बस्तर हालात बत्तर, बदतर और बदतर ! हॉं आप सही पढ़ रहे हैं, भारत के छोटे से राज्य छत्तीसगढ़ के संपूर्ण बस्तर क्षेत्र में अब बारूदों की गंध छाई है। विष्फोट और गोलियों की आवाजें आम है, घोटुल सूना है, धनकुल नि:शव्द है, करमा के मांदर की थापों में कुत्तों के रोने की आवाजें निकलती हैं। अनहोनी का नाद जैसे हर तरफ छाया है, ऐसा तो नहीं था यह .....। इतिहास के परतों को उधेड़ते हुए बस्तर के रूपहले परदे को मेरे सामने लाला जगदलपुरी, हीरालाल शुक्ल, निरंजन महावर, वेरियर एल्विन आदि नें तथ्यात्मक रूप से तो गुलशेर अहमद 'शानी' और मेहरून्निशा परवेज नें कथात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। इसके अतिरिक्त बहुतों के हाट बस्तर पर बहुत कुछ लिखा जो कुछ याद है कुछ याद नहीं है। इंटरनेट के हिन्दी ब्लॉग जगत में व्यथित बस्तर के दर्द को बांटते मेरे साथियों में राजीव रंजन जी का नाम अहम है। राजीव जी नें अपने ब्लॉग सफर राजीव रंजन प्रसाद में नक्सल मसले पर बेबाक लेखन किया है, राजीव जी साहित्य शिल्पी के संपादक हैं और बस्तरिहा हैं। सुदूर दिल्ली (वर्तमान में देहरादून) में भी बैठकर इनका दिल बस्तर के लिए धड़कता है, बस्तर के हर स्पंदन में इनका भावुक मन रोता है। बस्तर में जारी नक्सलवाद के समर्थकों के खिलाफ जब राजीव जी हजार पच्यासीवें का बाप लिखते है तब उसमें इनका मुखर विरोध और बस्तर के प्रति इनका स्नेह शव्दों में प्रदर्शित होता है। राजीव जी “बस्तर का हूँ इस लिये चुप रहूँ” जैसे आलेख श्रंखला में इन्होंनें नक्सलवाद और महाराज प्रबीर चंद भंजदेव की हत्या: थोडा आज, कुछ इतिहास व नक्सलवादी या उनके समर्थक - सुकारू के हत्यारे कौन? एवं बस्तर का हूँ इस लिये चुप रहूँ जैसे संस्मरण के साथ ही बस्तर भारत का हिस्सा नहीं है? जैसा संवेदनशील आलेख लिखते है। कविताओं के अतिरिक्त बस्तर के आदिवासी महिलाओं के शोषण की दास्तां पर उनकी भावनाप्रद कहानी ढीली गाँठ ब्लॉग जगत में काफी चर्चित रही है। इन्होंनें बस्तर में रूदाली रोते मानवाधिकार वादियों का भी स्पष्ट रूप से विरोध किया है और हिन्दी ब्लॉगजगत में जहां भी बस्तर नक्सल मसले पर पोस्ट प्रकाशित हुई है, वहां नक्सलियों व नक्सल समर्थित मानवाधिकारवादियों के समर्थन पर अपना दमदार विरोध प्रकट किया है।
राजीव रंजन प्रसाद अपने परिचय में लिखते हैं कि इनको कविता विरासत में मिली है. इनके शैशवकाल में ही पिता का देहांत हो गया था. उनका मानना है कि पिता की लेखनी ही उनमें जीवंत है। इनका जन्म बिहार के सुलतानगंज में २७.०५.१९७२ में हुआ, किन्तु बचपन व प्रारंभिक शिक्षा छत्तीसगढ राज्य के अति पिछडे जिले बस्तर (बचेली-दंतेवाडा) में हुई. विद्यालय के दिनों में ही उन्होनें एक अनियतकालीन-अव्यावसायिक पत्रिका "प्रतिध्वनि" निकाली....