ओम प्रकाश जिंदल : उर्जा सर्जक लौह शिल्‍पी


किसान से सफल उद्योगपति, सुप्रसिद्ध समाजसेवी व कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में स्व. ओम प्रकाश जिंदल (7 अगस्त 1930-31 मार्च 2005) ने जीवन की प्रत्येक कसौटी पर खरा उतर कर कमर्योगी-सा जीवन बिताया व कठिन परिश्रम, निष्ठा और सच्चाई से प्रत्येक कार्य को उत्कृष्ठा से कर अपने स्वप्नों को साकार कर दिखाया...। उनका जीवन समाज का प्रेरणा स्त्रोत बन, आने वाली पीढ़ियों का सदैव मार्गदर्शन करता रहेगा।
जिंदल समूह का कारोबार सम्पूर्ण दुनिया में फैला हुआ है। स्व. जिंदल ने छत्‍तीसगढ़ में रायगढ़ संयंत्र (जिंदल स्टील एण्ड पावर लिमिटेड) की स्थापना वर्ष 1990 में की थी, जो अब उनके सबसे छोटे सुपुत्र श्री नवीन जिंदल के नेतृत्व में है तथा यह कंपनी अंतरराष्‍ट्रीय क्षितिज में स्टील, ऊर्जा, उत्खनन, गैस, क्षेत्र में नई ऊंचाइयों को स्पर्श कर रही है। कहते हैं, कुछ लोग जन्म से ही महान पैदा होते हैं, और कुछ लोग अपनी मेहनत के बलबूते पर अपने कर्म की बदौलत महान बनते हैं। ऐसे लोग भावी पीढ़ी के लिए छोड़ जाते हैं, एक आदर्श की छाप जिसे अपनाकर दूसरे लोग भी अपने जीवन में असीम सफलता हासिल करते हैं। स्व. ओम प्रकार्श जिंदल, जिन्हें लोग प्यार से बाबूजी पुकारते थे।




मैन ऑफ स्टील के अलंकरण से सुशोभित स्व. ओम प्रकाश जिंदल (O P Jindal) तकनीकी एवं इंजीनियरिंग कार्यों में अत्यधिक रूचि रखते थे। उन्होंने तकनीकी एवं इंजीनियरिंग की कोई विधिवत शिक्षा तो नहीं ली थी परंतु इन विषयों में गहरा लगाव और गहन अभिरूचि ने उन्हें उन्नति के शिखर पर पहुंचा दिया। वह ऐसे व्यक्ति थे, जो सर्वप्रथम किसान थे, फिर साधारण व्यापारी, उसके बाद बाल्टी निर्माता और अंत में अंतरराष्ट्रीय ख्याति के उद्योगपति एवं हरियाणा के लोकप्रिय नेता। उद्योग, राजनीति और जनकल्याण के क्षेत्रों में अपनी अलग पहचान बनाई, औद्योगिक विकास और उद्यमशीलता को नई परिभाषा दी। उनका जीवन सफर गांव की जमीन से शुरू होकर स्टील उद्योग के नए आसमान तक जा पहुंचा। हर क्षेत्र में आजीवन उन्होंने शून्य से शिखर तक का सफर तक किया। ओम प्रकाश जी की सफलता का उज्ज्वल पक्ष यह था कि वह पैदायशी इंजीनियर थे। उनमें इंजीनियरिंग की जन्मजात प्रतिभा थी, जो असाधारण और अद्भूत थी। कुछ व्यक्ति जो अपनी प्रतिभा का रचनात्मक कार्यों में भरपूर उपयोग करते हैं, उनमें स्व. जिंदल प्रमुख रूप से गिने जाते हैं। वह ऐसे व्यक्ति थे, जो हर कठिन परिस्थिति को भी अपने लिए अनुकूल बनाया था। इस्पात जगत के पुरोधा व स्वच्छ राजनीति के शिखर पुरुष को 31 मार्च पांचवी पुण्यतिथि के अवसर पर शत शत नमन।



मेरी अहिंसा का अर्थ कायरता नहीं : प्रेम साइमन का विरोध

विश्व रंगमंच दिवस पर नेहरू सांस्कृतिक सदन सेक्टर-१ में शनिवार को तीन नाटकों का मंचन किया गया। भिलाई के रंग कर्मियों और क्रीड़ा एवं सांस्कृतिक समूह बीएसपी के सहयोग से आयोजित इस कार्यक्रम में नाटकों का मंचन कर रंगकर्मियों ने दर्शकों को संदेश दिया। इस मौके पर इप्टा द्वारा रमाशंकर तिवारी, श्रीमती संतोष झांझी और चंद्रशेखर उप्पलवार का सम्मान किया गया।
कार्यक्रम में प्रोफेसर डीएन शर्मा और वरिष्ठ साहित्यकार रवि श्रीवास्तव विशेष रूप से उपस्थित थे। इस मौके पर बालरंग द्वारा अदालत, आह्वान संस्था द्वारा विरोध और वयम द्वारा नृत्य नाटिका की प्रस्तुति दी गई। छत्तीसगढ़ के प्रख्यात नाटककार स्व. प्रेम साइमन द्वारा लिखे गए नाटक "विरोध" की प्रभावी मंचन किया गया। इसमें खोखले विरोध, दिशाहीन विरोधियों और उनका एक सूत्रीय मुद्दा सत्ता हथियाना दिखाया गया। ये लोग बिना किसी मुद्दे के अपनी लड़ाई लड़ते हैं और छोटी से छोटी हड्डी देखकर तलवे चाटने लगते हैं। सर्वहारा को अंधे भिखारी के रूप में दिखाया गया जो पहले तो विरोधियों का साथ देता है लेकिन उनकी असलियत देख उससे अलग हो जाता है। सत्ता, अंधे के विरोध को विद्रोह के स्वर में बदलने से पहले ही दबा देना चाहती है। नाटक के अंत में इस पूरे घटनाक्रम को देख महात्मा गांधी की प्रतिमा सजीव हो उठती है और अपने पूरे दर्शन शास्त्र को बदलते हुए शोषित वर्ग को ही अपनी लाठी पकड़ाते हुए कहते हैं "मेरी अहिंसा का अर्थ कायरता नहीं हैं" इसी सूत्र वाक्य के साथ नाटक का समापन होता है।
"विरोध" के नाट्य निदेशक भिलाई के रंगकर्मी यश ओबेराय थे, प्रदीप शर्मा ने अंधे भिखारी, अनिरुद्ध श्रीवास्तव ने मोची तथा वाजिद अली, विजय शर्मा, टी सुरेंद्र ने विरोधियों, सुरेश गोंडाले ने हवलदार, श्रीमती शरदिनी नायडू ने नेता की भूमिका निभाई, गांधी हरजिंदर मोटिया बने थे।
नाटकों के मंचन के पूर्व विश्व रंगमंच दिवस पर आयोजित एक गोष्‍ठी में इप्टा के मणिमय मुखर्जी ने विश्व रंगमंच दिवस पर संदेश का पठन किया। यह संदेश इंटरनेशनल थियेटर इंस्टीट्यूट द्वारा प्रेषित किया गया था जो कि यूनेस्को की एक इकाई है। ब्रिटिश अभिनेत्री एम जूडी डैंच द्वारा अंग्रेजी में भेजे संदेश का श्री मुखर्जी ने हिंदी में अनुवाद कर वाचन किया। उन्होंने कहा कि विश्व रंगमंच दिवस नाटक के अनगिनत रूपों को मनाने का मौका है। रंग मंच मनोरंजन व प्रेरणा स्रोत है और उसमें सारी दुनिया की विविध संस्कृतियों तथा जनगणों को एकताबद्ध करने की क्षमता है। लेकिन रंगमंच इसके अलावा भी बहुत कुछ है। नाटक सामूहिक कर्म से जन्म लेता है।
इस अवसर पर वरिष्ठ रंगकर्मी यश ओबेराय ने कहा कि भिलाई में रंगमंच पर बच्चों के लिए ज्यादा से ज्यादा काम होना चाहिए। थिएटर वर्कशॉप करने से रंगमंच के प्रति लोगों का रूझान बढ़ेगा। श्री ओबेराय का कहना था कि रंगमंच का कोई विकल्प नहीं है। रंगमंच जो संतुष्टि दर्शक व कलाकार को देता है उसकी कोई दूसरी विधा नहीं है। रंगमंच समाज का आइना है और यह विधा कभी समाप्त नहीं हो सकती। छत्तीसगढ़ में ढाई हजार साल पुरानी नाट्य शाला मौजूद है, पुराना इतिहास है। रंगमंच के क्षेत्र में भिलाई का अहम योगदान है।
विश्व रंगमंच दिवस पर नेहरू सांस्कृतिक सदन सेक्टर-१ में आयोजित इस संपूर्ण कार्यक्रमों में हमारे ब्‍लागर साथी बालकृष्‍ण अय्यर जी भी उपस्थित थे एवं उन्‍होंनें भी रंगमंच पर अपने विचार रखे.

मैं हमेशा की तरह नेहरू सांस्कृतिक सदन सेक्टर-१ थियेटर के अंतिम पंक्तियों के कुर्सी में बैठे इस कार्यक्रम का लुफ्त उठाता रहा.
'विरोध' के अंतिम दृश्‍यों के पूर्व ही घर से श्रीमतीजी का फोन आया. कि पहले घर बाद में समाज और फिर देश की चिंता कीजिए. सुबह 9 से रात के 9 बजे की ड्यूटी के बीच भी 'नौटंकी' और साहित्‍य के लिए समय चुरा लेते हो पर घर के लिये समय नहीं होता. इस उलाहना मिश्रित विरोधात्‍मक फोन आने पर मैं 'गृह कारज नाना जंजाला' भुनभुनाते हुए बिना मित्रों से मिले झडीराम सर्वहारा बनकर दुर्ग अपने घर आ गया.

गणेश शंकर 'विद्यार्थी' पत्रकारिता के आदर्श पुरुष : बख्शी सृजनपीठ का कार्यक्रम

आदर्श पत्रकारिता को जीवंत बनाकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हुंकार भरने वाले शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी का बलिदान दिवस पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजनपीठ कार्यालय सेक्टर-9 में विगत दिनो मनाया गया। उपस्थित पत्रकारों, साहित्यकारों एवं गणमान्य लोगों ने उनके प्रति अपने श्रद्धासुमन अर्पित किए। कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पद्मश्री डॉ. महादेव प्रसाद पाण्डेय ने की। मुख्य अतिथि के रूप में कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय रायपुर के कुलपित सच्चिदानंद जोशी उपस्थित थे। कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि वैशाली महाविद्यालय के प्राचार्य एवं संस्कृताचार्य आचार्य महेशचंद्र शर्मा थे। वरिष्ठ कवि अशोक सिंघई, मानस मर्मज्ञ कवि पं. दानेश्वर शर्मा एवं छत्तीसगढ़ी कवि पं. रविशंकर शुक्ल विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित थे।
इस अवसर पर कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे पद्मश्री डॉ. महादेव प्रसाद पाण्डेय ने देश की वर्तमान दुर्व्यवस्था पर गहन चिंता प्रकट करते हुए कहा कि क्या इसी दिन के लिए गांधी जी ने स्वराज का सपना देखा था। क्या इसी दिन के लिए भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, विद्यार्थी जी जैसे न जाने कितने योद्धाओं ने अपना बलिदान दिया? डॉ. पाण्डेय ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अपने जेल में बिताए दिनों की याद करते हुए कहा कि तब सब कुछ छूट जाए किंतु देशप्रेम न छूटे यही जज्बा था। देश के लिए लोग सोचते थे, किंतु आज सभी केवल अपने लिए सोच रहे हैं। यह ठीक नहीं है। मुख्य अतिथि कुलपति सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि गणेश शंकर विद्यार्थी के कार्यों से गांधी जी पं. नेहरू से लेकर तमाम महान देशभक्त प्रभावित थे। वे भारतीय पत्रकारिता के आदर्श पुरुष हैं। प्रमुख वक्ता आचार्य डॉ. महेश चंद्र शर्मा ने कहा कि शुचिता के अभाव के चलते सामाजिक ताना-बाना बिगड़ रहा है। उन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी के जीवन प्रसंगों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि तब के मजिस्ट्रेट ज्वाला प्रसाद ने विद्यार्थी जैसे सादा जीवन उच्च विचार के त्यागी पुरुष को सजा देने के बाद पश्चाताप की अग्नि में इस प्रकार जले कि वे नौकरी त्याग कर संत बन गए।
पं. दानेश्वर शर्मा ने अपने विचार काव्य पंक्तियों के माध्यम से किया। इसके पूर्व बख्शी सृजनपीठ के अध्यक्ष बबन प्रसाद मिश्र ने स्वागत भाषण दिया एवं कहा कि भाषीय संस्कृति एवं संपन्नता को संग्रहित करने के लिए चौतरफा हमले हो रहे हैं, इसके लिए हमें सावधान रहना होगा। श्री मिश्र ने कहा कि बख्शी सृजनपीठ की यह कोशिश है कि वह साहित्य, कला, संस्कृति एवं भाषा के क्षेत्र में नित नए प्रयोग कर उसे और संवारने तथा नई सोच निर्मित कर लोगों में राष्ट्रबोध की भावना जागृत करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। कार्यक्रम का संचालन युवा पत्रकार एवं कथाकार शिवनाथ शुक्ल तथा आभार प्रदर्शन बीएसपी हायर सेकंडरी स्कूल की व्याख्याता एवं साहित्यकार श्रीमती सरला शर्मा ने किया। 
कार्यक्रम में डॉ. रामकुमार बेहार, सत्यबाला अग्रवाल, राम अवतार अग्रवाल, जगदीश पसरीचा, बल्देव शर्मा, कौशिक, भोलानाथ अवधिया, सुषमा अवधिया, अभय राम तिवारी, डॉ. दीप चटर्जी, श्रीमती रोहिणी पाटणकर, केएल तिवारी, नीता काम्बोज, आरसी मुदलियार, नरेश कुमार विश्वकर्मा, जगदीश राय गुमानी, प्रमुनाथ मिश्र, झुमरलाल टावरी, शायर मुमताज, आर मुत्थु स्वामी, राजविंदर श्रीवास्तव, डॉ. राधेश्याम सिंदुरिया, बसंत शर्मा, एडी तिवारी, अरुण खरे, विधुरानी खरे, ऋषभ नारायण वर्मा, संजीव मिश्रा, प्रदीप भट्टाचार्य, प्रभा सरस, विद्या गुप्ता, एसएन श्रीवास्तव उपस्थित थे।

