कार्यालयीन व व्यावसायिक व्यस्तता के कारण बहुत दिनों से कलम कुछ ठहरी हुई है, फेसबुक और ट्विटर में में मोबाईल के सहारे हमारी सक्रियता भले ही नजर आ रही हो किन्तु ब्लॉगिंग के लिए समय नहीं निकल पा रहा है। इस बीच मोबाईल गूगल रीडर से पोस्ट पढ़े जा रहे हैं और टिप्पणियां मुह में बुदबुदा दिये जा रहे हैं। आरंभ सहित मेरे अन्य ब्लॉग भी नियमित अपडेट नहीं हो पा रहे हैं। छत्तीसगढ़ी बेब पोर्टल गुरतुर गोठ के लिये ढेरों रचनायें आई है और उन्हें टाईप करने, यूनिकोड परिर्वतित करने या प्रस्तुति के अनुसार कोडिंग करने के लिए भी समय नहीं मिल पा रहा है।
पिछले दिनों मैंनें अपने एक मित्र से ब्लॉगिया चर्चा दौरान जब यह बात कही तो मित्र नें दार्शनिक अंदाज में सत्य को उद्धाटित किया कि समय का रोना बहानेबाजी है, दरअसल आप उस काम की प्राथमिकता तय नहीं कर पा रहे हैं, आपके लिये प्राथमिक आपके दूसरे काम है इसलिये आप ऐसा कह रहे हैं। मैंनें इसे सहजता से स्वीकारा कि हॉं मेरे लिये प्राथमिक मेरा परिवार और मेरी रोजी रोटी है, बात आई गई हो गई। मित्र की बात दिमाग के किसी कोने में छुपी रही और जब-जब फीड रीडर लागईन हुआ, ब्लॉग पोस्टों से रूबरू हुआ उनकी बातें याद आई। हॉं, हमें ब्लॉगिंग की प्राथमिकता तय करनी चाहिए सप्ताह में एक पोस्ट तो बनता है मित्र।
... तो लीजिये कबाड़ ही सहीं पोस्ट लिखने का प्रयास करते हैं। हुआ यूं कि बहुत दिनों बाद छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले के गांव महुदा-जुन्नाडीह जाने का अवसर मिला। कार्यक्रम पारिवारिक था और उसमें उपस्थिति मेरी प्राथमिकता। लगभग पच्चीस साल पहले तक जांजगीर-चांपा, शिवरीनारायण-खरौद, रतनपुर, अकलतरा के कई गांवों में पारिवारिक कार्यक्रमों में जाते रहा हूं दो-तीन बार सड़क मार्ग से महुदा-जुन्नाडीह भी जा चुका हूँ किन्तु बरसों बाद रेल और बस का सफर करने का मन नहीं होते हुए भी तय प्राथमिकता के हिसाब से मुझे वहां जाना पड़ा।
रास्ते का खाका राहुल सिंह जी से लिया और विवेक राज जी से बात की विवेक भाई पहले से ही मुझसे मिलने का उत्सुक थे, मेरे एकदिनी कार्यक्रम को जानने के बाद उन्होंनें कहा कि रास्ता बेहद खराब है किन्तु पेट्रोल गाड़ी की व्यवस्था कर देगें आप बिना चिंता के आयें, आपका स्वागत है। मुझे विवेक भाई के प्रेम पर खुशी हुई किन्तु दिल नें कहा कि भाई को किंचित भी परेशान किए बिना अपना काम किया जाए क्योंकि मैं जहॉं जाना चाहता हूं उसके पास के कस्बे तक बस सुविधा है और उसके बाद का सात किलोमीटर पैदल या किराये के सायकल से तय की जा सकती है। तो हम बिना विवेक भाई को बताये आईआरसीटीसी से दुर्ग से अकलतरा तक साउथ बिहार एवं अकलतरा से दुर्ग तक शिवनाथ एक्सप्रेस में तत्काल टिकट बनवाकर सुबह निकल पड़े। लगभग 10.30 को हम अकलतरा पहुंचे, रेलवे स्टेशन के बाहर पूछने पर पता चला कि नजदीकी क्रासिंग के पास से बलौदा के लिये हर घंटे बस मिल जाती है। योजना थी कि शाम को वापस आते समय विवेक भाई को फोन करके मिलेंगें तो हम पैदल मार्च करते हुए बलौदा (स्थानीय उच्चारण के अनुसार 'बलउदा') के लिए जहॉं गाड़ी मिलती है वहां पहुच गए, लगभग आधे घंटे के इंतजार के बाद पहले से ही खचा-खच भरी हुई मिनी बस आई। बस में दरवाजे के पास खड़े होने की जगह थी तो हम चढ़ गए अगले दस मिनट में जाउं नहीं जाउं के उहापोह तक हम सामन की तरह बस के बीच में ठूंस दिये गए, अब उतराना भी संभव नहीं था। गाड़ी आगे बढ़ी तो पता चला कि रास्ते में बम्हनी नामक जगह में चर्च है वहां जाने के लिये बस में भीड आज ज्यादा है क्योंकि आज क्रिसमस है। 'मैरी क्रिसमस' और 'तोला क्रिसमस मुबारक नोनी के दाई ओ....' गाते हुए हम लदे-फदे रहे। बड़े-बड़े गड्ढों वाले सड़क में बस की सवारी का मजा लेते हुए हम बम्हनी पहुचे। बम्हनी के बाद बस में सीट मिली और हम बलौदा पहुंचे, वहां से मेजबान नें हमारे लिये गाड़ी भेजी और हम धूल भरी उबड़-खाबड़ राहों से जुन्नाडीह पहुंचे।
