रेल में जागृत जन-मन और बिना टिकट यात्रा करता पत्रकार

कार्यालयीन व व्‍यावसायिक व्‍यस्‍तता के कारण बहुत दिनों से कलम कुछ ठहरी हुई है, फेसबुक और ट्विटर में में मोबाईल के सहारे हमारी सक्रियता भले ही नजर आ रही हो किन्‍तु ब्‍लॉगिंग के लिए समय नहीं निकल पा रहा है। इस बीच मोबाईल गूगल रीडर से पोस्‍ट पढ़े जा रहे हैं और टिप्‍पणियां मुह में बुदबुदा दिये जा रहे हैं। आरंभ सहित मेरे अन्‍य ब्‍लॉग भी नियमित अपडेट नहीं हो पा रहे हैं। छत्‍तीसगढ़ी बेब पोर्टल गुरतुर गोठ के लिये ढेरों रचनायें आई है और उन्‍हें टाईप करने, यूनिकोड परिर्वतित करने या प्रस्‍तुति के अनुसार कोडिंग करने के लिए भी समय नहीं मिल पा रहा है।

पिछले दिनों मैंनें अपने एक मित्र से ब्‍लॉगिया चर्चा दौरान जब यह बात कही तो मित्र नें दार्शनिक अंदाज में सत्‍य को उद्धाटित किया कि समय का रोना बहानेबाजी है, दरअसल आप उस काम की प्राथमिकता तय नहीं कर पा रहे हैं, आपके लिये प्राथमिक आपके दूसरे काम है इसलिये आप ऐसा कह रहे हैं। मैंनें इसे सहजता से स्‍वीकारा कि हॉं मेरे लिये प्राथमिक मेरा परिवार और मेरी रोजी रोटी है, बात आई गई हो गई। मित्र की बात दिमाग के किसी कोने में छुपी रही और जब-जब फीड रीडर लागईन हुआ, ब्‍लॉग पोस्‍टों से रूबरू हुआ उनकी बातें याद आई। हॉं, हमें ब्‍लॉगिंग की प्राथमिकता तय करनी चाहिए सप्‍ताह में एक पोस्‍ट तो बनता है मित्र।


... तो लीजिये कबाड़ ही सहीं पोस्‍ट लिखने का प्रयास करते हैं। हुआ यूं कि बहुत दिनों बाद छत्‍तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले के गांव महुदा-जुन्‍नाडीह जाने का अवसर मिला। कार्यक्रम पारिवारिक था और उसमें उपस्थिति मेरी प्राथमिकता। लगभग पच्‍चीस साल पहले तक जांजगीर-चांपा, शिवरीनारायण-खरौद, रतनपुर, अकलतरा के कई गांवों में पारिवारिक कार्यक्रमों में जाते रहा हूं दो-तीन बार सड़क मार्ग से महुदा-जुन्‍नाडीह भी जा चुका हूँ किन्‍तु बरसों बाद रेल और बस का सफर करने का मन नहीं होते हुए भी तय प्राथमिकता के हिसाब से मुझे वहां जाना पड़ा।


रास्‍ते का खाका राहुल सिंह जी से लिया और विवेक राज जी से बात की विवेक भाई पहले से ही मुझसे मिलने का उत्‍सुक थे, मेरे एकदिनी कार्यक्रम को जानने के बाद उन्‍होंनें कहा कि रास्‍ता बेहद खराब है किन्‍तु पेट्रोल गाड़ी की व्‍यवस्‍था कर देगें आप बिना चिंता के आयें, आपका स्‍वागत है। मुझे विवेक भाई के प्रेम पर खुशी हुई किन्‍तु दिल नें कहा कि भाई को किंचित भी परेशान किए बिना अपना काम किया जाए क्‍योंकि मैं जहॉं जाना चाहता हूं उसके पास के कस्‍बे तक बस सुविधा है और उसके बाद का सात किलोमीटर पैदल या किराये के सायकल से तय की जा सकती है। तो हम बिना विवेक भाई को बताये आईआरसीटीसी से दुर्ग से अकलतरा तक साउथ बिहार एवं अकलतरा से दुर्ग तक शिवनाथ एक्‍सप्रेस में तत्‍काल टिकट बनवाकर सुबह निकल पड़े। लगभग 10.30 को हम अकलतरा पहुंचे, रेलवे स्‍टेशन के बाहर पूछने पर पता चला कि नजदीकी क्रासिंग के पास से बलौदा के लिये हर घंटे बस मिल जाती है। योजना थी कि शाम को वापस आते समय विवेक भाई को फोन करके मिलेंगें तो हम पैदल मार्च करते हुए बलौदा (स्‍थानीय उच्‍चारण के अनुसार 'बलउदा') के लिए जहॉं गाड़ी मिलती है वहां पहुच गए, लगभग आधे घंटे के इंतजार के बाद पहले से ही खचा-खच भरी हुई मिनी बस आई। बस में दरवाजे के पास खड़े होने की जगह थी तो हम चढ़ गए अगले दस मिनट में जाउं नहीं जाउं के उहापोह तक हम सामन की तरह बस के बीच में ठूंस दिये गए, अब उतराना भी संभव नहीं था। गाड़ी आगे बढ़ी तो पता चला कि रास्‍ते में बम्‍हनी नामक जगह में चर्च है वहां जाने के लिये बस में भीड आज ज्‍यादा है क्‍योंकि आज क्रिसमस है। 'मैरी क्रिसमस' और 'तोला क्रिसमस मुबारक नोनी के दाई ओ....' गाते हुए हम लदे-फदे रहे। बड़े-बड़े गड्ढों वाले सड़क में बस की सवारी का मजा लेते हुए हम बम्‍हनी पहुचे। बम्‍हनी के बाद बस में सीट मिली और हम बलौदा पहुंचे, वहां से मेजबान नें हमारे लिये गाड़ी भेजी और हम धूल भरी उबड़-खाबड़ राहों से जुन्‍नाडीह पहुंचे।