बस्तर मे आदिवासियों का माटी तिहार और उल्लास

बस्तर के आदिवासियों का जीवन तथा सारा अस्तित्व जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत माटी से ही जुड़ा होता है। माटी के बिना वह स्वयं की कल्पना नहीं कर सकता। बस्तर के आदिम जनों का मानना है कि माटी जन्म देने वाली मां से भी ज्यादा पूजनीय है, स्नेहमयी है क्योंकि वही जीवन का आधार है। गांव का प्रत्येक व्यक्ति माटी की कीमत समझता है, तभी तो बस्तर का प्रत्येक ग्रामीणजन माटी किरिया को सबसे अधिक महत्व देता है। उसके लिए माटी की कसम से बढ़कर इस पृथ्वी में दूसरी कसम नहीं है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि यहां का आदिम समाज मुख्यतः कृषि पर आधारित है।
चैत्र माह के प्रारंभ होते ही बस्तर के आदिम जन माटी तिहार या बीज पूटनी नामक त्योहार बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाते हें। बीज बोने के पूर्व यहां के ग्रामीण जन इस त्योहार को सदियों से मनाते आ रहे हैं। इस दिन ग्रामीण जन अपनी माटीदेव की पूजा अर्चना करते हैं तथा अपने खेत के लिए बीज धान निकालकर पलास के पत्तों से पोटली बनाकर रख लेते हैं। इन छोटे-छोटे बीज के पोटली को ग्रामवासी माटी देव स्थल एकत्र करके अपने माटीदेव की पूजा करते हैं। इस दिन सामूहिक रूप से बलि दिये गये जीवों को पकाकर आपस में वितरित करते हें। जिसे प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते हैं।
इस त्योहार की एक प्रमुख विशेषता है कि इस उत्सव में स्त्रियां भाग नहीं लेती और नही इसका प्रसाद ग्रहण करती है। यह परंपरा कुंवारी लड़कियों पर भी लागू होता है। इस दिन सूर्योदय से पूर्व ही ग्रामीण अपने-अपने घरों से बीज की पोटली बांधकर निकल पड़ा है आने वाले वर्ष में अच्छी फसल की कामना के लिए। सुबह से ही रास्ते में रोड़ा बनाकर प्रत्येक आने जाने वालों से पैसे, अनाज, सब्जी आदि एकत्र करते हैं। इस बीच अश्लील शब्दों का प्रयोग निरंतर जारी रहता है जो कि इस त्योहार की अपनी एक अलग परंपरा है। इस उत्सव में बच्चे,बूढ़े, जवान सभी सम्मिलित होते हैं सिवाय महिला एवं लड़कियों को छोड़कर किंतु दंतेवाड़ा जिले के कुछ क्षेत्रों में महिला एवं युवतियों को भी रास्ते में रोड़ा लगाये देखा जा सकता है। अनाज, पैसे एकत्र करने का सिलसिला शाम ढले तक तथा कभी-कभी दूसरे दिन तक चलता रहता है। इस एकत्र किये हुए पैसे तथा अनाज को सामूहिक रूप से आयोजित भोज में सम्मिलित कर लिया जाता है।
बीज पूटनी त्योहार के एक दिन पूर्व गांव के समस्त बड़े-बूढ़े मिलकर अपने पारंपरिक हथियारों से लैस होकर पास के जंगलों में पारद (शिकार) करने निकल जाते हैं। तथा शिकार से प्राप्त जंगली जीवों को लेकर माटी को समर्पित करते हैं तथा प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते हैं किंतु अब न तो घने वन हैं और न ही वन्य जीव जहां ग्रामीण अपने परंपरा के निर्वाह के लिए एक चूहा भी पकड़ सकें। वैसे भी वन्य जीवों के शिकार पर शासन ने प्रतिबंध किया हुआ है। ग्रामीण सिर्फ खानापूर्ति के लिए पास के जंगलों में घूम आते हैं तथा प्रतीक स्वरूप मुर्गा अथवा मुर्गी के अण्डों को बलि देकर अपने पारंपरिक उत्सव का निर्वहन कर लेते हैं। इसके अलावा गांव में जो भी कास्तकार होते हैं सभी से चंदा स्वरूप कुछ पैसे लेकर बाजार से बलि के लिए बकरा खरीद लेते हैं तथा अपने परंपरा का निर्वहन कर लेते हैं। 
पूजा-अर्चना में लगने वाले पूजन सामग्री के अलावा चूड़ी-फुंदड़ी, मदिरा भी होते हैं जिसके अर्पण पश्चात ग्रामीणजन भी ग्रहण करते हैं। पूजा-पाठ के बाद माटी देव स्थल के पास ही छोटा गड्ढा किया जाता है जिसे पानी और मिट्टी से कीचड़मय बना दिया जाता है तथा पूजा के पश्चात धान की छोटी-छोटी पोटलियों को पुजारी की गोद में डाल दिया जाता है फिर प्रारंभ होता है कीचड़, मिट्टी से लथपथ अश्लील गालियों की बौछार और साथ ही होली सा माहौल। इसके पीछे मान्यता है कि ऐसा करने से खेत में बिहड़ा तथा अच्छी फसल होने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होगी। माटीदेव उनकी फसल की रक्षा करेंगे। इसके बाद रात्रि में सभी ग्रामीणों के द्वारा लाये गये धान की पोटलियों को पुजारी के निवास स्थान में ले जाया जाता है तथा दूसरे दिन गांव के बड़े-बुजुर्ग के साथ मिलकर स्वयं पुजारी, जिन ग्रामीणों के यहां से धान लाया गया होता है, पहुंचाता है और बदले में पारिश्रमिक बतौर रूपये लेता है। माटी त्योहार के बाद पुजारी द्वारा पहुंचाये गये इस धान की पोटली के साथ ही धान की बुवाई तक पोटलियों को सुरक्षित रखा जाता है। 
इस तरह प्रथम दिन पारद से लेकर पूजा-अराधना के पश्चात घर-घर धान पहुंचाये जाने तक तीन दिनों तक माटी त्योहार प्रत्येक गांव में चलता है। माटी त्योहार के एक हफ्ते के बाद आमा तिहार मनाते हैं। इस त्योहार में बस्तर के आदिमजन बिना इष्ट देवी-देवताओं को चढ़ाये आम खाने की शुरूआत नहीं करते। इस दिन आम तोड़कर पहले अपने इष्ट देवी-देवताओं को समर्पित करता है तत्पचात आम खाना प्रारंभ करता है। बस्तर के ग्रामीणजन वर्ष भर उत्सव मनाता है। शायद ही कोई माह किसी पर्व या उत्सव के बिना रहता है। सभी के केन्द्र में अभावों के बावजूद खाना-पीना तथा हंसी खुशी होती है। सभी पर्वों में पशु-पक्षियों की बलि तथा मदिरा, सल्फी का वृहत आयोजन होता है। देवी-देवताओं की कल्पना लोक में खोया बस्तर का आदिम समाज दिल को दहला देने वाली गरीबी में भी कितना खुश नजर आता है, वह इन उत्सवों में देखा जा सकता है।

नई दुनिया के बस्तर संस्करण से साभार

सामूहिकता का आनंद और संस्‍कार

क्षमा करें मित्रों मैं मित्रों के कुछ सामूहिक ब्‍लॉगों, जिनसे मैं बतौर लेखक जुडा था, से अपने आप को अलग कर रहा हूँ, वैसे भी मैं इन सामूहिक ब्‍लॉगों में कोई पोस्‍ट लिख नहीं पा रहा था जिसके कारण इनसे जुडे रहने का कोई औचित्‍य ही नहीं रह गया था, मैं हृदय से इन सामूहिक ब्‍लॉगों से जुडा हूँ और भविष्‍य में भी जुडा रहूँगा.
पाबला जी का आज एक मेल आया है "एक जानकारी है कि ब्लॉग बंद किए जा रहे गूगल द्वारा कईयों के" जिससे प्रतीत हो रहा है कि गूगल अपने मुफ्तिया झुनझुने में से कुछ झुनझुने कम करने वाला है या फिर सेवाशुल्‍क लगाने वाला है ऐसी स्थिति में अपनी लम्‍बी ब्लॉग सूची को 'मैंटेन' करना भी समय खपाउ काम हो गया है, सो सूची कम कर रहे हैं. पुन: क्षमा मित्रों.
जंगल के बीच आदिम समाज में सामूहिकता का आनंद और संस्‍कार से साक्षात्कार का क्रम अभी जारी है -

सामूहिक शब्‍दों को बुनते हुए ...
संजीव तिवारी

कैसे बनाते है आदिवासी पारंम्परिक मंद (दारू/शराब)

बैगा आदिवासियों के द्वारा महुआ को सडा कर उसे आसवित कर बनाई जा रही देसी दारू 

बैगा आदिवासियों के गांव मे हमारे कैमरे को देख बच्चो की खुशी 
अभी हम कुछ दिनों तक इनके मुस्‍कुराहटों पे निसार होते हुए  घने जंगल के बीच बसे गांवों  में व्‍यस्‍त रहेंगें, मोबाईल फोन के कवरेज में रहे तो संपर्क में रहेंगें, नहीं तो लम्‍बी छुट्टी.
संजीव तिवारी

कैसे बने हमारी भाषाई पहचान

आज नेट पर आपका ब्लॉग देखा. जनभाषा छत्‍तीसगढी में ब्लॉग शुरू करने के लिए बधाई!

हमलोग यहाँ झारखण्ड में झारखंडी भाषाओँ के संरक्षण और उनके विकास के लिए पिछले ६ वर्षों से काम कर रहें हैं. इनमें आदिवासियों और गैरआदिवासियों दोनों की भाषायें शामिल हैं. हालाँकि झारखण्ड आन्दोलन के कारन १९८२ से ही यहाँ ९ झारखंडी भाषाओं की पढाई एम ए लेवल पर हो रही है परन्तु अभी भी इन्हें प्राथमिक स्टार पर नहीं पढाया जा रहा है.

जो लोग यह कहते हैं की जन या आदिवासी भाषाओं के प्रोत्साहन से हिंदी अथवा संस्कृत जैसी दूसरी भाषाओं को नुक्सान होगा वे इस बात को नहीं समझ पा रहें हैं की इन भाषाओं को अवसर दिए बिना राष्ट्रभाषा को समर्थ नहीं बनाया जा सकता है. आज अगर अंग्रेजी राज कर रही है तो उसके मूल में मातृभाषाओं की अनदेखी ही है.

झारखंडी भाषाओं के सवाल पर हमने देश भर में फैले अपने लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों को झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखडा नमक संगठन के बैनर टेल एकजूट किया है. देखें: अखडा  नागपुरी-सादरी भाषा में एक मासिक पत्रिका जोहार सहिया निकालते हैं जो की बहुत कुछ छत्‍तीसगढी भाषा से मिलतीजुलती है. इसे आप यहाँ देख सकते हैं: जोहार सहिया  हमारा एक पाक्षिक अखबार भी है. जिसमे झारखंड की और हिंदी मिलाकर १२ भाषाओं में लेख और समाचार रहतें हैं. जोहार दिसुम संसाधन नहीं होने तथा अत्यंत छोटी टीम होने के कारन हम इसे समय पर अपडेट नहीं कर पाते हैं परन्तु प्रिंट में सभी नियमित हैं. हमारा यह पूरा पर्यास नितांत सामूहिक है और कहीं से भी फंडेड नहीं है.

