छत्तीसगढ के लोकप्रिय ददरिया से हम आपको छत्तीसगढी व हिन्दी में परिचय करा रहे है । पढिये सुनिये एवं आनंद लीजिये छत्तीसगढी लोकगीत का :-
बटकी म बासी अउ चुटकी म नून
मैं गावत हौं ददरिया तें कान देके सुन ।
चना के दार राजा चना के दार रानी
चना के दार गोंदली कडकत हे,
टूरा हे परबुधिया होटल म भजिया धडकत हे ।
बागे बगैचा दिखेल हरियर
मोटरवाला नई दिखे बदेहंव नरियर । वो चना के दार ....
तरी पतोई उपर कुरता
रहि रहि के छकाथे तोरेच सुरता । वो चना के दार ....
नवा सडकिया रेंगेला मैना
दू दिन के अवईया लगाए महीना । वो चना के दार ....
चांदी के मुंदरी किनारी कर ले वो
मैं रहिथौं नवापारा चिन्हारी कर ले । वो चना के दार .
कांदा ये कांदा केवंट कांदा ओ
ये ददरिया गवईया के नाम जादा । वो चना के दार ....
चना के दार राजा चना के दार रानी
चना के दार गोंदली कडकत हे,
टूरा हे परबुधिया होटल म भजिया धडकत हे ।
बटकी में बासी (पके चांवल को डुबोने से बने) और चुटकी में नमक लेके मैं ददरिया गा रहा हूं तुम कान लगाकर सुनो ! चना का दाल है राजा, चना का दाल है रानी, चना के दाल एवं प्याज से बना हुआ भजिया तला जा रहा है । इस भजिये को होटल में वह प्रेमी लडका ‘धडक’ रहा है (यहां ‘धडकत हे’ शव्द का प्रयोग हुआ है छत्तीसगढी में खाने के भाव में आनंद जब मिल जाता है तब ‘धडकना’ कहा जाता है, यानी मजे से खा रहा है) जो किसी दूसरे प्रेयसी के प्रेम में अपना सुध-बुध खो बैठा ‘परबुधिया’ है ।
बाग और बगीचे सब हरे हरे दिख रहे हैं पर मेरा मोटर वाला (किसी किसी जगह यहां दुरूग वाला या प्रेमी के परिचय स्वरूप शव्दों का प्रयोग किया जाता है) प्रिय नहीं दिख रहा है मैने उसके आने के लिए भगवान को मन्नत स्वरूप नारियल चढाने का वादा किया है ।
प्रेमिका अपने प्रेमी के मन में बसे स्वरूप व कपडों का वर्णन करती है कि शरीर के नीचे अंग में पतोई (गमछा जिसे धोती जैसा पहना जाता है) एवं उपर में कुरथा (छत्तीसगढ में कमीज को कुरथा कहा जाता है जो रंग बिरंगी रहता है) है । रूक-रूक कर तुम्हारी याद आती है मेरे सब्र का बांध टूटता है ।
नये सडक में मैंना चल रही है प्रिय दो दिन में आने वाले थे पर महीना हो गया तुम नहीं आये हो । यहां मैना वह स्वयं है जो प्रिय के आने के आश में बार बार सडकों का चक्कर लगा रही है पर सडक प्रिय के बिना सूना है ।
चांदी के छल्ले में लकीर खींचकर चिन्ह बना लो मैं नवापारा में रहता हूं मुझे पहचान लो । प्रेमी शहर में भजिया धडकते हुए किसी और सुन्दरी से इश्क लडाने का प्रयास करता है और उसे पहचान स्वरूप उपनी अंगूठी देता है ।
शकरकंद को छत्तीसगढ में केंवट कांदा कहा जाता है क्योंकि यहां नदी के किनारे कछार में केंवट लोग ही शकरकंद लगाते हैं । छत्तीसगढ में इसे उबाल कर एवं सब्जी बनाकर खाया जाता है । ददरिया जो गाता है उसका नाम शकरकंद के मिठास की तरह ही चहूं ओर व्याप्त रहती है । ददरिया गाने के इसी फन के कारण युवा प्रेमी के जहां तहां प्रेमिकाएं मिल जाती है और उसकी मूल प्रेमिका इसी कारण चिंतित रहती है कि मेरा प्रिय परबुधिया है ।
वाद संवाद के वाचिक परंपरा में आबद्ध ददरिया व्यक्ति को प्रेम के रस में सराबोर कर झूमने और गाने को बार बार मजबूर करती है बगिया से उठती कोयल की कूक जैसी वाणी ददरिया में जान भरती है और सुनने वाला छत्तीसगढ के ग्रामीण परिवेश में खो सा जाता है ।
बैतल राम साहू के स्वर में संगीत के साथ इसका मजा लीजिये (कापीराईट के.के.कैसेट, रायपुर फोन न. 0771 2228898)
Bataki ma Basi.mp3 |
संजीव तिवारी
बहुत अच्छा लगा .शुक्रिया इसको यहाँ देने के लिए !!
जवाब देंहटाएंददरिया पट के तो मजा आ गे कका ... बहुत बटिया प्रस्तुति .
जवाब देंहटाएंबने बताएस गा भैया!!
जवाब देंहटाएंसुनके तौ अऊ सुग्घर लागिस!
संजीव भाई , आप मन ले बने फुरसतहा मुलाकात नई हो पाइस, मोर छुटृटी खत्म हो गे, मैं हर शिलांग आ गे हंव,, सुघ्घर ददरिया पढे अउ सुने मं अबड नीक लागिस,,दया मया ल अइसने राखे रहू,
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा दिल को छु लिया .
जवाब देंहटाएंआनंद आ गया बहुत बढ़िया आभार
जवाब देंहटाएंbahut badhiyaa ..pehli baar suni DADRIYAA ....shukriyaa
जवाब देंहटाएंहिन्दि मे खोज!
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बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |
जवाब देंहटाएंबस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |
बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !
आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब
केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।
फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।
विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से