राजघाट से गाजा तक कारवां-7

राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी के इस संस्‍मरण के संपादित अंश बीबीसी हिन्‍दी में क्रमश: प्रकाशित किए गए हैं. हम अपने पाठकों के लिए सुनील कुमार जी के इस पूर्ण संस्‍मरण को, छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित करेंगें. प्रस्‍तुत है सातवीं और अंतिम कड़ी ...
(पिछली किस्त से आगे)
दिल्ली से गाजा तक के सफर में जिस गाजा की हम कल्पना करते पहुंचे थे, वह कुछ मायनों में उससे बेहतर था और कुछ में बदतर। एक तो हमलों के निशाने पर बिरादरी, दूसरी तरफ आसपास के कुछ मुस्लिम पड़ोसी देशों की भी हमदर्दी उसके साथ नहीं है। संयुक्त राष्ट्र जितनी राहत करना चाहता है, वह भी इजराइल की समुद्री घेरेबंदी के चलते मुमकिन नहीं है। लेकिन उम्मीद से बेहतर इस मायने में था कि कई नए मकान और नई इमारतें बनते दिख रही थीं और बच्चे स्कूल-कॉलेज जाते हुए भी।
गाजा में हम एक ऐसे मुहल्ले में गए जहां एक ही कुनबे के 28-29 लोग हवाई हमले में मारे गए थे। पूरा इलाका अब मैदान सा हो गया है और वहीं एक परिवार कच्ची दीवारें खड़ी करके प्लास्टिक की तालपत्री के सहारे जी रहा है। इस बहुत ही  गरीबी में जी रहे परिवार ने तुरंत ही कॉफी बनाकर हम सबको पिलाई।
परिवार की एक महिला को कसीदाकारी करते देखकर मैंने पूछा कि इसका क्या होता है? पता लगा कि बाजार में उसे बेच देते हैं। मेरी दिलचस्पी, और पूछने पर उसने कुछ दूसरे कपड़े दिखाए जिन पर कसीदा पूरा हो गया था। लेकिन कई कपड़े फटे-पुराने दिख रहे थे जो कि इजराइली हवाई हमले में जख्मी हो गए थे। मैंने जोर डालकर दाम देकर ऐसा एक नमूना लिया। परिवार की महिलाओं की आंखों में आंसू थे और आगे की जिंदगी का अंधेरा भी।
यह शहर मलबे के बीच उठते मकानों, उठती इमारतों का है, जिनके ऊपर जाने किस वक्त बमबारी हो जाए। कहने को फिलीस्तीन लोग भी घर पर बनाए रॉकेटों से सरहद पर हमले करते हैं, लेकिन आंकड़े देखें तो फिलीस्तीनी अगर दर्जन भर को मारते हैं तो इजराइली हजार से अधिक। एक गैरबराबरी की लड़ाई वहां जारी है।
फिलीस्तीन में अब सिवाय इतिहास, कोई हिन्दुस्तान की दोस्ती का नाम भी नहीं जानता था। उनकी आखिरी यादें इंदिरा गांधी की हैं जिस वक्त यासिर अराफात के साथ उनका भाई-बहन सा रिश्ता था। अब तो इस दबे-कुचले जख्मी देश से भारत का ही कोई रिश्ता हो, ऐसा गाजा में सुनाई नहीं पड़ता।
गाजा के इस्लामिक विश्वविद्यालय में मैंने एक विचार-विमर्श के बाद, बमबारी के मलबे के बगल खड़े हुए दो युवतियों से भारत के बारे में पूछा, एक का कहना था इंदिरा गांधी को अराफात महान बहन कहते थे।
दूसरी युवती का कहना था कि वह पढऩे के लिए भारत आना चाहती है लेकिन कोई रास्ता नहीं है।
