धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ प्रदेश के लोक जीवन में परम्परा और उत्सवधर्मिता का सीधा संबंध कृषि से है। कृषि प्रधान इस राज्य की जनता सदियों से, धान की बुवाई से लेकर मिजाई तक काम के साथ ही उत्साह व उमंग के बहाने स्वमेव ही ढूंढते रही है, जिसे परम्पराओं नें त्यौहार का नाम दिया है। हम हरेली तिहार से आरंभ करते हुए फसलचक्र के अनुसार खेतों में काम से किंचित विश्राम की अवधि को अपनी सुविधानुसार आठे कन्हैंया, तीजा-पोरा, जस-जेंवारा आदि त्यौहार के रूप में मनाते रहे हैं। ऐसे ही कार्तिक माह में धान के फसल के पकने की अवधि में छत्तीसगढि़या अच्छा और ज्यादा फसल की कामना करता हैं और संपूर्ण कार्तिक मास में पूजा आराधना करते हुए माता लक्ष्मी से अपनी परिश्रम का फल मांगता हैं। छत्तीसगढ में कातिक महीने का महत्व महिलाओं के लिए विशेष होता है पूरे कार्तिक माह भर यहां की महिलायें सूर्योदय के पूर्व नदी नहाने जाती हैं एवं मंदिरों में पूजन करती हैं जिसे कातिक नहाना कहा जाता है। मान्यता है कि कार्तिक माह में प्रात: स्नान के बाद शिवजी में जल चढ़ाने से कुवारी कन्याओं को मनपसंद वर मिलता है। पारंपरिक छत्तीसगढ़ी बारहमासी गीतों और किवदंतियों में कार्तिक माह को धरम का माह कहा गया है जिसमें रातें उजली है एवं इस माह में स्वर्ग से लगातार आर्शिवाद बरसते हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भी कार्तिक मास सनातन धर्मी लोगों के लिए महत्वपूर्ण मास है जो क्वांर के बाद आता है, क्वांर को आश्विन मास भी कहा जाता है, आश्विन आरोग्य के देवता अश्विनीकुमारों का प्रतीक मास है। यह मास किसानों के कृषि कार्य से थकित शरीर में नव उर्जा का संचार करता है। कार्तिक में धान गभोट की स्थिति में होता है इस समय में धान के दाने पड़ते हैं और धान की बालियां परिपक्व होती है। इस मास की इन्ही विशेषताओं को देखते हुए मान्यता है कि शरद पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा अमृत की वर्षा करता है। संपूर्ण देश की परम्परा के अनुसार छत्तीसगढ़ में भी शरद पुर्णिमा के दिन शाम को खीर (तसमई), पुरी बनाकर भगवान को भोग लगाए जाते हैं एवं खीर को छत पर रख कर चंद्रमा से अमृत वर्षा की कामना की जाती है। अश्विनीकुमार आरोग्य के दाता हैं और पूर्ण चंद्रमा अमृत का स्रोत। यही कारण है कि ऐसा माना जाता है कि इस पूर्णिमा को आसमान से अमृत की वर्षा होती है। छत्तीसगढ़ में इस दिन आंवला के वृक्ष के नीचे सुस्वादु भोजन बनाकर परिवार को खिलाया जाता है जो आधुनिक पिकनिक का आनंद देता है।
शरद् पूर्णिमा के बाद से आने वाले इस मास में दीपावली और देवउठनी एकादशी (छोटी दीपावली, तुलसी विवाह) आते हैं, इसी मास के अंत में कार्तिक पूर्णिमा को छत्तीसगढ़ के विभिन्न देवस्थानों में मेला भरता है। पून्नी मेला मेरे गांव के समीप शिवनाथ व खारून के संगम पर स्थित सोमनाथ में भी भरता है। कुल मिलाकर यह मास धार्मिक आस्था से परिपूर्ण मास होता है। गांवों में कार्तिक माह का उत्साह देखते बनता है, सूर्योदय के पहले महिलायें, किशोरियॉं और बालिकायें उठ जाती हैं और नदी या तालाब में नहाने जाती हैं, नदी-तालाबों के किनारे स्थित शिव के मंदिर में वे गीले कपड़े पहने ही जल चढ़ाती है और गीले कपड़े पहने ही घर आती हैं। सुबह के धुंधलके में वे प्राय: झुंड में रहती हैं और स्वभावानुसार बोलते रहती हैं जो प्रात: की नीरवता को दूर-दूर तक तोड़ती है। जब मैं गांव में रहता था तब इनकी बातों से नींद खुलती थी। गांव में समय के पहचान के लिए प्रात: 'सुकुवा' के उगने से लेकर 'पहट ढि़लाते' तक के समय में 'कातिक नहईया टूरी मन के उठती' जैसे शब्दों का भी प्रयोग होता रहा है।
