राजिम मेला और हमारी आस्था - कुछ बदलते सन्दर्भ में
विनोद साव
यह सही है कि छत्तीसगढ़ में राजिम मेला का जो वैभवपूर्ण इतिहास रहा है वह किसी दूसरे मेले का नहीं रहा। माघी पूर्णिमा से लेकर महाशिवरात्रि तक रोज रोज भरे जाने की जो एक मैराथन पारी इस मेले में संपन्न होती थी इसका कोई दूसरा जोड़ न केवल छत्तीसगढ़ में बल्कि इसके पड़ोसी राज्यों में भी देखने में नहीं आता था। राजिम का अपना पौराणिक इतिहास तो है ही लेकिन यहां भरा जाने वाला मेला अपनी विशालता के कारण विशिष्ट रहा है। महानदी की फैली पसरी रेत पर नदी के बीचोंबीच भरने वाला यह मेला अपनी कई विशेषताओं के कारण लोक में सबसे अधिक मान्य रहा है। बरसों तक राजिम मेला देखने जाना एक उपलब्धि मानी जाती रही है। राजिम के आसपास रहने वाले जन भी अपने रिश्तेदारों को कहा करते थे `ले .. मेला बखत आबे।`
विनोद साव
शिक्षा : एम. ए. ( समाजशास्त्र )
पता : `सिद्धार्थ` मुक्तनगर, दुर्ग ( छत्तीसगढ़ ) ४९१००१
फोन : मो. ९३०११४८६२६ (का.) ०७८८ २८९७०६१
प्रकाशन : पहल, ज्ञानोदय, वागर्थ, समकालीन भारतीय साहित्य, लोकायत और अक्षरपर्व में कहानियों का प्रकाशन।
पुस्तकें : दो उपन्यास-चुनाव, भोंगपुर-३० कि.मी.। चार व्यंग्यसंग्रह-मेरा मध्यप्रदेशीय हृदय, मैदान-ए-व्यंग्य, हार पहनाने का सुख और आत्मघाती आत्मकथा। संस्मरण व रिपोर्ताज का एक संग्रह-आखिरी पन्ना। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन।
पुरस्कार : अट्टास सम्मान : श्रेष्ठ व्यंग्य लेखन के लिए यह सम्मान २८ मार्च १९९८ को रवीन्द्रालय, लखनऊ में प्रसिद्ध लेखक श्रीलाल शुक्ल द्वारा दिया गया।
वागीश्वरी पुरस्कार : श्रेष्ठ उपन्यास लेखन के लिए यह पुरस्कार १६ जुलाई १९९९ को संस्कृति भवन, भोपाल में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा उपन्यास `चुनाव` के लिए प्रसिद्ध आलोचक डॉ. नामवरसिंह के हाथों दिया गया।
जगन्नाथरॉय शर्मा स्मृति पुरस्कार : २४ दिसंबर २००३ को जमशेदपुर में वरिष्ठ समालोचक डॉ. शिवकुमार मिश्र एवं खगेन्द्र ठाकुर द्वारा दिया गया।
दूरदर्शन : दूरदर्शन के लिए लिखे गए हास्य-धारावाहिक `जरा बच के` का प्रसारण।
विशिष्ट : साहित्य लेखन के अतिरिक्त एक प्रखर वक्ता के रुप में पहचान। दूरदर्शन, आकाशवाणी तथा विभिन्न मंचों पर व्यंग्य रचनाओं का पाठ। अखबारों एवं पत्रिकाओं में स्तंभ लेखन जारी है। कुछ पत्रिकाओं का संपादन किया है।
सम्प्रति : भिलाई इस्पात संयंत्र में अनुभाग अधिकारी।
तब राजिम की चारों दिशाओं से बैल गाड़ियों का काफिला पहुंचा करता था। इनमें ज्यादातर भैंसा गाड़ा वाले होते थे जो कई कई दिनों और रातों का सफर तय करके सुदुर क्षेत्रों से मेला देखने के लिए पहुंचा करते थे। मंद गति से चलने वाले ऐसे भैंसा गाड़ा के पीछे पैदल चलने वाले मेला दर्शनार्थियों के झुंड के झुंड किसी भी गांव में मुंह अंधेरे ही दिख जाते थे। जो राजिम की ओर जा रहे होते थे। पचासों मीलों की दूरी को गा्रमवासी जिस परिश्रम, धैर्य, और उत्साह के साथ चला करते थे वह विस्मयकारी था। लोकसंस्कृति की यह चेतना मनुष्य को कितने निर्लिप्त भाव से अपनी मंजिल तक ले जाती है।