प्रधानमंत्री सड़क परियोजना के चलते देश के अधिकतम गांव मुख्यालयों से टार सड़कों से जुड़ गए है किन्तु यह लगभग 700 आबादी वाला यह गांव अब भी सड़क के लिये तरस रहा है। गांव में हमने अपनी उपस्थिति दर्शाई, भोजन किया फिर एक गली में समाप्त हो जाने वाले गांव के भ्रमण में निकल गए जिसके आखरी सिरे में एक बड़ा सा तालाब है जो लगभग सूखा हुआ है जिसमें गांव के लोग निस्तारी करते हैं। तालाब के किनारे ही बरगद के पेड़ के नीचे एक सीमेंटेड चबूतरा और लकड़ी का दण्ड गड़ा हुआ मिला जिसमें लगे बंदन और अगरबत्ती के जले अवशेष बता रहे थे कि यह छत्तीसगढ़ी प्रतीकों में कोई देव है, आस पास में तीन-चार बच्चे खेल रहे थे बड़ा कोई नहीं था जो ये बता सके कि यह किस देव का प्रतीक है, दण्ड के साथ लगी लकड़ी के लाठी जैसे लकड़ी को देखने से लगता था कि यह यादवों के देव होंगें। गांव के नामकरण के संबंध में बलौदा के ही त्रिपाठी सायकल स्टोर्स वाले त्रिपाठी जी नें बतला दिया था कि महुदा और जुन्नाडीह मूलत: शुक्ला ब्राह्मणों का निवास रहा है जिसमें जुन्नाडीह में पहले शुक्ला लोगों के पुरखे आये और फिर उनमें से कुछ लोग भौगोलिक परिस्थितियों के प्रतिकूल पाने के कारण उस गांव को छोड़कर महुदा में बस गए। बाद में दोनों का अलग अलग नामकरण हो गया जहां शुक्ला लोग पहले आये वो जुन्नाडीह और बाद में बसे गांव का नाम महुदा। महुदा के आगे एक नाला है उसके पार कुगदा नाम का एक गांव है जहां मैं बहुत पहले जा चुका हूं, मैं उस नाले के किनारे तक जाना चाहता था किन्तु समय और साधन दोनों नहीं थे इसलिये वापस बलौदा जाने के लिये निकल पड़ा।
शाम को जल्दी बलौदा आ जाने के बाद मैंनें तय किया कि समय पर यदि अकलतरा पहुंच गया तो साउथ बिहार एक्सप्रेस मुझे मिल जायेगी और मैं रात 9 बजे तक घर पहुच जाउंगा, यदि शिवनाथ एक्सप्रेस का इंतजार किया तो मुझे घर पहुचते तक एक बज जायेगें। इसलिये जल्दी ही अकलतरा के लिये बस पकड़ कर रवाना हो गया, बस में भीड अब भी वैसी ही थी। अकलतरा पहुच कर पता किया तो रेलवे पूछताछ केन्द्र से पता चला कि साउथ बिहार बस पंद्रह मिनट में आ रही है, मैंनें झटपट टिकट लिया और प्लेटफार्म में आ गया। विवेक भाई से मिलने के लिये अब वक्त नहीं था इसलिये मन ही मन उन्हें 'सारी' कहते हुए ट्रेन में चढ़ गया। स्लीपर में चढ़ने का खामियाजा जुर्माना देकर ना भुगतना पड़े यह सोंचकर टीसी को ढ़ूढा और 70.00 का स्लीपर कटवाकर आराम से एक खाली सीट पर पसर गया।
कार्यालयीन कार्यों से मुझे साल में कई बार दूर के ट्रिब्यूनलों और न्यायालयों तक ट्रेन से यात्रा करते रहना पड़ता है और परिस्थितियों के अनुसार अलग अलग श्रेणी में यात्रा करना पड़ता है। इन लम्बी दूरी की ट्रेन यात्राओं में बहुत कुछ घटता है, भारत की छवि हलराते हुए स्थिर रेल पातों पर तेजी से सरकती है। जिसे हर यात्रा के बाद लिखने का मन करता है किन्तु आलस के कारण सब धरा रह जाता है। अकलतरा से दुर्ग के इस रास्ते के अनुभवों को लिखने के लिये उंगलियां जब की बोर्ड पर खटर-पटर करने ही लगे हैं तो पब्लिश कर ही देते हैं दो रोचक संस्मरण:-
1 सुबह दुर्ग से अकलतरा साउथ बिहार में जाते हुए रायपुर में बहुत सारे लोग चढे और भीड़ कुछ बढ़ गई, हमारे कोच में दो महिलायें चढ़ी जो सीट खाली नहीं होने के बावजूद हमें बाजू खिसकने को कहने लगी, मैंनें कहा कि मैडम हम सब रिर्जवेशन कराके बैठे हैं आप दूसरी जगह देख लेवें तो उसमें से एक नें तपाक से कहा कि रिजर्वेशन का मतलब रात का होता है दिन में तो हमें बैठने देना पड़ेगा। हम बिना बहस किये जगह नहीं होने के बावजूद थोड़ा सरक गये जहां वो जम गई, और हम दो यात्रियों के बीच में दब गये। थोड़े देर में दूसरी महिला भी सामने वाले सीट पर सरको कहकर जम गई और दोनों का चकर-चकर चालू हो गया। जिस महिला