ था कि रास्ते के पड़ावों के मुद्दों और मोर्चो में उलझने के बजाए कारवां अपनी मंजिल, फिलीस्तीन के गाजा की तरफ बढ़ते रहेगा। पता नहीं कैसे यह हो भी गया। कारवां की महिलाओं को जगह-जगह, स्थानीय रिवाजों के मुताबिक, और भारत जैसे लोकतंत्र की जुबान में कहें तो, भेदभाव भी झेलना पड़ा, लेकिन उसमें अधिक उलझने के बजाए तमाम लोग उससे अछूते रहकर गाजा की ओर बढ़ते चले गए। कुछ जगहों पर तो ऐसे संगठन मेजबान थे जिन्हें पश्चिम के देश आतंकवादी करार दे चुके हैं, लेकिन हिंसा पर भरोसा रखने वाले लोग तो कारवां में भी थे।
एक तरफ गांधीवादी कार्यकर्ता संदीप पांडे साथ थे जो मैगसेसे सम्मान पा चुके हैं, तो दूसरी तरफ कई हिन्दुस्तानी साथी ऐसे थे जो भारत के भीतर भी बिना हिंसा, इंसाफ को मुमकिन नहीं मानते। पांच हफ्ते रात-दिन साथ रहते जब दो अलग-अलग पीढिय़ों के भारतीय हिंसा के हिमायती दिखे, तो मैं कुछ हक्का-बक्का रह गया। ऐसे में सफर के बीच सीरिया में जब खबर आई कि हिन्दुस्तान में एक अदालत ने बिनायक सेन को राजद्रोह में उम्रकैद दी है, तो कुछ लोग वहां भी एक दिन का धरना इसके खिलाफ देना चाहता थे। लेकिन फिर बात यही तय हुई कि असल मकसद से भटकना ठीक नहीं होगा।
कारवां में पूरी तरह के कट्टरपंथी, पक्के नास्तिक, अमन पसंद, हिंसा के हिमायती तो थे ही, कुछ लोग खुलकर बहस करते थे कि दुनिया में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र किस तरह एक बोगस सोच हो गई है और वह कभी इंसाफ नहीं कर सकती। ब्रिटेन से आए बांग्लादेशी मूल के दो नौजवान मानते थे कि धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र अल्पसंख्यकों के पूरी तरह खिलाफ है और उनके तन-मन पर पश्चिम में पाए जख्मों की मिसालें थीं।
कारवां में विपन्न से लेकर सम्पन्न दर्जों तक के लोग थे और बीस बरस के छात्रों से लेकर सत्तर पार कर चुके मजदूर नेता भी थे जो यह जिद करके गए थे कि वे तो फिलीस्तीन के साथ एकजुटता के लिए जाएंगे ही, फिर चाहे वे मर जाएं तो उन्हें वहीं फेंक दिया जाए। कारवां के तमाम लोग इस जानकारी के साथ जा रहे थे कि पिछली मई में ऐसे ही एक राहत-कारवां के जहाज पर इजराइल ने अंतरराष्ट्रीय समुद्र सीमा में हमला किया था और निहत्थे लोगों के जत्थे के बीस लोगों को मार डाला था, जिसकी कि दुनिया भर में भारी निंदा हुई थी। वैसे ही खतरे के साथ लोग भारत से रवाना हुए थे और यह हिम्मत की एक मिसाल है कि आखिरी तक कोई भी हिला नहीं। सच तो यह है कि जब सिर पर खतरे का कफन बांधकर लोग निकले, तो हिन्दुस्तान के जानकार साथी हैरान थे कि फिलीस्तीन के लिए जान देने हम क्यों जा रहे हैं। मैंने तो इमरजेंसी के वक्त से जिस अखबार में काम शुरू किया था, वह फिलीस्तीन का बड़ा हिमायती था, इसलिए मेरी सोच तो अपनी कम उम्र से ही ढली हुई थी, लेकिन बीस बरस के लड़के-लड़कियां जिस दमखम के साथ इस लंबे, कठिन और खतरनाक कारवां में थे, वह इस पीढ़ी के इन लोगों में जागरूकता की एक तगड़ी मिसाल थी। यह एक और बात है कि भारत की नौजवान पीढ़ी के एक बहुत ही छोटे हिस्से की यह जागरूकता देश में इस या किसी भी पीढ़ी की जागरूकता का कोई पैमाना नहीं है।
