परम्परा और नवीनता का संगम : नाचा 1
परम्परा और नवीनता का संगम : नाचा 2
हिरमा की अमर कहानी : हिरमा की अमर कहानी में लेखक, निर्देशक हबीब तनवीर ने एक साथ अनेक मूल्यों के निर्वाह का प्रयत्न किया है । आदिवासियों की परम्परागत जीवन शैली और को ईश्वर मानने की अवधारणा का रेखांकन है । स्वयं राजा भी उसी प्रकार का मानवेत्तर व्यवहार प्रदर्शित करता है । हिरमादेव सिंह स्वतंत्र भारत में भी अपनी रियासत का अलग अस्तित्व अलग बनाए रखने के लिए कृत संकल्प है । यही कारण है कि वे उच्च अधिकारियों के समझाने या उनके अधिकारों को नजरअंदाज करने की हिम्मत दिखाते हैं । उनकी हठधर्मिता यहां तक बढती है कि वे राष्ट्पति से भी मिलने से इन्कार कर देते हैं । आदिवासी जनता की अपने राजा के प्रति आस्था प्राचीन मूल्यों के अनुरूप है । इसलिए राजा के साथ ही साथ उनके हजारों अनुयायी अपना बलीदान देते हैं । नवीन दृष्टिकोण के रूप में आजादी के बाद हिरमादेव शासकीय नियमों के अनुसार स्थापित करने के लिए राजनेता, बडे अधिकारियों को दमन की खुली छूट देते हैं । जिसका परिणाम राजशाही के अंत के रूप में दिखाई देता है । प्रजातंत्र के साथ पनपती हुई नौकरशाही की भी रूपरेखा खींची गई है । कलेक्टर और उसकी पत्नी राज्य की अमूल्य धरोहर को हस्तगत करने का प्रयास करते हैं । इस प्रकार भ्रष्टाचार और लाल फीताशाही को उभारने का भी प्रयास है । आदिवासी समस्याओं की ओर ध्यान न देकर केवल अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश न केवल आधुनिक शासन व्यवस्था का वरन् प्रजातंत्र का चिंतनीय दोष है । हबीब तनवीर इस रूप में प्रशंसा के पात्र हैं कि उन्होंने तथ्यों को सही परिप्रेक्ष्य में सामने रखने का साहस दिखाया है । भारतेन्दु हरिशचन्द्र पर डॉ. गिरीश रस्तोगी का यह सम्मानजनक कथन मुझे इस संदर्भ में हबीब तनवीर पर शत-प्रतिशत सही प्रतीत होता है, इन सारी परिस्थितियों के बीच भी अकेला व्यक्तित्व भारतेन्दु हरिशचन्द्र का उभरता है, जिन्होंने बडी तीव्रता से नाटक की माध्यमगत, कलागत विशेषताओं को पूरी तरह समझा ही नहीं, उसके लिए सामूहिक और योजनाबद्ध ढंग से एक सम्पूर्ण आन्दोलन की तरह काम किया । उन्होंने न केवल नाटक को युगीन समस्याओं, राजनैतिक-सामाजिक स्थितियों, राष्ट्ीय चेतना, जन-जागृति और मनुष्य की संवेदना से जोडा, बल्कि नाटक और रंगमंच के परस्पर संबंध और अनिवार्यता को समझते हुए नाट्यरचना भी की और रंगकर्म भी किया । मण्डली की स्थापना करके अभिनेता और निर्देशक के रूप में उनकी सक्रियता इसे प्रमाणित करती है ।