ऐसा भी नहीं कि फिलीस्तीन में इंटरनेट नहीं है। तबाही के बीच भी धीमी रफ्तार का इंटरनेट है और नई पीढ़ी ठीक-ठाक अंगे्रजी में तकरीबन रोज ही मुझसे लिखकर बात कर लेती है। लेकिन इस पीढ़ी ने महज यह कारवां भारत से आते और जाते देखा है। इस कारवां से परे भारत की हमदर्दी का उसे कोई एहसास नहीं है और मुझसे पूछे जाने पर जब जगह-जगह मैंने कहा कि लगभग पूरा हिन्दुस्तान फिलीस्तीन के मुद्दे से नावाकिफ है तो इससे वे लोग कुछ उदास जरूर थे। लेकिन इसके साथ ही हिन्दुस्तान के बारे में कहने के लिए मेरे पास एक दूसरा यह सच भी था कि लगभग पूरा हिन्दुस्तान खुद हिन्दुस्तान के असल मुद्दों से नावाकिफ है और सिर्फ अपनी जिंदगी के सुख या अपनी जिंदगी के दुख ही अमूमन उसके लिए मायने रखते हैं। ऐसे में मैं न सिर्फ फिलीस्तीन की नौजवान पीढ़ी बल्कि रास्ते के देशों में राजनीतिक चेतना के साथ उत्तेजित खड़े मिले नौजवानों से भी यह कहते गया कि ऐसी जागरूकता की जरूरत हिन्दुस्तान को भी बहुत अधिक है।
एक अनाथाश्रम बच्चों से भरा हुआ था जहां फेंके गए जिंदा बच्चे लाकर बड़े किए जा रहे थे। फिलीस्तीन के समाज में औरत मर्द का संतुलन गड़बड़ा गया है, मर्द शहीद और औरतें अकेली। मुस्लिम रीति-रिवाज ही क्यों, आज के भारत में ही कौन अकेली मां को उसके बच्चे पैदा करने पर बर्दाश्त कर सकता है? नतीजन ऐसे बहुत से बच्चे यतीमखाने में थे। समाज में आबादी और पीढ़ी का अनुपात वैसे ही गड़बड़ा गया है जैसे विश्वयुद्धों के बाद कई देशों में गड़बड़ा गया था।
मानवीय सहायता पहुंचाने का मकसद तो वहां पहुंचकर पूरा हो गया, पूरे रास्ते के देशों को देखना तो हो पाया था लेकिन एक अखबारनवीस की हैसियत से फिलीस्तीन को देखना बहुत कम हो पाया। हमारे साथ वहां घूमते कुछ गैरसरकारी नौजवानों के बारे में भी हमारे एक साथी को शक था कि वे सत्तारूढ़ पार्टी हमास के लिए हमारी निगरानी करते हो सकते हैं। इतने कम वक्त में क्या पता चलता है?
लेकिन एक बात तय थी कि चार दिन के हमारे-रहने का अधिक से अधिक वक्त हमास और सरकार के लोग आयोजित कार्यक्रमों में बरबाद करके हमें लोगों से दूर रखना चाहते थे। हो सकता है कि खतरों के बीच चौकन्नेपन की उनकी आदत हो।
फिलीस्तीन की नई पीढ़ी के पास न वहां से बाहर निकलने की राहें हैं, न दुनिया के अधिक देशों में उनके लिए फैली बाहें हैं। बगल के सीरिया में जो फिलीस्तीन शरणार्थी आधी सदी से बसे हैं, वे जरूर दसियों लाख हैं और सीरिया की सरकार उनका ख्याल रखती है, सरकारी नौकरी देती है। लेकिन इजराइली घेरेबंदी के चलते उनको अपनी ही जमीन पर आज तक लौटना नसीब नहीं हो पाया। इस तरह फिलीस्तीन में भीतर रह गए लोग भीतर हैं और बाहर चले गए लोग बाहर।
गाजा में एक जगह हमलों में हुई मौतों और जख्मों की तस्वीरों की प्रदर्शनी लगी थी। इसमें हमारे साथ की कुछ भारतीय युवतियां बहुत विचलित सी दिखीं। उनकी तस्वीर लेते हुए जब उनके चेहरों पर राख सी पुती दिखी तो उनका कहना था कि ऐसा नजारा उन्होंने कभी नहीं देखा था और ऐसे में मैं उनकी तस्वीर न लूं। लेकिन मैंने उन्हें समझाया कि मौतों के ऐेसे मंजर को देखकर तो इंसान विचलित होंगे ही और यह तस्वीर सिर्फ उसी को कैद कर रही है। लेकिन अपनी ही साथी इस लड़की से बात करते-करते मैं यह सोचते रहा कि जिस फिलीस्तीन में आए वक्त लोग असल मौतों को न सिर्फ देखते हैं बल्कि भुगतते हैं, जहां घायलों को उठाते हुए गर्म लहू की तपन हाथों को लगती है, जहां लहू की गंध भी देर तक सांसों में बसी रहती है, वहां की नौजवान पीढ़ी कितनी विचलित नहीं होती होगी।