ईप्टा से जुड कर उनकी नाटक के क्षेत्र में रुचि बढी और नाटक लेखन व निर्देशन उनके स्नातक काल से ही अभिरुचि व जीवन का हिस्सा बने. आकाशवाणी जगदलपुर से नियमित उनकी कवितायें प्रसारित होती रही थी तथा वे समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकशित भी हुए किन्तु अपनी रचनाओं को संकलित कर प्रकाशित करनें का प्रयास उन्होनें कभी नहीं किया. राजीव जी नें स्नात्कोत्तर की परीक्षा भोपाल से उत्तीर्ण की और उन दिनों वे भोपाल शहर की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में भी सक्रिय हिस्सा लेते रहे. इन दिनों वे एक प्रमुख सरकारी उपक्रम "राष्ट्रीय जलविद्युत निगम" में सहा. प्रबंधक (पर्यावरण)के पद पर कार्यरत हैं. अभी उनका स्थानांतरण देहरादून हो गया है। राजीव जी लम्बे समय से अपने इस उपन्यास को पूरा करने में जुटे हैं, उनके पास साहित्य शिल्पी के निरंतर प्रकाशन का बहुत बड़ा दायित्व है। नौकरी और परिवार के बीच सामन्जस्य बिठाते हुए इन्होंनें बहुत मेहनत से बस्तर पर आधारित अपने पहले उपन्यास को पूरा किया है, यह उपन्यास शीघ्र ही आने वाली है।
बस्तर के बारूदी हालात पर अपनी एक कविता में वे लिखते हैं - देखो बिखरी है भूख वहाँ, परती हैं खेत बारूद भरे/ हर लाश है मेरी, कत्ल हुई / मेरे ही नयना झरे झरे। इन्हें मलाल है कि रोजी रोटी नें इन्हें बस्तर से दूर कर दिया है किन्तु वे निरंतर स्वयं को बस्तर से अलग नहीं कर पाते, वे लिखते हैं - मैं अब हूँ दूर जंगल से, बहुत वह दौर भी बदला / मेरे साथी वो दंडक वन के, कुछ टीचर तो कुछ बाबू / मुझे मिलते हैं, जब जाता हूँ, बेहद गर्मजोशी से.. / वो यादें याद आती हैं, वो बैठक फिर सताती है / मगर जंगल न जानें की हिदायत दे दी जाती है / यहाँ अब शेर भालू कम हैं, बताया मुझको जाता है / कि भीतर हैं तमंचे, गोलियाँ, बम हैं, डराया मुझको जाता है / तुम्हारा दोस्त “सुकारू” पुलिस में हो गया था / मगर अब याद ज़िन्दा है...
प्रस्तुत है राजीव जी के उपन्यास का एक अंश
उपन्यास अंश - लौहंडीगुडा गोलीकांड पर आधारित
“हमारी आवाज कैसे नहीं सुनी जायेगी, ये अंग्रेज का राज नहीं है” भीड में से एक उत्तेजित ग्रामीण की आवाज थी। थाने पर लगातार भीड बढती जा रही थी और एसा प्रतीत होता था मानों गामीणों नें चारो ओर से थाने को घेर रखा हो। भीड से सौ मीटर की दूरी पर ही पुलिस जीप खडी थी जिसपर लाउडस्पीकर लगाया गया था। रह रह कर घोषणा की जा रही थी “सरकार द्वारा विजय चंद्र भंजदेव को बस्तर का महाराजा घोषित किया गया है, अब वे ही आप सब के महाराजा है”
“हमारे महाराजा प्रबीरचंद ही हमारे सरकार हैं हम और कोई सरकार नहीं जानते” एक युवक लगभग चीखते हुए बोला।
“महाराज प्रबीर चंद को आज यहाँ लाया जाना था? कहाँ हैं हमारे महाराज?”
