साहित्यकार महोदयजनों आपने पिछले दिनों कहा था कि 'छपास पीडा का इलाज मात्र है ब्लाग'. ब्लागर्स और उनकी पीडा से व्यथित ‘साहित्यकार’ महानुभावो आपने अपनी अहम की तुष्टि के लिये यह मान लिया है कि ब्लागर्स ही छपास पीडा से ग्रसित हैं, आप लोग बैरागी है. क्या ‘साहित्याकार’ की पदवी से विभूषित व्यक्ति मनुष्य नहीं होते, उन्हें प्रसंशा व प्रतिष्ठा की दरकार नहीं है, क्या वे नहीं चाहते कि उनकी लिखी हुई रचनाओं को अधिकाधिक संख्या में लोग पढें. क्या आपकी रचनायें पत्र-पत्रिकाओं के संपादक आपके घर आकर ले जाते हैं, आप भी उन्हें प्रकाशन के लिये भेजते हैं, यह नहीं है छपास पीडा, आप वीतरागी हैं. आपको यह छपास पीडा यहां तक सालती है कि अपने मेहनत की कमाई से भी अपने संग्रह को पुस्तकाकार रूप में स्वयं छपवाकर मुफ्त में अपने इष्टा-मित्रों को बांटते हैं. कई बार पूरे जीवन भर साहित्यकार बने रहने के स्वप्न को साकार करने के लिये, रिटायरमेंट के बाद बच्चों से अरजी समझौता कर साहित्यकार अपने प्राविडेंट फंड के मिले पैसों से पुस्तक छपवाता है, धूम धाम से उसका विमोचन करवाता है. क्या यह छपास पीडा नहीं है. भाई साहब, यह पीडा तो लिखना सीखने के तुरंत बाद आरंभ हो जाता है, यह मानवीय गुण है, अपने लिखे को दूसरों को पढवाने का मानवीय व्यवहार है. इसे सिर्फ ब्लांगरों के मत्थे ठेलना सर्वथा अनुचित है. (शव्द 'ठेलना' पर ब्लागरों का कापीराईट है)
अब रही विषय में शामिल शव्द ‘मात्र’ के संबंध में, तो मेरा यह मानना है कि हममें वो क्षमता है कि हम प्रकाशकों के मुंह ताकते ना बैठें रहें, अभी लिखा और तत्काल माउस को दो चार क्लिक किया और हमारी लेखनी विश्वव्यापी हो गई. और यदि हमारी नेटवर्क क्षमता दमदार रही तो हमें पाठक भी मिलने चालू हो जायेंगें. वैसे ही जैसे आप प्रकाशक की नेटवर्क क्षमता का आंकलन करते हैं और अपनी रचनायें उसी प्रकाशक से छपवाते हैं जिसकी नेटवर्क तगडी हो. तो मामला बराबर.
सवाल ब्लागर्स में से प्रेमचंद या देवकीनंदन खत्री जैसे लेखक के पैदा होने का है तो, इस पर भी हमारा मानना है कि हॉं है ये क्षमता ब्लागर्स में. अभी तो हिन्दी ब्लागिंग शुरू ही हुआ है. इन्हीं ब्लागर्स में से कुछ ऐसे ब्लागर्स भी हैं जो तथाकथित साहित्तिक पत्र-पत्रिकाओं में छपने भी लगे हैं यानी आपने उन्हें अपने बिरादरी में अंगीकार करना चालू कर दिया है. हिन्दी् साहित्य से संबंधित कई ब्लाग और ब्लाग पत्रिकायें हैं जिनमें रचनाकार, हिन्द युग्म जैसे ब्लागों पर संग्रहित सामाग्रियों पर आपका ध्यान ही नहीं गया होगा. हिन्दी के सामूहिक प्रयास वाले ब्लाग साहित्य शिल्पी की पठन सामाग्री और भाषा पर कभी आपका ध्यान गया है, यह ब्लाग पत्रिका हिन्दी की सभी स्तरीय पत्रिकाओं के समकक्ष रहने का दर्जा रखती है. आवश्यकता है आपकी दृष्टि की. दरअसल आपको ज्ञात ही नहीं कि ब्लाग में क्या हो रहा है, जो इस संबंध में प्रिंट मीडिया नें छाप दिया उसी के अनुरूप आपने अपनी धारणा बना ली. अपनी दृष्टि व्यापक कीजिये संशय स्वमेव दूर हो जायेंगें.
हम पर आरोप है कि हमारी सामाग्री ऐसी होती है जैसे पान ठेले की बहस. मैं ज्यादा दूर गये बिना यहीं का एक उदाहरण देना चाहूंगा कि हमारे पित्र पुरूष बख्शी जी के जीवन परिचय या उनसे संबंधित संस्मरणों में बच्चीसों लोगों नें लिखा है कि वे खैरागढ के एक पान ठेले में खडे होकर बीडी पीते थे. और अपने मित्र मंडली से वहां घंटों बहस करते थे जो साहित्तिक या साहित्यकारों से संबंधित होते थे. मेरे ब्लागर्स भाईयों को बताना लाजमी होगा कि परम आदरणीय पदुम लाल पन्नालाल बख्शी जी हिन्दी साहित्य के बहुत बडे साहित्याकार थे और हिन्दी साहित्य की शीर्षस्थ पत्रिका ‘सरस्वती’ के संपादक थे. वहीं दूसरे पान ठेले पर चलताउ बहसें और टपोरीपन की बातें भी होती रही होगी, तो यह तो आपको सोंचना है कि आप उसी पान ठेले में उसी समय जायें जब बख्शी जी वहां बीडी पीने आते हैं.