प्रहर के इस अंतराल के पार होने के बाद 'पंगपगांने' पर ही मैं बिस्तर छोड़ता था और कातिक के 'रवनिया' का आनंद लेते हुए नदी की ओर निकल पड़ता था। छत्तीसगढ़ के गांवों में सामाजिक व्यावहारिकता के चलते 'डउकी घठौंधा' और 'डउका घठौंधा' होता है जहॉं पुरूष और महिलायें अलग अलग स्नान करती हैं। हम इन दोनों घाटों को पीछे छोड़ते हुए दूर शिवनाथ और खारून के गहरे संगम की ओर बढ़ चलते थे इससे हमारा प्रात: भ्रमण भी हो जाता था। तब 'डउकी घठौंधा' से गुजरते हुए महिलाओं को लंहगे से या छोटी घोती से 'छाती बांध' कर नहाते देखता था। कार्तिक में बरसात के बाद आने वाली दीपावली के पूर्व गॉंव में घरों के 'ओदर' गए 'भिथिया' को 'छाबनें' एवं 'लीप-पोत-औंठिया' के घर के कपड़ों की सफाई के लिए महिलाओं को बड़ी बाल्टी या डेचकी भर कपड़ों को 'कांचते' भी देखता था।
कभी इस बिम्ब का विस्तार और चिंतन दिमाग नें नहीं किया था, पिछले दिनों छत्तीसगढ़ी गीतों के जनगीतकार मुकुन्द कौशल जी से छत्तीसगढ़ी गज़लों के संबंध में लम्बी बातचीत हुई तो उन्होंनें अपना एक गज़ल सुनाया तब लगा कि कवि नें इस बिम्ब को किस तरह से भावमय विस्तार दिया आप भी देखें -
जम्मो साध चुरोना बोरेंव, एक साध के कारन मैं
एक दिसा के उड़त परेवना, ठींया ला अमरा लेथें.
'माटी राख' डाल के 'बड़का बंगोनिया' में पानी के साथ गंदे कपड़े को आग में पकाने की क्रिया को 'चुरोना बोरना' कहा जाता है, अब गज़लकार कसी एक साध के कारण जम्मो साध का चुरोना डुबाने की बात कहता है क्योंकि गॉंव की महिला जानती है कि उसकी अनंत इच्छायें तो पूरी नहीं हो सकती कोई एक इच्छा ही पूरी हो जाए। उसने जो अपना कोई एक लक्ष्य रखा है कम से कम वही तो पूरा हो जाए (एक दिशा में उड़ते हुए कबूतर को उसका ठिकाना तो मिल जाए)।
हालांकि इस पोस्ट में नदी के किनारे से गुजरते हुए इस गज़ल के मूल अर्थ का कोई सामन्जस्य नहीं बैठता किन्तु विषयांतर से ग्रामीण जीवन की झलक को डालने का प्रयास कर रहा हूँ। नदी के किनारे के पेंड, पत्थर और घाट को विघ्नसंतोषी बताते हुए गज़लकार महिलाओं को अपने मन की बात ना कहने की ताकीद देता है। जो साथी गांव के जीवन को जानते हैं उन्हें ज्ञात है कि महिलायें नदी में नहाते हुए घर से गांव और संसार की बातें करती हैं, अपने साथ साथ नहाती महिलाओं से हृदय की बातें भी कहती हैं, इसी भाव को गज़लकार शब्द देता है-
अनदेखना हें अमली-बम्हरी नदिया के पथरा पचरी
सबके आघू मन के कच्चा लुगरा झन फरियाए कर.
कार्तिक पूर्णिमा पर किसी पत्रिका के लिए मैंनें इसे लिखा था आगे आलेखों की कड़ी थी भूमिका में पहला दो पैरा लिखा गया था। आज ड्राफ्ट में पड़े इसे देखकर इस पर चंद लाईना जोड़कर पब्लिश कर दिया। धरम के मास कार्तिक से लेकर श्री मुकुन्द कौशल जी की छत्तीसगढ़ी गज़ल तक लोक जीवन के इस जीवंतता का शहर में बैठकर सिर्फ कल्पना किया जा सकता है, हृदय में गॉंव बार-बार सोरिया रहा है फिर भी जीवन की व्यस्तता गॉंव के पुकार को अनसुना कर रही है।
प्रहर के इस अंतराल के पार होने के बाद 'पंगपगांने' पर ही मैं बिस्तर छोड़ता था और कातिक के 'रवनिया' का आनंद लेते हुए नदी की ओर निकल पड़ता था। छत्तीसगढ़ के गांवों में सामाजिक व्यावहारिकता के चलते 'डउकी घठौंधा' और 'डउका घठौंधा' होता है जहॉं पुरूष और महिलायें अलग अलग स्नान करती हैं। हम इन दोनों घाटों को पीछे छोड़ते हुए दूर शिवनाथ और खारून के गहरे संगम की ओर बढ़ चलते थे इससे हमारा प्रात: भ्रमण भी हो जाता था। तब 'डउकी घठौंधा' से गुजरते हुए महिलाओं को लंहगे से या छोटी घोती से 'छाती बांध' कर नहाते देखता था। कार्तिक में बरसात के बाद आने वाली दीपावली के पूर्व गॉंव में घरों के 'ओदर' गए 'भिथिया' को 'छाबनें' एवं 'लीप-पोत-औंठिया' के घर के कपड़ों की सफाई के लिए महिलाओं को बड़ी बाल्टी या डेचकी भर कपड़ों को 'कांचते' भी देखता था।
कभी इस बिम्ब का विस्तार और चिंतन दिमाग नें नहीं किया था, पिछले दिनों छत्तीसगढ़ी गीतों के जनगीतकार मुकुन्द कौशल जी से छत्तीसगढ़ी गज़लों के संबंध में लम्बी बातचीत हुई तो उन्होंनें अपना एक गज़ल सुनाया तब लगा कि कवि नें इस बिम्ब को किस तरह से भावमय विस्तार दिया आप भी देखें -
जम्मो साध चुरोना बोरेंव, एक साध के कारन मैं
एक दिसा के उड़त परेवना, ठींया ला अमरा लेथें.