लाउडस्पीकर से फिर घोषणा हुई “ पीछे हट जायें। भीड इक्ट्ठी करना गैर कानूनी है। सरकार द्वारा विजय चंद्र भंजदेव को बस्तर का महाराजा घोषित किया गया है, अब वे ही आप सब के महाराजा है”
“हमारा राजा सिर्फ हम तय कर सकते हैं”। भीड में से एक आवाज आयी। भीड लगातार बढती जा रही थी।
“राव साहब नें मुझसे कहा था कि आज महाराजा साहब को लौहण्डीगुडा लाया जायेगा। हम कुछ नहीं चाहते अपने महाराज का हाल जानना चाहते हैं” यह आवाज अजाम्बर की थी। लगभग बीस हजार आदिवासियों के हुजूम को चीरता हुआ वह एक नेता की तरह आगे आया।
“पीछे हटें, थाने की ओर भीड न लगाये। प्रबीर चंद्र भंजदेव इस समय नरसिंहपुर में हैं जो यहाँ से 800 मील दूर हैं उन्हे तत्काल यहाँ नहीं लाया जा सकता।“
”क्यों नहीं लाया जा सकता? बात हुई है हमसे। हमसे कलेक्टर साब नें खुद कहा था कि महाराज साब यहाँ मिलेंगे। विजय चंद्र को हम राजा नहीं मानते” अजाम्बर को अपनी बात करने के लिये लगभग चीखना पड रहा था। साथ ही साथ उसके दिमाग में किसी अनहोनी की आशंका भी घिरने लगी थी। भीड के लिये यहाँ कई समस्याये थीं। हिन्दी आधी अधूरी समझी जा रही थी और उसके अपने अपने मायने निकाल कर लोग उद्वेलित हो रहे थे। आदिवासियों को चीखते, सिर पटकते यहाँ तक कि दहाड मार कर रोते भी देखा जा सकता था। अपने शासक को अधिकार दिलाने की यह कोशिश भर नहीं थी, उनके प्रति अपर श्रद्धा का विशाल प्रदर्शन था।
भीड का अपना व्यवहार शास्त्र होता है। यह भीड आंदिलित नहीं उद्वेलित थी। इस भीड की कहीं आग लगाने की या तोड फोड करने की मंशा नहीं थी। यह भीड केवल अपने महाराजा प्रबीर चंद भंजदेव के लिये इकट्ठी हुई थी विशेष कर उनका कुशलक्षेम जानने। आदिमों की इस भीड के साथ उनकी परंपरा भी थी, बाजार का दिन होने के कारण युवक युवतियों का सामान्य दिन से अधिक साज सज्जा के साथ पहुँचना उतना ही स्वाभाविक था जितना टंगिया, फरसा, तीर-कमान और लाठी का इस हुजूम से साथ होना।
इस भीड की तकलीफ़ और उत्तेजना का बडा कारण विजयचंद भंजदेव का लौहण्डीगुडा थाने में उपस्थित होना भी था।
“सरकारी राजा हमें मान्य नहीं हैं” बार बार भीड से उठती इस आवाज से विजयचंद्र अपना संयम खो बैठते। आजाद भारत के इस अधिकार विहीन, केवल नाम के राजा की महत्वाकांक्षा ही थी कि वह अपने खिलाफ़ इस जनाक्रोश को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। भीड जिसे शांत कराने की चेष्टा वे करने में लगे थे वह उन्हे देखते ही उनकी ओर मुखातिब हो कर प्रतिवाद में उतारू हो जाती। इंस्पेक्टर जनरल पुलिस, पुलिस अधीक्षक, कलेक्टर, सरकार द्वारा नव-नियुक्त राजा विजयचंद्र भंजदेव के अतिरिक्त अनेकों उच्चाधिकारी लौहण्डीगुडा थाने के पास मौजूद थे। इन सभी के भीतर की बेचैनी चेहरे से ही पढी जा सकती थी विशेष कर विजय चंद भंजदेव रह रह कर टहलने लगते। आजाद भारत सरकार के द्वारा प्रदत्त इस अधिकारविहीन पद की प्राप्ति के साथ ही विजयचंद “महाराजा” हो जाने वाली प्रवृत्ति से ग्रसित हो उठे थे। उन्हे यकीन था कि बस्तर की भोली-भाली आवाम उन्हें अपने हृदय में मान्यता देगी।
