रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 1 (कहानी : संजीव तिवारी)

धमाके की आवाज के साथ ही पुलिस डग्गे के परखच्चे उड गए। चीं sssss … ! की आवाज से पीछे चली आ रही चार जीपें सड़क के दायें बायें घिसटती हुई रूक गई। सामने निकल चुके एक डग्गे के पहिये भी कुछ मीटर के बाद थम गए। चारो जीपों और आगे चल रही गाडी से चीटियों की मानिंद पुलिस के जवान उतरे और जल्द ही लेटकर पोजीशन ले लिया। माहौल धमाके के बाद एकदम शांत हो गया, दूर पहाडियों से धमाके की आवाजे प्रतिध्वनित होती अब भी आ रही थी। डग्गे में सवार पांचों जवान मारे जा चुके थे, चारो तरफ गाडी के तुकडे खून और मांस के लोथडे इधर उधर बिखरे थे। अचानक दूर पश्चिम की ओर के जंगल में झुरमुटों के बीच हलचल हुई, पुलिस जवानों की बंदूकें उसी दिशा में गरज उठी।
लम्बे तारों से बैटरी का करंट दौडाकर विष्फोट करने वालों का दल, अचानक बडी फोर्स को अपनी तरफ गोली चलाते देखकर चकरा गया। मृत जवानों के हथियारों को लूटने का लोभ छोडकर, वे कवर फायर करते पीछे की ओर भागने लगे। वे कुल जमा दस लोग थे, दो-दो लोग बारी-बारी से कवर फायर करने लगे और समुचित दूरी बनाते हुए भागने लगे। पुलिस की टीम भी फायरिंग करते हुए आगे बढने लगी, पुलिस के कुछ अधिकारी विष्फोट स्थल में ही रह कर मुख्यालय संपर्क साधने के प्रयास में लग गए।
कतमा उन दस लोगों के दल में था जिसने इस विष्फोट को अंजाम दिया था। उसके दल नें पिछले साल के बरसात में अपनी दुर्दशा पर स्वयं ही रोते इस रोड को खोदकर लगभग चालीस बम लगाया था और वहां से तार निकाल कर झाडियों के बीच मिटटी में दबा दिया था। इन्हीं में से एक का विष्फोट उन्होंनें आज किया था, पर जवानों से भरी लारी के निकल जाने के बाद विष्फोट हुआ था। जीवित बचे पोजीशन ले चुके जवान उनसे संख्या में ज्यादा थे इसलिए कतमा का दल पीछे भागने लगा था। कतमा और साथी भागते भागते इधर-उधर बिखर गए थे, घने जंगलों के बीच छोटी-छोडी पगडंडियों का उन्हें बेहतर ज्ञान था उस पर वे सरपट भाग रहे थे। गोलियां आगे-पीछे, दायें-बायें बरस रही थी। वह बिना रूके अकेले ही नदी की ओर जाने वाली पगडंडियों में दौड रहा था, उसके कंधे पर एसाल्ट गन और पीठ में अन्य सामान लदा था। दौडते दौडते अब वह काफी थक गया था, पुलिस की गोलियों की आवाजें अब बंद हो गई थी, संभवत: पुलिस वापस सडक की ओर लौट रही थी। कतमा सुस्ताने के लिए उंचे साल के पेड के नीचे कुछ पल के लिए रूककर दोनों हाथों से अपने घुटनों को पकड कर लम्बी-लम्बी सांसें लेने लगा।
जंगल के बीच जानवरों के खुरों से बनी पगडंडियों की भूल-भुलइया का उसे बेहतर ज्ञान था। उसे पता था कि अगले आधे घंटे के दौड के बाद टेकरी पहाड और उसके पार चिनता नदी, उसे पार करते ही उसका इलाका। हॉं इलाका ही तो है वह, वहां दलम का राज है, पुलिस, शासन, प्रशासन सब की पहुच से दूर, वहां सूरज भी कमांडरों की हुक्म से उगता है। कुछ पल सुस्ताने के बाद कतमा ने फिर दौड लगा दी, पर भागते हुए उसके पैरों नें अचानक राह बदल ली। वह टेकरी पहाड में चढने के बजाए उसके दायें तलहटी के साथ साथ भागने लगा, दूर एक दस-पंद्रह झोपडियों का टोला नजर आने लगा था, झोपडियों से उठते धुए काफी उंचाई तक पहाडों