रौशनी में आदिम जिन्दगी भाग 2 (कहानी : संजीव तिवारी) सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

रौशनी में आदिम जिन्दगी भाग 2 (कहानी : संजीव तिवारी)

रौशनी में आदिम जिन्दगी  भाग 1 (कहानी :  संजीव तिवारी) 

माडो इसी टोले में पैदा हुई थी पली बढी, बरसों पहले उसके दादा पास के गांव में रहते थे जो गांव से बाहर पेंदा खेती करने और मछली मारने के उद्देश्य से यहां टोले के पास झोपडी बनाकर रहने लगे थे। धीरे धीरे दस बारह लोग और आ गए थे, झोपडियां तन गई थी। गांव लगभग दस किलोमीटर दूर था व उनके टोले में तीन चार मोटियारिनें ही थी जिसके कारण घोटुल गये बिना ही बारह साल की उम्र में माडो की शादी इसी टोले में रहने वाले एक चेलिक से कर दी गई थी। दो माह तक उसे कली से फूल बनाने की भरसक प्रयत्न करते हुए उस किशोर नें उसे पत्नी होने का गर्व तो दिया पर एक दिन अचानक वह माडो को छोडकर किरूंदूल के खदानों में कमाने खाने चला गया फिर चार साल बाद लौट कर आया तो अपने साथ दूसरी बीबी और एक बच्चा भी साथ लाया। माडो नें फिर भी अपनी सौत और पति के साथ निभना चाहा पर वह नहीं निभ पाई, सौत के तानों और गालियों से तंग आकर वह पुन: अपने मां बाप के झोपडे में आ गई। दिन-दिन भर जंगल में घूम घूम कर चार चिरौंजी हर्रा बहेरा इकट्ठा करती और बीस किलोमीटर पैदल चलकर हाट में जाकर उसे बेंचती। देखते ही देखते गदराए जवान शरीर में गोदना का सौंदर्य उसे आस पास के टोले और गांवों में मशहूर कर दिया था। जवान लडके उसका साथ पाने को तरसने लगे, इसी समय जवान और पति से अलग रह रही माडो के कदम भी कुछ बहक गए। बेटी की लगातार बदनामी के किस्से को सुन सुन कर मां बाप नें अब उसे अपने पास रखने से मना कर दिया। यहां मिट्टी का कोई मोल नहीं था, सारी धरती माडो को पनाह देने आतुर थी। माडो नें पास में ही एक झोपडा बनाया और उसमें रहने लगी। उसने दो बकरियां भी पाल ली और उन्हें चराने जब जंगल जाती तब वहां से जंगल में पाये जाने वाले उत्पादों को इकत्रित भी करने लगी। स्वच्छंदता के कारण उसके झोपडे में एक दो पुरूष गपियाते मंद पीते बैठने लगे। ऐसे में मुफ्त में मंद पिलाने के बजाए माडो नें घरों घर सहज में उपलब्ध मंद को ऐसी व्यावसायिकता दी कि उसके झोपडे में आस पास के टोले के लोगों की रोज भीड लगने लगी। वह जंगल के उत्पादों के बदले मंद बेचने लगी और महीने में एक बार बाजार जाकर उसे बेंचने लगी, आर्थिक समृद्धि से ही उसका जीवन सहज रह सकता है वह जान गई थी।
माडो के मांसल शरीर में गुदनों का अद्भुत सौंदर्य उकेरा गया था, हाथों में हथेलियों के उपरी भाग से लेकर दोनों भुजाओं में फूल पत्तियां गुदे थे। पैरों में पिंडलियों से लेकर जांघों से भी भीतर जाती लम्बी बूटेदार फूल पत्तियों की श्रृंखला जब वह अपनी छोटी सा‍डी को समेटकर उखडू बैठती तो उसके काले किन्तु चमकदार देह में उभर आती थी। माडो अपनी सुन्दरता को समय रहते ही भुना लेना चाहती थी इस कारण उसने पास के गांव के एक कामदार के नाती के आतुर निगाहों का सम्मा‍न किया, कामदार का नाती उसे रख्खी बनाकर अपने गांव ले आया। माडो की झोपडी सूनी हो गई पर वह उस कामदार के नाती के गांव में बने एक झोपडी को आबाद करने लगी। कामदार के नाती के पहले से ही दो-दो बीबीयां थीं माडो तीसरी थी, दो बरस स्वदच्छंद व वाचाल हिरनी माडो नें उस कामदार के नाती को अपने पल्लू में बांधे रखा उसके बाद उस कामदार के नाती से खटपट होने लगी। मंद और मलेरिया नें कामदार के नाती को अंदर से खोखला कर दिया था सिर्फ पौरूषता का ढोंग बाकी था जो ज्यादा दिन तक न चल सका। एक दिन कामदार का नाती किसी बात पर गांव के चौक में माडो को मारने लगा, झूमा-झटकी में माडो के शरीर पर लिपटा इकलौता वस्त्र खुल गया और वह र्निवस्त्र हो गई। सारा गांव देखता रहा, किसी नें भी माडो को सहारा न दिया।