प्रधानमंत्री सड़क परियोजना के चलते देश के अधिकतम गांव मुख्‍यालयों से टार सड़कों से जुड़ गए है किन्‍तु यह लगभग 700 आबादी वाला यह गांव अब भी सड़क के लिये तरस रहा है। गांव में हमने अपनी उपस्थिति दर्शाई, भोजन किया फिर एक गली में समाप्‍त हो जाने वाले गांव के भ्रमण में निकल गए जिसके आखरी सिरे में एक बड़ा सा तालाब है जो लगभग सूखा हुआ है जिसमें गांव के लोग निस्‍तारी करते हैं। तालाब के किनारे ही बरगद के पेड़ के नीचे एक सीमेंटेड चबूतरा और लकड़ी का दण्‍ड गड़ा हुआ मिला जिसमें लगे बंदन और अगरबत्‍ती के जले अवशेष बता रहे थे कि यह छत्‍तीसगढ़ी प्रतीकों में कोई देव है, आस पास में तीन-चार बच्‍चे खेल रहे थे बड़ा कोई नहीं था जो ये बता सके कि यह किस देव का प्रतीक है, दण्‍ड के साथ लगी लकड़ी के लाठी जैसे लकड़ी को देखने से लगता था कि यह यादवों के देव होंगें। गांव के नामकरण के संबंध में बलौदा के ही त्रिपाठी सायकल स्‍टोर्स वाले त्रिपाठी जी नें बतला दिया था कि महुदा और जुन्‍नाडीह मूलत: शुक्‍ला ब्राह्मणों का निवास रहा है जिसमें जुन्‍नाडीह में पहले शुक्‍ला लोगों के पुरखे आये और फिर उनमें से कुछ लोग भौगोलिक परिस्थितियों के प्रतिकूल पाने के कारण उस गांव को छोड़कर महुदा में बस गए। बाद में दोनों का अलग अलग नामकरण हो गया जहां शुक्‍ला लोग पहले आये वो जुन्‍नाडीह और बाद में बसे गांव का नाम महुदा। महुदा के आगे एक नाला है उसके पार कुगदा नाम का एक गांव है जहां मैं बहुत पहले जा चुका हूं, मैं उस नाले के किनारे तक जाना चाहता था किन्‍तु समय और साधन दोनों नहीं थे इसलिये वापस बलौदा जाने के लिये निकल पड़ा।

शाम को जल्‍दी बलौदा आ जाने के बाद मैंनें तय किया कि समय पर यदि अकलतरा पहुंच गया तो साउथ बिहार एक्‍सप्रेस मुझे मिल जायेगी और मैं रात 9 बजे तक घर पहुच जाउंगा, यदि शिवनाथ एक्‍सप्रेस का इंतजार किया तो मुझे घर पहुचते तक एक बज जायेगें। इसलिये जल्‍दी ही अकलतरा के लिये बस पकड़ कर रवाना हो गया, बस में भीड अब भी वैसी ही थी। अकलतरा पहुच कर पता किया तो रेलवे पूछताछ केन्‍द्र से पता चला कि साउथ बिहार बस पंद्रह मिनट में आ रही है, मैंनें झटपट टिकट लिया और प्‍लेटफार्म में आ गया। विवेक भाई से मिलने के लिये अब वक्‍त नहीं था इसलिये मन ही मन उन्‍हें 'सारी' कहते हुए ट्रेन में चढ़ गया। स्‍लीपर में चढ़ने का खामियाजा जुर्माना देकर ना भुगतना पड़े यह सोंचकर टीसी को ढ़ूढा और 70.00 का स्‍लीपर कटवाकर आराम से एक खाली सीट पर पसर गया।


कार्यालयीन कार्यों से मुझे साल में कई बार दूर के ट्रिब्‍यूनलों और न्‍यायालयों तक ट्रेन से यात्रा करते रहना पड़ता है और परिस्थितियों के अनुसार अलग अलग श्रेणी में यात्रा करना पड़ता है। इन लम्‍बी दूरी की ट्रेन यात्राओं में बहुत कुछ घटता है, भारत की छवि हलराते हुए स्थिर रेल पातों पर तेजी से सरकती है। जिसे हर यात्रा के बाद लिखने का मन करता है किन्‍तु आलस के कारण सब धरा रह जाता है। अकलतरा से दुर्ग के इस रास्‍ते के अनुभवों को लिखने के लिये उंगलियां जब की बोर्ड पर खटर-पटर करने ही लगे हैं तो पब्लिश कर ही देते हैं दो रोचक संस्‍मरण:-


1 सुबह दुर्ग से अकलतरा साउथ बिहार में जाते हुए रायपुर में बहुत सारे लोग चढे और भीड़ कुछ बढ़ गई, हमारे कोच में दो महिलायें चढ़ी जो सीट खाली नहीं होने के बावजूद हमें बाजू खिसकने को कहने लगी, मैंनें कहा कि मैडम हम सब रिर्जवेशन कराके बैठे हैं आप दूसरी जगह देख लेवें तो उसमें से एक नें तपाक से कहा कि रिजर्वेशन का मतलब रात का होता है दिन में तो हमें बैठने देना पड़ेगा। हम बिना बहस किये जगह नहीं होने के बावजूद थोड़ा सरक गये जहां वो जम गई, और हम दो यात्रियों के बीच में दब गये। थोड़े देर में दूसरी महिला भी सामने वाले सीट पर सरको कहकर जम गई और दोनों का चकर-चकर चालू हो गया। जिस महिला नें हमें रिजर्वेशन की परिभाषा समझाने की कोशिस की थी उसने दूसरी महिला को बताना शुरू किया कि उसके पति नें पटना जाने के लिये पूरा सीट बुक करवाया है, दूसरी महिला शायद उस बात को समझ नहीं रही थी या उस बात को अहमियत नहीं दे रही थी इसलिये वह कई बार दुहरा रही थी कि पूरा सीट बुक करवाया है। बार बार कहने के बावजूद जब दूसरी महिला नें नहीं पूछा कि पूरी सीट बुक करवाने का मतलब क्‍या होता है तो वो वह बतलाने लगी कि पूरा सीट मतलब कि ये पूरा सीट एक आदमी के लिये, इसमें कोई दूसरा नहीं बैठ सकता ऐसा टिकट करवाया है। जब दूसरी महिला ने यह सुना तब उसने आश्‍चर्य मिश्रित खुशी से कहा ये पूरा सीट। और भी बातें होती रही पर बाकी बातें दिमाग में सेव नहीं हो पाया।