बस्तर की रिआया भोली भाली अवश्य है किंतु उसे नादान समझने की भूल प्रशासन से हो गयी थी। जनता आजाद भारत में भी अब तक रिआया ही थी और उनके हृदय साम्राज्य के स्वामि थे प्रबीरचंद भंजदेव।
“साब! अंग्रेज लोग भी आप से बेहतर हमारी बात समझते थे। हमारी इच्छा के खिलाफ हमारा राजा कैसे हो सकता है? इस बार अजाम्बर सीधे कलेक्टर से मुखातिब था। इस प्रश्न के जवाब में खामोशी ही रही लेकिन विजयचंद्र का तमतमाया हुआ चेहरा देखा जा सकता था।
“आप लोग शांति बना कर रखें। आपके महाराजा विजचंद्र आप से बात करेंगे” एक उच्चाधिकारी संवाद बनाने की स्थिति देख आगे आये।
“विजयचंद्र हमारा राजा नहीं है” एक पैनी सी आवाज आयी और फिर शोर उमडने लगा। कई आदिवासी पीछे मुड कर अपने ही साथियों को थाने की ओर बढने से रोकने में भी लगे थे।
“आप हमारी एक उंगली तोड कर उसकी जगह पर दूसरी उंगली कैसे लगा सकते हो? महाराज के रहते विजय राजा नहीं बन सकते” अजाम्बर नें थोडी तल्खी दिखायी।
“क्या चाहते हो आप लोग” विजयचंद्र लगभग आक्रामक मुद्रा में आगे आया। इस आक्रामकता का कोई प्रभाव उस भीड पर नहीं था। बल्कि विजय चंद्र का ही कोई प्रभाव बस्तर की रिआया पर नहीं था। वह जानती थी, तो केवल अपने महाराजा प्रबीरचंद्र को जो इस समय नरसिंहपुर जेल में कैद कर लिये गये थे। माहौल उग्र तो नहीं कहा जा सकता था किंतु पूरी तरह शांत भी नहीं। रह रह कर गूंजता स्वर “दंतेश्वरी माई की जय” दहशत भरता था।
यह सब कुछ अचानक आरंभ नहीं हुआ था। प्रवीरचंद की गिरफ्तारी के साथ ही नागरिक स्वत: प्रेरित स्थान स्थान पर एकत्रित होने लगे थे। सिरिस गुडा की देवगुडी में तथा बड़ांजी में बडी बडी सभायें हुई थी जिसमें हजारों आदिवासियों ने हिस्सा लिया था। कलेक्टर आर. एस. राव के हवाले से खबर थी कि महाराज प्रबीरचंद 31 मार्च को लौहण्डीगुडा लाये जायेंगे। बडांजी की सभा को संबोधित करते हुए अजाम्बर नें बेनियापाल मैदान में सब को एकत्रित होने की गुजारिश की थी। बस्तर के आदिवासी समुदाय से अधिक जागरुक कौम कम ही दृष्टिगोचर होगी; यह आह्वाहन फैलता गया जैसे जंगल की आग फैल जाती है। और आज यह दावानल बन कर प्रशासन को चुनौती देने तत्पर थी कि हमारे कौन तुम? जंगल हमारा, जमीन हमारी, पानी हमारा, पंछी हमारे और राजा भी हमारा ही होगा। अगर आजादी है तो हम भी आजाद हैं। अगर लोकतंत्र है तो शासक भी हमारा ही हो फिर किस अधिकार से विजयचंद्र?