आप सभी छत्‍तीसगढी बन्धु अपने भाषाई पहचान बनाएं रख सकें येही शुभकामना है.

आपका ही संगी

अश्विनी कुमार पंकज
स्‍थानीय भाषा और बोली में ब्‍लाग संचालन को प्रोत्‍साहन देने के लिए समय समय पर पाठकों की टिप्‍पणियां और मेल प्राप्‍त होते रहते हैं. हमारे छत्‍तीसढ़ के एवं हिन्‍दी ब्‍लाग जगत के पूर्णसक्रिय  प्रख्‍यात मूंछों वाले ब्‍लागर ललित शर्मा जी नें हमें पिछले दिनों बतलाया था कि इस प्रकार के मेल उन्‍हें भी प्राप्‍त होते रहे हैं और उन्‍होंनें भी अपना 'अडहा के गोठ' को इसी उद्देश्‍य से नियमित रखा है. ललित भाई भाषाई दूरी को समाप्‍त करने के हित से अपने पोस्‍टों में कठिन छत्‍तीसगढ़ी शव्‍दों का हिन्‍दी अर्थ भी देते रहे है. हम अपने गुरतुर गोठ में नव प्रयोगों को आत्‍मसाध तो नहीं कर पा रहे हैं किन्‍तु प्रदेश के इंटरनेट के जानकार छत्‍तीसगढ के साहित्‍यकारों के मूल प्रोत्‍साहन के कारण न्‍यून टिप्‍पणियों और न्‍यून पेजव्‍यू के बावजूद हम छत्‍तीसगढ़ी भाषा के गुरतुर गोठ को नियमित रख पा रहे हैं. ऐसे ही एक पाठक अश्विनी कुमार पंकज जी का मेल पिछले दिनों हमें प्राप्‍त हुआ था. जिसे हम यहां बाक्‍स में प्रस्‍तुत कर रहे हैं ताकि हमारे मन में अपनी भाषा-बोली के प्रति स्‍नेह बरकरार रहे और पाठकों से भी इन भावनाओं को हम बांट सकें.

मेरे प्रेरक -

हिन्‍दी से मिलते - जुलते स्‍थानीय बोली-भाषा के अन्‍य ब्‍लागों को देखकर-पढ़कर हमें खुशी होती रही है जिनमें से अब भोजपुरी में भी ब्लॉग बबुआ प्रभाकर पाण्डेय देवरिया से लेकर कुशीनगर की कथाओं का जिक्र भोजपुर नगरिया , मिथिला मिहिर , कतेक रास बातक , विदेह , आदि हैं.

नारद के दिनों में जब छत्‍तीसगढी ब्‍लाग का ब्‍लागजगत में पदार्पण हुआ था तब रवि रतलामी जी नें  चिट्ठाकार गूगल ग्रुप में कहा था - नारद के लिए छत्तीसगढ़ी भाषा (हिन्दी की उपभाषा, जो हिन्दी पढ़ने समझने वालों के लिए मुशकिल नहीं होगी, बल्कि भोजपुरी की तरह मजेदार ही लगेगी - सुग्घर (सुंदर) के चिट्ठे -
1. http://mahanadii.blogspot.com/
2. http://chhattisgarhi.blogspot.com/
आज ये दोनों चिट्ठे सक्रिय नहीं हैं मगर ज्‍योति इन्‍हीं नें जलाई है. और हमें गर्व है कि हमने ब्‍लागजगत में अपनी  भाषाई पहचान बनाई है. गुरतुर गोठ जैसे कई ब्‍लाग अब निरंतर रहेंगें .....

नवराती के जगमग ज्‍योति के त्‍यौहार में राम नवमी की हार्दिक शुभकामनांए . . .

संजीव तिवारी

छत्‍त‍ीसगढी भाषा में शौर्य गान का नाम है जस गीत

शहरों में नवरात्रि की धूम चारों ओर है, मंदिरों और माता के दरबार में आरती के बाद जस गीत व सेवागीत गाए जा रहे हैं। शीतला मंदिर, चंडी मंदिर, महामाया, दंतेश्वरी, दुर्गा मंदिर, सहित ग्रामीण क्षेत्र के प्रमुख मंदिरों में दिन रात माता सेवा में भक्त लीन हैं। पुरुषों एवं महिलाओं सहित बच्चों की सेवा मंडली दूर-दूर से आकर अपनी प्रस्तुति दे रही है। हर गली-मोहल्ले में जसगीत व सेवागीत गाये जा रहे हैं, लाउड स्पीकरों में भी यही गीत बज रहे हैं। वहीं गांवों में शीतला मंदिर, महामाय व कुछ घरों में ज्योति जंवारा स्थापित कर माता सेवा का अनुष्ठान किया जा रहा है। गांव की सेवा मंडली रोजाना शाम को इन स्थानों में पहुंचकर सेवागीत प्रस्तुत कर रही हैं। मैं भी इन सेवा एवं जस गीत मंडली का बरसों बरस सदस्‍य रहा हूं और रात-रात भर जस गीत गाते रहा हूँ .
पिछले दिनों छत्‍तीसगढ के नवरात्री मे गाये जाने वाले माता का एक जसगीत ललित शर्मा जी नें प्रस्‍तुत किया उसके बाद उन्‍होंनें जस गीत के आडियो भी प्रस्‍तुत किए. आजकल सीडी दुकानों में सहजता से जस गीत उपलब्‍ध हैं किन्‍तु इन बाजारू सीडीयो में हमारा पारंपरिक जसगीत कहीं खो गया है. मैनें ललित भाई को इस प्रयास के लिए यद्यपि बधाई दिया कि हमारी भाषा एवं संस्‍कृति का कुछ अंश उन्‍होंनें लोगों के बीच लाने का प्रयास किया किन्‍तु आजकल जो गीत सीडी में बाजार में प्रस्‍तुत हो रहे हैं उन्‍हें मैं जस गीत के नाम पर प्रपंच मानता हूं, ऐसे गीत पारंपरिक जस गीत है ही नहीं बल्कि पारंपरिक गीत व धुन एवं लय के विपरीत हैं. पारंपरिक गीत के सीडी मार्केट में उपलब्‍ध हैं कि नहीं हैं मै नहीं जानता, मैं तो मांदर और झांझ-मजीरे के संगीत के साथ गाये जाने वाले छत्‍त‍ीसगढी भाषा के शौर्य गान को जस गीत मानता हूँ जिसके पारंपरिक लय व ताल के नियम हैं. गांवों में रात-रात भर गाये जाने वाले जस गीत टीम में इन नियमों को तोडने पर एक नरियर का डांड भी देना पडता है यानी सजा की व्‍यवस्‍था है. पर शहरी माहौल में यह सब खो गया है.
मैं ललित शर्मा जी से क्षमा चाहता हँ, उनका उत्साह इसी प्रकार बना रहे. और पाठकों को अपनी वास्‍तविक परंपराओं से अवगत कराना चाहता हँ. आज भी यदि आप खोजें तो पारंपरिक गायन वाले मिल जायेंगें, जस गीत के संकलन पर इस प्रदेश में बहुज काम हुआ है, जसगीत के कई संकलन प्रकाशित हुए हैं किन्‍तु सीडी बेंचने वाले लोग इन पारंपरिक गानों के स्‍थान पर नये गीत प्रस्‍तुत किए हैं. इन नये गीतों का भी हम स्‍वागत करते हैं किन्‍तु हमें अपनी परंपराओं पर गर्व है. हमने छत्‍तीसगढ के जस गीत पर एक पोस्‍ट लिखा है जो स्‍थानीय विभिन्‍न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुआ है जिसका अवलोकन करने से छत्‍तीसगढ़ के जस गीत को जाना पहचाना जा सकता है. जस गीत संबंधी लेख की कडी है -

http://aarambha.blogspot.com/2007/10/chhattisgarhi-folk-jasgeet.html

बोलो हिंगलाज मईया की जय !

संजीव तिवारी

ललित भाई नें आज जसगीत अपने ब्‍लाग 'शिल्‍पकार के मुख से' में लगयाया है. 

राजनैतिक चेतना का अभाव : एसडीएम पर मंत्री की थप्‍पड की गूंज

कल किसी रामविचार कहे जाने वाले की अभद्रता और गंवारपन की खबर अखबार में पढ़ी तब से इसी विषय पर सोच रहा हूं। सोचता हूं कि दिन-रात पढ़ाई और मेहनत-मशक्कत करके क्या इसी दिन के लिए लोग प्रशासनिक सेवाओं में आते हैं कि उनके साथ कोई मारपीट करे और सरेआम उसका अपमान करे। इन कठिन परीक्षाओं को उत्‍तीर्ण करने का क्‍या यही पुरस्कार इन अफसरों को मिलना चाहिए? आज भारत में नेता होना कोई बड़ी बात नहीं है,ये काम तो कोई गधा भी कर देगा और अक्‍सर गधे ही ये काम कर रहे हैं। मगर प्रशासनिक अफ़सर व्यवस्था की रीड़ की हड्डी है और उसकी जिम्मेदारी सिर्फ विशेष के प्रति नहीं बल्कि संविधान और भारत की जनता के प्रति होती है।
अब इसमें यदि कोई सत्ता उन्मादी सत्ता के नशे में अपनी मर्यादा लांघे और इन्हे अपने निजी नौकर की तरह इस्तेमाल करे? इसका अनुभव मुझे पहले से है कि आदमी सत्ता के मद में अक्सर क्रूर और उन्मादी हो जाता है मगर क्या इस कदर उन्मादी हो जाए कि इंसानियत को उसके ऊपर शर्म आने लगे? ये संविधान की कसमें खाकर अपनी कुर्सियों में बैठते हैं और अपने बंगले में बैठकर रोज संविधान और लोकतंत्र को चिंदी-चिंदी करते रहते है। ऐसा ही गंवारूपन से भरा उदाहरण इस विचार-विहीन रामविचार कहे जाने वाले ने प्रस्तुत किया है, जब इसने किसी राजपत्रित अधिकारी को ना सिर्फ गालियां दीं और उनके साथ मारपीट भी की। अब मन बार-बार सोचता है कि जंगल में खून बहाने वाले नक्सली तो संविधान और लोकतंत्र को नहीं मानते मगर क्या ये सरकारी बंगलों में टंगे हुए उन्मादी बिजुके भी संविधान को मानते हैं? क्या इनकी लोकतंत्र में आस्था है? फिऱ क्या ये हाथ जो रोज लोकतंत्र को तार-तार कर रहे हैं इन्हे स्वतंत्रता दिवस और गण्तंत्र दिवस पर राष्ट्रध्वज फ़हराने का गौरव मिलना चाहिए?
रोज यह तोता रटंत सुनता रहा हूं कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है मगर आज इस घटना के बाद अफसरों की इस चुप्पी ने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि इस रीड की हड्डी में शायद उतना दम नहीं कि आज ये तनकर खड़ा हो सके। शायद इसीलिए रोज भारत नीचे झुक रहा है य्योंकि रीड की हड्डी ने तो जैसे तटस्थ और चापलूस रहने की घोसणा कर दी हो। यूं तो हर अफसर के पास कविता लिखने के लिए पर्याप्त समय होता है मगर इस अमानवीय अन्याय के खिलाफ़ किसी की कलम नहीं चलती। अखबारनवीसों के संपादकीय में अमरीका से लेकर वियतनाम तक चिंता समाई रहती है मगर इस विषय पर कलमकारों की चुप्पी भी बेहद खेद और निराशाजनक है। यह मामला जितना छोटा दिखता है उतना वस्तुत: है नहीं।
यह घटना लोकतंत्र और संविधान पर आस्था का प्रश्न खड़ा करती है। जनता जब यह देखती है कि एक राजपत्रित अधिकारी के साथ कोई मारपीट कर रहा है और उस पर कुछ आंच नहीं आती तब उसकी आस्था लोकतंत्र पर कम हो जाती है। जब वह देखती है कि सारे अफसरान जो इस गंभीर बात पर चुप है तब उसकी आस्था संविधान से और भी कम हो जाती है, और जब वह यह देखती है कि ऐसे गंवारपन की इंतिहा करने के बाद भी वह सत्ता के मजे लूट रहा है और सरकार उसे सजा देना छोड़कर उसकी तरफदारी करने में लगा है तब जनता की आस्था न्याय व्यस्था से और बहुत दूरी तक कम हो जाती है! यह घटना ये सवाल भी खड़ा करती है कि जब एक अफसर के लिए शिक्षा- परीक्षा जैसे अनेक कठिन मानदंड रखे जाते हंै तब यही शर्त नेताओं पर क्यो लागू नहीं होती? य्या किसी नासमझ को किसी की कुर्सी पर बैठने और उसकी मर्यादा को तार-तार करने की खुली छूट मिलनी चाहिए? यह समय है जब हमें सलेक्टेड और इलेक्टेड के फर्क को समझना होगा, और नारे और बाजे के बीहड़ में टंगे इन बिजूकों को छोड़कर व्यवस्था को अत्यंत गहराई से देखना होगा कि यह देश किन कंधों पर खड़ा है तब कहीं जाकर हम समझ सकेंगे कि ये इलेक्टेड नमूने तो दिखावा मात्र है सारी जिम्मेदारियां तो अभी भी सलेक्टेड कंधे ही उठा रहे हैं! रमन सिंह एक सज्जन व्यक्ति हैं और जाहिर है इस सज्जन को सज्जनता अच्छी लगती होगी, तब इस अमानवीय अलोकतांत्रिक व्यवहार पर उनका रुख भी छत्तीसगढ़ की जनता देखेगी। किसी भी सरकार के पास भले पांच साल हों मगर जनता के पास एक दिन होता है जिस दिन वह सारे पांच साल का हिसाब चुकता कर देती है।
मैंने सुना है कि एक जंगल में घना अंधेरा था इसलिए उस जंगल में उल्लुओं को प्रभारी बना दिया गया क्योकि उल्लू ही अंधेरे में देख सकते थे फिर बाद में यह भी पता चला कि इस जंगल की व्यवस्था पर बोझ बहुत है गरीबी, अशिक्षा इत्यादि-इत्यादि तो गधों को भी अतिरिक्त प्रभार देकर प्तभारी बना दिया गया फिर उल्लुओं ने चारों ओर अंधेर मचा दिया क्योकि उनकी सारी कुशलता अंधेरे में थी। गधों ने बोझ के उपर बोझ बढ़ाना शुरू कर दिया य्योंकि गधे बिना बोझ के चल नहीं सकते और बस इसी तरह उस जंगल का सत्यानाश हो गया!! छत्तीसगढ़ में राजनीतिक चेतना की कमी का अंधियारा तो है और गरीबी और अशिक्षा का बोझ भी है मगर इस प्रदेश की रीड की हड्डी को समर्थ रखा जाए तो सारा मामला यूं ही आसान हो सकता है, इसलिए भले ये खुद अपने आत्मसम्मान के लिए खड़े ना हों मगर जनता को यह हिम्मत करनी चाहिए क्योकि जनता को अभी भी अपने संविधान पर भरोसा है। यह पत्र इसी सिलसले की एक छोटी सी शुरुआत मात्र है ! यह समय है जब छत्तीसगढ़ की जनता यह देखेगी कि छत्तीसगढ़ में सचमुच में लोकतंत्र जीतता है या लोकतंत्र को जूते की तरह इस्तेमाल करने वाले ये लोकतांत्रिक तानाशाह जीतते हैं!
दीपक शर्मा
संयुक्त अरब अमीरात

