नया ज्ञानोदय में प्रकाशित जया जादवानी की कहानी ‘मितान’ पर मेरी असहमति
साहित्य में क्षेत्रीय भाषा के शब्दों का प्रयोग बहुधा होते आया है और इसी के कारण क्षेत्रीय भाषा के शब्दों को गाहे बगाहे हिन्दी नें अपना लिया है। क्षेत्रीय भाषा के शब्दों के प्रयोग के माध्यम से लेखक हिन्दी भाषी पाठकों को देश के स्थानीय संस्कृति व परंपरा से जोडने का प्रयास करते हैं! इसी कारण प्रेमचंद से लेकर अभी तक के कई कहानीकार पात्रों के नाम व अन्य शब्दों को, हिन्दी में लिखने के बजाए अपने स्थानीय प्रचलित शब्दों में लिखते रहे हैं, जिससे हम स्थाननीय शब्दों का अर्थ भी को समझ कर आत्मसाध कर पाते है। ‘मैं उस जनपद का कवि हूं’ कहने वाले त्रिलोचन नें भी अपनी हिन्दी लेखनी में जनपदीय भाषा का प्रयोग किया है एवं समय समय पर अपने आख्यानों में उन्होंनें स्वीकार किया है कि वे स्थानीय बोली-भाषा के शब्दों को पढने व जानने की निरंतर अपेक्षा रखते थे। बाबा त्रिलोचन स्वयं एक साक्षात्कार में स्वीकारते हैं कि उन्होंनें छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों की रचनाओं से छत्तीसगढ़ी भाषा के कुछ शब्दों को सीखा है। हिन्दीं लेखनी में स्थानीय छत्तीसगढ़ी भाषा-बोली का प्रयोग अनेक स्थानीय साहित्यकारों नें किया है। छत्तीसगढ़ की मिट्टी की सोंधी महक आप गुलशेर अहमद ‘शानी’, मेहरून्निशा परवेज और डॉ.परदेशीराम वर्मा जी जैसे साहित्यकारों की कहानियों में भी देख सकते हैं।
कथा साहित्य के इस संस्कार से मैं थोड़ा-बहुत लिखने-पढ़ने के शौक़ के कारण परिचित रहा हूं। देश के अलग-अलग कोने में निवासरत पाठकों से संवाद के दौरान छत्तीसगढ़ी शब्दों पर यदा-कदा बातें भी होती रहती है। उत्तरांचल उच्च शिक्षा विभाग में प्राध्यापक और कर्मनाशा व कबाडखाना वाले भाई डॉ.सिद्धेश्वर सिंह जैसे शुभचिंतक मेरे इस स्थानीय भाषा प्रेम को और प्रगाढ बनाने में संबल देते हैं साथ ही शब्दों के प्रयोग से स्थानीय बोली के शब्दों का अर्थ समझने का निरंतर प्रयास भी करते रहते हैं। सिद्धेश्वर जी जैसे कई हैं जिन्हें मेरे प्रदेश की कुछ आम भाषा की बानगी, हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में स्थानीय साहित्यकारों के कविता, कहानी व अन्य लेखनी के प्रकाशन के द्वारा ज्ञात होती है। इन्ही सन्दर्भों मे पिछले दिनों नया ज्ञानोदय के दिसम्बर 2009 अंक में छत्तीसगढ़ की ख्यात महिला कथा लेखिका जया जादवानी की एक कहानी पर मेरी नजर पडी शीर्षक था ‘मितान’। छत्तीसगढ़ी शीर्षक के कारण सबसे पहले मैंने उसी कहानी को पढना आरंभ किया। कहानी मुझे बहुत अच्छी लगी किन्तु बार बार मुझे कथा के नायक के द्वारा नायिका को ‘मितानी’ संबोधित करना खटकता रहा। नायक कथा के आरंभ में ही इस क्षेत्र के संबंध में व छत्तीसगढ़ी भाषा ज्ञान को प्रदर्शित करता है।