चित्रकोट की ओर आने वाली सडक एक दिन पहले ही किसी गडबडी या विरोध की आशंका से बंद कर दी गयी थी। प्रसाशन नें भीड न जुटने देने के यथासंभव प्रयत्न किये थे लेकिन कारवाँ कब रुका है, धुन को कौन हरा सका है? जगह जगह घोषणाये भी होती रहीं लेकिन शोर में या तो उन्हे सुनना असंभव था या हिन्दी अधिकांश के लिये समझना मुश्किल। विभिन्न दिशाओं से उमडता जन सैलान और बहुत से समूहों में जोश भरती मांदर की थाप सुबह से ही बेनियापाल के मैदान में जुटने लगी थी। बाजार भी लगा और सल्फी भी साधी गयी लेकिन हर पल प्रतीक्षा कि महाराज लाये जा रहे होंगे। महाराज की तबीयत ठीक नहीं है। उन्हे यातनायें दी जा रही हैं। जितने मुँह उतनी ही बातें।
एसा भी नहीं था कि विजयचंद्र को समर्थन नहीं मिला। प्रशासन तो उनके साथ था ही, कुछ जगहों पर कोशिश भी हुई कि माहौल सरकारी राजा के पक्ष में बनाया जाये। “सरकारी राजा” यह संबोधन आम हो गया था और वितृष्णा से आदिवासियों द्वारा लिया जाता रहा। विजयचंद्र के पक्ष में जो इक्कादुक्का सभायें हुई भी लेकिन विरोध वहाँ भी रहा। आदिवासियों नें एसे आयोजनों के खिलाफ न केवल मोर्चा खोला बल्कि आयोजकों को दंडित करने को भी तत्पर हो गये थे। जगदलपुर के पास ही गाँव नारायण पाल में एसी ही एक सभा सूर्यपाल तिवारी नें भी आयोजित की थी। सिर मुडाते ही ओले पड गये। यह बस्तर के महाराज के पतन का समारोह बोहरानी कहा जा रहा था। हुजूम उमड पडा, पंडाल उखाड फेंके गये और आदिम युवक सूर्यपाल तिवारी को घर घर तलाश कर रहे थे। महाराज प्रवीरचंद का पतन एक कार्यक्रम से और दो चार घोषणाओं से हो पाता तो फिर बात क्या थी? सूर्यपाल तिवारी का ही पतन हो गया। सर पर पाँव रख कर वे कहाँ नदारद हुए कोई नहीं जान सका।
राजा का पद ही समाप्त कर दिया जाता तो यहाँ एक सोच हो सकती थी लेकिन नये राष्ट्र में नयी नीति नें बहुत जल्द राज करना सीख लिया था। अकर्मण्य और अयोग्य व्यक्ति बस्तर में तभी वास्तव में सत्तासीन हो सकते हैं जब योग्य विकल्प ही न रहे अर्थात प्रबीर को कुचल दिया जाना आवश्यक था। प्रबीर एक व्यक्ति नहीं एक सोच थे और उन्हे कुचलने के लिये निश्चित ही बहुत सी राजनीतिक सोच नें गटबंधन कर लिया था। कितनी जल्द अंग्रेजों की राजनीति से हिन्दोस्तान नें सबक ले लिया यह देखने लायक था। आजाद भारत की नियति को फिर भेडियों और गिद्धों नें लिखना आरंभ कर दिया, क्या इससे बडा दुर्भाग्य हो सकता था? विजयचंद को सरकार द्वारा राजा बनाये जाने की जो घोषणा की गयी थी वह साजिश तो थी लेकिन आजादी और स्वच्छंदता के बीच की बारीख रेखा जिसे अनुभवहीन राजनीति नहीं समझ सकी उसे भावावेश भरी जनता क्या समझती? यह भी एक सत्यता थी कि बस्तर की राजनीति न भोपाल से संभव थी न दिल्ली से। आजादी से पहले अंग्रेजों का शासन अवश्य रहा लेकिन क्षेत्रीय कानून और शासन जगदलपुर में ही बने और यहीं से संचालित होते रहे। कैसा दुर्भाग्य कि बस्तर के आदिम अब केवल समस्या की तरह देखे जा रहे थे जब कि समाधान यही था कि राजनीति की नयी मुख्यधारा यह समझती कि अनेकों संस्कृतियों से समृद्ध इस देश की जड को पानी चाहिये न कि पत्तियों को दवा का छिडकाव। बस्तर अपनी आवाज निरंतर खोता जा रहा था और शायद यही कुंठा आदिवासियों को अपनी आवाज प्रतीत होते प्रवीरचंद भंजदेव के पक्ष में लामबंद करती थी। 