रौशनी में आदिम जिन्दगी भाग 2 (कहानी : संजीव तिवारी)

रौशनी में आदिम जिन्दगी  भाग 1 (कहानी :  संजीव तिवारी) 

माडो इसी टोले में पैदा हुई थी पली बढी, बरसों पहले उसके दादा पास के गांव में रहते थे जो गांव से बाहर पेंदा खेती करने और मछली मारने के उद्देश्य से यहां टोले के पास झोपडी बनाकर रहने लगे थे। धीरे धीरे दस बारह लोग और आ गए थे, झोपडियां तन गई थी। गांव लगभग दस किलोमीटर दूर था व उनके टोले में तीन चार मोटियारिनें ही थी जिसके कारण घोटुल गये बिना ही बारह साल की उम्र में माडो की शादी इसी टोले में रहने वाले एक चेलिक से कर दी गई थी। दो माह तक उसे कली से फूल बनाने की भरसक प्रयत्न करते हुए उस किशोर नें उसे पत्नी होने का गर्व तो दिया पर एक दिन अचानक वह माडो को छोडकर किरूंदूल के खदानों में कमाने खाने चला गया फिर चार साल बाद लौट कर आया तो अपने साथ दूसरी बीबी और एक बच्चा भी साथ लाया। माडो नें फिर भी अपनी सौत और पति के साथ निभना चाहा पर वह नहीं निभ पाई, सौत के तानों और गालियों से तंग आकर वह पुन: अपने मां बाप के झोपडे में आ गई। दिन-दिन भर जंगल में घूम घूम कर चार चिरौंजी हर्रा बहेरा इकट्ठा करती और बीस किलोमीटर पैदल चलकर हाट में जाकर उसे बेंचती। देखते ही देखते गदराए जवान शरीर में गोदना का सौंदर्य उसे आस पास के टोले और गांवों में मशहूर कर दिया था। जवान लडके उसका साथ पाने को तरसने लगे, इसी समय जवान और पति से अलग रह रही माडो के कदम भी कुछ बहक गए। बेटी की लगातार बदनामी के किस्से को सुन सुन कर मां बाप नें अब उसे अपने पास रखने से मना कर दिया। यहां मिट्टी का कोई मोल नहीं था, सारी धरती माडो को पनाह देने आतुर थी। माडो नें पास में ही एक झोपडा बनाया और उसमें रहने लगी। उसने दो बकरियां भी पाल ली और उन्हें चराने जब जंगल जाती तब वहां से जंगल में पाये जाने वाले उत्पादों को इकत्रित भी करने लगी। स्वच्छंदता के कारण उसके झोपडे में एक दो पुरूष गपियाते मंद पीते बैठने लगे। ऐसे में मुफ्त में मंद पिलाने के बजाए माडो नें घरों घर सहज में उपलब्ध मंद को ऐसी व्यावसायिकता दी कि उसके झोपडे में आस पास के टोले के लोगों की रोज भीड लगने लगी। वह जंगल के उत्पादों के बदले मंद बेचने लगी और महीने में एक बार बाजार जाकर उसे बेंचने लगी, आर्थिक समृद्धि से ही उसका जीवन सहज रह सकता है वह जान गई थी।
माडो के मांसल शरीर में गुदनों का अद्भुत सौंदर्य उकेरा गया था, हाथों में हथेलियों के उपरी भाग से लेकर दोनों भुजाओं में फूल पत्तियां गुदे थे। पैरों में पिंडलियों से लेकर जांघों से भी भीतर जाती लम्बी बूटेदार फूल पत्तियों की श्रृंखला जब वह अपनी छोटी सा‍डी को समेटकर उखडू बैठती तो उसके काले किन्तु चमकदार देह में उभर आती थी। माडो अपनी सुन्दरता को समय रहते ही भुना लेना चाहती थी इस कारण उसने पास के गांव के एक कामदार के नाती के आतुर निगाहों का सम्मा‍न किया, कामदार का नाती उसे रख्खी बनाकर अपने गांव ले आया। माडो की झोपडी सूनी हो गई पर वह उस कामदार के नाती के गांव में बने एक झोपडी को आबाद करने लगी। कामदार के नाती के पहले से ही दो-दो बीबीयां थीं माडो तीसरी थी, दो बरस स्वदच्छंद व वाचाल हिरनी माडो नें उस कामदार के नाती को अपने पल्लू में बांधे रखा उसके बाद उस कामदार के नाती से खटपट होने लगी। मंद और मलेरिया नें कामदार के नाती को अंदर से खोखला कर दिया था सिर्फ पौरूषता का ढोंग बाकी था जो ज्यादा दिन तक न चल सका। एक दिन कामदार का नाती किसी बात पर गांव के चौक में माडो को मारने लगा, झूमा-झटकी में माडो के शरीर पर लिपटा इकलौता वस्त्र खुल गया और वह र्निवस्त्र हो गई। सारा गांव देखता रहा, किसी नें भी माडो को सहारा न दिया।
