पिछले दिनों एक पोस्ट में ज्ञानदत्त पाण्डेय जी नें अपना पता ठिकाना बतलाते हुए पूछा था कि 'आप' कहां रहते हैं. हालांकि उन्होंनें परिवेश के संबन्ध में विमर्श चाहा था पर हमारी सोंच कुछ ऐसे चली और यह पोस्ट टाईप हो गया. आप भी देखें कि हमारा घर कहां हैं.
पढाई के दिनों में हमको हाई स्कूल तक स्कूल के लिये गांव से पैदल लगभग आठ किलोमीटर जाना और आठ किलोमीटर आना जब पढता था तब हमारे बडे भाई और बहने हमारे दादा जी को बहुत कोंसते थे कि अपार भू-संम्पत्ति होते हुए भी हमारे दादा, सिमगा (वह कस्बा जहां हम कच्ची उम्र से ही पढने आते थे) में एक छोटा सा घर नहीं बनवाये, वक्त जरूरत में जहां रूका जा सके या फिर घर के किसी नौकर के साथ रहते हुए बच्चे पढाई कर सकें. तब हमें अपने पांवों में दर्द और कच्चे रास्तों में चलने के कारण नाजुक पैर पर पडे छालों के अतिरिक्त और कुछ समझ में नहीं आता था. हम बस्ता लटकाये उनके पीछे-पीछे उनकी बातें सुनते चलते रहते थे. और जब कालेज पढने के लिये रायपुर का रूख करना पडा तब हमारे मुंह से भी विरोध के स्वर रोज-रोज फूटने लगे. रायपुर में आस-पास के गांव वाले जमीदार, गौंटिया या दरोगा के द्वारा नगर में बनवाये गये बडे-बडे बाडे नजर आते थे 'कठिया बाडा', 'रांका बाडा', अर्जुनी वाले दाउ का बाडा,' 'सिद्ध निवास' पता नहीं और क्या-क्या. साथ पढने वाले मित्र अपने गांव के इन्हीं बाडो में रहते थे और हमें चिरोरी कर कर के छोटा दबडा किराये में लेना पढता था. तब दादा जी के दकियानूसी प्रवृत्ति पर चिढ होती थी कि उन्होंनें शहरों में न खुद मकान बनवाया ना ही अपने बच्चों को गांव से बाहर निकलने दिये.
किराये के छोटे मकान में रहने का दुख क्या होता है यह वही जान सकता है जो किराये के मकान या चाल में रहता है, चाहे वह बेचलर स्टूडेंट हो या शादीशुदा बालबच्चेदार परिवार. और खासकर उन्हें जिन्हें गांव में खुले खुले बारामदों व उन्मुक्त स्वतंत्रता मिलती हो. पर हमारे हृदय में दुख का यह क्रम अनवरत रहा.
पढाई के बाद रायपुर के ही ब्राह्मण पारा, बरमबाबा, शंकरनगर के साथ ही दुर्गा कालेज कैम्पस के प्रथम तल में बने कार्यालय, नव-भास्कर प्रेस आदि धनी आबादी के बीच किराये से या फिर दोस्ती-यारी के चलते 'घर' का स्वप्न पूरा करते रहे, नौकरी के लिये जद्दोजहद चलती रही. इसके बाद हम दुर्ग आ गए क्योंकि तब वहां हमारी बडी बहन का स्थानांतरण हो गया था. घर तब भी किराये का ही था. मै जिस संस्थान के साथ कार्य कर रहा हूं उसका कार्यालय भिलाई में है और मुझे दुर्ग से प्रत्येक दिन आना जाना होता था सो मैनें समूह द्वारा बनाये जा रहे बहुमंजिला व्यावसायिक काम्पलेक्स कम होटेल के लगभग पूर्ण हो चुके एक कार्यालय फिर एक रूम को 'घर' बना लिया.
