छत्तीसगढ के साहित्यकार - 1
छत्तीसगढ के चर्चित कहानीकार, लेखक श्री मंगत रविन्द्र का जीवन परिचय
आलेख- संजीव चंदेल
नाम मंगत रवीन्द्र है, ग्राम गिधौरी वास ।
थाना उरगा जिला कोरबा, ग्राम भैसमा पास ।।
सरिता की प्रवाहित धारा, समीर की निरंतरता, उदित रवि किरण, शशि की मनोहारी पुंज, इन्द्रधनुष की अनुपम छटा, ललना की ललक नारी की श्रद्धा एवं लज्जा, पुष्प की पावन परिमल, को कोई रोक नहीं सकता ऐसे ही एक साहित्यकार की साहित्यिक प्रतिभा, कलाकार की कला, चित्रकार की उदगम्य भावना, मुकुलित पुष्प की तरह विकसित होती है । आदरणीय श्रीयुत रवीन्द्र की प्रतिभा कली को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है ।
किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व एक दर्पण के समान होता है अंतर इतना है कि व्यक्ति दर्पण के सामने खडा होता है और वह हमारे सामने....... । हम अपना स्वरूप उस दर्पण में झांकते है जबकि उस दर्पण के सामने उसका व्यक्तित्व दिखाई देता है । आइए छत्तीसगढी भाषा के धनी श्रद्धेय श्रीयुक्त मंगत रवीन्द्र जी के जीवन दर्शन का संक्षिप्त अवलोकन करें । कहा गया है कि अब हम अपने बारे में सहीं-सहीं बतलाने में असमर्थ होते हैं तो क्या अन्य व्यक्ति के संदर्भ में विस्तार दे सकते हैं । असम्भव तो है फिर भी संक्षिप्त का सहारा लेते हैं और उसके सम्पूर्ण जीवन चित्र को शब्दों की लकीरों में अभिव्यक्त करते हैं । हमारे सामने उनका एक जीवन वृत ही दिखाई देता है जिससे सारी बातों का आंकलन किया जाता है ।
बाल्यावस्था एवं शिक्षा
श्री मंगत रविन्द्र जी बचपन से ही प्रतिभावान रहे हैं । शाला प्रवेश के पूर्व से ही इनमें चित्रकारी एवं मूर्ति कला की प्रतिभा पनप चुकी थी । कहा जाता है कि, शाला में भर्ती के प्रथम दिवस ही स्लेट पर स्वर-व्यंजन (वर्णमाला) को ज्यों का त्यों लिख दिये । इस अदृभुत प्रतिभा से आचार्य श्री रामदाउ शर्मा जी, विस्मित होकर बालक की खूब प्रशंसा की एवं पीठ थपथपाकर आर्शीवाद दिये ।
बालक में आरंभ से ही इमानदारी, लगन चिंतन और नियमितता के गुण विद्यमान थे । यह स्वभाव आज भी देखने को मिलता है । ये सदैव अध्ययनरत मिलते हैं । इनके जीवन के अनेक गाथाएं उनका मेरा जीवन नामक कृति में मिलती है जिसे उन्होंने सनृ 1977 ई. में लिखा है । इससे आगे की कथा साक्षात्कार से प्राप्त होती है । श्री रवीन्द्र जी का सिद्धांत है कि, काम करने से धन, सदाचरण करने से सम्मान और अध्ययन करने से विद्या प्राप्त होती है ।
।। करत-करत अभ्यास ते, जडमति होत सुजान ।।
।। रसरि आवत जात ते, सील पर पडत निशान ।।
श्री रविन्द्र जी अपना एक पल भी गंवाना नहीं चाहते उन्हें समय का अच्छी तरह मूल्यांकन करना आता है । उनका मानना है कि जो व्यक्ति, वर्तमान की उपेक्षा करता है वह अपना सब कुछ खो देता है । अत: हर पल बडा कीमती होता है । उसे जीवन के सदुपयोग में लगाना चाहिए । जिसने समय को गंवाया समझा वह पारस खो दिया । समय गंवाना दुख का हेतु भी है खैर.........।
श्री रविन्द्र जी के माता-पिता भूमिहीन मजदूर थे । माता का नाम श्रीमती समारिन एवं पिता का नाम श्री मुनीराम था । पिता श्री अब इस धरती में नहीं है । ग्राम गिधौरी कोरबा में में जन्में बालक में अभूतपूर्व प्रतिभाथी । पाठशाला के पंजी के अनुसार इनके जन्म की तारीख 04/04/59 चार अप्रैल सन् उनसठ है । गरीबी के थपेडों को झेलते हुए सन् 1977 ई. में बडी मुश्किल से हायर सेकेण्डरी की परीक्ष उत्तीर्ण की । पाठयक्रम की कोई किताबनहीं होने पर सहपाठियों से मांगकर अध्ययन करते थे । कक्ष 11वीं बोर्ड में एक भी किताब नहीं थी, केवल श्क्षिकों का अध्यापन ही सफलता का कारण रहा ..........।