'माटी राख' डाल के 'बड़का बंगोनिया' में पानी के साथ गंदे कपड़े को आग में पकाने की क्रिया को 'चुरोना बोरना' कहा जाता है, अब गज़लकार कसी एक साध के कारण जम्मो साध का चुरोना डुबाने की बात कहता है क्योंकि गॉंव की महिला जानती है कि उसकी अनंत इच्छायें तो पूरी नहीं हो सकती कोई एक इच्छा ही पूरी हो जाए। उसने जो अपना कोई एक लक्ष्य रखा है कम से कम वही तो पूरा हो जाए (एक दिशा में उड़ते हुए कबूतर को उसका ठिकाना तो मिल जाए)।
हालांकि इस पोस्ट में नदी के किनारे से गुजरते हुए इस गज़ल के मूल अर्थ का कोई सामन्जस्य नहीं बैठता किन्तु विषयांतर से ग्रामीण जीवन की झलक को डालने का प्रयास कर रहा हूँ। नदी के किनारे के पेंड, पत्थर और घाट को विघ्नसंतोषी बताते हुए गज़लकार महिलाओं को अपने मन की बात ना कहने की ताकीद देता है। जो साथी गांव के जीवन को जानते हैं उन्हें ज्ञात है कि महिलायें नदी में नहाते हुए घर से गांव और संसार की बातें करती हैं, अपने साथ साथ नहाती महिलाओं से हृदय की बातें भी कहती हैं, इसी भाव को गज़लकार शब्द देता है-
अनदेखना हें अमली-बम्हरी नदिया के पथरा पचरी
सबके आघू मन के कच्चा लुगरा झन फरियाए कर.
कार्तिक पूर्णिमा पर किसी पत्रिका के लिए मैंनें इसे लिखा था आगे आलेखों की कड़ी थी भूमिका में पहला दो पैरा लिखा गया था। आज ड्राफ्ट में पड़े इसे देखकर इस पर चंद लाईना जोड़कर पब्लिश कर दिया। धरम के मास कार्तिक से लेकर श्री मुकुन्द कौशल जी की छत्तीसगढ़ी गज़ल तक लोक जीवन के इस जीवंतता का शहर में बैठकर सिर्फ कल्पना किया जा सकता है, हृदय में गॉंव बार-बार सोरिया रहा है फिर भी जीवन की व्यस्तता गॉंव के पुकार को अनसुना कर रही है।
संजीव तिवारी
नोट : छत्तीसगढ़ी के शब्दों पर माउस ले जाने से उसके हिन्दी अर्थ छोटे बक्से में वहीं दिखने लगेंगें.
नोट : छत्तीसगढ़ी के शब्दों पर माउस ले जाने से उसके हिन्दी अर्थ छोटे बक्से में वहीं दिखने लगेंगें.
छत्तीसगढ़ के ग्रामीण परिवेश का सजीव चित्रण , कार्तिक मास के संदर्भ में कुशलता से किया गया है. सम-सामयिक आलेख ने मन वीणा झंकृत कर दी.
जवाब देंहटाएंगांवों की सैर करा दी आपने।।
जवाब देंहटाएंआभार....
कातिक के जम्मो पुन्न पाए बरोबर लगिस.
जवाब देंहटाएंकृषि आधारित जीवन शैली और उत्सव परम्परा हमारे देश की संस्कृति की विशेषता है।
जवाब देंहटाएंकार्तिक महीने की बात ही कुछ और है ..
जवाब देंहटाएंमौसम के हिसाब से भी और पवित्रता के हिसाब से भी !!
महराज पाय लगी गा। आज दिन भर सोचे च रेहेंव तोर मेरन गोठियाहूं कहिके। ये आर्टिकल ल पढ़ के खास कर छत्तीसगढ़ी के अरथ ला देख के मैं गदगद हो गेंव। धन तेरस ले लेके भाई दूज तक के जुन्ना अउ नवा बधाई ल स्वीकार कर लेबे।
जवाब देंहटाएंमै खुद कई बछर ले कातिक नहाय हव...... आलेख पढ़के आनंद आगे
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