दीपक शर्मा जी छत्‍तीसगढ के राजिम नगर के मूल निवासी हैं वर्तमान में संयुक्त अरब अमीरात में सेवारत हैं . दीपक भाई का तदसमय का बहुचर्चित ब्‍लाग विप्‍लव रहा है, अभी यह ब्‍लाग अचीव में भी नहीं है, दीपक भाई नें उसे डिलीट कर दिया है. आजकल दीपक भाई की प्रतिक्रिया समाचार पत्रों के संपादकीय पन्‍नों पर नजर आती है यह प्रतिक्रिया भी दैनिक छत्‍तीसगढ के संपादकीय पन्‍ने पर प्रकाशित है जिसे हमने साधिकार यहां प्रकाशित किया है. इस पर हम अपनी प्रतिक्रिया भी शीध्र ही प्रस्‍तुत करेंगें.

डॉ.वैरियर एल्विन और अंग्रेजों नें छत्तीसगढ़ केन्द्रित जो भी लिखा है वह हमारी गुलामी की दास्‍तान है.

छत्तीसगढ़ के आदि संदर्भों के लिए सदैव डॉ.वैरियर एल्विन को याद किया जाता रहा है और इसमें कोई दो मत नहीं है कि वैरियर एल्विन नें छत्तीसगढ़ के आदि संदर्भों का जिस प्रकार से शोधात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है वैसा अध्ययन आजतक किसी अन्‍य के द्वारा प्रस्‍तुत नहीं किया जा सका है. इसीलिए प्राय: हर किताबों, शोधग्रंथों, लेखों, भाषणों में डॉ.वैरियर एल्विन जीवंत रहते हैं.
मैं स्‍वयं भी डॉ.वैरियर एल्विन को संदर्भित करते रहा हूं, किन्‍तु मेरे समाजशास्‍त्री व मानवविज्ञानी मित्र कहते हैं और स्‍वयं मैं भी स्‍वीकार करता हूं कि बार बार इनकों संर्दभित करने, इनके लिखे पुस्तकों का नाम अपने लेखों, शोधों में सम्मिलित करने की प्रवृत्ति लेख को बेवजह तथ्यात्मक व सत्यता के करीब ले जाने की थोथी कोशिस प्रतीत होती है. पर करें तो क्‍या करें आदि संदर्भों पर यह हमारी विवशता है. मैं अगरियों पर एक लेख लिखने का प्रयास कर रहा हूं. बहुत कुछ लिख चुका हूं किन्‍तु जमीनी तौर पर अगरियों के पास जाकर उनसे मिले बिना इसे पूरा नहीं कर पा रहा हूं. छत्‍तीसगढ में रहने का फायदा यह है कि मुझे अगरियों के संबंध में बहुत कुछ जानकारी कई लोगों से मिली है कुछ अगरियों से व्‍यक्तिगत संपर्क भी कर चुका हूं पर जमीनी तौर से उनसे मिले बिना यदि मुझे यह लेख परोसना है तो निश्चित है कि मैं डॉ.वैरियर एल्विन के संदर्भों पर ही निर्भर रहूंगा.
मैं डॉ.वैरियर एल्विन का विरोधी नहीं हूं ना ही मैं किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हूं. किन्‍तु मैं डॉ.वैरियर एल्विन एवं तदसमय के अंग्रेज लेखकों के लेखन को नि:स्‍वार्थ लेखन कहने का सदैव विरोधी रहा हूं. मैनें इसके पहले भी कई बार लिखा है कि वैरियर एल्विन नें अपने लेखों-शोधों-अध्‍ययनों का व्‍यवसाय किया है. वे हमारे जैसे स्वांतः सुखाय लेखन नहीं कर रहे थे उन्होंनें बाकायदा अपने ज्ञान और अध्ययन का कीमत वसूला है और आज भी उनके वारिसान रायल्टी के रूप् में उनके पुस्तकों के विक्रय से प्राप्त अंश पूंजी का उपभोग कर रहे हैं. उन्होंनें या उनके अग्रज अंग्रेजों नें छत्तीसगढ़ केन्द्रित जो भी लिखा है वह ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यावसायिक उदेश्य को पूरा करने का अंग रहा है.
उन्होंनें छत्तीसगढ़ी भाषा, व्याकरण पर इसलिए लिखा क्योंकि उन्हें इस क्षेत्र के जीवन से जुडना था और अपने शासन के झंडे के तले हमारा दोहन करना था. उन्होंनें हमारे लोकगीतों पर लिखा क्योंकि उन्हें आदिवासी बालाओं के उधडे वक्षों के रिदम को निहारना था उन्होंनें जनजातियों पर कलम चलाई क्योंकि उन्हें उन अनछुये प्रकृति के परमसुख को भोगना था इसके साथ ही छत्तीसगढ़ के गर्भ में छुपे हुए अकूत खनिज संपदा व वन संपदा का दोहन करना था. आंध्र, महाराष्‍ट्र व छत्तीसगढ व अन्य रियासतें से जो जानकारी इन्हें मिलती थी उस पर ये विश्‍वास नहीं करते थे और स्वयं उसका परीक्षण निरीक्षण करते थे. इसके लिये चतुर अंग्रेज अपने ही किसी प्रतिभावान व्यक्ति को इन अध्ययनों व शोधों के लिए आगे बढाते थे और ये चतुर व बुद्धिशील अंग्रेज देशी तहसीलदारों का भी विश्‍वास न करते हुए स्वयं क्षेत्र में जाकर अध्ययन करते थे इन्हीं में से वैरियर एल्विन भी थे. अगरियों के अध्ययन के लिये आधुनिक भारत के लौह शिल्पी सर दोराबजी टाटा नें वैरियर एल्विन को धन उपलब्ध कराया था क्योंकि उन्हें भारत में टाटा स्टील के लिए लौह अयस्क की उपलब्धता को जानना था.
'छत्‍तीसगढ के असुर : अगरिया' पर मेरी कलम घसीटी के अंश
संजीव तिवारी

अपने ब्लॉग को सजाना अब और आसान - ब्लॉगर ने की टेम्पलेट डिजाइनर की घोषणा

गूगल ने कल ब्लॉग को मनचाहा रूप और आकार देने की प्रक्रिया को और आसान बनाने के लिए इंटरफेस टेम्पलेट डिजाइनर की सुविधा प्रदान की है. गूगल की घोषणा के अनुसार वह अपने ब्लॉगर उपयोगकर्ताओं को अपने ब्लॉग को सरलतम तरीके से अधिक विशिष्ट बनाने के लिए, एक अतिरिक्त सुविधा टेम्पलेट डिजाइनर के रूप मे प्रदान कर रहा है.
हममे से अधिकतर ब्लॉगर चाहते हैं कि उनका ब्लॉग सुन्दर हो, डिजाईनर हो. जबकि ब्लॉगर के डिफाल्ट टेम्पलेट ज्यादा डिजाईनर नहीं हैं. इसीलिये ज्यादातर ब्लॉगर अपने ब्लॉग मे अपनी रुचि के अनुरूप फ्री ब्लॉगर टेम्पलेट से टेम्पलेट डाउनलोड कर ब्लॉग को वेब साइट की भांति बना लेते है या बनावा लेते हैं. किंतु इसके लिये सामान्य तकनीकि कुशलता की आवश्यकता होती है, कभी कभी यह थर्ड पार्टी टेम्पलेट रंगों, शब्दों के आकार और गैजेट लगाने मे पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान नही करती. इसके अतिरिक्त यह सुविधा ब्लॉगर के द्वारा स्वयं उपलब्ध नही कराये जाने के कारण उधारी ली गयी लगती है. अब इन सबका निदान गूगल की इस सुविधा से अवश्य मिलेगा. यह सुविधा अभी ब्लॉगर इन ड्राफ्ट मे उपलब्ध है. इसके लिये आपको डैशबोर्ड से लेआउट मे जाना होगा जहा आपको टेम्पलेट डिजाइनर की नयी सुविधा इस प्रकार नजर आयेगी -
ब्लॉग का संपूर्ण चोला बदलिये

बैकग्राउंड में चित्र या रंग बदलें

मनचाहा साईडबार जोडें

साईडबार, बैकग्राउंड, टैक्स्ट रंग व टैक्स्ट आकार बदलें


बहुत ही सामान्‍य तरीके से इनका प्रयोग कर  आप अपने ब्लॉग को मनचाहा रंग-रूप दे सकते हैं. इस नए डिजाइनर सुविधा के सम्बन्ध मे विस्तृत जानकारी हम आगामी पोस्टो मे देने का प्रयास करेंगे. अभी आप अपने किसी टेस्ट ब्लाग मे इसे प्रयोग कर देखे. मैने अपने एक ब्लाग मे प्रयोग किया है और दो कालम को तीन कालम किया .