पूरी कहानी में महिला मित्र को छत्तीसगढ़ी भाषा में ‘मितानी’ संबोधन करना छत्तीसगढ़ी ज्ञान वाले नायक के मुह से सुनकर हर बार अटपटा लगता रहा। मैं मूलत: छत्तीसगढ़ के गांवों में पला-बढा़ ठेठ छत्तीसगढिया हूं। मैंनें छत्तीसगढ़ी की कोई अकादमिक शिक्षा नहीं ली किन्तु् मुझे इस भाषा का संस्कार पारंपरिक रूप से प्राप्त हुआ इस कारण इसके हर शब्द का अर्थ मेरा मानस समझता है और उसके अनुरूप प्रतिक्रिया करता है। इस कहानी में उपयोग किया गया यह शब्द ‘मितानी’ कहानी ही नहीं पूरी पत्रिका को पढते हुए मुझे बार-बार खटकता रहा। आज भी जैसे ही मैं नया ज्ञानोदय के उस अंक के पेजों को देखता हूं, मैं ‘मितानी’ पर अटक जाता हूं।
इस शब्द का विश्लेषण करते हुए संजीत त्रिपाठी नें एक बार कहा था “छत्तीसगढ़ी में "मितान" शब्द प्रयोग होता रहा है। मितान पुल्लिंग है जबकि मितानिन स्त्रीलिंग मतलब यह कि अगर पुरुष किसी दूसरे पुरुष को मित्र बनाना चाहे तो वह मितान कहलाएगा जबकि स्त्री किसी दूसरी स्त्री को मित्र/सखी/सहेली बनाना चाहे तो वह मितानिन कहलाएगी। मितान या मितानिन बनाने की यह प्रक्रिया ' मितान/मितानिन बदना' कहलाती है। 'बदना' से यहां पर आशय "तय करने" से है।”
यदि कोई पुरूष किसी महिला को मित्र बनाना चाहे तो भी वह महिला मित्र ‘मितानिन’ ही कहलायेगी। लेखिका नें ‘मितानी’ शब्द को महिला मित्र के स्थानीय पूरक के रूप में प्रस्तुत किया है जबकि छत्तीसगढी भाषा का अल्प से अल्प ज्ञान रखने वाला भी बतला सकता है कि छत्तीसगढ में महिला मित्र के लिए जो शब्द प्रयोग में लाया जाता है वह शब्द है ‘मितानिन’। प्रदेश सरकार इस शब्द को प्रयोग कर महिला एवं बाल विकास के केन्द्रीय कार्यक्रमों का कार्यान्वयन भी करा रही है एवं गांव-गांव, गली-गली मितानिन बनाए जा रहे हैं बच्चा-बच्चा मितानिन का अर्थ समझता है। मितान में ई प्रत्यय जोड कर ‘मितानी’ बनाया गया है जिसका छत्तीसगढी भाषा में अर्थ मित्रता से है। हमने पढा है कि जनभाषा व्याकरण के नियमों का अनुसरण नहीं करती, परंतु व्याकरण को जनभाषा की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करना पड़ता है, छत्तीसगढी में महिला मित्र को ‘मितानिन’ कहा जाता है ‘मितानी’ नहीं। ‘कहो मित्रता क्या हाल चाल है’ क्या आप अपने मित्र को ऐसा कहेंगें, कदापि नहीं किन्तु कहानी में ऐसा बार बार कहा गया है।
जया जादवानी हिन्दी की उन विरल लेखिकाओं में से है जिनकी रचनाएं मनुष्य के अंतर्मन की यात्राएं करती हैं। अनुभूतियों के कोमल संपदनों को बुनने वाली जया का जन्म 1 मई 1959 कोतमा में हुआ।
जीवन की रागात्मकता का उत्सव रचने वाली, उसे आध्यात्म प्रत्ययों की रोशनी में देखने वाली जया को "तत्वमसि" उपन्यास से लोकप्रियता मिली। उनके कथा संग्रह "अन्दर के पानियों से कोई सपना बहता है", "मुझे होना है बार-बार", "उससे पूछो", "मैं अपनी मिट्टी में खड़ी हूं कांधे पे अपना हल लिए", की कहानियों ने प्रतिभूत कर देनेवाली संवेदना अर्पित की है। उनके कविता संग्रह "मैं शब्द हूं", अनंत संभावनाओं के बाद भी और उठाता है कोई एक मुट्ठी ऐश्वर्य इसका परिचायक है।