श्री मंगत रवीन्द्र जी, गरीबी के थपेडों को खूब सहा है । गरीबी के निर्दय भाव एवं उसके कू्र रूप को अति निकट से देखा है । अभावों की पीडा से कराहते जीवन का प्रतिपल बडा निर्दयी था । सडक पर मजदूरी करता मन, खेतों पर टपकती श्रम की बूंदे, हाथ पर कूदाल की बेंट, सिर पर मजदूरी और मजबूरी का बोझ.... उबड खाबड जमीन पर चलते नंगे पैर, 30 वर्षो की अवस्था तक रात की बासी का उदर क्षूछा की पूर्ति प्रत्येक शीत ऋतु में वस्त्राभाव के कारण ठिठुरता शरीर बिजली की बात तो दूर रही पढाई में चिराग भी साथ नहीं देता था । दिन को सूर्य की उदारता एवं रात में चूल्हे में घास-फूस जलाकर पढाई करना रवीन्द्र जी की तपस्या ही तो है ।
श्रममय जीवन की अकथनीय साधना..... साहित्य में परिणित होकर भाषा सम्मान जैसी उपाधि ही उनकी महान उपलब्धि है । छत्तीसगढी भाषा व्याकरण जैसे महान शोध ग्रंथ, छत्तीसगढी भाष के लिये श्रेष्ठ उपहार ही है । इसी तरह सतनामी समाज के महान गुरू एवं सतनाम के संस्थापक ज्ञानेश्वर ज्ञानमणि संत गुरू घासीदास जी की सम्पूर्ण लीलाओं को श्री प्रभात सागर नामक महाकाव्य रचकर साहित्य जगत की बडी सेवा की है ।
चाहे गरीबी हो मजदूरी, चित्रकारी, मूर्तिकला, या गाने-बजाने का विषय हो........सभी क्षेत्रों में स्मरणीय घटनाओं को स्मरण या अभिव्यक्त कर उनके चेहरे पर ग्लानि का भाव नहीं झलकता बल्कि संघर्ष का जोश तथा प्रसन्नता का भाव उभर आता है दीनता तो विरासत में मिली है इस क्रूर दानव से टकरा कर कभी चूर नहीं हुए बल्कि संघर्ष जारी रखा । रवीन्द्र जी मानते हैं कि सच में यही तो जीवन की परिभाषा है । शून्य जीवन में कर्मो के छंद, प्रसन्नता के रस तथ लगन के अलंकार से जीवन को श्रृंगार देना........यही श्रेष्ठ जीवन है ।
अमीरी की दोस्ती से अकर्मण्यता, उदासीनता तथ अहंकार पैदा हो सकते हैं जबकि गरीबी की दोस्ती से कर्म की प्रवृति, सरलता, सहजता, उदारता, संतोष, शांति उत्साह एवं श्रम की महत्ता को समझने की क्षमता आती है । गरीबी की खूशबू अमीरों के लिये नहीं बल्कि श्रमशील व्यक्ति के लिये प्रसन्नता दायक होती है वे कहते हैं कि हे गरीबों तुम श्रमिक हो तुम्हारे कुशल हाथो से संसार का निर्माण होता है सदैव प्रसन्न रहो ।
पारिवारिक जीवन
मजदूरी जिनके आय का मात्र साधन हो क्या वह महाविद्यालय की शिक्षा प्राप्त कर सकता है । नहीं.... । परन्तु किशोर ने अपना रास्ता बदल कर ज्ञानार्जन की कडी गूंथता रहा । सन् 1977 ई. में शादी हुई तथा गृहस्थ जीवन बिताने लगे । अब तो गांवों में ही मजदूरी, जडी बूटियों द्वारा इलाज, चित्रकारी, मूर्ति गढना, गम्मत, रामायण एवं छत्तसगढी नाच पार्टी में रहकर गरीबी तथा मजदूरी की पीडा को थोडा-बहुत बिसरने का प्रयास करते रहे ।