जब शादी हुई तब असली चिंता जागी 'घर' की. उस समय भिलाई स्पात संयंत्र के क्वाटरों को वहां के कर्मचारी सालाना किराये पर देते थे. मैनें एक दलाल को पकडा कि भाई मेरी शादी हो गई है अब जल्दी ही मुझे कोई क्वाटर किराये से दिला दो. दलाल महोदय दूसरे दिन आये अपनी नई यामाहा में बैठाकर सेक्टर 6 के सी मार्कट के पीछे ड्यूपलेक्स क्वाटर को बाहर से दिखाया. मैं ड्यूपलेक्स क्वाटरों को पहले भी देख चुका था इस लिये अंदर देखे बिना ही राजी हो गया. किराया तय हुआ और मैनें दूसरे दिन पूरे साल भर का किराया दे दिया. उसने किराया उसी क्वाटर में लिया, क्वाटर बढिया साफ सूथरा था एवं फ्लोर को शायद पानी से धोया या पोछा गया था जिसके कारण क्वाटर सुन्दर लग रहा था. मैनें वहां अपना ताला लगाया और वापस अपने अड्डे आ गया. मेरे मातहत कर्मचारियों से तय यह हुआ कि शाम को छुट्टी के बाद मेटाडोर बुलाकर सामान पहुचा देंगें. किया भी यही गया, क्वाटर में सामान सब व्यवस्थित रख दिया गया. और हम सब ताला लगाकर खाना खाने किसी रेस्टारेंट में चले गये वापस आने पर मेरा एक विश्वसनीय सहायक मेरे साथ रहा. हमने पलंग बिछाई और सो गये.
रात लगभग 12 बजे दरवाजे में जोरदार दस्तक होने लगी. हम दोनों हडबडाकर उठे, मैंने दरवाजा खोला. दरवाजे को धकेलते हुए एक सब इंस्पेक्टर के साथ लगभग पांच-छ: पुलिस वाले अंदर क्वाटर में घुस गए. हम दोनों सकते में आ गए. उन्होंनें बतलाया कि इस क्वाटर के असली मालिक को दलाल नें आज सुबह इसी क्वाटर में चाकू मार दिया है. दरअसल दलाल इस क्वाटर को जबरन कब्जा करके रखा था, आज मुझे किराये से देने के लिये क्वाटर खोला होगा तो पडोसियों नें मकान मालिक को बुला लिया, तकरार बढी होगी और दलाल ने अपना दबदबा कायम रखने के लिये छोटे चाकू से वार कर दिया था. हम इससे बेखबर थे पुलिस भी यह बात जानती थी. पर उन्हें आदेश था कि हमें डग्गे में बिठाकर थाना लाये और बयान करवायें. हमें थाना ले जाया गया, बयान आदि का कार्य नहीं किया गया. सिर्फ बिठा दिया गया बैरक से बाहर किन्तु कैदियों की भांति. रात का समय थाने की भयावहता से हमारे चेहरे पीले पड गए थे. कोई भी परिचय बताने से काम नहीं बन पा रहा था. उसी समय एक चमत्कार हुआ, मेरे मित्र का मित्र एक ट्रैफिक इंस्पेक्टर उसी समय थाना आया और मुझे वहां बैठे देखकर मुझसे वाकाया पूछा और हम दोनों को उसी समय थानेदार से बोल कर छुडवा दिया, ट्रैफिक इंस्पेक्टर के कहने पर हमने क्वाटर की चाबी उन्हे दे दी, भाड में जाए क्वाटर और सामान. हम सेक्टर 6 कोतवाली से पैदल ठंड की रात में सुपेला आये. तब तक लगभग रात के तीन बज गए थे. मानसिक रूप से हम इतने घबरा गए थे कि मैं शव्दों में बयां नहीं कर सकता उस अनुभव को. दूसरे दिन उसी भले मानुस नें मेरा सारा सामान उस क्वाटर से मेटाडोर में भरवाकर वापस मेरे आफिस भेजा. हमें पुलिसिया कार्यवाही से दूर किया.