संजीव तिवारी 

जिनके नाम पर बसा बिलासपुर : बिलासा दाई

बात पुरानी है । तब दोनों ओर घने जंगल थे । बीच में बहती ती अरपा नदी । नदी में पानी था भरपूर । जंगल में कहीं-कहीं गांव थे । छोटे-छोटे गांव । नदी किनारे आया एक दल । यह नाव चलाने वालों का दल था । इसके मुखिया थे रामा केंवट । रामा के साथ सात आठ लोग थे । अरपा नदी के किनारे डेरा लगा । सबने जगह को पसंद किया । नदी किनारे पलाश के पेड़ थे । आम, महुआ के पेड़ थे । कुछ दूरी पर छोटा सा मैदान था । शाम हुई । रामा ने सबको समझाया । उसके साथ उसकी बेटी थी । सुन्दर, जवान । नाम था बिलासा । बिलासा ने भात पकाना शुरू किया । सभी डेरों से धुंआ उठा । खाकर सब डेरों में सो गए ।
सबेरा हुआ । दल में हलचल हुई । रामा ने कहा आज हम यहीं रहेंगे । मछली मारेंगे । गरी जाल है हमारे पास । नाव भी है । चलो चलें अरपा माता के पास । उसी की गोद में खेलेंगे । यहीं जियेंगे यहीं मरेंगे । उससे मांगेगे जगह । जीने के लिए । वह मां है । हमें सब कुछ देगी ।
अरपा नदी बह रही थी । कल कल छल छल । साफ पानी था । मछलियों से भरी थी नदी । सबने अरपा दाई को नमन किया । पहले नदी का यश गान हुआ । फिर सबने हाथ में जल लिया । सदा साथ रहने का वचन सबने दिया । नदी तो मां थी । अब पहली नाव नदी में उतरी । छप छप की आवाज हुई । जाल चला । और धीरे-धीरे केंवट नदी के हो गए । अरपा ने सबको दुलार दिया । गांव बड़ा हुआ । दूसरे लोग भी बसने लगे । लुहार आये । बुनकर आ गए । कुछ किसान भी आ गये । रामा ने सबको बसा लिया । खेती भी होने लगी ।
बिलासा भी मछली मारती थी । नाव चलाती थी । वह शिकार भी करती थी । जंगली सूअर गांव में घुस आते । एक दिन गांव के जवान सब नदी पर गये थे । गांव में औरतें ही थी । सुअर घुर-घुर करने लगा । बिलासा ने भाले से सुअर को मार दिया । तब से उसका नाम फैलने लगा । गांव का युवक वंशी भी वीर था । वह नाव चलाने में कुशल था । खूब मछली मारता था । बिलासा की शादी वंशी से हो गई । दोनों खूब खुश थे । अरपा में वंशी के साथ बिलासा भी जाती । एक दिन वंशी शिकार के लिए गया था । शाम का समय था । बिलासा नदी से लौट रही थी । एक सिपाही वहां से गुजर रहा था । उसकी नीयत खराब हो गई । उसने बिलासा का हाथ पकड़ लिया । बिलासा लड़ गई सिपाही से । शोर सुनकर लोग आ गये । सिपाही से रामा ने कहा भाग जाओ । राजा अच्छा है । सिपाही खराब है । इसी से बदनामी होती है । राजा कल्याणसाय यह सब पता चला । उसने सिपाही को दंड दिया । राजा का मान था । कल्याणसाय का मान दिल्ली में भी था । तब जहांगीर दिल्ली का बादशाह था ।
कल्याणसाय की राजधानी रतनपुर में थी । वह शिकार खेलने जंगल में जाता था । उसके दरबार में गोपाल मल्ल था । वह ताकतवर था । राजा उसे साथ में रखता था । एक बार राजा शिकार के लिए निकला । हांका लगा । राजा घोड़े पर बैठकर सरपट दौड़ा । तब जंगल में जानवर बहुत थे । राजा शेर का शिकार करने निकला था । राजा था तो जंगल के राजा से ही भिड़ता । छोटे-मोटे जानवर भाग रहे थे । राजा भी भाग रहा था । घोड़े पर सवार । हाथ में भाला । कंधे पर धनुष । पीठ पर तरकश । भागते भागते राजा दूर निकल गया । जंगल बड़ा था । घना बहुत था । राजा भटक गया । साथ के सिपाही पिछड़ गये । राजा अकेला हो गया । शाम घिर आई । राजा को प्यास लगी । उसनेचारों ओर देखा । पलाश वन फैला था । लाल लाल पलाश के फूल दहक रहे थे । फागुन का महीना था । राजा कुछ पल के लिए प्यास भुल गया । लेकिन कब तक प्यासा रहता । उसे लगा कि करीब ही कोई नदी है । चिड़ियों का झुंड लौट रहा था । राजा आगे बढ़ा । सहसा घुर घुर की आवाज हुई । राजा संभल न सका । जंगली सूअर ने राजा को घायल कर दिया । घोड़ा भाग गया । राजा पड़ा था जंगल में । कराह सुनकर वंशी वहां पहुंचा । वह जंगल से लौट रहा था । वंशी राजा को गांव ले गया । बिलासा ने राजा की खूब सेवा की । राजा ठीक हो गया । खबरची दौड़ पड़े । राजधानी से सैनिक आये । मंत्री पहुँचे । बिलासा की सेवा से सब खुश थे । राजा ने कहा एक और पालकी लाओ । राजा अपनी सवारी में बैठकर रतनपुर गया । साथ में वंशी बिलासा भी गये । वे पालकी में सवार होकर गए । बिलासा की चर्चा चारों ओर फैल गई । उसका रूप भी वैसा ही था । वंशी भी कम नहीं था । दोनों रतनपुर गए । वहां तीर चलाकर बिलासा ने दिखाया । सब चकित रह गए । वंशी ने भाले का करतब दिखाया ।
राजा ने दरबार में दोनों को मान दिया । बिलासा को जागीर मिल गई । बिलासा खाली हाथ गई थी । लौटी जागीर लेकर । गांव के गांव उमड़ परे । जागीर मिली तो मान बढ़ गया । गांव बड़ा हो गया । गांव आपस में जुड़ गए । एक छोटा सा नगर लगने लगा गांव । राजा ने कहा यह नया नगर है । उसे बिलासा के नाम से जोड़ो । सदा नाम चलेगा । नए नगर को नाम मिला बिलासपुर । तब से इसका यही नाम है । अब यह बड़ा शहर है । जागीर पाकर बिलासा ने नगर को सजाया । वह एक टुकड़ी की सेनापति बन गई । वंशी शहर का मुखिया बन गया । बिलासा रतनपुर आती जाती थी । राजा ने दरबार में जगह दे दी ।
अचानक राजा का बुलावा आया । बुलावा दिल्ली से आया था । कोई मेला लगा था । सबको जाना था । करतब दिखाना था । कल्याणसाय की मां ने रोका । मां ने कहा बेटा मत जा । वहां कान चीर देते हैं । मुंदरी पहना देते हैं । मुगल भेष धराते हैं । नमाज पढ़ाते हैं बेटा । राजा ने कहा मां ऐसा मत कहो । जहांगीर का न्यौता है । वह अच्छा बादशाह है । खेल का मेला है । करतब दिखाना है । जाना होगा । राजा ने गोपाल मल्ल को साथ लिया । बिलासा साथ गई । साथ में गए भैरव दुबे । भैरव दुबे हथेली में सुपारी फोड़ते थे । कांख में दाबकर नारियल चटका देते थे । दिल्ली में सबने देखा । दांतों तले उंगली दबाकर लोगों ने देखा । बिलासा की तलवार चमक उठी । भैरव दुबे की ताकत देखते ही बनी । गोपाल मल्ल का डंका बज गया । छत्तीसगढ़ तब कोसल कहलाता था ।
कोसली राजा का नाम हो गया । जहांगीर खुश हो गया । इनाम देकर भेजा राजा को बादशाह ने । राजा आया रतनपुर । बिलासा को राजा ने तलवार भेंट की । वीर नारी की चर्चा घर घर होने लगी । गीतों में गाथा पहुँच गई । आज भी यह गीत गाते हैं ।
मरद बरोबर लगय बिलासा, लागय देवी के अवतार
बघवा असन रेंगना जेखर, सनन सनन चलय तलवार ।
बिलासा का नाम अमर है । उसके नाम पर बसे बिलासपुर में ही आज हाईकोर्ट है । यहां १९३३ में महात्मा गांधी आये । वे बिलासा के नगर में पधारे । जहां वे आये वह अब गांधी चौरा कहलाता है । वीर नारी का नाम अमर हो गया । सब उन्हें माता बिलासा कहते हैं । अरपा नदी के किनारे माता बिलासा की मूर्ति लगी है । माता बिलासा का यश फैला है चारों ओर । सब उसकी कथा सुनते हैं । इससे बल मिलता है ।
(नवसाक्षरों के लिए डॉ. परदेशीराम वर्मा जी द्वारा लिखित आलेख)

क्रिकेट नेता एक्टर हर महफिल की शान, दाढ़ी, टोपी बन गया गालिब का दीवान : निदा फ़ाज़ली