थोड़ी देर बाद टीसी आ गया और सबकी टिकटें जांची जाने लगी, मेरे 175 किलोमीटर के सफर के लिये भी तत्‍काल कोटे से स्‍लीपर टिकट कटाने पर उसनें व्‍यंगात्‍मक मुस्‍कान बिखेरते हुए कहा कि आप लोगों के कारण ही तो लम्‍बी दूरी के यात्रियों को बर्थ नहीं मिल पाते। मैंनें कहा हम लोग जैसे छोटी दूरी के तत्‍काल स्‍लीपर रिजर्वेशन वालों के कारण ही तो आप दूसरे यात्रियों को बर्थ दे पाते हैं। हम दोनों में बातें होती रही और टीसी उन दोनों महिलाओं से टिकट मागा उनमें से एक ने फैशनेबल पर्स में से सामान्‍य दर्जे का टिकट निकाला पर टीसी मुझसे वार्ता में मगन रहा, इसी बीच दो-तीन खड़े-खड़े यात्रा कर रहे यात्रियों नें सामान्‍य दर्जे के टिकट से साथ स्‍लीपर की रसीद सहित टिकट दिखाते हुए टिकट चेक कराने लगे और टीसी उनका टिकट चेक नहीं कर पाया। टीसी के जाते ही टिकट पकड़े महिला नें दूसरी महिला की ओर देखकर जीभ को दबाते हुए चेहरे में विजय मुस्‍कान बिखेरी जैसे कह रही हो कि बच गए सौ रूपये। दोनों खामोशी से मुस्‍कुराने लगे, हम चुप ही थे किन्‍तु मन में बार बार हो रहा था कि कुछ लेक्‍चर झाड़ा जाए और जब रहा नहीं गया तो हमने कहा मैडम आपके पास जो टिकट है वो सामान्‍य दर्जे का है। उसने तपाक से कहा कि नहीं सुपर फास्‍ट का है इसी गाड़ी का है, वो टिकट दिखाने लगी, भाटापारा तक का टिकट था। 


मेरे कुछ बोलने के पहले पास में खड़ी एक लड़की नें भी तपाक से कहा कि आपने तो स्‍लीपर नहीं कटवाया है आप इस टिकट के सहारे यहां नहीं बैठ सकती। वो लड़की कुछ इस तरह बोली कि वो स्‍वयं बेवजह स्‍लीपर कटवा कर सीट ना मिलने के बावजूद खड़ी है, ये लोग तो बिना स्‍लीपर कटवाये भी मजे से बैठकर बक-बक कर रही हैं। मैंनें उस लड़की के सुर में सुर मिलाया तो उन दोनों महिलाओं नें वाकचातुर्यता का सहारा लिया कहा कि टीसी नें नहीं काटा तो हम क्‍या करें, उनके हावभाव से यह स्‍पष्‍ट हो रहा था कि वे जानते थे कि वे स्‍लीपर कोच में यात्रा कर रहे हैं और उन्‍हें इसके लिये अतिरिक्‍त शुल्‍क देना होगा फिर भी बचा लो तो बचा लो का प्रयास कर रहे थे। अन्‍ना आन्‍दोंलन के बाद से लोगों में आई जागृति के चलते दो चार यात्रियों नें भी बोलना शुरू कर दिया, कि आप अपने बच्‍चों को क्‍या यही शिक्षा देंगीं कि विदाउट टिकट ट्रेन में यात्रा करो। बहुत सारे लोगों के सुर में सुर मिलते ही उन दोनों महिलाओं की बोलती बंद हो गई। जन में आये इस बदलाव को देखकर मुझे खुशी हुई।


2 लोगों के इस विरोधी स्‍वर के संबंध में मैंनें बलौदा में भी चर्चा किया जहॉं मेरे एक रिश्‍तेदार नें स्‍वीकारा कि उसने भी दो-चार बार सीनियर सिटिजन का टिकट लेकर यात्रा किया है क्‍योंकि वोटर आईडी कार्ड में गलती से उसके जन्‍म तिथि में दस साल बढ़ा दिया गया हैं। हमारे मना करने पर उसने भी स्‍वीकारा कि थोड़े से पैसे बचाने के लिये इस तरह की चोरी नहीं करनी चाहिए। चर्चा और नजरों में बसते चित्रों को पीछे छोड़ते हुए हम अकलतरा पहुचे और जैसे पहले लिख चुके हैं हम साउथ बिहार में बैठ गए।

बिलासपुर में गाड़ी रूकी और चल पड़ी पांच मिनट बाद एक सामान्‍य कद काठी का चश्‍मा लगाए युवक आया और मुझसे पूछा कि बाजू में सीट खाली है क्‍या, मैंनें हॉं कहा तो वह बैठ गया और मोबाईल में किसी से बात करने लगा, मोबाईल में जो चर्चा हो रही थी उससे प्रतीत हो रहा था कि वह शायद अपने बच्‍चे से बात कर रहा था, चर्चा में 'पूरी जानकारी लेनी थी, पैसा दिये हैं, कोई फोकट में तो जानकारी नहीं ले रहे हैं' जैसे शब्‍दों का प्रयोग हो रहा था। इसी बीच टीसी आया और टिकट जांचने लगा, सब अपना-अपना टिकट दिखाने लगे, जब बाजू में अपने बच्‍चे से मोबाईल में बतियाते बैठे युवक से टीसी ने टिकट मांगा तो उसने कहा 'प्रेस'। टीसी ने बात को सुनी नहीं है जैसे हाथ से इशारा किया कि क्‍या। उस युवक नें मोबाईल को कान में लगाए हुए ही जींस के पीछे की जेब से पर्स निकाला और उसमें लगे एक बहुत बड़े समाचार पत्र का परिचय पत्र का झलक टीसी को दिखा दिया। टीसी नें कहा 'यार ऐसा मत किया करो' और चला गया। 


मैं उस युवक के मोबाईल वार्ता बंद होने का इंतजार करने लगा और मौके की नजाकत को समझते हुए मोबाईल रिकार्डर आन कर लिया कि जब आवश्‍यकता पड़े इसे प्रयोग किया जा सके। जैसे ही वह मोबाईल अपने कान से अलग किया मैंनें उससे उसी समाचार पत्र के प्रबंध संपादक से लेकर सिटी रिपोर्टर, संवाददाता और अन्‍य लोगों के संबंध में चर्चा करने लगा। वह युवक पहले तो अपने आप को पत्रकार जताने के रौब का प्रभाव मेरे उपर डालने का प्रयास किया किन्‍तु जब चर्चा के दौरान ही मेरी छत्‍तीसगढ़ मीडिया संबधों की जानकारी उसे हुई तो वह 'रेंगियाने' लगा, कहने लगा कि वह जल्‍दी-जल्‍दी में आया और दौड़ के ट्रेन में चढ़ गया इसलिये टिकट नहीं ले पाया। उसने चर्चा के दौरान कई बार ये बात कही। जब आखिरी बार उसने ये बात कही तो मैंनें कहा कि तो टीसी से टिकट बनवा लेना था ना, तो उसने खीसे निपोरते हुए कहा कि इन लोगों के विरूद्ध पिछले समय मैंनें छापा था ना तब से ये लोग घबराते हैं और ये सब थोड़ा बहुत तो प्रभाव में चलाना पड़ता है ना। मैंनें भी हंसते हुए मजाकिया लहजे में कहा कि मैं जब आपके समाचार पत्र में छपे किसी रिपोर्टिंग से बहुत खुश होता हूं या मुझे वो चुभती है तो आपके प्रबंध संपादक को सीधे फोन लगाता हूं, ये देखे उनका नम्‍बर मेरे मोबाईल में सेव है कहें तो इस बात पर भी हो जाये उनसे बातचीत।