राजिम नगर के पास आने पर पहुंचने वालों का उत्साह और भी बढ़ता जाता था। लोगों की उमंगरी किलकारियों को सड़क पर सहज ही देखा और सुना जा सकता था। तब नदी के भीतर खुली रेत पर मेले स्थल में पहुंचते ही मेले की छटा आए हुए लोगों की थकान को हर लेती थी। दिन भर मेला घूमने और रात भर सिंगल मशीन के टूरिंग टॉकीजों में पिक्चर देखने का आनंद कितना था यह तो आज भी पूछने पर बताया नहीं जा सकता। जबकि इन सिनेमा स्थलों का यह हाल था कि बीस रील वाली फिल्म की कौन सी रील आगे लगी है कौन सी पीछे कुछ कहा नहीं जा सकता था। मसलन `उपकार` फिल्म देखने वाला दर्शक प्राण को गोली खाकर मरते हुए पहले देखता था और `कसमे वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या` गाना गाते हुए उसे बाद में देखता था। नदी तट पर मेले स्थल में रात बिताने, ईंट की सहायता से अपने चूल्हे तैयार कर लेने और उसमें जर्मन के बगोना में अपने लिए भात रांध लेने और मेले में मिरचा, पताल, धनिया खरीद कर उसकी चटनी बनाकर उसे गरम गरम भात के साथ खाकर वहीं रेत पर सो जाने का उसका अपना सुख किसी स्वर्ग के सुख के समान हुआ करता था।
राजिम के इस मेले में छत्तीसगढ़ की आत्मा समा जाया करती थी। फिर ता-उम्र इस मेले को देख लेने वाले की छाती फूली होती थी कि उसने भी राजिम मेला देखा है।
एक लम्बे गौरवमयी इतिहास के बाद भी आज तक राजिम छत्तीसगढ़ का एक सर्वसुविधायुक्त तीर्थ स्थान नहीं बन पाया है। और ऐसे समय में भी नहीं बन पा रहा है जब अपना राज पा लेने और क्षेत्रीय अस्मिता की पहचान का हल्ला जोरों पर है। यह हल्ला रोज रोज होता है कि `यह छत्तीसगढ़ का प्रयागराज है`। यह भी श्रेय लूटा जाता है कि असली प्रयाग (इलाहाबाद) में तो केवल दो नदियां दृष्टव्य हैं एक तो गुप्त है पर यहां (राजिम में) तो जिन तीन नदियों का संगम है वे तीनों दृष्टव्य हैं। असली त्रिवेणी संगम तो राजिम में है। पर त्रिवेणी होने के बाद भी जल का संकट यहां इतना गहराया है कि पानी की धार को खोजना पड़ता है। इन नदियों को पानीदार बनाने के लिए वैज्ञानिक स्तर पर जो काम शासन से करवाया जाना था वह कभी नहीं करवाया जा सका। वर्ष के अधिकांश महीनों में ये नदियां सूखी रहती हैं किसी बरसाती नाले के समान। इसके त्रिवेणी संगम को देखने से यहां केवल रेत और गोटर्रा पत्थरों का संगम ही दीख पड़ता है।
छत्तीसगढ़ में हमारे सबसे हल्ला बोल तीर्थ स्थान राजिम का यह हाल है। बड़े उत्साह से लोग आज भी राजीवलोचन और राजिमबाई तेलिन का दर्शन करने या पिकनिक मनाने के लिए राजिम पहुंचते हैं। पर मेला पर्व को छोड़कर साल के शेष समय में देखा जाए तो वहां यात्रियों के लिए कोई विशेष सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। रेलवे का वही एक शताब्दी पुराना धमतरी लाइन जिसमें राजिम के लिए छुक छुक गाड़ी चलती है। सड़क मार्ग का यह हाल था कि अभनपुर से राजिम की सोलह किलोमीटर की सड़क वर्षों तक जर्जर पड़ी थी। अभी बनी है। जबकि यहां के विधायक बड़े नामी मुख्यमंत्री हो चुके थे।
अब इसे कुंभ बनाने की तैयारी चल रही है। जब वैदिक युग से ही कुंभ के चार स्थान नियत हैं तब इक्कीसवी सदी में किस तरह राजिम को कुंभ घोषित कर दिया जाए यह विचार एक छलावा है। कल को कुलेश्वर महादेव को ज्योतिर्लिग में शामिल किए जाने की कोई आवाज उठेगी और देश में शंकराचार्य की एक पदवी यहां के लिए स्वीकृत किए जाने का हल्ला उठेगा तब क्या होगा ? धर्म और संस्कृति अब संस्कृति कर्मियों के नहीं राजनेताओं के हाथ होते है और उनके हाथों में हर सांस्कृतिक मुद्दे को राजनीतिक मुद्दा बनने में देर कितनी ?