इस वाकये नें मुझे झकझोर के रख दिया. 'घर' का स्वप्न बरकरार रहा. उस इंस्पेक्टर नें मेरे मित्र को सुबह इसकी जानकारी दी तो मित्र नें पहले मुझे मेरे सहायता न लेने के थोथे इथिक पर फटकारा और तत्परता दिखलाते हुए हुडको में एक कमरे का एक मकान किराये में दिला दिया. तब मैं अपनी पत्नी को वहां ला पाया और पहली बार लगा कि वह कमरा मेरा 'घर' है. इस 'घर' में मैं लगभग एक वर्ष रहा फिर मैं जहां काम करता था उस कम्पनी नें घर देने का सिलसिला जो चालू किया वो आज तक जारी है. हमारी कम्पनी रियल स्टेट का काम भी करती है, हम लोगों के लिये घर बनाते हैं और शहर के कुछ ऐसे मकान भी हम खरीद लेते हैं जो सस्ते हों और उसे रिनवेट करें तो अच्छा रेट मिल जाए. रिनवेट होने के बाद बिकने तक की अवधि मेरी है, अभी जिसमें रह रहा हूं उसकी कीमत कम्पनी ने रखी है आधा करोड. इन्हीं घरों में कट रही है जिन्दगी (हा हा हा लंगोटिया मानुस करोड का मकान). पता नहीं कब तक यह सिलसिला चलेगा. और मैं कह पांउगा कि मेरा घर यहां है. घर के मामले में मैं दार्शनिक सोंच ही अख्तियार कर लेता हूं - जीव-देह-आत्मा .............
मुझे लगता है कि कोई चमत्कार होगा और मेरे पास शहर में घर खरीदने या बनवाने लायक पैसा होगा या ..... जब मैं अपने आप को रिटायर समझने लगूंगा और वापस अपने गांव जाउंगा तभी मुझे मेरा 'घर' मिल पायेगा.
पोस्ट जरूरत से ज्यादा लम्बी हो गई पर क्या करें कीबोर्ड में उंगलिंया चलती रही चलती रही.
संजीव तिवारी
घर के लिए संघर्ष कुछ ऐसा ही है। जीवन गुजर जाता है फिर भी नहीं मिलता। कभी हाथ आया भी खिसक लेता है।
जवाब देंहटाएंरिटाय्रर होने के बाद अगर पुश्तैनी घर ढूँढेंगे तो मुश्किल ही मिलेगा एक बार घर छोड दिया फिर कोई आपको उसका हकदार नहीं समझता येघर के लिये छटप्टाहट तो हर आदमी के साथ है आलेख बहुत बडिया लगा आभार्
जवाब देंहटाएंशास्त्रों में लिखा है जहां माँ- बाप रहतें है वही घर बन जाता है.फिर भी हम अपने सन्तुस्ति के लिए एक "मेरा मकान" इधर उधर भटकते रहते हैं.
जवाब देंहटाएंलेख अच्छा लगा
दुखद अनुभव , पढ़कर अच्छा नहीं लगा !
जवाब देंहटाएंरिवर्स माइग्रेशन नहीं हो रहे हैं। हम कितना ही गांव वापसी के स्वप्न देखें, वे यथार्थ नहीं बनते दीखते। स्वास्थ्य, बिजली और अन्य सुविधायें जुटाने में वहां आर्थिक खर्च भी हैं और घनी आबादी का इक्नामिक्स ऑफ स्केल गांव में प्राप्त करना कठिन है।
जवाब देंहटाएंहमारे स्वप्न स्वप्न ही रहने जा रहे हैं। :(
ज्ञान जी की बातों से सहमत हूँ ...और मन ने अभी से ही मान लिया है की अब ये संभव नहीं है..इसलिए ...जो कर सकता हूँ अपने गाँव के लिए ..अपनों के लिए ..करने की कोशिश में लगा रहता हूँ..आपने भावुक कर दिया..मगर अनुभव बांटने के लिए बहुत बहुत आभार ....
जवाब देंहटाएंGhar ki dastan bhi kitni ajeeb hoti hai...filhal lage rahiye.
जवाब देंहटाएंशब्द-शिखर पर नई प्रस्तुति - "ब्लॉगों की अलबेली दुनिया"