गम्मतिहा : दीपक चंद्राकर की शानदार प्रस्तुति ‘गम्मतिहा’ एक बेजोड प्रस्तुति है । परम्परागत शोषण के निम्नतर स्वरूप को इसमें भी दिखाया गया है । यह शोषण आर्थिक होते हुए भी किसान और मजदूरों का न होकर कलाकारों का है । यह कथावस्तु की नवीनता है क्योंकि अन्य सभी नाटकों में दलित वर्ग किसान या मजदूर ही हुआ करता है । यद्यपि ताना बाना पुराना है । नायक भी कला के प्रति कसक, अनुराग और समर्पण की भावना नें इसे अत्यधिक मार्मिक बना दिया है । कलाकरों की विश्व रंगमंच से जुडने की आकांक्षा का किस प्रकार दोहन किया जाता है इसका अत्यंत सजीव चित्रण है । एक ओर अन्तर्राष्ट्रीय मंचों से जुडे निर्देशक नामदास सांगसुल्तान की वह अमानवीय व्यंजना है जिसमें वह कलाकार से अनुरोध करता है कि अपने मृत कलाकार पुत्र, (जिसका निधन मंच पर अभिनय करते हुए हुआ है) की लाश को मंच के किनारे करके अपना प्रदर्शन जारी रखें । क्योंकि यह प्रदर्शन उसकी ख्याति, उसके इज्जत का सवाल है । दूसरी ओर वह अद्वितीय कलाकार है जो अपनी बडी जायजाद को भी कला के लिए समर्पित कर स्वयं निर्धन हो जाता है । छत्तीसगढ के लिए मदराजी दाउ का इस रूप में सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है । आज भारत महोत्सव के नाम से छत्तीसगढ के कलाकारों की भी टोलियां देश विदेश का भ्रमण कर रही है पर उसके ख्यातिप्राप्त कलाकारों को क्या मिलता है विश्व के महानगरों में अपनी कला की पताका फहराने के बाद वे पुन: रोजी-रोटी के लिए दर-दर भटकते दिखाई देते हैं । शोषण का यह रूप सचमुच कलाकरों के लिए ही नहीं, स्वयं कला के उत्थान के लिए एक प्रश्नचिन्ह है ।
(डॉ. महावीर अग्रवाल से साभार)
आधुनिक छत्तीसगढी लोक नाट्य पर हुए प्रयोगों एवं भव्य प्रस्तुतियों का क्रमिक विवरण :
चंदैनी गोंदा
सोनहा बिहान
चरणदास चोर व हबीब तनवीर की अन्य प्रस्तुतियां
लोरिक चंदा
कारी
सोन सरार
हरेली
हिरमा की अमर कहानी
दशमत कैना
लोरिक चंदा (द्वितीय संस्करण)
गम्मतिहा
देवारी
समय पर हम इन सभी प्रस्तुतियों के संबंध में विवरण प्रस्तुत करेंगें ।
पाठकों से अनुरोध है कि उपरोक्त नाट्य प्रस्तुतियां दूरदर्शन के राष्ट्रीय प्रसारणों एवं विश्व के कई स्थानों पर हुई है यदि आपने इनमें से किसी प्रस्तुति को देखा हो तो अपना अनुभव यहां बांटने की कृपा करें
संजीव तिवारी
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यह आलेख प्रमोद ब्रम्हभट्ट जी नें इस ब्लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्पणी के रूप मे...
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8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया ...
रोचक..........
जवाब देंहटाएंबचपन में कई बार नाचा देखा है और उनकी छवि आज भी दिमाग में बसी हुई है। गाँव में मँड़ई के दौरान उस समय लोग नाचा बुलवाते थे, जो रात के दस बजे से लेकर सुबह छ: बजे तक चलता रहता था। सुबह जब उजाला फैलने लगता था तब नाचा वाले गाते थे "सिता राम ले ले मोरे भाई... जाती के बेरा सिता राम ले ले"। नाचा शुरू होते से लेकर समाप्त होते तक पूरे समय लोग (बिना बोर हुए) देखते थे। उस समय बड़े लोग परियों को फ़रमाइशी गीतों पर मुज़रा भी देते थे। यह वीडियो और ऑर्केस्ट्रा से पहले की बात है।