नें हमें रिजर्वेशन की परिभाषा समझाने की कोशिस की थी उसने दूसरी महिला को बताना शुरू किया कि उसके पति नें पटना जाने के लिये पूरा सीट बुक करवाया है, दूसरी महिला शायद उस बात को समझ नहीं रही थी या उस बात को अहमियत नहीं दे रही थी इसलिये वह कई बार दुहरा रही थी कि पूरा सीट बुक करवाया है। बार बार कहने के बावजूद जब दूसरी महिला नें नहीं पूछा कि पूरी सीट बुक करवाने का मतलब क्या होता है तो वो वह बतलाने लगी कि पूरा सीट मतलब कि ये पूरा सीट एक आदमी के लिये, इसमें कोई दूसरा नहीं बैठ सकता ऐसा टिकट करवाया है। जब दूसरी महिला ने यह सुना तब उसने आश्चर्य मिश्रित खुशी से कहा ये पूरा सीट। और भी बातें होती रही पर बाकी बातें दिमाग में सेव नहीं हो पाया।
थोड़ी देर बाद टीसी आ गया और सबकी टिकटें जांची जाने लगी, मेरे 175 किलोमीटर के सफर के लिये भी तत्काल कोटे से स्लीपर टिकट कटाने पर उसनें व्यंगात्मक मुस्कान बिखेरते हुए कहा कि आप लोगों के कारण ही तो लम्बी दूरी के यात्रियों को बर्थ नहीं मिल पाते। मैंनें कहा हम लोग जैसे छोटी दूरी के तत्काल स्लीपर रिजर्वेशन वालों के कारण ही तो आप दूसरे यात्रियों को बर्थ दे पाते हैं। हम दोनों में बातें होती रही और टीसी उन दोनों महिलाओं से टिकट मागा उनमें से एक ने फैशनेबल पर्स में से सामान्य दर्जे का टिकट निकाला पर टीसी मुझसे वार्ता में मगन रहा, इसी बीच दो-तीन खड़े-खड़े यात्रा कर रहे यात्रियों नें सामान्य दर्जे के टिकट से साथ स्लीपर की रसीद सहित टिकट दिखाते हुए टिकट चेक कराने लगे और टीसी उनका टिकट चेक नहीं कर पाया। टीसी के जाते ही टिकट पकड़े महिला नें दूसरी महिला की ओर देखकर जीभ को दबाते हुए चेहरे में विजय मुस्कान बिखेरी जैसे कह रही हो कि बच गए सौ रूपये। दोनों खामोशी से मुस्कुराने लगे, हम चुप ही थे किन्तु मन में बार बार हो रहा था कि कुछ लेक्चर झाड़ा जाए और जब रहा नहीं गया तो हमने कहा मैडम आपके पास जो टिकट है वो सामान्य दर्जे का है। उसने तपाक से कहा कि नहीं सुपर फास्ट का है इसी गाड़ी का है, वो टिकट दिखाने लगी, भाटापारा तक का टिकट था।
मेरे कुछ बोलने के पहले पास में खड़ी एक लड़की नें भी तपाक से कहा कि आपने तो स्लीपर नहीं कटवाया है आप इस टिकट के सहारे यहां नहीं बैठ सकती। वो लड़की कुछ इस तरह बोली कि वो स्वयं बेवजह स्लीपर कटवा कर सीट ना मिलने के बावजूद खड़ी है, ये लोग तो बिना स्लीपर कटवाये भी मजे से बैठकर बक-बक कर रही हैं। मैंनें उस लड़की के सुर में सुर मिलाया तो उन दोनों महिलाओं नें वाकचातुर्यता का सहारा लिया कहा कि टीसी नें नहीं काटा तो हम क्या करें, उनके हावभाव से यह स्पष्ट हो रहा था कि वे जानते थे कि वे स्लीपर कोच में यात्रा कर रहे हैं और उन्हें इसके लिये अतिरिक्त शुल्क देना होगा फिर भी बचा लो तो बचा लो का प्रयास कर रहे थे। अन्ना आन्दोंलन के बाद से लोगों में आई जागृति के चलते दो चार यात्रियों नें भी बोलना शुरू कर दिया, कि आप अपने बच्चों को क्या यही शिक्षा देंगीं कि विदाउट टिकट ट्रेन में यात्रा करो। बहुत सारे लोगों के सुर में सुर मिलते ही उन दोनों महिलाओं की बोलती बंद हो गई। जन में आये इस बदलाव को देखकर मुझे खुशी हुई।
2 लोगों के इस विरोधी स्वर के संबंध में मैंनें बलौदा में भी चर्चा किया जहॉं मेरे एक रिश्तेदार नें स्वीकारा कि उसने भी दो-चार बार सीनियर सिटिजन का टिकट लेकर यात्रा किया है क्योंकि वोटर आईडी कार्ड में गलती से उसके जन्म तिथि में दस साल बढ़ा दिया गया हैं। हमारे मना करने पर उसने भी स्वीकारा कि थोड़े से पैसे बचाने के लिये इस तरह की चोरी नहीं करनी चाहिए। चर्चा और नजरों में बसते चित्रों को पीछे छोड़ते हुए हम अकलतरा पहुचे और जैसे पहले लिख चुके हैं हम साउथ बिहार में बैठ गए।