अतिशयोक्ति नहीं होगी यह कहना कि उस युवक के रंग क्षण मात्र में बदल गए जिसके चेहरे में दो सेकेन्‍ड पहले गर्व के भाव थे, लग रहा था कि पसीने की बूंदे तैर रही थी। उसने हकलाते हुए मुझे मुद्दे से अलग बातों में उलझाना चाहा, मैं जान रहा था और वह युवक भी जान रहा था कि वो बेकार की बातें करके मुझे मुद्दे से हटाना चाह रहा था। अचानक उसका दिमाग काम कर गया, वह बोला एक मिनट मिस्‍ड काल है और मोबाईल में किसी से पूछने लगा कि कौन से कोच में बैठा है, उधर से उत्‍तर आने पर फोन बंद करके सीट से उठ गया और जल्‍दी-जल्‍दी में मुझसे विदा मांगने लगा कि उसका एक और पत्रकार मित्र जो एक और बड़े समाचार पत्र में काम करता है वह दूसरे कोच में है, उसने भी टिकट नहीं लिया है, मैं उससे मिल कर आता हूं। मैंनें कहा उन्‍हें भी बुला लीजिये मेल मुलाकात हो जावेगी और वह चला गया। मैं रायपुर तक इंतजार करता रहा वह युवक नहीं आया।

संजीव तिवारी

कचरा टैक्‍स कितना उचित


छत्तीसगढ़ शासन द्वारा हाल ही में नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग के द्वारा बनाई गई उप विधि ठोस अपशिष्ट (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं, 2010 को प्रदेश के सभी नगर पालिक निगमों को अंगीकार करने के लिये प्रेषित किया गया है। रायपुर व भिलाई नगर पालिक निगमों सहित कई नगर पालिक निगमों में इस उप विधि को मेयर इन काउंसिल के द्वारा सामान्य सभा में पास करा कर लागू किया जा रहा है। भारतीय संविधान के अनुसार किसी भी स्थाननीय नगर प्रशासन का मूल कर्तव्य रहवासियों को मूल नागरिक सुविधा उपलव्ध कराना होता है जिसके लिये स्थानीय नगर प्रशासन जनता से न्यूनतम शुल्क लेकर अधिकतम सुविधा मुहैया कराती है। अपने कामकाज के संचालन के लिये विधि में उपलब्ध करारोपण अधिकार के तहत वह अपनी वित्तीय व्यतवस्था करती है। समय-समय पर राज्य सरकार नगर पालिक निगम अधिनियम के प्रावधानों के तहत निगमों में करारोपण के लिये उपविधियों का निर्माण करती है और निगम अपनी सुविधानुसार इसे अंगीकार करती हैं, करारोपण कम या ज्यादा कर सकती है या अस्वीकार भी कर सकती हैं। 

इसी क्रम में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा ठोस अपशिष्ट् (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं, 2010 बनाई गई है। इसके अनुसार सरकार के द्वारा निगम क्षेत्रों के लिये जो शुल्क निर्धारित किये गए हैं उसका अवलोकन करते हुए यह स्पष्ट होता है कि वे न्यूनतम कतई नहीं है। इस उपविधि के प्रभाव में लाये जाने के पूर्व भी निगम द्वारा कचरे के निबटान हेतु कार्य किया जा रहा था। यह कार्य सभी नगर पालिक निगम के लिए पर्याप्त था। किन्तु समझ से परे है कि ऐसी क्या आवश्यकता हुई जो जनता के सर पे इस तरह भारी करों का बोझ डालने का निर्णय लिया गया। इसके परिपेक्ष्य में सिंगापुर और मलेशिया यात्राओं का असर मूल है। सरकार सिंगापुर व मलेशिया जैसी स्वच्छ नगरीय निकाय की परिकल्पना कर रही है जहॉं के निवासियों का प्रति व्यक्ति आय साढ़े तीन लाख रूपये प्रति वर्ष है, वहॉं की मूल आर्थिक आधार पर्यटन है और उन्हें अपने नगरों के सौंदर्य पर विशेष ध्यान देना उनकी आवश्यकता है इसलिये वहां साफ सफाई का व्यय अधिक है जबकि भारत में एक सामान्य व्यक्ति को 32.00 रूपये प्रति दिन कमाना भी दूभर है ऐसे में साफ सफाई का पूरा भार उस व्यक्ति पर डाल देना अनुचित है।

यह कर निगम क्षेत्र के अधिसंख्यक जनता के प्रति अतिरिक्त एवं अन्यायपूर्ण है अब निगम क्षेत्र में रहने वाले झ़ुग्गी-झोपड़ी निवासी को भी रू. 720.00 प्रति वर्ष निगम को देना पड़ेगा जबकि उसे मुश्किल से दो वक्त की रोटी मिल रही है। निगम गरीबों के मुह से निवाला छीन कर अपना बजट सुदृढ़ करे यह युक्तिसंगत नहीं है। यदि इस उपविधि को नगर पालिक निगम में लागू किया जाना अत्यावश्यक जान पड़ता है तो भी इतना भारी करारोपण अलोकतांत्रिक है इसके बदले में न्यूनतम राशि नगर पालिक निगमों को तय करनी चाहिए। यद्धपि प्रस्तुत उपविधियों को लागू करने या नहीं करने का स्वैच्छिक अधिकार निगम के पास सुरक्षित है। 