उनकी कई कहानियों पर वृत्तचित्र बने हैं, वे कई संस्थानों से पुरस्कृत हुई हैं । उन्होंने हिमालय के अत्यंत बीहड़ व मनोरम स्थल की यात्राएं की हैं। उनके भीतर एक ऐसी आतुरता और भावाकुलता सांस लेती है जो सदैव किसी अच्छी रचना के लिए प्रतिश्रुत रहती है। इन दिनों वे बी-1/36 वीआईपी स्टेट, विधानसभा मार्ग रायपुर छत्तीसगढ़ में रहती हैं।
यह सर्वविदित सत्य है कि “किसी भाषा के बोलने वाले अन्य भाषा-भाषियों के साथ प्रायः उस भाषा के मानक रूप का ही प्रयोग करते हैं, किसी बोली का अथवा अमानक रूप का नहीं।” भाषा शास्त्री प्रो. चित्तरंजन कर जी कहते हैं कि “भाषा के लोकतंत्र की रक्षा का दायित्व हर भाषा-भाषी के ऊपर है। भाषा में एक ओर लोक है, तो दूसरी ओर तंत्र है। यह तंत्र स्वतंत्रता की अनुमति तो देता है, परंतु स्वच्छंदता उसे कदापि स्वीकार्य नहीं है।” पता नही क्यू मुझे लगता है कि इस कहानी में लेखिका नें भाषा के प्रयोग में कुछ स्वच्छंदता का परिचय दिया है।
सुविधा के संतुलन के अनुसार जया जी यह कह सकती है कि कहानी के उस पुरूष पात्र नें ‘मितानी’ शब्द का प्रयोग किया है जो छत्तीसगढी भाषा का जानकार नहीं है इस कारण अपभ्रंश में वह ऐसा शब्द बोल रहा है। किन्तु लेखिका छत्तीसगढ के भूगोल का प्रतिनिधित्व करती है एवं एक जानी मानी हिन्दी कहानी लेखिका है। उनके लिखे शब्दों का अर्थ पाठक वही समझते है जो वो लिखती हैं ऐसे में छत्तीसगढी शब्द ‘मितानिन’ के स्थान पर ‘मितानी’ को स्थापित करना मुझे उचित प्रतीत नहीं होता। यह हमारी भाषा को गलत ढंग से जनता के सामने प्रस्तुत करने का प्रयास है । जया जादवानी जी स्थापित लेखिका हैं, देश-विदेश के बडे-बडे़ साहित्तिक कार्यक्रमों में सम्मिलित होती रहती हैं और देश के अति बौद्धिक वर्ग की श्रेणी में शुमार हैं। मैं स्वयं जया जी की लेखनी का कायल हूं किन्तु इस प्रकार से हमारी (जया जी की भी) भाषा का प्रयोग ‘मितान’ कहानी में पढकर मुझे अच्छा नहीं लगा।
मेरी असहमतियों को दर्ज किया जाए।
भवदीय
संजीव तिवारी
शब्दों में विकृति होने से कालांतर में अपभ्रंश बनकर उसके विभिन्नार्थ हो जाते हैं। अगर हम किसी दुसरी भाषा या बोली के शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं तो निश्चित रुप से उसके अर्थ और भाव को समझना जरुरी है। तभी उसका प्रयोग हो।
जवाब देंहटाएंजया जी की एक दो कहानियां मैने पढी हैं। अच्छा लिखती हैं। लेकिन आपने जो सचेत रहते हुए असहमति जताई है वह जायज है। शब्दों के साथ भी न्याय होना चाहिए। "मितानी" शब्द कुछ अटपटा सा लगता है, इसका अर्थ चाहे जो भी लगाया जाए। लेकिन "मितानिन" का स्थान नहीं ले सकता।
आभार संजीव भाई सचेत करने के लिए
jayaa jadvani ki kahani me m''mitani'' ka jikr unkee agyaanataa ko hi darshataa hai. umeed hai, ab ve sudhaar kar lengi. tumhaaraa yah lekh (bhi) bahut achchha ban padaa hai.