इसके बाद वह बिना कुछ बोले अपने टोले में आ गई। अपने उजडे झोपडी को फिर से तुना-ताना, गोबर से लीपा, मिट्टी-छूही से पोता और कुछ ही दिनों में अपने पुराने ढर्रे में लौट आई। अब उसने अपना जीवन अकेले ही बिताने को ठान लिया, वह अब भी जवान थी और उसकी उन्मुक्त दिनचर्या उसके देह की आवश्यकताओं को पूरी कर रही थी। मंद पीने आये युवा लोगों में से कभी अपनी स्वेच्छा से तो कभी उन युवा लोगों में से किसी आताताई से बेमन हमबिस्तर होना माडो का शगल हो गया था। मन और तन को सदैव अलग रख कर उसने नारी भावनाओं और भविष्य की चिंता को मार दिया था, और जंगल में पेंड-पौधों या फूलों की भांति जिये जा रही थी, जैसे प्रकृति नें उसे ऐसे ही जिन्दगी दी है जिसका उसे सम्मान करना है। उस फूल पर सैकडों भौंरों नें मकरंद बिखेरे पर ईश्वर नें उसे फल बनाने की शक्ति नहीं दी, शायद यही उसके जीवन में जीवटता को जीवंत रख पाई थी। समाज के लोक-लाज के भीतर ही उसकी दबंग छबि सबको भाती थी और कोई भी उस पर उंगली नहीं उठा पाता था।
दस बारह झोपडियों का यह टोला बीहड जंगल के बीच था, लगभग बीस-पच्चीस किलोमीटर की परिधि में कोई सडक या पहुच मार्ग नहीं था। परिवहन का साधन सिर्फ चिनता नदी थी जिसमें छोटी डोंगी या लकडी के लट्ठों से नदी के बहाव के समानांतर चलते हुए सडक तक या फिर गोदावरी तक पंहुचा जा सकता था। दूर-दूर तक धना जंगल फैला हुआ था, बडी-बडी पहाडियां, घुमावदार घाटियां क्षेत्र को दुर्गम बनाती थी।
महीनो में कोई गांव-टोले का आदमी पडरीपानी के सिरमिट पलांट या शहर की हवा खाकर यहां आता तो साथ में विकास के पहचान के रूप में प्लास्टिक के चप्पल जूते, कमीज पैंट या ट्रांजिस्टर लाता। लुंगी-साडी तो पास में भरने वाले हाट-बाजार में मिल जाते थे। हाट-बाजार में सामान तो बहुत कुछ होता था पर लोगों के पास इन्हें खरीदने लायक पैसे नहीं होते थे। यदि पैसे होते भी थे तो वे लालच/आकांक्षा के बावजूद आधुनिक सामानों को खरीदने में शर्म महसूस करते थे। माडो नें बुधवारी हाट से एक बार ब्रा और ब्लाउज खरीदा था, दुकानदार के बार-बार जिद करने एवं साथ में आई महिलाओं के उत्सुकता वश प्रोत्साहन देने के कारण माडो नें उन्हें खरीद तो लिया था पर झोपडे से बाहर उसे कभी पहन न सकी थी। हॉं रात में ढिबरी की मद्धिम रोशनी में उसने उसे कई बार पहना था और उसमें कसे अपने देह को धुंधले पड गए आइने से निहारा था फिर शरम से लाल होते हुए अगले ही पल उसे उतार कर टूटी संदूक में रख दिया था।

क्रमश: शेष अगली पोस्‍ट पर ....

3 टिप्‍पणियां:

  1. इतनी मादकता लिए कथा चलती रही तो उसे पढते हुए मेरे भी 'पर' ना निकल आयें :)

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  2. वाह बढिया कहिनी चलत हे,
    माड़ो के दशा के जीवंत चित्रण करे हस भाई

    बधाई

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  3. ali saa ne kah diya uske baad kahne ke liye bacha hi kya bhaiyaa

    ;)

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