पिछले दिनो एक मुशायरे मे भाग लेने के लिये देश के प्रख्यात गज़लकार निदा फ़ाज़ली जी भिलाई आये थे. उनके इस प्रवास का लाभ उठाने नगर के पत्रकार और उत्सुको की टोली उनसे मिलने पहुंची. पत्रकारो के हाथो मे कलम कागज और जुबा पर सवाल थे जिसका निदा फ़ाज़ली जी ने बडी शालीनता व सहजता से जवाब दे रहे थे. हमारे जैसे जिज्ञासु अपने मोबाईल का वाइस रिकार्डर आन कर निदा फ़ाज़ली जी के मुख मण्डल को निहारते हुए उनके बातो को सुनने व सहमति असहमति को परखने की कोशिश कर रहे थे. पिछले दिनों मेरे एक पोस्ट मे बडे भाई अली सैयद जी ने टिप्पणी की जिसमे उन्होने निदा फ़ाज़ली जी द्वारा लिखी गज़ल को कोड किया. उसके बाद से ही हम सोंच रहे थे कि हम भी निदा फ़ाज़ली जी से मुलाकात की कहानी कह डाले. छत्तीसगढ समाचार पत्र के पत्रकार महोदय ने इस लम्बी चर्चा को अपने समाचार पत्र मे प्रकाशित भी किया है. हम निदा फ़ाज़ली जी से हुइ उस चर्चा के कुछ अंश यहा प्रस्तुत कर रहे है-
छत्तीसगढ के ज्वलंत समस्या नक्सलवाद पर लोगों ने जब निदा फ़ाज़ली जी से प्रतिक्रिया लेनी चाही तो निदा फ़ाज़ली जी ने कहा कि नक्सलवाद जो है वो क्रिया नहीं प्रतिक्रिया है. यह इस बात की प्रतिक्रिया है कि हमारा पूरा देश चंद अंबानियों में बंटा हुआ है, अब मॉल कल्चर पैदा हो रहा है. उसमें अंडे वाले, भाजी वाले और दूसरे छोटे धंधे करने वाले बेकार हो रहे हैं. दिक्कत यह है कि कुछ लोग इन विडंबनाओं को भगवान की नाराजगी समझ कर खामोश हो जाते हैं. वहीं जो लोग इनके खिलाफ खड़े हो जाते हैं उनको लोग नए-नए नामों से पुकारते हैं. उसे नक्सलवाद भी कहते हैं. नक्सलवाद या और भी किस्म के सामाजिक विद्रोह हैं उनको खत्म करने के लिए पहले नंदीग्राम को खत्म करो. मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ और देश के दूसरे हिस्सों से सांप्रदायिकता खत्म करो, सामाजिक विडंबनाएं खत्म करो. दिक्कत दरअसल यह है कि हमारे यहां एजुकेशन नहीं है इसलिए जागृति नहीं है. ऐसे में कुछ लोग हथियार उठा लेते हैं सामाजिक अन्याय के खिलाफ. हमें चाहिए बहुत सारे अंबेडकर, खैरनार और अन्ना हज़ारे.
इन सबके पीछे अशिक्षा को मूल कारण बतलाते हुए उन्होने कहा कि शिक्षा के लिए आपके पास पैसा नहीं है बम बनाने पैसा है करप्शन के लिए पैसा है. ये पूरी समस्याएं हैं, किसी को एक दूसरे से अलग कर के नहीं देखी जा सकी. जरूरत इस बात की है कि ज्यादा से ज्यादा एजुकेशन पैदा हो. आजादी की रोशनी वहां तक पहुंचे जहां बरसों से गरीबी का, गंदे पानी का, खस्ताहाल सड़को का, बेरोजगारी का अंधेरा फैला हुआ है. सरकार चाहे किसी की भी हो हमारा संविधान कहता कुछ है और सरकार करती कुछ और हैं. अब हर काम को भगवान के हवाले कर दिया गया है. बच्चे पैदा करना भी भगवान के हवाले हो गया है. जब तक बदलते वक्त पे अपना अख्तियार नहीं रखेंगे हर काम भगवान करता रहेगा, बच्चे भी भगवान पैदा करता रहेगा और जनसंख्या बढ़ती रहेगी, पतीली का आकार बढ़ेगा नहीं खाने वाले बढ़ते चले जाएंगे. और इस तरह की विडंबनाएं पैदा होती रहेंगी. इस पर उन्होने एक शेर सुनाया और महफिल खुशनुमा हो गया. आप भी देखे -
खुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को, 
बदलते वक्त पे कुछ अपना अख्तियार भी रख।
साहित्य और संस्कृति के बाजारू रुपो पर अपनी नाराजगी जताते हुए उन्होने कहा आज के कल्चर में शब्दों का महत्व बिल्कुल नहीं है. क्रिकेट नेता एक्टर हर महफिल की शान- दाढ़ी, टोपी बन गया गालिब का दीवान . आज क्रिकेट नजर आता है एक्टर नजर आता है पालिटिशियन नजर आता है. गालिब कहीं नजर आता है? एक फैशन बन गया है सिर्फ पार्लियामेंट में कोट करने गालिब, रहीम और कबीर की चंद लाइनें होती हैं. इस गलतफहमी में मत रहिए कि शब्दों का आज महत्व है. यह इसलिए क्योंकि शब्द बाजार की चीज नहीं है. आज आलू और टमाटर ज्यादा बिकते हैं शब्द कम बिकते हैं. रचनाकारो-कलमकारो के निरंतर कलम घसीटी करनें और कलम के दम पर इंकलाब लाने की क्षमता पर प्रश्न पूछने पर उन्होने कहा कि आप इस धोखे में मत रहिए कि कलम से इंकलाब आ सकता है. आज हमारे समाज के बदलावों ने कलम का दायरा बेहद छोटा कर दिया है. हां, यह जरूर है कि कलम से बेदारी पैदा की जा सक ती है कि अवाम अपने हक के लिए लडऩा सीखे.
सम्मानो-पुरस्कारो पर चुटीले सम्वाद मे उन्होने कहा कि पद्म सम्मानों को लेकर हमेशा विवाद की स्थिति रहती है. आपको आज तक ये सम्मान नहीं मिले..? आज हर चीज बिजनेस है. मैं कभी पद्म सम्मानों की दौड़ में नहीं रहा. मिलने पर मैं इहें ठुकरा भी सकता हूं. क्योकि मैं मानता हूं कि कुत्ते के गले में पट्टा डाल दिया जाए तो कुत्ता एक का हो जाता है. मुझे चाहिए आम लोगों की प्रशंसा. मैं आम लोगों के लिए लिखता हूं और अगर आम लोग मुझे एप्रिशिएट करते हैं तो मेरा काम हो जाता है. पद्म सम्मान आज जिस तरह दिए जा रहे हैं उसकी वजह यह है कि हमारे जिम्मेदार लोगों मे अवेयरनेस है ही नहीं. हद तो यह है कि बेकल उत्साही को पद्मश्री मिल जाती है और अली सरदार जाफरी को नहीं मिलती. क्योकि हमारे जिम्मेदार लोग कुछ जानते ही नहीं, यह उनकी गलती नहीं है. बाइबिल में भी कहा गया है कि हे ईश्वर,उहें माफ कर दो वो जानते नहीं कि वो क्या कर रहे हैं.
छत्तीसगढी के पारम्परिक गीत "ससुराल गेंदा फूल" के उपयोग पर आहत होते हुए उन्होने कहा कि फिल्मों में इंस्पिरेशन के नाम पर कापी का दौर थमता नहीं दिखता..? यह आज की बात नहीं है ऐसा हमेशा से होता रहा है. तकलीफ इस बात की है कि इसके खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया जाता है. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता थी ‘इब्न बतूता पहन के जूता’. उसका इस्तेमाल आज की फिल्म ‘इश्किया’ में हुआ यानि सर्वेश्वर दयाल को पुस्तक से बाहर आने में 33 साल लगे? मैं साहित्य को साहित्य के इतिहास से पहचानता हूं. मुझे मालूम है कि शब्द का क्या महत्व होता है. अगर मैं राइटर हूं और पोएट हूं तो दूसरों के शब्द और दूसरों की रचनाओं की हिफाज़त करना भी मेरा फजऱ् है. मिर्ज़ा ग़ालिब का शेर उठा कर ‘दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात-दिन’ गीत अपने नाम से लिखने का काम मैं नहीं करूंगा. मैं खुद नई बात लिखने की कोशिश करूंगा. 150 साल से ज्यादा की उम्र के ग़ालिब को निजामुद्दीन की अपनी कब्रगाह से निकल कर बंबई आने में काफी वक्त लगेगा और अब वह इतने बूढ़े हो चुके हैं कि आएंगे भी नहीं. इसलिए आप ग़ालिब को आसानी से एक्सप्लाइट कर सकते हैं. अब छत्तीसगढ़ का लोक गीत है ‘ससुराल गेंदा फूल’ इस पर किसी और को फिल्म फेयर अवार्ड भी मिल जाता है क्योंकि यह पब्लिसिटी का युग है और इसे स्वीकार करना चाहिए यही हकीकत है.

महाकवि कपिलनाथ कश्यप : महाकाव्यों के रचइता

7 मार्च . जयंती पर विशेष
आज कलम पकडते ही तुरत लिखो तुरत छपो की मंशा लेकर लेखन करने वालों की फौज बढते जा रही है. किन्तु हमारे अग्रपुरूषों नें लेखन के बावजूद अपने संपूर्ण जीवन में छपास की आकांक्षा को दबाये रखा है. उन्होनें अपनी पाण्डुलिपियों को बारंबार स्वयं पढा है उसमें निर्मम संपादन किया है फिर पूर्ण संतुष्टि के बाद पाठकों तक लाया है. आज के परिवेश मे ऐसा पढ सुन कर आश्चर्य अवश्य होता है किंतु ऐसा भी होता है. हमारे प्रदेश मे हिन्दी और छत्तीसगढी भाषा में समान रूप से लेखन करने वाले एक ऐसे साहित्यानुरागी हुए है जो इसी प्रकार से बिना किसी हो हल्ला के जीवन भर सृजन करते रहे. अपने द्वारा लिखी रचनाओं के प्रकाशन के लिए उन्होंनें कभी भी स्वयं कोई पहल नहीं किया. मित्रों के अनुरोध पर उनकी कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई किन्तु वे उन पर चर्चा या गोष्ठी करवाने के लोभ से विमुख वीतरागी बन रचना कर्म में ही रत रहे. उस महामना का नाम था महाकवि कपिलनाथ कश्यप.
6 मार्च सन् 1906 को छत्तीसगढ के जांजगीर जिले के अकलतरा रेलवे स्टेशन के पास एक छोटे से गांव पौना में कपिलनाथ कश्यप जी का जन्म हुआ. इनके पिता श्री शोभानाथ कश्यप साधारण किसान थे. माता श्रीमती चंद्रावती बाई भी अपने पति के साथ खेतों में कार्य करती थी. बालक कपिलनाथ के जन्म के तीन वर्ष के अंतराल में ही इनके पिता स्वर्गवासी हो गए एवं पांच साल के होते होते इनकी माता भी स्वर्ग सिधार गई. कपिलनाथ कश्यप जी मेधावी थे. इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में और माध्यमिक शिक्षा बिलासपुर में हुई. आगे की पढाई करते हुए किशोर कपिलनाथ को गांधी जी के असहयोग आंदोलन ने प्रभावित किया. और उन्होने अपने साथियों के साथ सरकारी स्कूल का बहिस्कार कर दिया. बाद मे इस स्कूल को अंग्रेजो ने बन्द कर दिया. कपिलनाथ कश्यप जी आगे पढना चाहते थे किन्तु उनकी परिस्थिति ऐसी नहीं थी कि उच्चतर अध्ययन के लिए बाहर जा सकें. सौभाग्यवश उनके गांव के जमीदार का पुत्र कलकत्ता से पढाई बीच में ही छोडकर भाग आया था. उसके जमीदार मां बाप उसे आगे पढाना चाहते थे पर वह अकेले नहीं जाना चाहता था. फलतः कपिलनाथ कश्यप जी को अवसर मिल गया और वे उसके साथ इलाहाबाद चले गए. क्रिश्चन कालेज से सन् 1927 में उन्होंनें इंटरमीडियेट किया और सन् 1931 में प्रयाग विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की.
विश्वविद्यालय में अध्ययन के समय इन्हें आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ.धीरेन्द्र वर्मा, डॉ.रामकुमार वर्मा जैसे प्राध्यापकों का आशिर्वाद सदैव प्राप्त होता रहा. इलाहाबाद में अध्ययन के दौरान उन्हंद महादेवी वर्मा जी से कविता का संस्कार प्राप्त करने का अवसर भी मिला. इलाहाबाद के सृजनशील परिवेश नें उनके जीवन में गहरा प्रभाव डाला और वे कविता लिखने लगे. कश्यप जी जब इलाहाबाद में अध्ययन कर रहे थे उन्हीं दिनों उन्हें शहीद चन्‍द्रशेखर आजाद से कुछ क्षणों के लिए मिलने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ. कश्यप जी 27 फरवरी 1931 को अल्फ्रेड पार्क जाने के रास्ते में खडे थे तभी चंद्रशेखर आजाद जी आये और कश्यप जी को सायकल पकडाकर पैदल पार्क की ओर साथ चलने को कहा. कश्यप जी आकाशीय प्रेरणा से सायकल थाम कर पार्क की ओर उनके साथ चलते गये और उन्हें पार्क के पास छोडकर वापस आ गए. तब कश्यप जी को भान नहीं था कि उनके साथ चल रहे व्यक्ति चन्‍द्रशेखर आजाद थे.
कश्यप जी तद समय के स्नातक थे वे चाहते तो उन्हें तहसीलदार या उच्च प्रशासनिक पद पर नौकरी मिल जाती किन्तु उन्होंनें पटवारी की नौकरी को अपने लिये चुना और शहर से दूर गांवों में किसानों के बीच रह कर जीवन यापन आरंभ किया. यद्यपि उनकी प्रतिभा, लगन एवं परिश्रम के बल पर उन्हें लगातार पदोन्नति मिलती रही और वे शीध्र ही सहायक भू अभिलेख अधीक्षक हो गए.
शासकीय सेवा करते हुए कपिलनाथ कश्यप जी नें हिन्दी एवं छत्तीसगढी में लगातार लेखन किया. उनकी छत्तीसगढ़ी कृतियो मे महाकाव्य श्रीराम काव्य व श्री कृष्ण काव्य. अब तो जागो और गजरा काव्य संग्रह. कथा संग्रह मे डहर के कांटा, हीरा कुमार व डहर के फूल. एकांकी मे अंधियारी रात और नवा बिहान. निसेनी निबंध संग्रह. श्रीमद् भागवत गीता और रामचरित मानस का छत्तीसगढ मे भाषानुवाद. हिन्दी साहित्य की कृतियो मे खण्ड काव्य वैदेही बिछोह, बावरी राधा, युद्ध आमंत्रण, सुलोचना विलाप, सीता की अग्नि परीक्षा, स्वतंत्रता के अमर सेनानी, कंस कारागार और आव्हान. काव्य संग्रह मे पीयूष एवं बिखरे फूल, न्याय, भ्रांत, श्री रामचन्द्र एवं चित्रलेखा है. इनमें से तीन छत्तीसगढी और एक हिन्दी कृति ही प्रकाशित हो पाई. शेष पाण्डुलिपियां आज भी प्रकाशन के इंतजार में कपिलनाथ कश्यप जी के पुत्र गणेश प्रसाद के पास सुरक्षित हैं.
गुमनाम जिन्दगी जीना पसन्द करने वाले महाकवि कपिलनाथ कश्यप जी की लेखनी से छत्तीसगढ ज्यादा परिचित नहीं था. जैसे जैसे इनकी रचनाओं पर समीक्षकों व साहित्यकारों की नजर पडी, उनकी कृतियों को पढ कर सभी आश्चर्यचकित हो गए. साहित्यकारों नें यहां तक कहा कि कश्यप जी जैसा रचनाकार बीसवी सदी में इस अंचल में न तो हुआ है और ना ही होगा. उन पर डॉ.सत्येन्द्र कुमार कश्यप नें पीएचडी किया. डॉ.विनय कुमार पाठक जी नें कपिलनाथ कश्यप जी के संपूर्ण रचनायात्रा पर एक विस्तृत ग्रंथ ‘कपिलनाथ कश्यप : व्यक्तित्व‘ के नाम से लिखा. धीरे धीरे कपिलनाथ कश्यप जी की लेखनी पाठकों तक पहुंची और अंचल नें उन्हें महाकवि के रूप में स्वीकारा. जीवनभर निस्वार्थ भाव से साहित्य सेवा करते हुए कपिलनाथ कश्यप जी का 2 मार्च 1985 को निधन हो गया.
संजीव तिवारी
साथियों, इस आलेख में महाकवि कपिलनाथ कश्‍यप जी के संबंध में मुझसे कुछ त्रुटि हुई थी। जिसे 19 जनवरी 2018 को बेमेतरा में आयोजित छठवें छत्‍तीसगढ़ राजभाषा सम्‍मेलन में उनके परिवार के सदस्‍यों नें ध्‍यान दिलाया, मैं उनका बहुत-बहुत आभारी हूं। अनजाने में हुई भूल के लिए मैं उनसे क्षमा प्रार्थी हूं । महाकवि की जन्‍म तिथि पूर्व में 7 मार्च सन् 1909 लिखा गया गया था जो गलत था, उसे सुधार कर 6 मार्च 1906 कर दिया गया है। इसी तरह भगत सिंह संबंधी वाकये में भगत सिंह का उल्‍लेख गलत था, उसे सुधार कर चन्‍द्रशेखर आजाद कर दिया गया है। - संजीव तिवारी

व्यंग्य कवि कोदूराम दलित

छत्तीसगढी भाषा साहित्य के इतिहास पर नजर दौडानें मात्र से  बार बार एक नाम छत्तीसगढी कविता के क्षितिज पर चमकता है. वह है  छत्तीसगढी भाषा के ख्यात कवि कोदूराम दलित जी का.  कोदूराम दलित जी ने छत्तीसगढी कविता को एक नया आयाम दिया और इस जन भाषा को हिन्दी कविसम्मेलन मंचो मे भी पूरे सम्मान के साथ स्थापित किया. कोदूराम जी की हास्य व्यंग्य रचनाएँ समाज के खोखले आदर्शो पर तगडा प्रहार करते हुए गुददुदाती और अन्दर तक चोट करती हुई तद समय के मंचो पर छा गयी थी.  