नगर पालिक निगम द्वारा प्रस्तावित सेवा शुल्क अनुसूची के अनुसार 500 वर्ग फिट से कम प्लिंथ क्षेत्रफल वाले निवासियों से रू. 240.00 प्रति वर्ष लिया जाना है। इसी तरह 1000 वर्ग फिट से ज्यादा के निवास भवनों पर 1200.00 प्रति वर्ष निर्धारित है। इसके साथ ही सभी गृहों के लिए सम्पत्ति कर के साथ समेकित कर के नाम से अतिरिक्त रू. 600.00 प्रति वर्ष पूर्व से ही लिया जा रहा है। इस उपविधि के अनुसार प्रस्तावित व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर निर्धारित शुल्कों पर भी नजर डालें, ऐसे रेस्टारेंट जिसमें 25 से 50 कुर्सियां हो उसे 12000.00 प्रति वर्ष व 25 से कम कुर्सियों पर 6000.00 प्रति वर्ष इसमें हमारे मुहल्ले के सभी चाय दुकान भी आ जायेंगें। होटल व लाजों पर 12000.00 से 180000.00 प्रति वर्ष करारोपण निर्धारित किया गया है जबकि प्रदेश में होटल व्यवसाय लगभग ठप्प पड़ा हुआ है, सरकार द्वारा प्रदेश में पर्यटन हेतु पर्यटकों के नहीं लुभा पाने के कारण यह जैसे तैसे चल रहे इस व्यवसाय को इस करारोपण से तगड़ा झटका लगेगा। शैक्षणिक संस्थाओं के लिये नियत कचरा टैक्स भी कम नहीं है स्कूल हेतु 60000.00, महाविद्यालय हेतु 24000.00 प्रति वर्ष नियत है। चिकित्सा्लय एवं नर्सिंग होम के लिये 60000.00 से 120000.00 प्रति वर्ष नियत है, दुकान व व्यावसायिक परिसरों हेतु क्षेत्रफल के अनुसार 100 से 500 वर्ग फिट से अधिक पर 1200.00 से 18000.00 प्रति वर्ष एवं व्यावसायिक परिसरों पर 1.50 प्रति वर्ग फिट तय किया गया है जिसके अनुसार शहर के बड़े व्यावसायिक परिसर व शापिंग माल के लिये लाखों रूपये सालाना कचरा टैक्स वसूला जायेगा।

यह सेवा शुल्क मूलत: व्यवसायियों के लिये बहुत भारी है, दुकान, काम्पकलेक्स, रेस्तरां एवं होटल संचालकों के लिये नियत किये गए शुल्क अत्यधिक हैं, रेस्तेरां संचालक अपना कचरा स्वियं ही इकट्ठा करते हैं एवं उसका विधिवत निबटान करते हैं ऐसी स्थिति में उन पर भारी शुल्कों का दायित्व मंदी के इस दौर में व्यावसायिक घाटे का सबब बनने वाला है। इन बढे शुल्कों का भुगतान कर पाने में असमर्थ व्यवसायी के साथ ही साथ इस व्ययवसाय से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जुड़े हजारों अन्य जन पर भी बेरोजगारी का संकट आने वाला है। छत्तीसगढ़ की छवि को व्यावसायिक प्रसिद्धि दिलाने में यहां के व्यावसायिक परिसरों की अहम भूमिका है, आज व्यवसाय से सरकार को अत्यधिक राजस्व लाभ भी प्राप्त हो रहा है। नये उपविधि के तहत् निगम क्षेत्र के वाणिज्यिक परिसरों हेतु नियत रू. 1.50 प्रति वर्ग फिट/ प्रतिमाह का दर भी अनुचित है। निगम क्षेत्र के सभी वाणिज्यिक परिसर कचरा निबटान के लिये अपने निजी संसाधनों का प्रयोग कर रहे है। उन्हें नगर पालिक निगम द्वारा पूर्व से ही सम्पत्ति कर के बढ़े हुए दर पर भुगतान करना पड़ रहा हैं। निगम क्षेत्र के अधिकतम वाणिज्यिक परिसर को परिसर प्रबंधकों नें किराये/पट्टे पर दे रखा है और वर्तमान में उनके पास केवल सार्वजनिक उपयोग के पैसैज व सीढ़ी आदि हैं ऐसे में यदि वाणिज्यिक परिसर प्रबंधन से 1.50 प्रति वर्ग फिट/ प्रतिमाह के दर से शुल्क निर्धारित किया जाता है तो यह उनके लिये भारी होगा। 

प्रस्तावित उपविधि के अनुसार संकलित शुल्क के मद से कचरे के निबटान हेतु किसी ठेकेदार को ठेका दिये जाने का प्रावधान है जबकि निगम के पास पूर्व में ही कचरे के निबटान के लिये अतिरिक्त बजट एवं प्रस्ताव रहा है जिससे पूर्व में ही कचरे का समुचित निबटान सुचारूरूप से होता आया है। इस उपविधि के विरूद्ध हमारी विशेष आपत्ति यह है कि ठेकेदारों के आय में वृद्धि के हेतु से जनता पर यह अतिरिक्ति करारोपण क्यूं किया जा रहा है जबकि कचरे का निबटान के लिये पूर्व से ही योजना एवं व्यह निधारित हैं। इस उपविधि को लागू करने के उद्देश्य से जो नगर पालिक निगमों के द्वारा जो सेवा शुल्को निर्धारित किया गया है वह अव्यवहारिक प्रतीत होता है एवं जल्द बाजी में सरकार के द्वारा नगर पालिक निगम को वित्तीय स्वायत्‍तता देने के उद्देश्य से जनता पर मनमाना करारोपण का अधिकार दे दिया जाना प्रतीत होता है।

नगर पालिक निगम अधिनियम, 1956 की धारा 429 के अनुसार प्रस्तावित उपविधि पर विचार करने के दिनांक से छ: सप्ताह पूर्व दो स्थानीय समाचार पत्र में आशय की सूचना प्रकाशित किया जाना आवश्यक है। इसी तरह उक्त उपविधि की मुद्रित प्रतिलिपि नगर पालिक निगम के कार्यालय में सूचना-पत्र के प्रकाशन के दिनांक से एक माह तक की अवधि के लिए जनता के अवलोकनार्थ रखना भी आवश्यकक है, यदि इन नियमों का पालन नगर पालिक निगमों के द्वारा नहीं किया गया है तो यह उपविधि संज्ञान में लाए जाने पर अप्रभावी मानी जावेगी। विधिवत सूचना-पत्र का प्रकाशन नहीं किये जाने एवं नगर पालिक निगम में उपविधि के मुद्रित प्रति के नहीं रखे जाने के कारण, क्षेत्र की जनता इस पर विधि के अनुरूप आपत्ति या सुझाव भी नहीं दे पा रही है और क्षेत्र की जनता के मौलिक अधिकारों का खुलेआम हनन हो रहा है। जनता को दावा-आपत्ति-सुझाव का अवसर दिये बिना पारित इस उपविधि का कोई संवैधानिक अस्तित्व नहीं है फिर भी उपविधि प्रभावी होने के कगार पर है। इसकी जानकारी नहीं होने के कारण जनता इस उपविधि के विरोध में कोई आवाज बुलंद नहीं कर पा रही है एवं सरकार चुपके चुपके कचरा टैक्स के एवज में पैसा वसूलने का अपना जाल कसते जा रही है।