यही वजह थी कि विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में एक हिन्दुस्तानी सवाल के जवाब में एक फिलीस्तीनी छात्रा का कहना था-जिस इजराइल ने हमारे पूरे कुनबे को मार डाला है, उसके पड़ोस में रहना या उसे पड़ोस में रहने देने का तो सवाल ही नहीं उठता।
गाजा में एक कार्यक्रम में ऐसी औरतों और ऐसे बच्चों की भीड़ थी जो इजराइली जेलों में बंद अपने घरवालों की तस्वीरें लिए बंदी थीं। इनमें शहीदों के घरवाले भी थे। लेकिन हिन्दुस्तान में भी पंजाब वगैरह में ऐसी तकलीफदेह जिंदगी होगी जिसे देखना मुझे अब तक नहीं मिल पाया है। दिल्ली में कश्मीरी पंडि़तों के शरणार्थी शिविरों तक जाना भी अभी नहीं हो पाया है और बस्तर में हिंसा से बेदखल लोगों के बीच में महज एक बार मेरा जाना हुआ है।
इसलिए गाजा में जब एक टेलीविजन कार्यक्रम में मुझसे पूछा गया कि इस कारवां की मैं क्या कामयाबी मानता हूं? तो सोचकर मैंने कहा कि डेढ़-दो महीने से फिलीस्तीन के बारे में सोचते-सोचते अब आत्ममंथन से यह भी दिख रहा है कि हिन्दुस्तान के भीतर दबे-कुचले तबकों से बेइंसाफी वाले कितने फिलीस्तीन जगह-जगह बिखरे हुए हैं। अगर यह कारवां गाजा के जख्मों के देखने के बाद भारत के भीतर के ''फिलीस्तीनियों' के जख्म देख पाता है तो वह कारवां की कामयाबी होगी। बिना इजराइली बमबारी और गोलीबारी के भी हिन्दुस्तान के कमजोर तबकों पर रोज हमले हो रहे हैं और बेइंसाफी जारी है।
मतलब यह कि सिर्फ अमरीकी या इजराइली हमलों से गाजा घायल नहीं होता, वह तो हिन्दुस्तान के भीतर भी लोकतांत्रिक कही जाने वाली सरकारों के हमलों से घायल होता है और यहां की बाजारू ताकतों के हमलों से भी। पांच हफ्तों के इस सफर में दूसरों के जख्म देखते हुए अपनों के जख्मों के बारे में भी सोचने का कुछ मौका मिला और शायद कारवां कुछ दूसरी तरफ भी जा सकेंगे।
गाजा और रास्ते के सफर से जुड़ी कई बातें फिर कभी, किसी और शक्ल में।
सुनील कुमार
यात्रा के फोटो कैप्‍शन के साथ हम अगली पोस्‍ट में प्रस्‍तुत करेंगें. 
कारवां .....
राजघाट से गाजा तक कारवां-1
राजघाट से गाजा तक कारवां-2
राजघाट से गाजा तक कारवां-3
राजघाट से गाजा तक कारवां-4
राजघाट से गाजा तक कारवां-5
राजघाट से गाजा तक कारवां-6

2 टिप्‍पणियां:

  1. युद्ध संतुलन बिगाड़ देता है, अर्जुन की चिन्ताओं में यह भी एक थी।

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  2. आज इस श्रंखला पर अपनी प्रतिक्रिया अपने ब्लॉग पर डाल दी है !

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