से होड लगा रहे थे। सांझ हो चली थी, चिडियों के झुंड पेडों में रात्रि विश्राम के पूर्व इकत्रित होकर कलरव कर रहे थे। उसने उंचाई से सभी झोपडियों पर और आस-पास नजर घुमाई, संतुष्ट होकर वह धीरे-धीरे चलते हुए टोले में आ गया। अंधेरा छा गया था, टोले के कुछ बुजुर्गों ने उसके बंदूक लटकाये कद-काठी वाले साये को सलाम किया जिसका उत्तर उसने हाथ हिलाकर दिया। वह चुपचाप सीधे उत्तर छोर पर देवगुडी के पास अलग थलग बने बांस, लकडी व मिट्टी के फूस वाले झोपडी के सामने आकर रूका। बांस की पतली टहनिंयों और काटों से घेर कर बनाये बखरी के छोटे रांचर को खोलकर उसने अंदर प्रवेश किया।
झोपडी में ढिबरी जल रही थी, दरवाजे के बाजू में चूल्हा जल रहा था जिसमें मिट्टी के बरतन में कुछ पक रहा था। वह सीधे झोपडी के अंदर घुस गया, अंदर धान रखने के बडे से कोसरे के बाजू में छोटी खटिया बिछी थी, सामने आले में ढिबरी टिमटिमा रही थी, शायद नीम के तेल से उसे जलाया जा रहा था जिसकी गंध अंदर छाई थी। माडो सुतई से कच्चे आम को छील रही थी, अचानक कतमा को अंदर देखकर वह हडबडा कर उठ गई। ‘कौन . . .! कौन हो तुम ?’ उधर से कुछ उत्तर आता तब तक ढिबरी की रौशनी में वह कतमा को पहचान गई। कतमा बिना कुछ बोले मचिया में बैठ गया, माडो नें पुन: प्रश्न किया ‘दो साल बाद तुम्हें मेरी याद आई ?’ कतमा चुप ही रहा। माडो नें जर्मन के पिचके गंदे से लोटे मे पानी भरकर कतमा के सामने रखते हुए कहा ‘लो हाथ मुह धो लो ... !’ कतमा बाहर बखरी में रखे एक पत्थर पर खडे होकर वहां रखे मटके से पानी लेकर पैर और लोटे के पानी से मुंह हाथ धोकर अंदर आ गया। अब वह माची में लेट गया, मचिया उसके कद से बेहद छोटी थी, उसके पैर बाहर लटक रहे थे। ‘चार माह से ही डोंगरटोला में हूं, इसके पहले तो महाराष्ट्र सीमा इलाके में था। पिछले दो साल से बहुत व्यस्त हूं, भाग-दौड, ट्रेनिंग, जन-सभा में दिन और रात गुजर रहे हैं।‘ कतमा नें मचिया में बैठते हुए कहा। ‘तो आज कैसे याद आ गई मेरी।‘ माडो नें चूल्हे में अतिरिक्त लकडी डालते हुए कहा। ‘कई दिनों से नदी पार टारगेट करने के लिए जाने की आदेश मांग रहा था, पर उपर से मंजूरी नहीं मिल पा रही थी। इन दिनो रोज संतरी ड्यूटी नदी किनारे चितावर तक लगवाता था कि शायद तुम्हारी झलक नदी उस पार से दिख जावे, पर तुम तो नजर ही नहीं आती थी।‘ ‘तो..... ?’ माडो नें बात बीच ही में काट दिया। ‘तो क्या आज रामगढ रोड में बम उडाने और बंदूकें लूट लाने का आदेश हुआ तभी ठान लिया था कि जो भी हो वापसी में तुमसे मिलूंगा ही।‘ कतमा नें बात पूरी की।
कतमा नें धृणा से मुंह बनाते हुए पुलिस वालों को एक भद्दी गाली दी, और फिर हसने लगा। ‘अफशोस कोई बडी चोट नहीं दे पाये, हथियार भी कुछ हाथ नहीं आया, हम एक मिनट से चूक गये पहली गाडी निकल गई थी।