विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
स्टील टि्वन सिटी के नाम से ज्ञात मेरे नगर के मुख्य डाकघर के पास लगे एक पत्थर पे मेरी नजर पिछले कई बरसों से ठहर जाती रही है. यह पत्थर संभवत: तत्कालीन ब्रिटिश शासन के द्वारा मील के पत्थर के रूप में जीई रोड के किनारे लगाई गई थी. इस पर नागपुर और रायपुर की दूरी लिखी गई है. इस पत्थर में दुर्ग का नाम द्रुग लिखा हुआ है. DURG की जगह DRUG . इस प्रश्न का जवाब हमने कई लोगों से पूछा संतोषप्रद उत्तर नहीं मिल पाया. थोडा और खोजबीन की तो पाया कि छत्तीसगढ के दुर्ग नगर को 'दुर्ग' कहने की परम्परा ज्यादा पुरानी नहीं है. दुर्ग नगर का क्षेत्र जब भंडारा से संलग्न था तदुपरांत 1857 में यह रायपुर जिले का तलसील बना तब तक इस नगर को द्रुग कहा जाता था. दुर्ग नगर की स्थापना लगभग दसवीं शताब्दि में मिर्जापुर के बाघल देश से आये जगपाल नामक व्यक्ति नें की थी. तब जगपाल रतनपुर के राजा का खजांची का काम सेवानिष्ठा से निबटा रहा था जिसके एवज में रतनपुर के राजा नें दुर्ग सहित 700 गांव उसे इनाम में दिये थे. सन् 1890 के लगभग यूरोपीय यात्री लेकी के दुर्ग आगमन का उल्लेख मिलता है. अपनी डायरी में लेकी नें