बिलासपुर में गाड़ी रूकी और चल पड़ी पांच मिनट बाद एक सामान्य कद काठी का चश्मा लगाए युवक आया और मुझसे पूछा कि बाजू में सीट खाली है क्या, मैंनें हॉं कहा तो वह बैठ गया और मोबाईल में किसी से बात करने लगा, मोबाईल में जो चर्चा हो रही थी उससे प्रतीत हो रहा था कि वह शायद अपने बच्चे से बात कर रहा था, चर्चा में 'पूरी जानकारी लेनी थी, पैसा दिये हैं, कोई फोकट में तो जानकारी नहीं ले रहे हैं' जैसे शब्दों का प्रयोग हो रहा था। इसी बीच टीसी आया और टिकट जांचने लगा, सब अपना-अपना टिकट दिखाने लगे, जब बाजू में अपने बच्चे से मोबाईल में बतियाते बैठे युवक से टीसी ने टिकट मांगा तो उसने कहा 'प्रेस'। टीसी ने बात को सुनी नहीं है जैसे हाथ से इशारा किया कि क्या। उस युवक नें मोबाईल को कान में लगाए हुए ही जींस के पीछे की जेब से पर्स निकाला और उसमें लगे एक बहुत बड़े समाचार पत्र का परिचय पत्र का झलक टीसी को दिखा दिया। टीसी नें कहा 'यार ऐसा मत किया करो' और चला गया।
मैं उस युवक के मोबाईल वार्ता बंद होने का इंतजार करने लगा और मौके की नजाकत को समझते हुए मोबाईल रिकार्डर आन कर लिया कि जब आवश्यकता पड़े इसे प्रयोग किया जा सके। जैसे ही वह मोबाईल अपने कान से अलग किया मैंनें उससे उसी समाचार पत्र के प्रबंध संपादक से लेकर सिटी रिपोर्टर, संवाददाता और अन्य लोगों के संबंध में चर्चा करने लगा। वह युवक पहले तो अपने आप को पत्रकार जताने के रौब का प्रभाव मेरे उपर डालने का प्रयास किया किन्तु जब चर्चा के दौरान ही मेरी छत्तीसगढ़ मीडिया संबधों की जानकारी उसे हुई तो वह 'रेंगियाने' लगा, कहने लगा कि वह जल्दी-जल्दी में आया और दौड़ के ट्रेन में चढ़ गया इसलिये टिकट नहीं ले पाया। उसने चर्चा के दौरान कई बार ये बात कही। जब आखिरी बार उसने ये बात कही तो मैंनें कहा कि तो टीसी से टिकट बनवा लेना था ना, तो उसने खीसे निपोरते हुए कहा कि इन लोगों के विरूद्ध पिछले समय मैंनें छापा था ना तब से ये लोग घबराते हैं और ये सब थोड़ा बहुत तो प्रभाव में चलाना पड़ता है ना। मैंनें भी हंसते हुए मजाकिया लहजे में कहा कि मैं जब आपके समाचार पत्र में छपे किसी रिपोर्टिंग से बहुत खुश होता हूं या मुझे वो चुभती है तो आपके प्रबंध संपादक को सीधे फोन लगाता हूं, ये देखे उनका नम्बर मेरे मोबाईल में सेव है कहें तो इस बात पर भी हो जाये उनसे बातचीत।
अतिशयोक्ति नहीं होगी यह कहना कि उस युवक के रंग क्षण मात्र में बदल गए जिसके चेहरे में दो सेकेन्ड पहले गर्व के भाव थे, लग रहा था कि पसीने की बूंदे तैर रही थी। उसने हकलाते हुए मुझे मुद्दे से अलग बातों में उलझाना चाहा, मैं जान रहा था और वह युवक भी जान रहा था कि वो बेकार की बातें करके मुझे मुद्दे से हटाना चाह रहा था। अचानक उसका दिमाग काम कर गया, वह बोला एक मिनट मिस्ड काल है और मोबाईल में किसी से पूछने लगा कि कौन से कोच में बैठा है, उधर से उत्तर आने पर फोन बंद करके सीट से उठ गया और जल्दी-जल्दी में मुझसे विदा मांगने लगा कि उसका एक और पत्रकार मित्र जो एक और बड़े समाचार पत्र में काम करता है वह दूसरे कोच में है, उसने भी टिकट नहीं लिया है, मैं उससे मिल कर आता हूं। मैंनें कहा उन्हें भी बुला लीजिये मेल मुलाकात हो जावेगी और वह चला गया। मैं रायपुर तक इंतजार करता रहा वह युवक नहीं आया।
पिछले दिनों मैंनें अपने एक मित्र से ब्लॉगिया चर्चा दौरान जब यह बात कही तो मित्र नें दार्शनिक अंदाज में सत्य को उद्धाटित किया कि समय का रोना बहानेबाजी है, दरअसल आप उस काम की प्राथमिकता तय नहीं कर पा रहे हैं, आपके लिये प्राथमिक आपके दूसरे काम है इसलिये आप ऐसा कह रहे हैं। मैंनें इसे सहजता से स्वीकारा कि हॉं मेरे लिये प्राथमिक मेरा परिवार और मेरी रोजी रोटी है, बात आई गई हो गई। मित्र की बात दिमाग के किसी कोने में छुपी रही और जब-जब फीड रीडर लागईन हुआ, ब्लॉग पोस्टों से रूबरू हुआ उनकी बातें याद आई। हॉं, हमें ब्लॉगिंग की प्राथमिकता तय करनी चाहिए सप्ताह में एक पोस्ट तो बनता है मित्र।