‘ कतमा ने ऐसे कहा जैसे ये सब उसकी दिनचर्या की बात हो। इधर माडो की चिंता घनीभूत हो गई थी, वह जानती थी कि ऐसे हादसों के बाद पुलिस आस पास के जंगलों में सघन सर्च करती है और हो सकता है पुलिस कतमा को ढूंढते यहां भी आ जाए। उसे याद है दो साल पहले ही तो कतमा अपने दो साथियों के साथ, एक और विष्फोट के बाद उसके घर खून से लतफथ पांव लिए आया था, उसने माडो से आधी रात में चूल्हा जलवाकर पानी गरम करवाया था और पिंडली को चिरती निकल गई गोली के जख्मो को धोया था। अपने बैग में रखे दवाई को रूई के फाहे में डालकर स्‍वयं जख्म के अंदर ऐसा घुसाया था जैसे किसी निर्जीव शरीर में घुसा रहा हो, माडो उसके चेहरे को ढिबरी की रौशनी में देखती ही रह गई थी। शुकवा के उदय होते ही वह और उसके साथी झोपडी से निकल गए थे और टोले के छोटे नांव से नदी के उस पार चले गये थे। चूल्हे में रखे पात्र में उबाल आ गया और पानी उबलकर चूल्हे के आग को शांत करने लगी, ‘छननन ...’ माडो की तंद्रा भंग हो गई।
‘मतलब तुम फिर आज रात भर के लिए आये हो ?’ माडो बुदबुदाई। कतमा शायद उन शव्दों को सुन पा रहा था। ‘चिंता की कोई बात नहीं है माडो, तब और अब में काफी अंतर आ गया है, अब ये इलाका हमारा है, अब ये जल, जंगल और जमीन हमारे है। हम और तुम अब यहां बेखौफ रह सकते हैं‘ कतमा ने निश्चिंत भाव से कहा। कतमा के बात में दम था, चिनता नदी के आस पास के घने जंगलों में बसे गांव टोलों को पिछले दो सालों में दलम व पुलिस की लडाई के कारण अभिशप्त होकर वीरान होना पडा था। वहां के निवासी दूर जंगल में भाग गए थे, सडक के आस पास के कुछेक गांवों में पुलिस व सीआरपीएफ नें अपने कैम्प लगा लिए थे। बाकी के गांव टोले उजाड हो गए थे जिसमें नदी के आस पास के गांव टोलों में दलम के लोगों नें अपना कब्जा जमा लिया था, वहां दलम का समानांतर शासन था। माडो नें सहमति स्वरूप अपना सिर हिलाते हुए पुन: प्रश्न किया ‘.. पर कब तक .. ?’ कतमा खामोश रहा, वह अपने बंदूक को कपडे से चमकाने लगा। हंसी ठिठोली और द्विअर्थी हलबी-भथरी गीतों का दौर चलते रहा। लोकगीतों की तम्बाखू मांगने वाली पंक्तियां भी दुहराई गयी। इसके साथ ही कतमा और माडो नें साथ-साथ मंद पीया और बरबट्टी की सब्जी , आम के कुच्चे की चटनी और भात खाया। माडो को भान था बस्तर में प्रणय निवेदन के लिए प्रेमी प्रतीकात्मक रूप से प्रेमिका से तम्बाखू मांगता है और प्रेमिका का समर्पण चोंगी में समाकर, आग में जलकर प्रेमी के रगों में मादकता का संचार करता है। अपने संपूर्ण जीवन में माडो नें समझौता और समर्पण का नजदीकी अनुभव किया है फिर भी एकाकीपन का दुख उससे दूर नहीं हुआ है इसलिए वह प्रत्येक खुशी के कतरों का जी भर कर आनंद लेती थी। पूरे दो साल के अंतराल के बाद कतमा के बाहों में माडो रात भर सुलगती रही और अपूर्व आनंद के साथ अपना सर्वस्व लुटाती रही।
क्रमश: ...

3 टिप्‍पणियां:


  1. वाह, संजीव भाई-सुंदर कहानी है, बारुद की गंध से लेकर चोंगी और प्रेम तक।
    उम्दा पोस्ट-सार्थक लेखन के लिए आभार

    प्रिय तेरी याद आई
    ब्लॉग4वार्ता पर आपका स्वागत है

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  2. बारूद से यूं भी वहशत होती है सो कतमा और माडो की एकान्तिक सुलगन और समर्पण से उदभूत प्रेम को महसूस करने की कोशिश कर रहे हैं ! फिलहाल कथा के आखिरी पैरे पर फोकस है :)

    आगे देखें क्या होता है ?

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  3. Yuddh aur Prem.......!!

    chaliye aage dekhte hain... agli kisht me... pratikshha rahegi...

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