बल्कि इसे कुंभ बनाने का हवाला देखकर कुछ असंगत प्रयोग किए जा रहे है। अब यहां नागा बाबाओं की भीड़ एकत्रित की जा रही है। पिछले बरस एक नागा बाबा के शिश्न में बांधकर कार को उससे खिंचवाया गया था। राजिम के कुछ प्रबुद्धजनों ने ऐसे विकृत प्रयोग का विरोध भी किया था। आवश्यकता इस बात की है कि स्थानीय पंडों और पुजारियों को ही जोड़कर राजिम मेले के पारम्परिक रुप को परिष्कृत किया जावे, मेला स्थल को और भी सुविधा सम्पन्न बनाया जावे न कि बाहर से बुलाये गये शैव, वैष्णव या नगा बाबाओं की अनावश्यक भीड़ एकत्रित कर उन पर करोड़ों रुपये फूंका जावे जिसकी कि राजिम में कभी परम्परा ही नहीं रही।
मो. ९३०११४८६२६
हम प्रयास करेंगें कि श्री विनोद साव जी के व्यंग एव रचनांए नियमित रूप से इस ब्लाग पर प्रस्तुत होता रहे ।
साव जी ने एकदम सही लिखा है!!!
जवाब देंहटाएंसौ फीसदी सहमत हूं बावजूद इसके कि राजिम कुंभ पर एक लम्बी चौड़ी पोस्ट मैने डाली है अपने ब्लॉग पर।
साव जी ने सही लिखा है. हिन्दी मे छत्तीसगढी का तडका दिये है. आजकल हर चीज प्रोडक्ट सेलींग है. जब तक प्रोडक्ट को सावारा नही जयेगा तब तक बिकेगा कैसे. आजकल हर प्रोडक्ट सेलींग के लिये ब्रांड एम्बेसडर कि आश्यकता होता है. ये सब नागा साधू एवम अन्य महात्मागण "राजिम कुंभ" के ब्रांड एम्बेसडर है. ब्रांड एम्बेसडर है तो भुकतान भी होगा. ;)
जवाब देंहटाएंराजिम मेले पर जानकारी परक लेख अच्छा लगा,साथ ही विनोद साव जी का संक्षिप्त जीवन परिचय देने के लिए धन्यवाद, विनोद साव जी से मेरा नजदीकी परिचय रहा है,इन दिनों वे गद्य लेखन के ऑल राउंडर के रूप में उभरे हैं,व्यंग्य विधा के अलावा उनके जानकारी परक संस्मरण सामने आ रहे हैं,पिछले दिनों मैं शिलांग से दुर्ग गया था तब सूत्र सम्मान के कार्यक्रम के सिलसिले में उनसे मिला, चर्चा की, मेरे साथ जगदलपुर से आए विजय सिंह जी भी थे, साव जी ने विजय सिंह जी के आग्रह पर उन को सूत्र के आगामी अंक के लिए बस्तर पर अपनी रचना दी, इसी प्रकार मेरे एक फिल्म निर्देशक मित्र राकेश बम्बार्डे जी के साथ जब मैं साव जी के घर गया, तो साव जी ने छत्तीसगढ में बनने वाली फिल्मों,एलबमों और टी वी कार्यक्रमों पर अपनी बातें कहीं जो कि मुझे बेहद सार्थक लगी,
जवाब देंहटाएंसाव जी ने बहुत अच्छा लिखा है .रोचक जानकारी
जवाब देंहटाएंBy E Mail-
जवाब देंहटाएंthank you for the information.
I am Dr. Surendra Patahk from Mumbai
pathak06@gmail.com
राजिम कुंभ पर एकदम सही लिखा है!!! पढ़कर बचपन में गए मेले की यादें ताज़ा हो गई ..
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