... तो लीजिये कबाड़ ही सहीं पोस्ट लिखने का प्रयास करते हैं। हुआ यूं कि बहुत दिनों बाद छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले के गांव महुदा-जुन्नाडीह जाने का अवसर मिला। कार्यक्रम पारिवारिक था और उसमें उपस्थिति मेरी प्राथमिकता। लगभग पच्चीस साल पहले तक जांजगीर-चांपा, शिवरीनारायण-खरौद, रतनपुर, अकलतरा के कई गांवों में पारिवारिक कार्यक्रमों में जाते रहा हूं दो-तीन बार सड़क मार्ग से महुदा-जुन्नाडीह भी जा चुका हूँ किन्तु बरसों बाद रेल और बस का सफर करने का मन नहीं होते हुए भी तय प्राथमिकता के हिसाब से मुझे वहां जाना पड़ा।
रास्ते का खाका राहुल सिंह जी से लिया और विवेक राज जी से बात की विवेक भाई पहले से ही मुझसे मिलने का उत्सुक थे, मेरे एकदिनी कार्यक्रम को जानने के बाद उन्होंनें कहा कि रास्ता बेहद खराब है किन्तु पेट्रोल गाड़ी की व्यवस्था कर देगें आप बिना चिंता के आयें, आपका स्वागत है। मुझे विवेक भाई के प्रेम पर खुशी हुई किन्तु दिल नें कहा कि भाई को किंचित भी परेशान किए बिना अपना काम किया जाए क्योंकि मैं जहॉं जाना चाहता हूं उसके पास के कस्बे तक बस सुविधा है और उसके बाद का सात किलोमीटर पैदल या किराये के सायकल से तय की जा सकती है। तो हम बिना विवेक भाई को बताये आईआरसीटीसी से दुर्ग से अकलतरा तक साउथ बिहार एवं अकलतरा से दुर्ग तक शिवनाथ एक्सप्रेस में तत्काल टिकट बनवाकर सुबह निकल पड़े। लगभग 10.30 को हम अकलतरा पहुंचे, रेलवे स्टेशन के बाहर पूछने पर पता चला कि नजदीकी क्रासिंग के पास से बलौदा के लिये हर घंटे बस मिल जाती है। योजना थी कि शाम को वापस आते समय विवेक भाई को फोन करके मिलेंगें तो हम पैदल मार्च करते हुए बलौदा (स्थानीय उच्चारण के अनुसार 'बलउदा') के लिए जहॉं गाड़ी मिलती है वहां पहुच गए, लगभग आधे घंटे के इंतजार के बाद पहले से ही खचा-खच भरी हुई मिनी बस आई। बस में दरवाजे के पास खड़े होने की जगह थी तो हम चढ़ गए अगले दस मिनट में जाउं नहीं जाउं के उहापोह तक हम सामन की तरह बस के बीच में ठूंस दिये गए, अब उतराना भी संभव नहीं था। गाड़ी आगे बढ़ी तो पता चला कि रास्ते में बम्हनी नामक जगह में चर्च है वहां जाने के लिये बस में भीड आज ज्यादा है क्योंकि आज क्रिसमस है। 'मैरी क्रिसमस' और 'तोला क्रिसमस मुबारक नोनी के दाई ओ....' गाते हुए हम लदे-फदे रहे। बड़े-बड़े गड्ढों वाले सड़क में बस की सवारी का मजा लेते हुए हम बम्हनी पहुचे। बम्हनी के बाद बस में सीट मिली और हम बलौदा पहुंचे, वहां से मेजबान नें हमारे लिये गाड़ी भेजी और हम धूल भरी उबड़-खाबड़ राहों से जुन्नाडीह पहुंचे।
प्रधानमंत्री सड़क परियोजना के चलते देश के अधिकतम गांव मुख्यालयों से टार सड़कों से जुड़ गए है किन्तु यह लगभग 700 आबादी वाला यह गांव अब भी सड़क के लिये तरस रहा है। गांव में हमने अपनी उपस्थिति दर्शाई, भोजन किया फिर एक गली में समाप्त हो जाने वाले गांव के भ्रमण में निकल गए जिसके आखरी सिरे में एक बड़ा सा तालाब है जो लगभग सूखा हुआ है जिसमें गांव के लोग निस्तारी करते हैं। तालाब के किनारे ही बरगद के पेड़ के नीचे एक सीमेंटेड चबूतरा और लकड़ी का दण्ड गड़ा हुआ मिला जिसमें लगे बंदन और अगरबत्ती के जले अवशेष बता रहे थे कि यह छत्तीसगढ़ी प्रतीकों में कोई देव है, आस पास में तीन-चार बच्चे खेल रहे थे बड़ा कोई नहीं था जो ये बता सके कि यह किस देव का प्रतीक है, दण्ड के साथ लगी लकड़ी के लाठी जैसे लकड़ी को देखने से लगता था कि यह यादवों के देव होंगें। गांव के नामकरण के संबंध में बलौदा के ही त्रिपाठी सायकल स्टोर्स वाले त्रिपाठी जी नें बतला दिया था कि महुदा और जुन्नाडीह मूलत: शुक्ला ब्राह्मणों का निवास रहा है जिसमें जुन्नाडीह में पहले शुक्ला लोगों के पुरखे आये और फिर उनमें से कुछ लोग भौगोलिक परिस्थितियों के प्रतिकूल पाने के कारण उस गांव को छोड़कर महुदा में बस गए। बाद में दोनों का अलग अलग नामकरण हो गया जहां शुक्ला लोग पहले आये वो जुन्नाडीह और बाद में बसे गांव का नाम महुदा। महुदा के आगे एक नाला है उसके पार कुगदा नाम का एक गांव है जहां मैं बहुत पहले जा चुका हूं, मैं उस नाले के किनारे तक जाना चाहता था किन्तु समय और साधन दोनों नहीं थे इसलिये वापस बलौदा जाने के लिये निकल पड़ा।
