

कोयल पर अनेक कवियों नें कवितायें लिखी, गद्यकारों नें कोयल
को अपने प्रकृति चित्रण में शामिल किया और कोयल हमारे साहित्य में गहरे से पैठ गई।
नीड़ परजीविता के कारण कोयल के व्यवहार को अच्छा नहीं समझा जाता कहते हैं कि ये अपना
घोसला नहीं बनाती और कौओं के घोंसले के अंडों को गिरा कर अपना अंडा दे देती है, कौंए कोयल के बच्चों
को अपना बच्चा समझकर पालते हैं। जब कोयल का
बच्चा उड़ने योग्य हो जाता हैं तो अचानक चकमा उड़ जाता है। कोयल के बच्चे के साथ उस
घोंसले में यदि कौए के बच्चे रहे तो यह सामर्थ होते ही उसे घोंसले के नीचे गिरा डालते
हैं।





चलो मान लेते हैं रहीम अंकल की बात को, तब तक इंतजार करें मेरे 1808 वें नये ब्लॉग का ......
आनंददायक...
जवाब देंहटाएंकोयल की मधुर कूक तो शायद नर की ही होती है.
सुन्दर लेख.... कोयल की प्रवृत्ति पर सार्थक विमर्श भी...
जवाब देंहटाएंऔर बढ़िया विडिओ...
सादर बधाई...
सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंमीठी बोली बोलने वालों को बचाना बहुत आवश्यक है।
जवाब देंहटाएंवसंतसमये प्राप्त: काक: काक: पिक: पिक:!!
जवाब देंहटाएंखुबसूरत आलेख ..
जवाब देंहटाएंसंजीव जी, आप इस पक्षी को कृपया उड़ाना नहीं क्योंकि उड़ा देने पर यह प्रकृति से सामंजस्य तो बना नहीं पाएगा, उल्टे अन्य पक्षी इसे नोच नोच कर मार डालेंगे। अब यह आपके परिवार का सदस्य बन गया है इसलिए इसे अपने परिवार के साथ ही रखिए।
जवाब देंहटाएंआप तो खुशकिस्मत हैं ही. आज की पोस्ट पढ्कर हमें अपनी खुशकिस्मती पर भी कोई शक नहीं रहा। विवरण, चित्र, विसियो, सभी लाजवाब। शुक्रिया!
जवाब देंहटाएंमस्त कोयलिया पोसे हस गा। नर होए चाहे मादा, कोयल त कोयले होथे :)
जवाब देंहटाएंmy brother ye koyal nahin mahok hai.
जवाब देंहटाएंकोयल पर शरद कोकास की भी एक कविता है
जवाब देंहटाएंकोयल चुप है
गाँव की अमराई में कूकती है कोयल
चुप हो जाती है अचानक कूकते हुए
कोयल की चुप्पी में आती है सुनाई
बंजर खेतों की मिट्टी की सूखी सरसराहट
किसी किसान की आखरी चीख
खलिहानों के खालीपन का सन्नाटा
चरागाहों के पीलेपन का बेबस उजाड़
बहुत देर की नहीं है यह चुप्पी फिरभी
इसमें किसी मज़दूर के अपमान का सूनापन है
एक आवाज़ है यातना की
घुटन है इतिहास की गुफाओं से आती हुई
पेड़ के नीचे बैठा है एक बच्चा
कोरी स्लेट पर लिखते हुए
आम का “ आ “
वह जानता है
अभी कुछ देर में उसका लिखा मिटा दिया जायेगा
उसके हाथों से जो भाग्य के लिखे को
अमिट समझता है ।
- शरद कोकास