ठेठ ग्रामीण जीवन की झलक से परिपूर्ण दलित जी की कविताये आम आदमी को सीख भी देती हैं और दीर्धकालिक प्रभाव भी छोडती हैं.  वे अपनी कविताओ मे छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियों का प्रयोग बड़े सहज और सुन्दर तरीके से करते थे. इन सबके कारण उनकी कविताओ को बार बार पढने को जी चाहता है. उनकी कविताये आज भी प्रासांगिक हैं. इस सम्बन्ध मे विस्तार से लिखने का इरादा है.  

आज ही के दिन 5 मार्च सन् 1910 में छत्तीसगढ के जिला दुर्ग के टिकरी गांव में जन्मे गांधीवादी कोदूराम जी प्राइमरी स्कूल के मास्टर थे. उन्होने पहले पहल स्वांत: सुखाय कविता लिखना आरम्भ किया,  उनकी धारदार कविताओ की खुशबू धीरे धीरे महकने लगी और वे कविसम्मेलन मंचो पर छा गये.  उनकी अधिकम रचनाये आज भी अप्रकाशित है. जिसे उनके पुत्र श्री अरुण कुमार निगम जी ने सजो कर रखा है, श्री निगम भारतीय स्टैट बैंक जबलपुर मे सेवारत है. आज सुबह ही अरुण जी से हमारी फोन पर बात हुई और अरुण जी ने हमे हमारे पाठको के लिये आदरणीय कोदुराम "दलित" जी का फोटो ई मेल किया.  आदरणीय कोदुराम "दलित" जी की प्रकाशित कविता संग्रह हैं - सियानी गोठ,  कनवा समधी, अलहन,  दू मितान, हमर देस,  कृष्ण जन्म, बाल निबंध, कथा कहानी, छत्तीसगढ़ी शब्द भंडार अउ लोकोक्ति.

उनकी रचनाओं में से कुछ पंक्तिया हम यहा प्रस्तुत कर रहे है  - 

संगत सज्जन के करौ, सज्जन सुपा आय 
दाना-दाना ला रखय, भूसा देय उडाय 
भूंसा देय उडाय, असल दाना ला बांटय 
फून-फून के कनकी, कोढा गोंटी छांटय 
छोडव तुम कुसंग, बन जाहू अच्छा मनखे 
सज्जन हितवा आय, करव संगत सज्जन के ।

छत्‍तीसगढ पैदा करय, अडबड चांउर दार
हवय लोग मन इंहा के, सिधवा अउ उदार
सिशवा अउ उदार, हवैं दिन रात कमाथें
दे दूसर ला भात, अपन मन बासी खाथें
ठगथैं ये बपुरा मन ला, बंचकमन अडबड
पिछडे हावय हमर, इही कारन छत्‍तीसगढ ।

ढोंगी मन माला जपैं, लम्‍मा तिलक लगाय
हरिजन ला छूवै नहीं, चिंगरी मछरी खाय
चिंगरी मछरी खाय, दलित मन ला दुतकारै
कुकुर बिलई ला चूमय, पावै पुचकारैं
छोंड छांड के गांधी के, सुघर रस्‍ता ला
भेदभाव पनपाय, जपै ढोंगी मन माला ।

मेरे संग्रह में आदरणीय कोदूराम दलित जी की कुछ और कवितायें हैं जिन्‍हें मैं गुरतुर गोठ में प्रस्‍तुत करूंगा. आज वे हमारे बीच नहीं हैं किन्‍तु उनकी लिखी कवितायें आज भी इस प्रदेश के बहुतेरे लोगों के जुबां पर जीवंत है. आज उनके जन्म  दिवस पर हम उन्‍हें श्रद्धांजली अर्पित करते हैं.

संजीव तिवारी 

आभासी दुनिया के दीवाने और भूगोल के परवाने

पिछले दिनों ब्लॉगजगत को आभासी दुनिया करार देने के लिये काफी जद्दोजहद की गई. तब तात्कालीन परिस्थितियों एवं विषय को देखते हुए हम इससे असहमत थे. इतने दिनों हिन्दी ब्लॉग में हासिये  मे ही सही, रमें  और जमें रहने से हमारा अनुभव भी यही था. इसी आधार पर हमनें पूर्व में एक पोस्ट भी लिखा था. इस विषय पर ठंडे पढ गए विमर्श को पुनः उठाने के पीछे मेरा मकसद यह स्पष्ट करना है कि भूगोल आधारित समूह या आभासी समूह, कौन हमारे हितों और आकांक्षाओं का ध्यान रखते हैं.

पिछले दिनों भाई रविन्द्र प्रभात जी नें अपने ब्लॉग परिकल्पना में परिकल्पना फगुनाहट सम्मान- 2010 के लिए रचना आमंत्रित किए एवं इस तथाकथित आभासी दुनिया से अभिमत मंगाए गए जिसके आधार पर फगुनाहट सम्मान सर्वाधिक अभिमत प्राप्त कविता "जब फागुन में रचाई मंत्री जी ने शादी..." के कवि भाई श्री वसन्त आर्य जी को प्रदान किया गया. श्री वसन्त आर्य जी की रचना के समर्थन मे 36, श्री ललित शर्मा की रचना के समर्थन मे 30, श्री अनुराग शर्मा की रचना के समर्थन मे 08 वोट प्राप्त हुए.
   
सर्वाधिक मत प्राप्त कवि श्री वसन्त आर्य को 5000 रूपये का फगुनाहट सम्मान - 2010 प्रदान किया गया और हमारे भूगोल के भाई ललित शर्मा को उपविजेता का पुरस्कार दिया गया. आशावादी ब्लॉगर भाई लोग कहते हैं कि हिन्दी ब्लॉगों की संख्या 20 हजार हो गई है और वोट पडे मात्र  74. जय हो आभासी दुनिया! चलिये भूगोल आधारित दुनिया की भी खबर ले लेते हैं. छत्तीसगढ के उपलब्ध डाटा बेस के अनुसार इस भूगोल के समूह मे लगभग 150 ब्लॉगर हैं. जिसमे से सक्रिय ब्लॉगर लगभग 50 तो होंगे ही फिर भी ललित भाई की कविता के लिये वोट पडे 30. इसमे भौगोलिक और आभासी  दोनो दुनिया के वोट थे. मेरे अनुसार से भाई ललित शर्मा जी की कविता ही इस पुरस्कार के हकदार थी. इसके बावजूद उन्हें उपविजेता पुरस्कार से ही संतोष करना पडा. क्योंकि अधिकाधिक ब्लॉगरो नें वोट नहीं किया. कहां गया भूगोल का समूह - आभासी दुनिया का आभास ?

ये कैसी दुनिया है,  यह तो पता चल गया. साथ ही यह भी पता चल गया कि टिप्पणियों में फोनों में हम लाख साथ देने, वैचारिक साम्यता की बाते करते हों पर वोट डालने की बात आती है तो हम तटस्थ हो जाते हैं वोट ही नहीं डालते या एक पुरानी कहानी की तरह व्यवहार करते हैं (राजा के गड्ढे में दूध डालने के आदेश पर रात में सभी लोगों नें पानी डाला कोई दो चार लोगों नें ही दूध डाला, सब सोंचते रहे कि मेरे बस पानी डालने से क्या होगा सभी लोग तो दूध डाले होंगें और जब सुबह देखा गया तो वहां पानी ही पानी था.)  इस आभासी दुनिया के दीवाने और भूगोल के परवाने सभी सोंचते रहे कि और लोग दूध डालेंगें, पर ऐसा हुआ नहीं.

संजीव तिवारी

रायपुर प्रेस क्लब के नॉन सेन्स टाइम्स मे अनिल पुसदकर जी

नानसेंस टाइम्स
पूरे ब्रम्हांड का एक अनोखा सालाना अखबार जिसे होली के अवसर पर प्रकाशित किया जाता है , रायपुर प्रेस क्लब में प्रदेश के मूर्धन्य लोग जिसे विमोचित करने लालायीत रहते है, पेंसन भोगी पत्रकारों की इस भंगीली प्रस्तुति में सच्चाई के रंग के साथ टूच्चाई का रंग होता है जिसे पढ़ कर मस्ती भी मौकापरस्त हो जाती है , सही मायने में यह एक आइना है.नानसेंस टाइम्स के संपादक मंडल का सेन्स कुछ ऐसा होता है की इसकी प्रति पढने के लिए लोगो में होड़ लगी रहती है.
रायपुर प्रेस क्लब से होली के दिन विगत 14 वर्षों से प्रकशित नॉन सेन्स टाइम्स इस वर्ष से आन लाईन हो गई  है,  नॉन सेन्स टाइम्स को अब आप यहॉं से पढ सकते हैं. रायपुर प्रेस क्लब मे ब्लॉग का चिराग जलाने मे बडे भाई अनिल पुसदकर जी का अहम योगदान रहा है. यह खुशी की बात है कि, आज क्लब मे कई पत्रकार भाई अपना ब्लॉग बना लिये हैं और ब्लागिस्तान से जुड गये हैं. इसी के कारण हम लोगों को भी यह टाइम्स देखने को मिल सका.

पत्रकारजगत और ब्लॉगजगत के प्रिय अमीर धरती गरीब लोग वाले भाई अनिल पुसदकर जी का "बुरा ना मानो होली है " फोटू हम इसी नॉन सेन्स टाइम्स से साभार यहा लगा रहे हैं,  होली का उमंग अभी भी बाकी है, आप भी टिपिया के होली के अबीर - गुलाल उडाई लो.
  