जवाब देंहटाएंनाचा के कलाकारों की सबसे बड़ी खूबी उनके बीच का आपसी तालमेल और हाजिरजवाबी होती है। जिसकी बदौलत ही दो परी (महिला वेषधारी अभिनेता) और दो-तीन जोक्कड़ों (पुरुष अभिनेता) अपने बजनिया ग्रुप के साथ मिलकर रातभर का नाचा कर लेते हैं। इसमें मज़ेदार चुटकियाँ, प्रहसन, नाच-गाना सभी शामिल होता है। हबीब तनवीर जैसे कलाकार जब विलायत से आधुनिक और पाश्चात्य नाटक पढ़कर आए, तो उन्होंने शायद इसी खूबी की बदौलत अपने प्रयोग करने के लिए नाचा कलाकारों को चुना। अपने थिएटर का नाम "नया थिएटर" रखा। हबीब तनवीर की टीम के अधिकांश कलाकार परंपरागत नाचा से हैं।
मुझे हबीब तनवीर के कई नाटक देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हैं, उनमें चरणदास चोर सबसे बढ़िया है। उसमें हवलदार और चोर की भागदौड़ का दृश्य सबसे मज़ेदार है। इसके अलावा उनके नाटक जैसे "कामदेव का अपना बसंत ऋतु का सपना"- शेक्सपीयर का मिडसमर नाइट्स ड्रीम, "देख रहे हैं नैन", "मिट्टी की गाड़ी - शूद्रक का मृच्छकटिकम" "चाणक्य" इत्यादि भी अपने आप में अनूठे नाटक हैं।
कहने का अर्थ है कि नाचा फार्म की शक्ति और जीवंतता के कारण ही उन्होंने अंग्रेज़ी से लेकर संस्कृत क्लासिक नाटकों को सफलतापूर्वक छत्तीसगढ़ी में किया। शेक्सपीयर के साहित्य के कथ्य और भाषा की शक्ति को छत्तीसगढ़ी में अपनाने को लेकर उनके अनुभवों के बारे में एक वार्ता दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हुई थी। हबीब तनवीर सचमुच जीनियस हैं। उनको बोलते हुए सुनना भी अद्भुत अनुभव है।
- आनंद
अपन गांव में बहुत ही कम रहे सो नाचा देखने का मौका भी एक दो बार ही मिला है, रात भर तकरीबन सारा गांव जमा रहता था और नाचा में डूबे लोगों को भोर की लालिमा फ़ैलनी का पता ही नही चलता था।
जवाब देंहटाएंहबीब तनवीर के दो ही नाटक देख पाया हूं अब तक
एक तो "चरणदास चोर" और दूसरा "जिन लाहौर नई वेख्या वो जन्म्याई नईं" दोनो ही नाटक एक दूसरे से बहुत भिन्न हैं पर इतने प्रभावी कि आप एक बार देखकर न तो मन भरेगा न ही आप कभी भूल पाएंगे।
भाइ सहाब नमस्ते! मुझे एक बात समझ मे नही आया कि एक राजतन्त्र, प्रजातन्त्र का विरोध कर अमर कैसे हो जात्ते है? मुझे आज भी एक हिन्दी फ़िल्म "नया दौर" समझ मे नही आया, जिसमे नायक को नये परिवर्तन का विरोध करते दिखाया गया है. क्या गाव-गाव तक बस या ट्रेन कि सुविधा नहि होनि चाहिये? जब भारत मे कम्प्युटर आया तो हमारे वामपान्थि भाइ लोग काफ़ी विरोध किये थे जो भि एक परिवर्तन का दौर था. आज कइ लेखक (कुछ दिन पुर्व देश्बन्धु के सन्पदिकिय मे) टाटा के नैनो कार का ये कह कर विरोध कर रहे है कि सभि के पास कार होने से यातयत का क्या होगा. क्या कार किसी वर्ग विशेश के लिये है? क्या आम आदमी के लिये नहि?
जवाब देंहटाएंआपका नाचा का विवरण काफ़ी आच्छा है.