जवाब देंहटाएंpatra ke mutabik shabd ka upyog karne ki safai diye jaa sakne ki sabhavna ke baavajud, meri bhi ashamti darj ki jaye....
जवाब देंहटाएंआपकी असहमति बिलकुल जायज हैं। किसी शब्द का प्रयोग तभी किया जाना चाहिए, जब आप उसके मायने जानते हों। अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जाता है। सिर्फ छत्तीसगढ़ी की ही बात क्यों, कई लोग तो हिन्दी, उर्दू और फारसी के शब्दों की ऐसी-तैसी कर देते हैं। मसलन, ताजा शब्द का उपयोग ताजी के रूप में कर दिया जाता है।
जवाब देंहटाएंसंजीव भाई मैं तुम्हारी बात से सहमत हूं लेकिन यह भी मानता हूं कि जयाजी बहुत अच्छी लेखिका है। कई बार जब हम बाहर जाते हैं और लोग यह पूछते है कि अरे आपके छत्तीसगढ़ में जया जादवानी जी है तो यह सुनकर ही अच्छा लगता है।
जवाब देंहटाएंबाकी संजीत त्रिपाठी ने तो सलाह दे ही दी होगी। यदि नहीं भी दी होगी तो अपनी असहमति जरूर जता दी होगी। उनकी सलाह और असहमति के बाद कुछ भी बचता नहीं है। वे हमारे समय के महत्वपूर्ण टिप्पणीकार है। एक बार उनसे टाटा और बिड़ला ने भी सलाह ली थी। संजीत की सलाह के बाद देखिए उनका धंधा कहां-कहां नहीं फैल गया। बहरहाल तुमने अच्छा विषय उठाया। मुझे लगता है इस विषय पर जयाजी से भी कुछ पूछना चाहिए था। कई बार लेखक का ध्येय कुछ दूसरा ही होता है।
टिप्पणी से पहले :
जवाब देंहटाएं'जादवानी' की 'कहानी' की 'मितानी' पर 'सोनी' और 'सोनी' पहले ही आपसे 'अपनी' तुक मिला चुके है फिर मैं 'अज्ञानी' अलग से क्या कहूं ?
टिप्पणी :
भाषा और बोलियों की अपनी मर्यादायें / शील / कुल...वगैरह वगैरह हुआ करते हैं अतः प्रयोगधर्मिता में सावधानियां अपेक्षित हैं !
मेल से प्राप्त टिप्पणी -
जवाब देंहटाएंWriter is an artist, and an artist does take liberty with words, sentences, grammar and pronunciation.
Blow blow thy winter wind
Thou art not so unkind
as friend remembered not.
Here wind is to be pronounced as kind so as to rhyme.
Though it should not be given as a good example, film songs which are often written by famous poets and shairs also twist words many a time. This is nothing serious. Of course the word mitani looks sweeter as compared to to the lengthier mitanin.
Best wishes.
akbhatt
Anand Kumar Bhatt
मितान के मितानी,
जवाब देंहटाएंबने रहने दें मितानीन
भाषा से खिलवाड़ अच्छा नहीं है।
हम सुर नहीं मिला रहे हैं
सच्ची बात कह रहे हैं।
विवेकपूर्ण, संतुलित, मर्यादित और शालीन ढंग से की गई आपकी आपत्ति का तथ्य और सलीका, वाह क्या बात हैा
जवाब देंहटाएंकई बार हम अपने प्रेम व एक खास लगाव के लिए कुछ शब्द गड लेते हैं. साहित्य में यह चल जाता है. मैथिली में भी मीत से मीता बना है. इस शब्द का प्रयोग स्त्री- पुरुष दोनों के लिए किया जाता है. स्थानीय भाषा भाषी को नए शब्द के गठन में कुछ अटपटापन सा लग सकता है, मगर बाद में यही अच्छा भी लगने लगता है, जैसे "सर जी" का प्रयोग.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबधाई हो संजीव भाई.. असहमति का सधा हुआ सुर.
जवाब देंहटाएंआपका विरोध जायज है। मुझे तो मालूम ही नही खैर आज ही पढ़ा मितानिन कहते है सखी को। शुक्रिया संजीव जी। आपका भाषा ज्ञान वाकई तारीफ़ के काबिल है।
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