11 फरवरी 1961 को प्रबीर गिरफ्तार हुए थे और 12 फरवरी 1961 को उन्हे महाराजा की पदवी से अपदस्थ कर दिया गया था। प्रजातांत्रिक देश में राजा भी क्या राजा और उसपर आश्चर्यजनक यह कि सरकार ही राजा घोषित भी करे, तो कैसी लोक शाही थी यह? चुनाव नहीं हुए थे, लोकचर्चा नहीं की गयी थी, आदिवासी नेताओं को विश्वास में नहीं लिया गया था और केवल एक ‘सोच’ के दमन के लिये तुगलकी फरमान यह सोचने को अवश्य मजबूर करता था कि सही मायनों में अभी आजादी आयी नहीं है। अब सत्ता पर काले अंग्रेज काबिज हो गये हैं शेष क्या बदला है?
मानने वालों की कमी नहीं कि सत्ता बंदूख की गोली से निकलती है। जिस तेजी से प्रशासन का विरोध आरंभ हुआ उसी तीव्रता से दमन भी। तोकापाल में एक सभा चल रही थी। तीन चार सौ आदिवासियों की बैठक। चैतू बहुत जोश में भाषण दे रहा था।
“हमारे महाराज के खिलाफ साजिश हो रही है। हम इसे बर्दाश्त नहीं कर सकते।“
पेडों की छाँव में तितर-बितर बैठे आदिवासी चिंतित नजर आ रहे थे। महाराजा के लिये कुछ न कर पाने की पीडा चैतू के भाषण में भी थी और उसे सुन रही भीड के चेहरे पर भी। अचानक ही पुलिस वैन मैदान से लगे मुख्य सडक पर रुकी। दन-दन कर सिपाही उतरने लगे और भीड पर टूट पडे जैसे उन्हे पता हो करना क्या है, किसी आदेश की आवश्यकता ही नहीं थी। चैतू के बाल पकड कर खींचता हुआ एक सिपाही वैन तक ले आया। अंदर बैठे अधिकारी से उसे मौन सहमति मिली हुई थी। केवल लट्ठ ही नहीं लात घूंसे और थप्पड भी। चैतू का कोई प्रतिरोध नहीं था वह मार खाता रहा, दर्द से बिलबिलाता रहा।...। अब चैतू सुन नहीं पाता।
बहरा तो प्रशासन भी हो गया था। उसका दमन जारी था, लेकिन इसके पीछे जुनूनी होती एकता की आहट उसे सुनायी नहीं पडी और स्थिति विस्फोटक हो गयी। चैतुओं की कोई कमी नहीं थी अपने महाराज के लिये जान देने को तत्पर हजारो मुरिया-माडिया इशारे भर में तैयार थे। पुलिसिया सितम जोरों पर था और इससे इंकलाब ही परवान चढने लगा। लॉरियों में भर भर आदिवासी थाने लाये जाते। जानवरों की तरह उन्हे पीटा जाता। कमोवेश पूरे बस्तर में एसा ही माहौल हो गया था। इसी माहौल से स्वप्रेरित हुआ हुजूम जिसनें लौहण्डीगुडा थाने को घेर रखा था बिगुल था कि अब खुला आंदोलन होगा। आर या पार।
धैर्य जवाब देने लगा था। विजयचंद्र का भी और उपस्थित प्रसाशनिक अधिकारियों का भी। सोचो तो लगता है जनरल डायर किस मानसिकता का रहा होगा जिसकी निहत्थों पर गोलियाँ चलवाते हुए आवाज न काँपी। यह मानसिकता क्या सत्ता के नशे से पनपती है? इस मानसिकता के पीछे क्या स्वयं को लोगों का भाग्य-विधाता समझने की खुशफ़हमी होती है? लेकिन यह मानसिकता बारह साल के हो चुके लोकतंत्र में भी? आश्चर्य तो यही था। प्रश्न तो उठता ही है कि कौन था इन आदिमों का माई-बाप - क्या प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू? क्या मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू? या कलेक्टर या फिर कमिश्नर या कि सरकार द्वारा घोषित महाराजा ऑफ बस्तर विजयचंद्र भंजदेव?