कारी:- हमारा देश भारत दुनिया में अपनी मनीषी परंपरा और भावनात्मक जीवन शैली के साथ साथ दया, धर्म,जैसी धार्मिक विचारो के लिए जाना जाता रहा है,इसी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के हिरदय स्थल पर मानविक भावनावो से धडकता राज्य है हमारा छत्तीसगढ़,जिसे दक्षिण कोशल और न जाने कितने नामो से संबोधित होता आ रहा है ,यहाँ की संस्कृति और परंपरा के बगिए में सुआ, ददरिया ,करमा, पंथी ,नाचा जैसे कितने ही फुल खिले है जिनकी खुसबू देश परदेश में बिखर रही है ,नारी की कोमल भावनावो को तो जैसे छत्तीसगढ़ ने जिया है ,यहाँ की रग़ रग़ में नारी की सुख दुःख का निरंतर अहसाश समाहित है,यही कारन है की यहाँ के लोग समय समय पर इस अनुभूति को प्रत्यक्ष करते रहे है जिसका सशक्त उदाहरण है लोक कला मंच "कारी",कारी नाटक को देखना मानो नारी जीवन को जीने के सामान है ,अपने ज़माने के सुविख्यात रंगकर्मी "दाऊ रामचंद देशमुख" की ये कालजई प्रस्तुति कलाकारों के साथ साथ भले ही किसी सुहानी संध्या वेला की तरह बीत चुकी हो किन्तु कारी की वो जिजीविषा,सहिष्णुता,हृदयता और असल में कहू तो नारिता की कोमल भावनाओ का हिरदय इस्पर्शी ताशिर आज भी छत्तीसगढ़ के आम नागरिको की हृदयता को दर्शाता है ,"कारी" की सरलता और 'गंभीरता" को समझ पाना कठिन नहीं परन्तु इसका एकाएक विस्वाश और प्रस्तुति का जीवंत शैली छत्तीसगढ़ की धरोहर है , आंशु की कीमत को जानने वाला जिंदगी को बारीकी से जीने वाला ही कारी को समझ सकता है,जीवन की आम संघर्षो और सचाइयो से सराबोर कारी छत्तीसगढ़ की नारी का ही प्रतिक है जिसके गुणों को लिखने की नहीं जीने की जरुरत है ,कारी नाटक के गीतकार दाऊ मुरली चंद्राकर के सानिध्य में मैंने कारी को थोरा ही जान पाया किन्तु इसे मंच के सामने बैढ़कर न देख पाने की छात्पताहत मेरे मन में जीवन पर्यंत रहेगी......
जवाब देंहटाएं-एमन दास मानिकपुरी
कारी:- हमारा देश भारत दुनिया में अपनी मनीषी परंपरा और भावनात्मक जीवन शैली के साथ साथ दया, धर्म,जैसी धार्मिक विचारो के लिए जाना जाता रहा है,इसी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के हिरदय स्थल पर मानविक भावनावो से धडकता राज्य है हमारा छत्तीसगढ़,जिसे दक्षिण कोशल और न जाने कितने नामो से संबोधित होता आ रहा है ,यहाँ की संस्कृति और परंपरा के बगिए में सुआ, ददरिया ,करमा, पंथी ,नाचा जैसे कितने ही फुल खिले है जिनकी खुसबू देश परदेश में बिखर रही है ,नारी की कोमल भावनावो को तो जैसे छत्तीसगढ़ ने जिया है ,यहाँ की रग़ रग़ में नारी की सुख दुःख का निरंतर अहसाश समाहित है,यही कारन है की यहाँ के लोग समय समय पर इस अनुभूति को प्रत्यक्ष करते रहे है जिसका सशक्त उदाहरण है लोक कला मंच "कारी",कारी नाटक को देखना मानो नारी जीवन को जीने के सामान है ,अपने ज़माने के सुविख्यात रंगकर्मी "दाऊ रामचंद देशमुख" की ये कालजई प्रस्तुति कलाकारों के साथ साथ भले ही किसी सुहानी संध्या वेला की तरह बीत चुकी हो किन्तु कारी की वो जिजीविषा,सहिष्णुता,हृदयता और असल में कहू तो नारिता की कोमल भावनाओ का हिरदय इस्पर्शी ताशिर आज भी छत्तीसगढ़ के आम नागरिको की हृदयता को दर्शाता है ,"कारी" की सरलता और 'गंभीरता" को समझ पाना कठिन नहीं परन्तु इसका एकाएक विस्वाश और प्रस्तुति का जीवंत शैली छत्तीसगढ़ की धरोहर है , आंशु की कीमत को जानने वाला जिंदगी को बारीकी से जीने वाला ही कारी को समझ सकता है,जीवन की आम संघर्षो और सचाइयो से सराबोर कारी छत्तीसगढ़ की नारी का ही प्रतिक है जिसके गुणों को लिखने की नहीं जीने की जरुरत है ,कारी नाटक के गीतकार दाऊ मुरली चंद्राकर के सानिध्य में मैंने कारी को थोरा ही जान पाया किन्तु इसे मंच के सामने बैढ़कर न देख पाने की छात्पताहत मेरे मन में जीवन पर्यंत रहेगी......
जवाब देंहटाएं-एमन दास मानिकपुरी
धन्यवाद एमन भाई।
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