शाम को जल्दी बलौदा आ जाने के बाद मैंनें तय किया कि समय पर यदि अकलतरा पहुंच गया तो साउथ बिहार एक्सप्रेस मुझे मिल जायेगी और मैं रात 9 बजे तक घर पहुच जाउंगा, यदि शिवनाथ एक्सप्रेस का इंतजार किया तो मुझे घर पहुचते तक एक बज जायेगें। इसलिये जल्दी ही अकलतरा के लिये बस पकड़ कर रवाना हो गया, बस में भीड अब भी वैसी ही थी। अकलतरा पहुच कर पता किया तो रेलवे पूछताछ केन्द्र से पता चला कि साउथ बिहार बस पंद्रह मिनट में आ रही है, मैंनें झटपट टिकट लिया और प्लेटफार्म में आ गया। विवेक भाई से मिलने के लिये अब वक्त नहीं था इसलिये मन ही मन उन्हें 'सारी' कहते हुए ट्रेन में चढ़ गया। स्लीपर में चढ़ने का खामियाजा जुर्माना देकर ना भुगतना पड़े यह सोंचकर टीसी को ढ़ूढा और 70.00 का स्लीपर कटवाकर आराम से एक खाली सीट पर पसर गया।
कार्यालयीन कार्यों से मुझे साल में कई बार दूर के ट्रिब्यूनलों और न्यायालयों तक ट्रेन से यात्रा करते रहना पड़ता है और परिस्थितियों के अनुसार अलग अलग श्रेणी में यात्रा करना पड़ता है। इन लम्बी दूरी की ट्रेन यात्राओं में बहुत कुछ घटता है, भारत की छवि हलराते हुए स्थिर रेल पातों पर तेजी से सरकती है। जिसे हर यात्रा के बाद लिखने का मन करता है किन्तु आलस के कारण सब धरा रह जाता है। अकलतरा से दुर्ग के इस रास्ते के अनुभवों को लिखने के लिये उंगलियां जब की बोर्ड पर खटर-पटर करने ही लगे हैं तो पब्लिश कर ही देते हैं दो रोचक संस्मरण:-
1 सुबह दुर्ग से अकलतरा साउथ बिहार में जाते हुए रायपुर में बहुत सारे लोग चढे और भीड़ कुछ बढ़ गई, हमारे कोच में दो महिलायें चढ़ी जो सीट खाली नहीं होने के बावजूद हमें बाजू खिसकने को कहने लगी, मैंनें कहा कि मैडम हम सब रिर्जवेशन कराके बैठे हैं आप दूसरी जगह देख लेवें तो उसमें से एक नें तपाक से कहा कि रिजर्वेशन का मतलब रात का होता है दिन में तो हमें बैठने देना पड़ेगा। हम बिना बहस किये जगह नहीं होने के बावजूद थोड़ा सरक गये जहां वो जम गई, और हम दो यात्रियों के बीच में दब गये। थोड़े देर में दूसरी महिला भी सामने वाले सीट पर सरको कहकर जम गई और दोनों का चकर-चकर चालू हो गया। जिस महिला नें हमें रिजर्वेशन की परिभाषा समझाने की कोशिस की थी उसने दूसरी महिला को बताना शुरू किया कि उसके पति नें पटना जाने के लिये पूरा सीट बुक करवाया है, दूसरी महिला शायद उस बात को समझ नहीं रही थी या उस बात को अहमियत नहीं दे रही थी इसलिये वह कई बार दुहरा रही थी कि पूरा सीट बुक करवाया है। बार बार कहने के बावजूद जब दूसरी महिला नें नहीं पूछा कि पूरी सीट बुक करवाने का मतलब क्या होता है तो वो वह बतलाने लगी कि पूरा सीट मतलब कि ये पूरा सीट एक आदमी के लिये, इसमें कोई दूसरा नहीं बैठ सकता ऐसा टिकट करवाया है। जब दूसरी महिला ने यह सुना तब उसने आश्चर्य मिश्रित खुशी से कहा ये पूरा सीट। और भी बातें होती रही पर बाकी बातें दिमाग में सेव नहीं हो पाया।