ब्लाग की भाषा के संबंध में ब्लागरों नें लम्बी बहसें की है, अभी अभी ई स्वामी नें ‘साहित्य वो बासी चिट्ठा है जो कागज पर प्रकाशित किया जाता है’ लिखा तो इस विषय पर लगातार लिखने वाले अग्रज ब्लागर ज्ञानदत्त पाण्डेय जी नें ‘अनुशासनाचार्यों का रूदन’ लिख कर डिसिप्निनाचार्य को प्रतिपादित किया. अजीत जी नें भी ‘भाषा के मानक के सलीब’, ‘भाषाई देहातीपन शहरी भद्रलोक’ और एक दो पोस्ट लिखे. इस संबंध में प्रख्यात कवि कहानीकार एवं कोचीन विश्वाविद्यालय विज्ञान एवं प्रौद्यौगिकी कोचीन के प्रो. ए अरविंदाक्षन का कोई जवाब हो तो आप बतावें. अन्यथा जो हमारे ब्लागर्स अग्रजों नें कहा है वही हमारे लिये शास्त्रीयता है.
इस बहस के मूल में इस सब्जेक्ट कोटेशन के स्थान पर ब्लास बनाम साहित्य है. हिन्दी ब्लागों के अस्तित्व में आने उसके चर्चित होने के बाद से ही यह कानाफूसी चालू आहे कि क्या ब्लाग साहित्य है. यानी इसके साहित्तिक अस्तित्व पर प्रश्न उठ रहे हैं. कुछ समय पूर्व रायपुर में ही सृजन सम्मान के मंच पर ब्लागर भाई संजय द्विवेदी नें स्पष्ट कहा था कि यह तकनीकि को लेकर हो रही हिचक है. तब देश के ख्यात साहित्यकार भी वहां उपस्थित थे. उन्होंनें तकनीकि को ‘निर्बल का बल’ कहा और ई-संस्कृति विकसित करने की बात की जिसे साहित्यकारों नें भी स्वीकारा था. इस महत्वपूर्ण तकनीकि को अब निबलों और सबलों नें भी अपने हथियार के तौर पर इस्ते माल करना आरंभ कर दिया है. इसलिये अब बिना विवाद जैसे बरसों पहले ‘व्यंग्य’ को आपने बडी मुस्किल से हाय तौबा करते हुए स्वीकारा था वैसे ही ब्लाग के साहित्तिक अस्तित्व को स्वीकारना होगा. इस संबंध में ई स्वामी जी नें जो कोटेशन लिखे उसका यहां उल्लेख करना चाहूंगा
‘साहित्य के साहित्य होने का क्या पैमाना है बॉस? या उसके ब्लॉग से बेहतर होने का क्या पैमाना है? कि वो पहले कागज़ पर छपा? या ये कि लिखने वाला स्वयं को लेखक कहलवाना चाहता है चिट्ठाकार नहीं? या लेखक को चिट्ठाकारी के बारे में पता ही नही था और वो पत्र-पत्रिकाओं में छप गया अत: बाई डिफ़ॉल्ट लेखक हो गया – चाहे जैसा ऊबड-खाबड लिख रहा हो! देखिये – पहले तो आप सेब की तुलना संतरे से कर रहे हैं – फ़िर सारे सेब की तुलना सारे संतरों से कर रहे हैं – एक से एक को तौलिये – कोई सडा सेब होगा कोई सडा संतरा. कोई मीठा सेब होगा कोई मीठा संतरा. चुनाव करने की निर्णय करने की भी तो कोई तमीज़ होती है! एक लेखक को एक ब्लागर से तौलिये फ़िर बोलिये.’ वो आगे कहते हैं
‘मेरे हिसाब से ब्लाग साहित्य है या नहीं ये एक नॉन-इश्यू है. जैसा की कहा –मात्र चिढा देने, या मजे लेने के लिये पूछा गया एक बडा ही बेलौस सा, एक बडी झाडू से पूरी कायनात को साथ लपेटता सा प्रश्न – इसे हमेशा के लिये दफ़्न कर देना चाहिए!'
बहुत कुछ लिखा जा चुका है, आप कम्पोटर आन करके पढ तो लें.
बिल्ली और खभे वाली बात हो गई यह तो :-)
जवाब देंहटाएंबढ़िया लेख, छपास पीड़ा न हो इस लिए कम्प्युटर ऑन कर के पढ़ लिया और शत प्रतिशत सहमत भी हैं
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