व्यापक जन हित में ठोस अपशिष्ट (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं, 2010 को सरकार को रद्द करना चाहिए यह जनता के उपर अनावश्यक करारोपण है। हमारा मानना है कि निगम क्षेत्र में सफाई अति आवश्यक है और इसमें हम सबको सहयोग करना चाहिये यह हमारा नैतिक दायित्व भी है किन्तु निगम द्वारा इस दायित्व का सारा भुगतान जनता व व्यवसायियों पर डाला जा रहा है जो कि अनुचित एवं अलोकतांत्रिक है। हमारा सुझाव है कि परिसर में उत्पन्न कचरे की मात्रा के अनुसार कर लिया जाये एवं ठेकेदारों को उसी अनुपात में भुगतान किया जाये। 

संजीव तिवारी

झमाझम छालीवुड : भुनेश्वर कश्यप


शिखा का हॉट अवतार

इंडस्ट्री में शिखा ही एक मात्र ऐसी हीरोइन है, जो हॉट सीन देने में गुरेज नहीं करती।"टूरा रिक्शा वाला", "हीरो नं-०१" और "मैं टूरा अना़ड़ी तभो खिला़ड़ी" के बाद अब सतीश जैन की फिल्म "लैला टीप-टॉप छैला अंगूठा छाप" में हॉट रोल में दिखने वाली है। हालाँकि कुछ समीक्षकों ने इस तरह के दृश्यों की आलोचना भी की है, लेकिन शिखा इसे भूमिका की डिमांड मानती है। शिखा ने इस फिल्म में करण खान के साथ एक से ब़ढ़कर एक भ़ड़काऊ दृश्य दिए हैं। माना जा रहा है कि छॉलीवुड में की यह सबसे गरम दृश्य वाली फिल्म होगी। शुभ बैनर के तले निर्मित यह फिल्म १३ जनवरी को रिलीज होने वाली है। "मैं टूरा अना़ड़ी तभो खिला़ड़ी" में शिखा के जलवे कमाल नहीं दिखा पाए, देखते हैं लैला बनकर वह दर्शकों को कितना खुश कर पाती है।

क्षमा "अंगद का पैर"

छत्तीसग़ढ़ी फिल्म के कॉमेडियन कम डायरेक्टर क्षमानिधि मिश्रा को इंडस्ट्री में एक नया विशेषण मिल गया है। अंगद का पैर। मिश्रा जी जहाँ भी जाते हैं, कुछ न कुछ जुगा़ड़ कर ही आते हैं। मुंबई गए। वहाँ आमिर खान के साथ "गजनी" में काम किया। अमिताभ बच्चन पर भी अपना प्रभाव छो़ड़ आए। धारावाहिकों में भी दिखे। पिछले दिनों उनके सुपुत्र की शादी हुई तो भी समधी कम, कलाकार के रूप में लोगों ज्यादा लुभा गए। अब सुनने में आया है कि मिश्राजी साउथ की कुछ फिल्मों में नजर आएँगे। वैसे लोगों को मलाल है कि मिश्राजी दूसरे जगह तो हाथ पैर मार रहे हैं, लेकिन अपनी ही इंडस्ट्री में हिट फिल्म नहीं दे पा रहे हैं। उनकी "भांवर" ने तो औसत बिजनेस किया, लेकिन मोर "दुलरवा" औंधे मुंह गिर गई। चर्चा है कि मिश्राजी जनवरी में नया प्रोजेक्ट शुरू करने वाले हैं।

सब्जी बेचने लगी रीमा

सतीश जैन की सुपरहिट फिल्म "मया" में अनुज शर्मा की हीरोइन बनी रीमा सिंह सब्जी बेचने पर उतर आई हैं। चौंकिए मत! रीमा रियल लाइफ में नहीं, बल्कि रील लाइफ में सब्जी बेचते नजर आएंगी। भिलाई के प्रोड्यूसर लोकेश देवांगन निर्मित बहुचर्चित फिल्म "सलाम छत्तीसग़ढ़" में वे मुख्य अभिनेत्री हैं और सब्जी बेचने वाली का रोल कर रही हैं। रीमा के इस रोल पर इंडस्ट्री के कुछ कलाकारों का कहना है कि वे "मया" के बाद चली तो नहीं अब सब्जी बेचकर ही खुद को संतुष्ट कर रही हैं। वैसे हीरोइनें नाम कमाने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती हैं। रीमा यदि सब्जी बेच रही तो इसमें क्या बुराई है। चर्चा है कि फिल्म "सलाम छत्तीसग़ढ़" आतंकवाद पर आधारित है। राजू दीवान इस फिल्म में मुख्य भूमिका में नजर आ आएंगे। संजय बत्रा फिल्म के खलनायक तथा शशिमोहन सिंह शहीद वीर नारायण की भूमिका में दिखाई देंगे।

छुनुर- छुनुर पैरी बाजे...
फिल्म "अब्ब़ड़ मया करथंव" के गीत "छुनुर- छुनुर पैरी बाजे...गोरी पांव के पैरी तोर..."लोगों के बीच इन दिनों काफी मशहूर है। इस फिल्म के ऑडियो अधिकारी खरीदने वाले सुंदरानी वीडियो वर्ल्ड के संचालक मोहन सुंदरानी ने बताया कि ग्रामीण सहित शहरी क्षेत्र में भी इसे काफी पसंद किया जा रहा है। अब तक गाने की करीब ५ हजार सीडियाँ बिक चुकी हैं। इसके अलावा "नाचे रे मोर मन" और "का तैं जादू करे"गीत भी कॉफी पॉपुलर हो गया है। फिल्म का एकमात्र आयटम सांग "शांति बाई के जोगन..." भी धमाल मचा रहा है। फिल्म के निर्देशक प्रेम चंद्राकर को उम्मीद है कि फिल्म दर्शकों की उम्मीदों पर खरी उतरेगी।

अज्ञातवास में "घर द्वार" के वारिस !