लाउडस्पीकर की अब उपयोगिता नहीं रह गयी थी। बीस हजार से अधिक की भीड को एक लाउडस्पीकर से संबोधित नहीं किया जा सकता था वह भी तब जब भीड में उत्तेजना भी हो; कई कई लोग एक साथ बोल रहे हों लेकिन सुनने को कोई तैयार न हो। कैसी अनूठी थी यह भीड। कई युवक तीर-कमान लादे थे तो कई फरसे और कुल्हाडी के साथ थे, पर ये सारे अस्त्र-शस्त्र केवल आभूषण भर ही रहे। यह भीड यदि असंयमित हो जाती तो मुट्ठी भर सिपाही उनका मुकाबला नहीं कर पाते। लेकिन “हमारे महाराज को उपस्थित करो” की एक सूत्रीय माँग के साथ खडी यह भीड किसी भी समय अराजक नहीं हुई थी। यहाँ तक कि जब जब उत्तेजना की लहर भी फैली तो आदिवासी नेताओं ने खुद भीड को पीछे धकेलने का काम भी किया। इन्हीं आदिवासी नेताओं में जोगा भी थे। पारापुर गाँव से आये जोगा को सामाजिक कार्यकर्ता कहना अधिक उचित होगा। जोगा जागरुक आदिवासी थे और अपनी राजनीतिक चेतना के लिये जाने भी जाते थे। भीड को नियंत्रित कर आदिवासी नेंता दल बना कर प्रशासनिक प्रतिनिधियों से मिलने अग्रसर हुए लेकिन तब तक एक भयंकर निर्णय ले लिया गया था। जोगा नें देखा कि अजाम्बर का हाँथ पकड कर उसे थाने के भीतर ले जाया जा रहा है, उसने महसूस किया कि सिपाही भीड को सुरक्षित दूरी से घेरने का यत्न कर रहे हैं, उसने पाया कि माहौल में उत्साह की फिर भी कोई कमी नहीं है, कहीं कोई डर नहीं है। जोगा को लग गया था कि जल्द ही भीड पर लाठी चलायी जायेगी और उन्हे तितर-बितर करने का प्रयास किया जायेगा। वह आगे आया और विजयचंद्र के सम्मुख आ खडा हुआ। जोगा अपनी बात कह देना चाहता था।
“महाराज के साथ तुम लोग क्या कर रहे हो?” जोगा नें यह प्रश्न विजयचंद्र से आँख मिला कर किया।
यह जोगा का अंतिम-वाक्य था। एक गोली उसका सिर खोलते हुए गुजर गयी। पीठ के बल जोगा जमीन पर गिरा, दो-एक बार जमीन पर पैर रगडे फिर शांत हो गया। एक पल की शांति के बाद हाहाकार मच गया। मोर्चे पर तैनात सिपाहियों नें अचानक गोली चलाना आरंभ कर दिया था। यह आजाद भारत में विरोध का बदला था। यह जनतंत्र की तानाशाही थी। भगदड मच गयी थी। औरते और बच्चे कुचले गये, बुजुर्ग चोटिल हो रहे थे, किसे परवाह? कुम्हली गाँव का भगतू कश्यप एकदम से भागा नहीं। शायद वह स्थिति का पूरा आँकलन नहीं कर सका था। जब तक समझता एक गोली उसके सीने के पार हो गयी थी।