अध्ययनशील व्यक्तित्व होने के कारण बचपन से ही अनेक पुराणों रामायण, गीता, भागवत, सुखसागर, प्रेमसागर, विश्रामसागर,आल्हा-रामायण, महाभारत, ज्योतिष, सामुद्रिक शास्त्र एवं अन्य धर्मग्रंथों के विविध साहित्यों का अध्ययन पठन करते रहे । जहॉ भी अच्छे साहित्य का नाम सुनते वहां से मांगकर बालललक में अध्ययन करते एवं आज भी यह जिज्ञासा एवं ललक बनी हुई है । उन्हें शास्त्रों के अध्ययन । पारायण से आनंद की अनुभूति होती है । पुस्तक अपना मित्र है ऐसा मानते हैं इससे समय का सदुपयोग, ज्ञान की प्राप्ति एवं सुख की अनुभूति होती है । सागर की गहराई से मोती और शास्त्रों के पारायण से ज्ञान रूपी मणि प्राप्त होता है जो हृदय रूपी मंदिर को प्रभावान बनाता है ।
जीवन में नया मोड
इनके जीवन में विवाहापरान्त एक नया मोड अया । उच्च शिक्षा की कोई गुंजाइश नहीं थी अत: गांव में ही बढईगिरी, चित्रकारी मूर्तिकला (लघु रूप) एवं मजदूरी जैसे कलामय श्रम जीवन व्यतीत करने लगे । आयुर्वेदिक औषधि की सामान्य जानकारी होने के कारण लोगों का प्राथमिक उपचार करते रहे । इसे देखकर गांव के एक शिक्षक श्री गोपालसिंह कंवर जी ने आयुर्वेद रत्न की परीक्षा दिलाने का सुक्षाव दिया फलत: सन् 1978 ई. से अनवरत चार वर्षो तक वैध विशारद एवं आयुर्वेद रत्न का स्वाध्यायी अध्ययन कर हिन्दी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद केन्द्र उ.प्र. से दोनों परीक्षाएं द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की । सन् 1977 ई. से 50 रूपये मासिक मानदेय के आधार पर प्रा. स्वा. केन्द्र करतला (जिला कोरबा) में जन स्वास्थ्य रक्षक का कार्य करने लगे । तब तक आर्थिक स्थिति में थोडा सुधार हो चुका था । कहा जाता है कि प्रकृति किसी को अकेला नहीं छोडती । क्या रवीन्द्रजी की स्थिति पूर्ववत् रहती ....... नहीं.....। सुधार एवं विकास आवश्यक है । काफी उतार-चढाव की जिंदगी बिताते हुए सन् 1991 ई. में विज्ञान सहायक शिक्षक के पद पर शा. उ.मा. शा. कापन (अकलतरा) जिला जांजगीर चाम्पा में प्रथम नियुक्ति हुई यहीं से इनकी साहित्यिक सेवा की कली विकसित होती है । तरूण साहित्य समिति जांजगिर एवं दल्हा साहित्य विकास परिषद अकलतरा के सानिध्य में रहकर साहित्य के प्रति रूचि गहराती गई । वरिष्ठ साहित्यकार श्री विद्याभूषण मिश्र, डॉ. विजय राठौर, श्री मुकुन्दलाल साहू प्रो. केशरवानी जी एवं अकलतरा के सम्मानीय श्री सतीश पांडेय (द.सा.वि.परिषद के अध्यक्ष) श्री रमेश सोनी, संजीवन चंदेल जी का विशेष सहयोग एवं स्नेह मिलता रहा है ।
भारतेन्दु साहित्य समिति बिलासपुर की सदस्यता ने इन्हें अधिक साहित्य साधना के लिये प्रेरित किया । सर्वश्री रामनारायण शुक्ल, पालेश्वर शर्मा, पं. श्यामलाल चतुर्वेदी जी एवं अनेक साहित्यकारों का आशीर्वाद मिलता रहा । त्रैमासिक पत्रिका के कुशल सम्पादक श्री नंदकिशोर तिवारी जी ने इनकी प्रतिभा को परखा । एवं इनकी रचनाओं को अनवरत प्रकाशित करते रहे । इसी तरह साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था सेवाजली अकलतरा के सचिव श्री रवीन्द्रकुमार सिंह बैस जी (कवि/शिक्षक) एवं अध्यक्ष श्री लवकुमार सिंह चंदेल जी ने रवीन्द्र जी को अपनी संस्था की सम्मानीय सदस्यता दी तथा साहित्यिक सेवा के लिये प्रथम बार सम्मानित किये । इसी तरह छत्तीसगढ लोक कला मंच आस्था कला मंच अकलतरा ने इसकी कला प्रतिभा से प्रभावित होकर प्रथम सम्मान दिया ।
आज इनकी रचनाएं विभिन्न शीर्षस्थ पत्र-पत्रिकाओं तथा आकाशवाणी बिलासपुर से प्रकाशित तथ प्रसारित हो रही है । लगभग 200 से अधिक काव्य संकलनों में इनकी रचनाएं छप गई हैं ।