मुझे चोट लगने पर अम्मा की आँखों में आँसू आए : गिरीश पंकज

 श्री गिरीश पंकज

सद्भावना दर्पण (भारतीय एवं विश्व साहित्य की अनुवाद-पत्रिका) के संपादक श्री गिरीश पंकज कलम के दम पर जीवन यापन करने वाले चंद लोगों में से एक विशिष्ट साहित्यकार हैं । चर्चित व्यंग्यकार गिरीश पंकज नवसाक्षर साहित्य लेखन में सिद्ध है । वे साहित्य अकादमी नई दिल्ली के सम्मानित सदस्य हैं, छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के प्रांतीय अध्यक्ष है। इनके ब्‍लाग हैं गिरीश पंकज का नया चिंतन और गिरीश पंकज
माँ को याद करना उस पावन नदी को याद करना है, जो अचानक सूख गई और मैं अभागा प्यासा का प्यासा रह गया । अब तक । याद आता है, वह महान गीत, जिसे मैं बार-बार दुहराता हूँ मंत्र की तरह, कि ऐ माँ, तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी । उसको नहीं देखा, हमने कभी, पर उसकी जरूरत क्या होगी । दो दशक पहले माँ मुझे छोड़ कर चली गई । हम चार भाई-बहनों को अपने स्नेहिल स्पर्श से वंचित कर गई । हमेशा-हमेशा के लिए । पहले उसने हम बच्चों का लालन-पालन किया । हम लोगों की देखभाल के कारण स्वास्थ्य गिरता गया और एक दिन उसने बिस्तर पकड़ लिया । फिर बहुत दूर चली गई । कभी न लौटने के लिए । माँ को कैंसर के भीषण दर्द से मुक्ति मिल गई लेकिन हमको जीवन भर का दर्द दे गई ।

आज जब कड़ी धूप में कहीं कोई छाँव नजर नहीं आती तो याद आती है : मां ।
जब कभी मुझे ठोकर लगती है तो मुँह से निकलता है : माँ ।
जब कोई भयावह मंजर देखता हूँ तो विचलित हो कर जेहन में कौंध जाती है : माँ ।
भय से, दुख से, शोक से, उबरने का मंत्र हो गई : माँ ।

ऐसी प्यारी माँ को आज फिर याद कर रहा हूँ । भाई परदेशीरामजी ने याद दिला दिया । उनके कारण एक बार फिर माँ का चेहरा जीवंत हो कर सामने आ गया है । लग रहा है । कि वह मेरे सामने बैठी है और मेरे सिर पर अपने हाथ फेर रही है । इस भीषण गरमी में भी शीतलता का अहसास हो रहा है । माँ शब्द में एक जादू है । मेरी आँखे नम हैं, लेकिन ये नमी माँ को वापस लाने की ताकत नहीं रखती । फिर भी इतना तो है, कि माँ अमूर्त हो कर ही सही, मेरे ईद-गिर्द बनी रहती है । माँ, तुम्हारे जाने के बाद पिताजी अकेले पड़ गए हैं । बेबस । मैं उनकी पीड़ा को समझ सकता हूँ, लेकिन इस सत्य से हम सब वाकिफ हैं, कि जो लिखा है, वह घटित हो कर रहेगा । लेकिन तुझे न भूल पाने की एक व्यवस्था हमने कर ली है । ड्राइंग रूम की दीवार पर टँगी माँ की मुस्कारती हुई तस्वीर रोज मेरे सामने रहती है । इसी बहाने माँ की नजर भी मुझ पर पड़ती रहती है । माँ तुम्हारे संस्कारों की ऊँगलियाँ पकड़ कर मैं जीवन की ये कठिन राहें पार करने की कोशिश कर रहा हूँ । वे हर पल मुझे हिदायत देती-सी लगती है, कि बेटे कोई गलत काम मत करना, वरना तेरे कान खींच लूँगी । बस, मैं सावधान हो जाता हूँ ।

आज भी माँ मुझे गलत कामों से रोकती रहती हैं । माँ को याद करता हूँ, तो बहुत-सी घटनाएँ कौंध जाती हैं । क्या भूलूँ, क्या याद करूँ ? फिर भी एक-दो घटनाएँ जो अभी तत्काल कौंध रही हैं, उन्हें सामने देख रहा हूँ ।

तुझे याद है न माँ, बचपन में एक बार मैं चोरी-छिपे सिनेमा देखने गया था, तो तूने मेरी जोरदार पिटाई की थी ? उस पिटाई ने दवाई का काम किया और उसके बाद मैंने चोरी-छिपे सिनेमा देखने की आदत को छोड़ दिया । जब कभी कोई नई फिल्म लगती और माँ को लगता था, कि यह फिल्म उनका बेटा देख सकता है, तो मुझे पचास पैसे दे कर कहती थी, जा बेटा, सिनेमा देख आ । मैं खुश हो जाता था, लेकिन फिर डरते-डरते पूछता ता, माँ, पिताजी कुछ बोलेंगे तो नहीं ? तब तुम मुस्कारते हुए कहती थी - चिंता मत कर बेटा । मैं हूँ न । वे कुछ नहीं बोलेंगे । और जो कुछ बोलेंगे, तो मुझे बोलेंगे । तू तो जा, लेकिन देख: संभल कर जाना । सड़क के किनारे-किनारे चलना । कोई अनजान आदमी कुछ खिलाए तो मत खाना । किसी के बहकावे में आकर कहीं मत जाना । सीधे घर आना । इधर-उधर मत घूमते रहना ।

पता नहीं कितनी हिदायतें एक साथ दे दिया करती थीं तुम । उस वक्त तो लगता था, कि माँ तो मुझे बस एकदम बच्चा ही समझती है । हर घड़ी निर्देश ही देती रहती है । लेकिन आज जब मैं एक बच्चे का पिता हूँ और अपने बच्चे साहित्य की तरह-तरह को निर्देश देता रहता हूँ, और उसकी माँ भी कदम-कदम पर न जाने कितनी हिदायतें उसे देती रहती है, तब समझ में आता है, कि मां की करूणा, उसकी भावना क्या होती है । पिता तो फिर भी थोड़ा अलग किस्म के जीवन होते हैं, अपनी कामकाजी दुनिया में मस्त लेकिन माँ अपने बेटे के भविष्य को लेकर एकाग्र रहती है । माँ क्या है ? निर्मल-शीतल जल । आँसू की गगरी । जब-तब झलकती रहती । मैं अपनी माँ को इस रूप में देखता रहता था । खेलते-खेलते कहीं मुझे चोट भर लग जाए तो माँ की आँखों में आँसू भर जाते थे । छोटी-सी चोट भी माँ को बहुत बड़ी नजर आने लगती थी । पूरे घर को सिर पर उठा लेती थी कि हाय-हाय, देखो तो कितनी चोट लग गई है । मेरा कभी पढ़ने का मन नहीं होता था, तो कभी स्कूल से गोल मार दिया करता था । हर लड़का शायद ऐसा ही करता है, जब वह बच्चा होता है । उसे प्रेम से समझाने का काम माँ ही करती है । मेरी माँ मुझे स्नेहिल-स्पर्श के साथ समझाया करती थी, कि बेटे, मन लगा कर पढ़ाई कर । तुझे दुनिया में हम सब का नाम रौशन करना है । पिताजी के सपनों को पूरा करना है । मुझे याद है, कि माँ की समझाइश को एक कान से सुनता था और दूसरे कान से निकाल देता था । मुझ पर माँ की समझाइश का कितना असर हुआ, यह तो याद नहीं, लेकिन माँ की हिदायतें मुझे अब तक याद हैं ।


एक रोचक घटना याद आ रही है । मैं तब दस साल का था । पिताजी किसी काम से बाहर गए हुए थे । राशन लाना जरूरी था । एक दिन माँ ने कहा, बेटा, जा राशन ले आ । माँ ने राशन कार्ड दे दिया । कुछ पैसे भी जेब में रख दिए । समझा दिया कि सीधे दूकान जाना । राशनकार्ड दिखाना और राशन ले कर लौट आना । मैं चला गया । जिंदगी में पहली बार घर का कुछ सामान लेने निकला था । मन में विकट उत्साह था । राशन दुकान के सामने पहुंच गया । वहां भीड़ थी । मैं किनारे खड़ा हो कर सोचने लगा, कि राशन लूँ तो कैसे लूँ । तभी एक व्यक्ति मेरे पास आया । उसने कहा, क्यों राशन लेना है ? मैंने सिर हिला दिया । वह आदमी बोला-चिंता मत करो । मैं हूँ । अभी दिलाता हूँ राशन । थोड़ी देर बाद वहीं आदमी आया । उसके हाथ में बूँदी से भरा एक दोना था । उसने दोना मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, तुम वहाँ आराम से बैठ जाओ । मैं तुम्हारा राशन ले कर आता हूँ ।

मुझे लगा, इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है । मैंने खुशी-खुशी अपना झोला, राशन कार्ड और पैसे उस आदमी के हवाले कर दिए और एक किनारे बैठ कर बूँदी के मजे लेने लगा । लेकिन थोडी देर बाद वह आदमी मेरी आँखों से ओझल हो गया तो मैं हड़बड़ाया । अरे, वो कहाँ गया ? मैंने इधर-उधर देखा मगर वह कहीं नहीं दिखाई पड़ा । अब मैं घबराया । समझ गया कि उस आदमी ने पाँच पैसे की बूंदी खिला कर मुझे ठग लिया । उस आदमी को इधर-उधर न पाकर मैं रोने लगा । मैं रोता जाता और साथ में बूँदी भी खाते जाता । रोते-रोते घर पहुँचा, खाली हाथ । मां ने पूछा - राशन कहां है, तो मैंने सारी राम कहानी बता दी । मुझे लगा कि अब बुरी तरह पिटाई होगी । लेकिन माँ ने ऐसा कुछ नहीं किया । उल्टे मुझे गले से लगा कर डबडबाई आँखों के साथ वह बोली - रो मत बेटे । कभी-कभी ऐसा हो जाता है । तू घर वापस आ गया न । यह बड़ी बात है । वो बदमाश हमारा राशन ले कर भाग गया तो कोई बात नहीं । कहीं तुझे उठा कर ले जाता तो मैं कहीं की न रहती ।

माँ, पिताजी मारेंगे तो नहीं ? मैंने डरते-डरते पूछा
तू चिंता मत कर । मैं कह दूँगी कि राशन कार्ड मुझसे कहीं खो गया है । माँ ने मुझे हिम्मत दी ।
मां की बात सुन कर मैं उनके आँचल से लिपट गया और बहुत देर तक रोता रहा । माँ मुझे बहलाती रही । फिर भी मैं चुप नहीं हुआ तो वह अचानक बोली - गुलगुला खाएगा ?

गुलगुले की बात सुन कर मैं चुप हो गया । माँ ने बड़े प्रेम से गुलगुला खिलाया, फिर बोली - जा, बाहर खेल कर आ जा । संभल कर खेलना । चोट न लग जाए ।

आज यह घटना मुझे याद आती है, तो मुस्करा पड़ता हूँ । लेकिन इस घटना के पीछे एक माँ की ममता की महागाथा को पढ़ता हूँ, तो उस महान माँ के प्रति सिर श्रद्धा से झुक जाता है ।

ऐसी अनेक घटनाएँ है, जब माँ ने मुझे पिताजी के हाथों पिटने से बचाया । पिताजी अक्सर नाराज होकर माँ पर गुस्सा उतारा करते थे, कि तुम लड़के को बिगाड़ रही हो । माँ कुछ नहीं बोलती थी । बस, चुप रहती थी । चुप रहना भी प्रतिकार करने की एक बड़ी ताकत है । माँ मुझे अपने आँचल में छिपा कर प्यार करती थी । मेरा बचपन शैतानियों से भरा था । पिता मुझे शैतानियों से बचाने के लिए प्रताड़ित करते थे, तो माँ पिताजी की प्रताड़ना पर स्नेह का मरहम लगा कर मुझे तरोताजा कर देती थी । आज मैं जो कुछ भी हूँ उसके पीछे पिताजी और माँ का बहुत बड़ा हाथ है । माँ का योगदान कुछ ज्यादा है । इस बात को पिताजी भी मानते हैं । माँ का वह कोमल स्पर्श मुझे अब तक याद है । उनका ममत्वभरा चेहरा मेरे सामने हैं । आज किसी भी नेक माँ को देखता हूँ, तो अपनी माँ याद आ जाती है । माँ को लेकर दुनिया के तमाम लोगों ने बहुत-सी कविताएँ लिखी हैं । मैंने भी कोशिश की है । पेश है एक गजल -

अम्मा

दया की एक मूरत और सच्चा प्यार है अम्मा
है इसकी गोद में जन्नत लगे अवतार है अम्मा
खिलाकर वह जमाने की हमेशा तृप्त होती है
रहे भूखी न बोले कुछ बड़ी खुददार है अम्मा
वो है ऊँची बड़ी उसको न कोई छू सका अब तक
धरा पर ईश का इंसान को उपहार है अम्मा
नहीं चाहत मुझे कुछ भी अगर हो सामने सूरत
मेरी है ईद-दीवाली हर इक त्योहार है अम्मा
मैं दुनिया घूम कर आया अधूरा-सा लगा सब कुछ
जो देखा गौरे से पाया सकल संसार है अम्मा
पिता हैं नाव सुंदर-सी मगर यह मानता हूँ मैं
लगाए पार जो इसको वहीं पतवार है अम्मा

माँ, तुम जहाँ भी हो, मुझे आशीष देती रहना । तुम्हारी तस्वीर मेरे सामने हैं । रोज तेरा चेहरा देखता हूँ और तरोताजा हो जाता हूँ । लोग कहते हैं कि तुम मंदिर नहीं जाते, पूजा पाठ नहीं करते, तब मैं कहता हूँ, मैं जब माँ की तस्वीर को देखता हूँ, तो मेरी पूजा पूरी हो जाती है । मुझे कहीं जाने की जरूरत नहीं । फिर मैं वही मशहूर गीत दुहरा देता हूँ, कि ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी ? इंसान तो क्या देवता भी आँचल में पले तेरे । है स्वर्ग इसी दुनिया में कदमों के तले तेरे । तू है तो अँधेरे पथ में हमें सूरज की जरूरत क्या होगी ? ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी ?

गिरीश पंकज

रंग पर्व की हार्दिक शुभकामनॉंए...........


अबके गये ले कब अईहव हो, अब के गये ले कब अईहव
फागुन महराज, फागुन महराज, अब के गये ले कब अईहव.

आप सभी को रंग पर्व की हार्दिक शुभकामनॉंए.

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...