भारत से शुरू हुए कारवां के आधे लोग पाकिस्तान के लाहौर तक जा पाए और कुछ घंटों में वहां एक कार्यक्रम के बाद उन्हें वापिस लौटना पड़ा क्योंकि वहां पर बहुत लंबे कार्यक्रम का माहौल नहीं था। दिल्ली से पाकिस्तान तक 5-6 सौ किलोमीटर का एक तरफ का बस का सफर लगभग दो बार तय करने के बाद लोग दिल्ली लौटे और वहां से कारवां विमान से ईरान के तेहरान के लिए रवाना हुआ। तमाम लोग सड़क के सफर के लिए उत्साही थे लेकिन पाकिस्तान से रास्ता न मिलने की वजह से लोगों को विमान से यह हिस्सा पार करना पड़ा जहां पर इस पूरे सफर के सबसे गर्मजोश मेजबान, ईरानी नौजवान मौजूद थे। उनके साथ हिजाब और चादर से ढंकी हुईं युवतियां भी थीं जिनके पास दिल्ली से पहुंचीं महिलाओं और लड़कियों के लिए हिजाब का तोहफा था और ईरान का पूरा सफर इन सबको सिर को पूरी तरह बांधकर ही तय करना था।
ईरान के भीतर एक बहुत लंबे हिस्से के लिए कार्यक्रम पहले से बनाया गया था और उन तमाम शहर-कस्बों तक जाने के लिए बस का सफर मुमकिन नहीं था क्योंकि पहले वह रास्ता पाकिस्तान की सरहद से तय हुआ था और अब हम दूसरे सिरे से सफर शुरू कर रहे थे। इसलिए तेहरान से लेकर जहेदान नाम के शहर तक फिर एक उड़ान ली गई और आगे के पूरे हफ्ते के सड़क सफर में भी पल-पल यह समझ आते रहा कि किस तरह ईरान की पूरी सरकार, पूरा का पूरा समाज फिलीस्तीन के मुद्दे के साथ और इसलिए यह कारवां उनकी सड़कों से तो गुजर रहा था लेकिन इन सड़कों के किनारे पूरे ही वक्त उनके दिल भी बिछे दिख रहे थे। ईरान में वहां की सरकार के साथ असहमत एक विपक्ष जरूर था लेकिन उस विपक्ष की भी कोई असहमति फिलीस्तीन के मुद्दे पर नहीं थी।
पूरी तरह इस्लामी संस्कृति और लगभग तमाम मुस्लिम आबादी वाला ईरान मजहब की वजह से, इंसाफ के नजरिए से तो फिलीस्तीनियों के साथ है ही, एक दूसरे फौजी नजरिए से भी देखें तो अमरीका का करीबी साथी बना हुआ इजराइल ईरान को इस पूरे इलाके में अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता है और ईरान पर हमले की सोच भी रखता है। ऐसे में भारत से आए हुए कई धर्मों वाले इस कारवां की शक्ल में शायद इजराइल और अमरीका के खिलाफ आक्रामक नारे लगाता हुआ एक ऐसा जत्था भी ईरान को मिला कि जिससे उसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी सोच को एक साथ भी मिला। इसलिए ईरान का साथ इस कारवां को कल्पना से परे का रहा और मेजबानों के साथ कारवां के ऐसे गहरे इंसानी रिश्ते भी बने कि जो सफर पूरा होने के दस दिन बाद भी इंटरनेट पर बिखरे हुए हैं और बढ़ते चल रहे हैं।
ईरान में जनता का सैलाब इजराइल के खिलाफ, अमरीका के खिलाफ इस कदर दिख रहा था कि वह समंदर के पानी के सैलाब की जगह एक तेजाब का सैलाब अधिक था। और पूरे हफ्ते हमारे कारवां को हाथों-हाथ लिया गया और खातिर कुछ उसी किस्म की हुई जैसी कि किसी तीर्थयात्रा पर निकले हुए जत्थे की जगह-जगह होती है। हालांकि दो बातें इस पूरे दौर में मन में घूमती रहीं कि फिलीस्तीनियों का मुद्दा तो ठीक है लेकिन अपने भीतर ईरान का मानवाधिकारों का रिकॉर्ड इतना अच्छा तो नहीं है कि उसे पूरी तरह अनदेखा कर दिया जाए। दूसरी बात यह भी लगते रही कि आज तो यह तेजाबी सैलाब हमारे साथ है, लेकिन किसी दिन कहीं पर ऐसा कोई सैलाब हमारे खिलाफ रहा तो उस दिन हमारा क्या हाल होगा? ईरान से तो ऐसा कोई खतरा है नहीं लेकिन जुनून भरी हुई आक्रामकता को देखते हुए समझदार मन तो कुछ हद तक सहमता ही है। (बाकी अगली किस्तों में)

सुनील कुमार

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