थोड़ी देर बाद टीसी आ गया और सबकी टिकटें जांची जाने लगी, मेरे 175 किलोमीटर के सफर के लिये भी तत्काल कोटे से स्लीपर टिकट कटाने पर उसनें व्यंगात्मक मुस्कान बिखेरते हुए कहा कि आप लोगों के कारण ही तो लम्बी दूरी के यात्रियों को बर्थ नहीं मिल पाते। मैंनें कहा हम लोग जैसे छोटी दूरी के तत्काल स्लीपर रिजर्वेशन वालों के कारण ही तो आप दूसरे यात्रियों को बर्थ दे पाते हैं। हम दोनों में बातें होती रही और टीसी उन दोनों महिलाओं से टिकट मागा उनमें से एक ने फैशनेबल पर्स में से सामान्य दर्जे का टिकट निकाला पर टीसी मुझसे वार्ता में मगन रहा, इसी बीच दो-तीन खड़े-खड़े यात्रा कर रहे यात्रियों नें सामान्य दर्जे के टिकट से साथ स्लीपर की रसीद सहित टिकट दिखाते हुए टिकट चेक कराने लगे और टीसी उनका टिकट चेक नहीं कर पाया। टीसी के जाते ही टिकट पकड़े महिला नें दूसरी महिला की ओर देखकर जीभ को दबाते हुए चेहरे में विजय मुस्कान बिखेरी जैसे कह रही हो कि बच गए सौ रूपये। दोनों खामोशी से मुस्कुराने लगे, हम चुप ही थे किन्तु मन में बार बार हो रहा था कि कुछ लेक्चर झाड़ा जाए और जब रहा नहीं गया तो हमने कहा मैडम आपके पास जो टिकट है वो सामान्य दर्जे का है। उसने तपाक से कहा कि नहीं सुपर फास्ट का है इसी गाड़ी का है, वो टिकट दिखाने लगी, भाटापारा तक का टिकट था।
मेरे कुछ बोलने के पहले पास में खड़ी एक लड़की नें भी तपाक से कहा कि आपने तो स्लीपर नहीं कटवाया है आप इस टिकट के सहारे यहां नहीं बैठ सकती। वो लड़की कुछ इस तरह बोली कि वो स्वयं बेवजह स्लीपर कटवा कर सीट ना मिलने के बावजूद खड़ी है, ये लोग तो बिना स्लीपर कटवाये भी मजे से बैठकर बक-बक कर रही हैं। मैंनें उस लड़की के सुर में सुर मिलाया तो उन दोनों महिलाओं नें वाकचातुर्यता का सहारा लिया कहा कि टीसी नें नहीं काटा तो हम क्या करें, उनके हावभाव से यह स्पष्ट हो रहा था कि वे जानते थे कि वे स्लीपर कोच में यात्रा कर रहे हैं और उन्हें इसके लिये अतिरिक्त शुल्क देना होगा फिर भी बचा लो तो बचा लो का प्रयास कर रहे थे। अन्ना आन्दोंलन के बाद से लोगों में आई जागृति के चलते दो चार यात्रियों नें भी बोलना शुरू कर दिया, कि आप अपने बच्चों को क्या यही शिक्षा देंगीं कि विदाउट टिकट ट्रेन में यात्रा करो। बहुत सारे लोगों के सुर में सुर मिलते ही उन दोनों महिलाओं की बोलती बंद हो गई। जन में आये इस बदलाव को देखकर मुझे खुशी हुई।
2 लोगों के इस विरोधी स्वर के संबंध में मैंनें बलौदा में भी चर्चा किया जहॉं मेरे एक रिश्तेदार नें स्वीकारा कि उसने भी दो-चार बार सीनियर सिटिजन का टिकट लेकर यात्रा किया है क्योंकि वोटर आईडी कार्ड में गलती से उसके जन्म तिथि में दस साल बढ़ा दिया गया हैं। हमारे मना करने पर उसने भी स्वीकारा कि थोड़े से पैसे बचाने के लिये इस तरह की चोरी नहीं करनी चाहिए। चर्चा और नजरों में बसते चित्रों को पीछे छोड़ते हुए हम अकलतरा पहुचे और जैसे पहले लिख चुके हैं हम साउथ बिहार में बैठ गए।
बिलासपुर में गाड़ी रूकी और चल पड़ी पांच मिनट बाद एक सामान्य कद काठी का चश्मा लगाए युवक आया और मुझसे पूछा कि बाजू में सीट खाली है क्या, मैंनें हॉं कहा तो वह बैठ गया और मोबाईल में किसी से बात करने लगा, मोबाईल में जो चर्चा हो रही थी उससे प्रतीत हो रहा था कि वह शायद अपने बच्चे से बात कर रहा था, चर्चा में 'पूरी जानकारी लेनी थी, पैसा दिये हैं, कोई फोकट में तो जानकारी नहीं ले रहे हैं' जैसे शब्दों का प्रयोग हो रहा था। इसी बीच टीसी आया और टिकट जांचने लगा, सब अपना-अपना टिकट दिखाने लगे, जब बाजू में अपने बच्चे से मोबाईल में बतियाते बैठे युवक से टीसी ने टिकट मांगा तो उसने कहा 'प्रेस'। टीसी ने बात को सुनी नहीं है जैसे हाथ से इशारा किया कि क्या। उस युवक नें मोबाईल को कान में लगाए हुए ही जींस के पीछे की जेब से पर्स निकाला और उसमें लगे एक बहुत बड़े समाचार पत्र का परिचय पत्र का झलक टीसी को दिखा दिया। टीसी नें कहा 'यार ऐसा मत किया करो' और चला गया।