इसके बाद वह बिना कुछ बोले अपने टोले में आ गई। अपने उजडे झोपडी को फिर से तुना-ताना, गोबर से लीपा, मिट्टी-छूही से पोता और कुछ ही दिनों में अपने पुराने ढर्रे में लौट आई। अब उसने अपना जीवन अकेले ही बिताने को ठान लिया, वह अब भी जवान थी और उसकी उन्मुक्त दिनचर्या उसके देह की आवश्यकताओं को पूरी कर रही थी। मंद पीने आये युवा लोगों में से कभी अपनी स्वेच्छा से तो कभी उन युवा लोगों में से किसी आताताई से बेमन हमबिस्तर होना माडो का शगल हो गया था। मन और तन को सदैव अलग रख कर उसने नारी भावनाओं और भविष्य की चिंता को मार दिया था, और जंगल में पेंड-पौधों या फूलों की भांति जिये जा रही थी, जैसे प्रकृति नें उसे ऐसे ही जिन्दगी दी है जिसका उसे सम्मान करना है। उस फूल पर सैकडों भौंरों नें मकरंद बिखेरे पर ईश्वर नें उसे फल बनाने की शक्ति नहीं दी, शायद यही उसके जीवन में जीवटता को जीवंत रख पाई थी। समाज के लोक-लाज के भीतर ही उसकी दबंग छबि सबको भाती थी और कोई भी उस पर उंगली नहीं उठा पाता था।
दस बारह झोपडियों का यह टोला बीहड जंगल के बीच था, लगभग बीस-पच्चीस किलोमीटर की परिधि में कोई सडक या पहुच मार्ग नहीं था। परिवहन का साधन सिर्फ चिनता नदी थी जिसमें छोटी डोंगी या लकडी के लट्ठों से नदी के बहाव के समानांतर चलते हुए सडक तक या फिर गोदावरी तक पंहुचा जा सकता था। दूर-दूर तक धना जंगल फैला हुआ था, बडी-बडी पहाडियां, घुमावदार घाटियां क्षेत्र को दुर्गम बनाती थी।
महीनो में कोई गांव-टोले का आदमी पडरीपानी के सिरमिट पलांट या शहर की हवा खाकर यहां आता तो साथ में विकास के पहचान के रूप में प्लास्टिक के चप्पल जूते, कमीज पैंट या ट्रांजिस्टर लाता। लुंगी-साडी तो पास में भरने वाले हाट-बाजार में मिल जाते थे। हाट-बाजार में सामान तो बहुत कुछ होता था पर लोगों के पास इन्हें खरीदने लायक पैसे नहीं होते थे। यदि पैसे होते भी थे तो वे लालच/आकांक्षा के बावजूद आधुनिक सामानों को खरीदने में शर्म महसूस करते थे। माडो नें बुधवारी हाट से एक बार ब्रा और ब्लाउज खरीदा था, दुकानदार के बार-बार जिद करने एवं साथ में आई महिलाओं के उत्सुकता वश प्रोत्साहन देने के कारण माडो नें उन्हें खरीद तो लिया था पर झोपडे से बाहर उसे कभी पहन न सकी थी। हॉं रात में ढिबरी की मद्धिम रोशनी में उसने उसे कई बार पहना था और उसमें कसे अपने देह को धुंधले पड गए आइने से निहारा था फिर शरम से लाल होते हुए अगले ही पल उसे उतार कर टूटी संदूक में रख दिया था।

क्रमश: शेष अगली पोस्‍ट पर ....

टिप्पणियाँ

  1. इतनी मादकता लिए कथा चलती रही तो उसे पढते हुए मेरे भी 'पर' ना निकल आयें :)

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह बढिया कहिनी चलत हे,
    माड़ो के दशा के जीवंत चित्रण करे हस भाई

    बधाई

    जवाब देंहटाएं
  3. ali saa ne kah diya uske baad kahne ke liye bacha hi kya bhaiyaa

    ;)

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग 1

दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म