सुबह-सुबह बंदरों की आवाजों से नींद खुली, मेरी श्रीमती और पुत्र घर से लगे 'कोलाबारी' में बंदरों की टीम को भगाने की कोशिशों में लगे थे। बंदर घर के बाउंड्रीवाल में लाईन से बैठे थे, बाउंड्रीवाल के उस पार सड़क में कुत्ते उन्हें उतरने दे नही रहे थे और इस पार हमारी सेना उन्हें भगाने के लिए डटी थी पर ढीठ बंदर भाग ही नहीं रहे थे। मेरे बाहर आने और हांक लगाने पर ही वे दूसरे घर के छतों से होते हुए भागे। बंदरों की इस टोली में कोई बारह-पंद्रह बंदर होंगें जो पिछले दिसम्बर-जनवरी से हमारे कालोनी में सात-आठ दिनों के अंतराल से लगातार आ रहे हैं। हमारी कालोनी शहर से कुछ दूर है यहां हरियाली ज्यादा है और कालोनी से लगे खेत भी है इस कारण बंदरों की आवाजाही होती रहती है पर लगता है पिछले महीनों से इनकी दखल घरों में बढ़ती जा रही है, हम छतो में या खुले स्थान में खाने का सामान नहीं रख सकते, बड़ी, आम पापड़ आदि सुखाने में ये उसे चट कर जाते हैं। मेरे घर में आम व अमरूद एवं अन्य फलदार पेड़ हैं जो इन बंदरों को ज्यादा ललचाते हैं। मेरी श्रीमती व पुत्र अपनी मेहनत से उगाए फलों को लुटते देखकर इन बंदरों को भगाने के हर जुगत लगाते हैं पर ये जब भी आते हैं डंगाल तोड़कर व बीस-पच्चीस फलों का नुकसान कर चले जाते हैं।
मेरे घर में एक अमरूद का पेड़ है जो साल में दो बार फल देता है, आज जब बंदर चले गए तो पेड़ के नीचे दर्जनों कच्चे अमरूद गिरे हुए थे, हमने पेड़ में फले अमरूद को देखा तो कुछ अमरूद पके हुए नजर आये। पके अमरूदों को तोड़ते हुए मैंनें अमरूद के पास ही एक छोटा सीताफल के पेड़ में लगे दस-बारह फल पर भी सरसरी निगाह डाला। एक सीताफल फटा हुआ नजर आया, पास जाकर उसे छूते ही वह हाथ में गिर गया, यानी वह पक गया था। एक दूसरे बड़े सीताफल को उत्सुकता से हल्के से दबाया तो वह भी दबने लगा। इसे तोड़ते हुए सतीश जायसवाल जी का पोस्ट याद आने लगा जिसमें उन्होंनें सीताफल में असमय फूल पर एक पोस्ट लिखा है उन्होंनें पोस्ट के अंतिम में लिखा ''...असमय के ये फूल फलेंगे नहीं। सीताफल के फलों के लिये उसके अपने ऋतुचक्र के पूरा होने तक प्रतीक्षा करनी ही होगी।''
यहां तो सीताफल असमय पक भी गये ... माली सींचे सौ घड़ा ...... अब भूलना पड़ेगा।
यहां तो सीताफल असमय पक भी गये ... माली सींचे सौ घड़ा ...... अब भूलना पड़ेगा।
वनस्पतियां / फल / फूल ही क्यों ? इंसान भी असमय पकने लगे हैं आजकल !
जवाब देंहटाएंवैसे पकों से चिंतित क्यों होना वे तो असमय ही सही किसी के काम आ ही जाते हैं आपको चिंता करनी भी है तो 'अ'पकों ( अपरिपक्वों ) की कीजिये जो ...:)
सावन आये या न आये , जिया जब झूमे सावन है.बधाई हो संजीव जी.
जवाब देंहटाएंन वक्त में कहावतें भी नई गढ़नी होंगी...:)
जवाब देंहटाएंखैर, फिलहाल तो सीताफल खाईये और हमें ललचाईये. :)
यदि ऐसे न पकें तो रासायनिक तरीकों से पकाया जा सकता है। इंसान इतनी तरक्की कर गया है कि आदमी को औरत और औरत को आदमी बनाये दे रहा है, फिर फलों या सब्जियों को जल्दी पकाना कौन सी बड़ी बात है।
जवाब देंहटाएंपृथ्वी का बदलता मौसम बहुत सी कहावतों पर भरी पद रहा है ...कुछ पेड़ों पर असमय चीकू लगे हुए भी देखा !
जवाब देंहटाएं@ पड़
जवाब देंहटाएंआपके स्नेहसिक्त वृक्ष ऐसे ही सदैव फलते-फूलते रहें.
जवाब देंहटाएं(हेडर के शीर्षक में 'अंर्तकथा' की वर्तनी संशोधन 'अंतर्कथा', कृपया विचार करें.)
सच है, समयचक्र ही सब निर्धारण करता है।
जवाब देंहटाएंबेरुत का फ़ल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है।
जवाब देंहटाएं@ राहुल सिंह - धन्यवाद भईया, सुधार रहा हूं.
जवाब देंहटाएं@ ब्लॉ.ललित शर्मा - बेरूत-लेब़नान का फल नहीं है भईया, ये तो दुर्ग का फल है. :):)
कई काम बेसमय भी किये जाते हैं
जवाब देंहटाएंकई ईनआम बे-वक़्त भी मिलते हैं।
अपने उगाय पेड़ का फ़ल भी बहुत भाता है और उस पेड़ पर बंदरो का हमला झेलना मुश्किल ही है
जवाब देंहटाएंapni subah yad aa gayee ham bhi subah bandar hi bhaga rahe the.bahut achchha laga jankar ki hamare jaisa bhi koi hai is dunia me.
जवाब देंहटाएंसंजीव भैया आप तो बस फलो का मज़ा लो और कम से कम उन बंदरो को भी मज़ा लेने दो.
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