बीस हजार की भीड को छटने में भी समय लगता, अनायास हुए इस हमले से अफरातफरी ही होनी थी और इसलिये चोटिल और घायलों की तादाद का अनुमान लगाना भी कठिन ही होगा। आंजर गाँव से आया आयतु अचानक हुई इस अराजकता में भी बिना संयम खोये मानों एक कोशिश कर लेना चाहता था। उसने गोली चलाते एक सिपाही की ओर हाँथ उठा कर रुकने का अनुरोध किया और रायफल उसकी ओर घूम गयी। निशाना लगा कर उसके गुप्तांग पर गोली मारी गयी थी।
गोली लगातार चल रही थी। अगर भीड को हटाना ही मक्सद था तो हवाई फायर या पैरों पर गोली मारने से भी स्थिति पर नियंत्रण पाया जा सकता था लेकिन गोलियाँ बरसती रहीं, लाशें बिछती रहीं। सोनधर, टांगरू, हडमा, अंतू, ठुरलू, रयतु, सुकदेव; हर मौत के साथ लौहण्डीगुडा का बेनियापाल मैदान खाली होता गया। घायलों की कराहों और लाशों को स्तब्ध नजरों से निहारता प्रसाशन अब अपनी करनी के निशान मिटाने में जुट गया था। “विजय चंद्र भंजदेव महाराजा ऑफ बस्तर” खामोशी खिलखिला कर हँस रही थी; आओ महाराज शासन करो यह लाशों की बस्ती तुम्हारी ही रियासत है।
निस्तब्ध हूँ, इतना कुछ पढ़कर, ऐसा लगा जैसे जीवंत मैं खुद इस मौके पर वहां मौजूद हूँ. राजीव जी के उपन्यास को पढ़ने का मौका तो बाद में मिलेगा लेकिन आपने जो अंश पढवाए हैं उससे यही प्रतीत हुआ की जानो उस वक्त को पूरा जीवित कर दिया हो शब्दों में बाँध कर,
जवाब देंहटाएंबाकी राजीव से लड़ाई करना है मुझे अब तो , बताये ही नहीं कभी की उपन्यास लिख रहे हैं...... आओ ठाकुर अबकी बार रायपुर आओ, देख लेंगे, निपट लेंगे ;)
sanjeet ji ki tippani se sahamat .. Rajiv ji ki upnyas ka ansha padhane se ji isaki jhalak mil jati hai ..puri film ki tarah chitra aankho ke saamane ubhar aata hai ..
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लगा पढकर
जवाब देंहटाएंसंजीव भाई आप उपन्यास के अंश के बजाये उसकी समीक्षा करते या संक्षेपिका देते तो शायद कोई धारणा बना पाते !
जवाब देंहटाएंअचेछे लेखन से परिचय कराने का आभार। बड़ा सुन्दर चित्र खींचा है परिस्थितियों का।
जवाब देंहटाएंबधाई आपको और आभार भी! नये नये (हमारे लिये) लेखकों का परिचय और उनकी अच्छाइयों का उनके लेख द्वारा प्रकटीकरण बहुत ही बढ़िया।
जवाब देंहटाएंराजीव रंजन प्रसाद व्यक्तित्व और कृतित्व का परिचय अच्छा लगा -अली सा ठीक कह रहे हैं -एक संक्षिप्ति ही होनी चाहिए थी !
जवाब देंहटाएंmai bahut dino se janna chahta tha bastar ki us event ko
जवाब देंहटाएंdil dahla dene wala hai