मैं उस युवक के मोबाईल वार्ता बंद होने का इंतजार करने लगा और मौके की नजाकत को समझते हुए मोबाईल रिकार्डर आन कर लिया कि जब आवश्यकता पड़े इसे प्रयोग किया जा सके। जैसे ही वह मोबाईल अपने कान से अलग किया मैंनें उससे उसी समाचार पत्र के प्रबंध संपादक से लेकर सिटी रिपोर्टर, संवाददाता और अन्य लोगों के संबंध में चर्चा करने लगा। वह युवक पहले तो अपने आप को पत्रकार जताने के रौब का प्रभाव मेरे उपर डालने का प्रयास किया किन्तु जब चर्चा के दौरान ही मेरी छत्तीसगढ़ मीडिया संबधों की जानकारी उसे हुई तो वह 'रेंगियाने' लगा, कहने लगा कि वह जल्दी-जल्दी में आया और दौड़ के ट्रेन में चढ़ गया इसलिये टिकट नहीं ले पाया। उसने चर्चा के दौरान कई बार ये बात कही। जब आखिरी बार उसने ये बात कही तो मैंनें कहा कि तो टीसी से टिकट बनवा लेना था ना, तो उसने खीसे निपोरते हुए कहा कि इन लोगों के विरूद्ध पिछले समय मैंनें छापा था ना तब से ये लोग घबराते हैं और ये सब थोड़ा बहुत तो प्रभाव में चलाना पड़ता है ना। मैंनें भी हंसते हुए मजाकिया लहजे में कहा कि मैं जब आपके समाचार पत्र में छपे किसी रिपोर्टिंग से बहुत खुश होता हूं या मुझे वो चुभती है तो आपके प्रबंध संपादक को सीधे फोन लगाता हूं, ये देखे उनका नम्बर मेरे मोबाईल में सेव है कहें तो इस बात पर भी हो जाये उनसे बातचीत।
अतिशयोक्ति नहीं होगी यह कहना कि उस युवक के रंग क्षण मात्र में बदल गए जिसके चेहरे में दो सेकेन्ड पहले गर्व के भाव थे, लग रहा था कि पसीने की बूंदे तैर रही थी। उसने हकलाते हुए मुझे मुद्दे से अलग बातों में उलझाना चाहा, मैं जान रहा था और वह युवक भी जान रहा था कि वो बेकार की बातें करके मुझे मुद्दे से हटाना चाह रहा था। अचानक उसका दिमाग काम कर गया, वह बोला एक मिनट मिस्ड काल है और मोबाईल में किसी से पूछने लगा कि कौन से कोच में बैठा है, उधर से उत्तर आने पर फोन बंद करके सीट से उठ गया और जल्दी-जल्दी में मुझसे विदा मांगने लगा कि उसका एक और पत्रकार मित्र जो एक और बड़े समाचार पत्र में काम करता है वह दूसरे कोच में है, उसने भी टिकट नहीं लिया है, मैं उससे मिल कर आता हूं। मैंनें कहा उन्हें भी बुला लीजिये मेल मुलाकात हो जावेगी और वह चला गया। मैं रायपुर तक इंतजार करता रहा वह युवक नहीं आया।
संजीव तिवारी
मैं शायद इस आलेख को शीर्षक देता कि...
जवाब देंहटाएं'लोकतंत्र का सशक्त स्तम्भ बिना टिकट' :)
'आधी दुनिया के पास स्लीपर क्लास के पैसे नहीं' :)
'टिकट बुकिंग एंड रिजर्वेशन सेंटर सूचना पट्टिका गुटखे की पीक से लाल' :)
'यादवों के गाँव से पंडितों का पलायन' :)
'संजीव तिवारी उर्फ मोबाइलका डाट काम' :)
और भी ज्यादा सूझ रहे है पर अभी बस इतने ही :)
सहज यात्रा को रोमांचक बना लिया आपने. मेरे लिए तो यह सफर सुखद ही होता, लेकिन जब अवसर मिले, जो मुश्किल से मिलता है.
जवाब देंहटाएंहमन लइकई म बम्हनिन नाहकन त एडवर्ड गरुअर चरात रहय अउ एलिजाबेथ गोबर सइंतत रहय अउ विक्टोरिया थापत रहय.
जवाब देंहटाएंआपने कबाड़ कहा लेकिन यह तो पूरा सौन्दर्य है .
जवाब देंहटाएंअच्छी खबर ली आपने, वाकई ऐसे लोगों से कोफ़्त होती है।
जवाब देंहटाएंसुग्घर बरनन हवे संजीव भाई....
जवाब देंहटाएंसादर..
प्रस्तुतिकरण का बेहतरीन ढंग।
जवाब देंहटाएंअच्छा वृतांत।
न जाने कितने गम्भीर विषयों पर सरलता से दृष्टि छिटकाती हुयी रचना।
जवाब देंहटाएंआज आपकी पोस्ट की चर्चा की गई है अवश्य पढ़ियेगा... आज की ताज़ा रंगों से सजीनई पुरानी हलचल बूढा मरता है तो मरे हमे क्या?
जवाब देंहटाएंआपको व आपके समस्त परिवार को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें !!!
जवाब देंहटाएंNEW YEAR -2012 इस अवसर पर वश यही कहूँगा ---भगवान सभी के दिल में शांति और सहन की शक्ति दें ! मै और मेरी धर्मपत्नी की ओर से आप सभी को सपरिवार -नव वर्ष की शुभ कामनाएं !
जवाब देंहटाएंनववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंरोचक यात्र्ा वर्णन...........
जवाब देंहटाएंअगली बार अपनी पत्रकारिता का बेजा फायदा उठाने के पहले एक बार जरुर हिचकेगा.आपने अपना कर्तव्य तो बखूबी निभा दिया.
जवाब देंहटाएंअगली बार अपनी पत्रकारिता का बेजा फायदा उठाने के पहले एक बार जरुर हिचकेंगे.आपने अपना कर्तव्य तो बखूबी निभा दिया.
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