मिलनसार, सहज, सरल, स्वभाव मृदूभाषी, सततअध्ययनरत एकनिष्ठ साधक श्री रविन्द्र् जी का लघु ग्राम कापन साधना स्थल रहा है और इसी तपोभूमि में रहकर अपंजीकृत स्थानीय प्रकाशन काव्य हंस सेवा सदन कापन से इनकी छोटी -छोटी किताबें छपती रहीं । जिनका आथ्रिक व्यय स्वयं वहन करते रहे । आज भी काव्य य साधना अध्यापन के साथ जारी है । इनकी निम्न किताबें जारी हो चुकी हैं :-
1. नवरात्रि गीत 1993
2. दोहा मंजूषा संकलन 1993
3. छत्तीसगढी भाषा व्याकरण 1993, 2000, 2006
4. होली के रंग गोरी के संग 1995
5. माता सेवा 1997
6. गीत गंगार 1998
7. मयारू बर मया 1999
8. आधुनिक विचार 2000
9. सुंगध धारा 2001
10. सतनाम चालीसा 2002
11; रतनजोत 2002
12. चमेली डारा 2004
13. श्री परदेशीबाबा : एक दर्शन 2005
14. गुडढिढा 2006
15. कंचनपान 2006
16. काव्य उर्मिला 2006
17. श्री सतनाम सुधा 2006
18. श्री सतनाम पूजा एवं विवाह पद्धति 2007
19. श्री प्रभातसागर (महाकाव्य) 2007
20. गुलाबलच्छी (प्रेस में)
इस तरह श्री रवीन्द्र जी लेखन कार्य में जुडे साहित्य की खूब सेवा कर रहे हैं । सन् 1979 से 1993 तक ग्राम पंचायत गिधौरी (कोरबा) में उपसरपंच के पद पर भी बडी कुशलता पूर्वक कार्य कर चुके हैं । सागदीपूर्ण जीवन बिताने वाले अध्यापन कार्य से जुडे युवा कवि नि:संदेह छत्तीसगढी भाषा के संदर्भ में (इनकी रचना नहीं है) उनकी जुबान से हमेशा प्रस्फूटित होता है:-
।।छत्तीसगढ के कन्हार माटी, पीउरा रंग मटासी ।।
।। गुरमटिया के मोटहा चउर, गजब मिठाथे बासी ।।
।। जीयव मूड उठाके रेंगव छाती ठोक ।।
।। पढव लिखव बोलव छत्तीसगढी गोठ ।।
।। साग जिमी कांदा, अमसुरहा कढी ।।
।। अब्बड मयारू हे, भाखा छत्तीसगढी ।।
श्री रविन्द्र जी संगीत एवं ज्योतिष पर आस्था रखते हैं । समय-समय पर इनकी अनेक रचनाऍ (गीत, कविता, कहानी, रूपक आलेख्) अकाशवाणी बिलासपुर से प्रकाशित होती है । अभी तक इन्हें 39 सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं । इनका छत्तीसगढी भाषा व्याकरण रविशंकर विश्व विद्यालय रायपुर के पाठ्यक्रम एम.ए. पूर्व में संदर्भ ग्रंथ के रूप में शामिल है ।
इस तरह श्री रवीन्द्र जी छत्तीसगढी एवं हिन्दी के सच्चे साधक, कर्मठ व्यक्तित्व सादा जीवन बिताने वाले कलम के परम साधक है । आगे खूब लिखते रहे हमारी मंगल कामना है । परमात्मा इन्हें दीर्घ जीवन दे एवं संसार में कीर्ति प्राप्त करे । इनकी एक वाणी के साथ शब्दों के सीमान्त में.......
।। शब्द भाव लखहिं जिन भाई । बदलहि दिशि रवि दशा सुहाई ।
।। माया जीवन मोक्ष दे ज्ञाना । सत रूप होय सुविज्ञ बखाना ।।
संजीव चंदेल
(आदरणीय मंगत रविन्द्र जी से साभार)
ऎसे व्यक्तित्व को मेरा प्रणाम .आपको धन्यवाद जो आपने ये जानकारी उपलब्ध कराई
जवाब देंहटाएंएक भूमिहीन मजदूर परिवार के सेल्फ-मेड सितारे के बारे में आपने विवरण दे कर बहुत अच्छा किया संजीव जी। ऐसे लोगों के बारे में पढ़ने से काम करने की प्रेरणा मिलती है।
जवाब देंहटाएंआपको धन्यवाद जो आपने ये जानकारी उपलब्ध कराई
जवाब देंहटाएंप्रेरणादायाक जीवन से परिचय करवाने के लिए आप साधुबाद के अधिकारी हैं.
जवाब देंहटाएंस्वीकार करें.
मुझे भी इनके बारे में ज्ञात नही था, शुक्रिया!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही उपयोगी जानकारी ..कुछ ज्यादा ज्ञात नही था इस विषय में .शुक्रिया इसके लिए !!
जवाब देंहटाएंयह व्यक्तित्व चित्रण आपकी खूबी,हमारा ज्ञान.....
जवाब देंहटाएंइंतज़ार है और ज्ञानवर्धक रचनाओं का.