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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

श्रीलाल शुक्ल और अमरकांत के साथ चर्चा छत्तीसगढ़ की ( ज्ञानपीठ पुरस्कार की बधाइयों के साथ )


यह वर्ष 1994 की बात है जब लखनऊ में रागदरबारीजैसे कालयजी उपन्यास के लेखक श्रीलाल शुक्ल जी से भेंट हुई। मुझे उन्हीं के हाथों लखनऊ में व्यंग्य के लिए दिया जाने वाला अट्टहास सम्मान भी प्राप्त हुआ था। आयोजन के बाद मैंने उनसे कहा था मैं आपसे मिलने आना चाहता हूं। '

जरुर..’ फिर उन्होंने अपने घर आने का नक्शा बताया। तब उनसे साढ़े तीन घण्टों तक बातचीत का लम्बा सिलसिला चला था जिसे जारी रखने के लिए कॉफी के दौर चलते रहे।

पहला पड़ाव और छत्तीसगढ़ः
श्रीलाल शुक्ल का एक उपन्यास है पहला पड़ाव इस उपन्यास में छत्तीसगढ़ से उत्तरप्रदेश कमाने खाने आए मजदूरों की कथा केन्द्र में है। श्रीलाल शुक्ल कहते हैं कि मैं इस उपन्यास का दूसरा भाग लिखना चाहता था... पर इसके लिए कुछ तैयारी करनी थी। छत्तीसगढ़ क्षेत्र का अध्ययन करना था। सैकड़ों वर्षों पहले वहॉं महात्मा घासीदास हुए थे जिन्होंने उस क्षेत्र के सम्पूर्ण वर्ग को संगठित करके उनके द्वारा जो अनेक पारम्परिक कार्य कराये जाते थे उनसे उन्हें विलग कराया। परिणाम स्वरुप वहॉं के भूमिघरों ने उन्हें अपने खेतों से निकाल दिया और वे काम की तलाश में उत्तरप्रदेश, दिल्ली, पंजाब तक फैले। तब भी गॉंव में उनकी जड़े बनीं रहीं। उसी पुराने  आंदोलन के कारण इनमें आज भी शराब खोरी आदि की आदतें बहुत कम हैं। सचमुच विस्थापितों का यह अत्यंत आश्चर्य जनक समुदाय है। इस पर यदि कथा रचनी है जाहिर है कुछ बुनियादी तैयारियॉं करनी होंगी। अध्ययन, शोध की जरुरत होगी, जो मैं नहीं कर सका।

छत्तीसगढ़ के सौंदर्य का चित्रणः
पहला पड़ावकी नायिका जसोदा है जो छत्तीसगढ़ से गई है, उसके आकर्षक व्यक्तित्व के कारण उपन्यास के अन्य पात्र उसे मेमसाहबकहते हैं। इस नायिका की सुन्दरता का चित्रण श्रीलाल शुक्ल ने बड़े सौन्दर्य बोध के साथ किया है इस तरह ‘‘मेमसाहब का दिल ही मुलायम नहीं था उनमें और भी बहुत कुछ था। उनकी ऑंखें बड़ी बड़ी और बेझिझक थीं, भौंहें बिलकुल वैसी, जैसी फैशनेबुल लड़कियॉं बड़ी मेहनत से बाल प्लक करके और पेंसिल की मदद लेकर तैयार करती थीं। रंग गोरा, गाल देखने में चिकने - छूने में जाने और कितने चिकने होंगे, कद औसत से उंचा, पीठ तनी हुई, और दॉंत जो मुझे ख़ास तौर से अच्छे लगते, उजले और सुडौल। उनके बाल कुछ भूरे थे। मेमसाहब की उपाधि उन्हें अच्छी बातचीत के हाकिमाना अंदाज से नहीं, गोरे चेहरे और इन लंबे-घने-भूरे बालों के कारण मिली थी।

अमरकांत और छत्तीसगढ़ः

वे मेरे साहित्य लेखन के शुरुवाती दिन थे। मैं इलाहाबाद गया हुआ था जहॉं से मासिक पत्रिका मनोरमानिकलती है। मैं मित्र प्रकाशन के कार्यालय में संपादक से मिलने पहुंच गया। मिलने पर पता चला कि वे संपादक महोदय प्रसिद्ध कथाकार अमरकांत हैं। तब तक अमरकांत जी का मैंने नाम नहीं सुना था। वे तब उस समय के सभी कम्युनिस्टों की तरह फूलपेंट के उपर मनीला पहना करते थे। वे उम्र दराज तो तब भी थे और वार्द्धक्य का सौन्दर्य उनके व्यक्तित्व में समा गया था। अपने सोच और बातचीत में वे बेहद संजीदा इन्सान लगे थे।  यह जानने के बाद कि मैं दुर्ग से आया हूँ, उन्होंने मुझ चाय पानी के लिए पूछा। बातचीत शुरु हुई तब उन्होंने यह भी पूछा कि छत्तीसगढ़ी भाषा की छत्तीसगढ़ में क्या स्थिति है?’

मैंने उन्हें बताया कि छत्तीसगढ़ के सभी दैनिक हिन्दी अखबारों में छत्तीसगढ़ी व्यंग्य के स्तंभ छपते हैं।यह सुनकर वे प्रसन्न हुए। मैंने उन्हें पूछा कि क्या उत्तर प्रदेश के हिन्दी अखबारों में अवधी, ब्रज या किसी भी स्थानीय बोली में व्यंग्य का कोई स्तंभ छपता है?’ उन्होंने हल्की मुस्कान के साथ कहा कि अरे नहीं! यहॉं तो ऐसा नहीं है। इस मामले में आपके यहॉं स्थिति अच्छी है।अमरकांतजी एक संपादक होने के नाते लेखकों को प्यार से समझाते थे उन्हें लेखन के गुर सिखाते थे।

श्रीलाल शुक्ल और अमरकांत अपने इन दोनों मुलाकातिया लेखकों को संयुक्त रुप से ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त होने पर बड़ी खुशी हुई। खुशी इसलिए और भी ज्यादा हुई कि इस पुरस्कार की घोषणा की खबर विगत 20 सितंबर को छपी जो मेरा जन्म दिन है। अपने जन्म दिन का इससे बड़ा उपहार और क्या हो सकता है कि अपने प्रिय लेखकों को इस दिन साहित्य का सर्वोच्च सम्मान मिला है। 

विनोद साव 
मुक्तनगर, दुर्ग 
छत्तीसगढ़ 491001
मो. 9407984014



20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।

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