छत्तीसग़ढ़ी फिल्म"घर द्वार" के निर्माता के ब़ड़े बेटे ने जोश ही जोश में एक प्रेस कान्फ्रेंस लेकर इस फिल्म को प्रदेश के विभिन्न टॉकीजों में दिखाने की घोषणा तो कर दी, लेकिन फिल्म का प्रिंट उनके पास नहीं होने से वे ब़ड़े परेशान नजर आ रहे हैं। इसका खुलासा तब हुआ जब वे राज्योत्सव में इस फिल्म को दिखाने के लिए संस्कृति विभाग के पास सीडी लेकर गए। सीडी में फिल्म का कुछ अंश ही दिख रहा था। इस संबंध में जानने के लिए इंडस्ट्री के कुछ लोग रोज उन्हें फोन कर रहे हैं, लेकिन वे न तो फोन रिसीव कर रहे हैं और न ही किसी से मिल रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि वह घर बार छो़ड़कर कहीं अज्ञातवास पर चले गए हैं। मालूम हो कि स्व. विजय कुमार पांडे निर्मित "घर द्वार" १९७१ को राजधानी के प्रभात टॉकीज में रिलीज हुई थी। सुमन कल्याणपुर और मो. रफी ने इसमें गाने गाए थे। निर्माता पुत्र ने इस फिल्म को दिसंबर के अंतिम सप्ताह में प्रदर्शित करने की घोषणा की थी।


भुनेश्वर कश्यप, रायपुर

बांग्लादेश : शतरंज का खेल

शतरंज की बिसात पर कैसे देश व जनता का भाग्य तय होता है, इसे सत्यजीत रे ने अपनी फिल्म शतरंज के खिलाड़ी में सुन्दर ढंग से चित्रित किया है। कुछ ऐसी ही बिसात हकीकत में कूचबिहार के राजा और रंगपुर के नवाब के बीच भी बिछा करती थी, जिसमें अक्सर गांव दांव पर लगाये जाते थे ऐसी बाजियों में कूचबिहार के राजा द्वारा जीते गये कई गांव रंगपुर राज्य के भीतर थे जबकि नवाब द्वारा जीते गये कई गांव कूचबिहार रियासत से घिरे थे। देश जब आजाद हुआ तो कूचबिहार भारत में और रंगपुर पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में शामिल हो गया। ऐसे में चारो ओर से दूसरे देश से घिरे इन गांव में पानी, बिजली, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी पहुंचाना किसी भी देश के लिए कठिन हो गया, और ये क्षेत्र विकास से अछूते ही रह गये। राजा व नवाब का शौक न सिर्फ इन ग्रामवासियों पर भारी पड़ा वरन् ये क्षेत्र दोनों देशों के लिए भी 60 सालों तक सिरदर्द बने रहे, जिसे हाल ही में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बांग्लादेश यात्रा में सुलझाया जा सका।

बांग्लादेश ऐतिहासिक-सांस्कृतिक रूप से भारत का अभिन्न अंग है। बंगाल के पाल षासकों ने पूरे भारतवर्ष पर शासन किया और 1906 ई. में खिलजियों के आने के बाद सत्ता पर मुस्लिमों का प्रभुत्व रहा। मेरे विचार से बंगाल का इतिहास राजनैतिक या धार्मिक आधार पर नहीं वरन् सांस्कृतिक आधार पर लिखना उपयुक्त होगा, क्योंकि यह उस क्षेत्र व समाज का सबसे प्रबल तत्व है। यह बंगलाभाषियों की विषिष्टता है जिसने पूरे इतिहास में समाज को एक सांस्कृतिक इकाई के रुप में एकजुट बनाए रखा और जब भी दिल्ली की सत्ता कमजोर हुई इसने अपने को सांस्कृतिक ईकाई से स्वतंत्र राजनैतिक इकाई बनाने में देर नहीं की।

बंगाल के इतिहास में बैरों-भुईयां (बारह जमींदार) मुझे सबसे दिलचस्प लगता है। यह छोटे शासकों का सैनिक संगठन था जिसने अपनी स्वतंत्रता व सम्प्रभुता के लिए धर्म व जाति से ऊपर उठकर सदियों तक विषाल मुगल साम्राज्य से लोहा लिया। उनकी स्वाधीनता की लालसा व वीरता अपने समकालीन चित्तौड़ के महाराणा प्रताप की ही तरह प्रबल थी जिस कारण वे जननायक के रूप में स्थापित हुए।

सुन्दर वन का रायल बंगाल टाइगर 
अंग्रेजों ने अपने आर्थिक स्वार्थ के लिए कई तरह से बंगाल की सांस्कृतिक एकता को खण्डित करने को कोषिष की, सन् 1905 में जब बंगाल को धार्मिक आधार पर बांटा गया तो भारतीयों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी, पर अंग्रेज जाते-जाते, देष को धार्मिक आधार पर बांट ही गये। यह विचित्र स्थिति थी, क्योंकि सदियों से यह देष अपने तमाम अन्तर्विरोधों के बाद भी एक सामाजिक, आर्थिक इकाई के रुप में सफलतापूर्वक कार्य कर रहा था। पाकिस्तान की स्थिति तो और भी बदतर थी। उसे भारत के दोनों सिरों में दो अलग-अलग भू-खण्ड मिले थे। जिनमें सिवाए धर्म के और कुछ भी समान नहीं था। पर यह विभाजन जमीन का था, दिलों का नहीं। आज भी भारतीय अपने हिस्से के बंगाल को पष्चिम बंगाल कहते हैं जो कि भारत का पूर्वी हिस्सा है और बंगलादेषियों ने भी जब आजादी पाई तो गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के गीत को ही अपना राष्ट्रगान बनाया जिन्होंने भारत का भी राष्ट्रगान लिखा था। वे बंगलादेषी ही थे जिन्होंने कालान्तर में यह साबित किया कि देष के विभाजन का धार्मिक आधार कितना खोखला था।

जब पश्चिमी पाकिस्तान के हुक्मरानों ने पूरे देश में उर्दू थोपने की कोशिश की तो बांग्लाभाषी पूर्वी पाकिस्तान में इसके खिलाफ एक बड़ा जन आन्दोलन खड़ा हुआ। जिसे आधार बनाकर शेख मुजीब की आवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान की लगभग सभी संसदीय सीटों को जीतकर पाकिस्तानी नेशनल एसेम्बली में बहुमत प्राप्त कर लिया। यह स्थिति पश्चिमी पाकिस्तान के नेताओं को स्वीकार नहीं थी। शेख मुजीब को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए जुल्फिकार अली भुट्टो व जनरल याह्या खान ने देश में मार्शल लॉ लागू कर बंगालियों पर भीषण अत्याचार करने प्रारंभ कर दिये, जिससे डरकर बड़ी संख्या में शरणार्थी भारत आने लगे। जब स्थिति बेकाबू होती चली गयी तब भारत ने ‘‘मुक्ति वाहिनी’’ की अपील पर फौजी हस्तक्षेप किया। जिसकी अन्तिम परिणिति इतिहास का सबसे बड़ा आत्म समर्पण व नये राष्ट्र के रूप में बांग्लादेश का उदय (दिसम्बर 1971) था।

बांग्लादेश आज स्वतंत्र राष्ट्र है किन्तु यह संसार के सबसे निर्धनतम राष्ट्रों में एक है। गंगा-ब्रह्मपुत्र के उपजाऊ दोआबे में बसा यह राष्ट्र अत्यधिक जनसंख्या से पीड़ित है। अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि और मछली पालन पर टिकी है और देश में खनिजों के अभाव के कारण औद्योगीकरण की संभावना लगभग नहीं है। यद्यपि जहाजों को तोड़कर उससे लोहा निकालने का काम यहाँ औद्योगिक स्तर पर होता है। बांग्लादेश के तटीय क्षेत्रों में हाल में गैस की विशाल भण्डारों की खोज हुई है, जो बांग्लादेश की अपनी ऊर्जा जरूरतों से काफी बड़ा है और जिसे बेचकर वह अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सकता है।

नियाजी द्वारा पाकिस्तानी हार की लिखित स्वीकारोक्ति  
बांग्लादेश भारत के राजनैतिक संबंध अच्छे रहे हैं, पर इसमें जमाते इस्लामी लगातार रोड़े अटकाती रहती है। इस पार्टी में मुख्यतः कठमुल्ले में पुराने पाकिस्तानी निजाम के समर्थक है, जो 1971 में भारत से मिली करारी शिकस्त को अब तक भूल नहीं पाये हैं। तीनों ओर भारत से घिरा हुआ यह देश, भारत से दुश्मनी मोल लेकर कदापि प्रगति नहीं कर सकता न ही भारत से दुश्मनी रखने की कोई ठोस वजह ही है। यद्यपि विवाद के कुछ मुद्दे हैं पर उनमें भी बातचीत से हल तक पहुंचा जा सकता है।

भारत-बांग्लादेश में तिस्ता नदी के जल बंटवारे को लेकर विवाद है। बांग्लादेश को आपत्ति है कि भारत, वर्षा ऋतु में फरक्का बैराज को खोल देता है, जिससे उसके यहाँ बाढ़ आ जाती है। जबकि अन्य ऋतुओं में गेट बंद रखने से बांग्लादेश को जल आपूर्ति बाधित होती है। वहीं भारत का तर्क है कि फरक्का चूंकि बैराज है इसलिए उसमें बांधों की तरह बहुत अधिक मात्रा में जल भण्डारण संभव नहीं है अतः वर्षा ऋतु में इसे खोलना उसकी मजबूरी है। जबकि अन्य ऋतुओं में हावड़ा बंदरगाह से गाद साफ करने के लिए उसे अधिक मात्रा में जल की आवश्यकता होती है। इन सभी विवादों के बाद भी दोनों देश इस मुद्दे पर एक समाधान तक पहुँच गये हैं और प्रधानमंत्री के बांग्लादेश दौरे में इस पर समझौता भी हो जाना था पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की आपत्तियों के कारण इसे फिलहाल लम्बित ही रखा गया है।

इसके अलावा दोनों देशों के बीच समुद्र में नये बनने वाले द्वीप भी विवाद पैदा करते रहते हैं और भारत बांग्लादेश से चकमा आदिवासियों के विस्थापन व उत्तर पूर्व के आतंकवादी संगठनों को बांग्लादेश से मिल रही मदद पर चिंता जताता रहा है पर इन सभी मुद्दों का हल आपसी बातचीत से निकाला जा सकता है।

बांग्लादेश भारत के लिए खाद्यान्नों, वाहनों, इंजीनियरिंग सामान व अन्य उपभोक्ता वस्तुओं का अच्छा बाजार है। वह अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर भी हमारा समर्थक रहा है। हाल ही में ब्रह्मपुत्र पर चीन द्वारा बनाये जा रहे बांधों की श्रृंखला का दोनों देश मिलकर विरोध कर रहे हैं क्योंकि इससे दोनों पर दुष्प्रभाव पड़ना तय है। खासकर बांग्लादेश पर इसका गंभीर असर होगा।
मो. युनुस नोबेल पुरस्कार प्राप्त समाज सेवी 

बांग्लादेश आर्थिक विकास क्षेत्र में भी भारत का साझेदार रहा है हाल ही में वहाँ जिन गैस भण्डारों की खोज हुई है उससे न सिर्फ बांग्लादेश वरन् भारत के बंगाल व उड़ीसा के तटीय क्षेत्रों में भी विकास को बल मिलेगा। बांग्लादेश कोलकाता बंदरगाह से मणिपुर व त्रिपुरा राज्य को जोड़ने के लिए कारीडोर देने के लिए सिद्धान्ततः सहमत हो गया है जिससे इन दोनों राज्यों के विकास में तेजी आयेगी।

दोनों देश एक दूसरे की मदद से अपने विकास में अभी और तीव्रता लाने की ओर अग्रसर हैं। बांग्लादेश का समृद्ध और मजबूत बनना भी भारत के हित में है पर इसके लिए उसे जमाते इस्लामी जैसी फिरकापरस्त पार्टी व हुजी जैसे आतंकवादी संगठनों से कड़ाई से निपटना होगा, जो दंगे-फसाद फैलाकर न सिर्फ देश के विकास को रोक रहे हैं वरन् अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बांग्लादेश की छवि को खराब कर रहे हैं।



विवेक राज सिंह
समाज कल्‍याण में स्‍नातकोत्‍तर शिक्षा प्राप्‍त विवेकराज सिंह जी स्‍वांत: सुखाय लिखते हैं।अकलतरा, छत्‍तीसगढ़ में इनका माईनिंग का व्‍यवसाय है. 
इस ब्‍लॉग में विवेक राज सिंह जी के पूर्व आलेख - 

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

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