हमने पढ़ा है जीवन के शाश्वत सत्यों को चुनना और अपनी रचना का हिस्सा बनाना, रचनाकार की परिपक्व़ता और विस्तार का संकेत होता है. कथा साहित्य का यही वास्तविक मूल होता है, जिसमें आगे चलकर लेखक की दृष्टि, उसकी वैचारिक समझ, अनुभव तथा विभिन्न जानकारियां शाखाओं के रूप में प्रस्फुटित होकर फलती फूलतीं हैं. लेखक ओमप्रकाश जैन की औपन्यासिक कृति 'संघर्ष और सपने' अपने प्रस्तुत कलेवर में इन्हीं जानकारियों के खजाने का भ्रम प्रस्तुत करती है. मानव मन और उसकी अतलातल गहराई के सच को जानने एवं स्वानुभूत सत्य अथवा जिया भोगा यथार्थ को शव्द देने का भरसक प्रयास लेखक नें प्रस्तुत उपन्यास में किया है. अपने लेखकीय कथन में उसने स्वीकारा है कि प्रस्तुत उपन्यास में उसने सामाजिक कुरीतियों पर सीधे प्रहार किए है एवं उपन्यास की गरिमा बनाए रखने के लिए उन्होंनें कठोर संघर्ष किया है.
उपन्यास ‘संघर्ष और सपने’ में बाबा विक्रम सिंह, सुलोचना व अमृतलाल जैसे पात्रों की आभासी उपस्थिति प्रस्तुत करते हुए लेखक नें 'प्रभात' नामक एक पात्र को आदर्श रूप में प्रस्तु्त किया है. उपन्यासों के संबंध में प्रचलित पूर्वोक्ति यहां स्पष्ट दृष्टिगत होती है कि उपन्यासकार अपने उपन्यास में आत्मकथा और आत्म कथा में उपन्यास लिखता है. लेखक प्रभात के केन्द्रीय पात्र में अपने स्वयं को प्रस्तुत करता प्रतीत होत है . सामाजिक उपन्यास की व्यावसायिक लालसा नें कथानक में हवेली का रहस्य और चतुष्कोणीय प्रेमकथा को भी शामिल कर लिया है जो लगभग अतिरंजक नजर आता है. इसमें कोई संदेह नहीं कि लेखक नें इस उपन्यास को लिखने में अपनी सर्वोत्तम उर्जा लगाकर बेहतर लिखने का प्रयास किया है किन्तु लेखक के लेखन में साहित्यिक अध्ययन का अभाव समूचे उपन्यास में दृष्टिगत होता है. लेखक नें देवकीनंदन खत्री बनने का प्रयास तो किया है पर चंद्रकांता संतति को पढा नहीं है, यह प्रस्तुत उपन्यास को पढने से स्पष्ट झलकता है. उथले प्रसंगों और बिम्बों से युत उपन्यास के कथानक में समग्र प्रभावान्विति में बिखराव एवं भीतरी कलात्मक कसावट की कमी है. कहानी में प्रवाह की कमी के कारण संवाद व परिस्थितियों का चित्रण असहज लगने लगता है. जिसके बावजूद लेखक नें अपने संघर्ष और सपने को भरपूर पठनीय बनाया है जो भाषा, विषय, उपन्यास की अर्थवत्ता और गुणवत्ता के शास्त्रीय बंधनों से मुक्त हल्की-फुल्की कहानी में रूचि रखने वाले पाठकों को जरूर पसंद आयेगी.
(कुछ लेखकों की आकांक्षा होती है समीक्षा के लिए किसी को अपनी कृति सौंपने के अगले ही घंटे उसकी कागजी प्रतिक्रिया तैयार होकर मिल जाए या पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो जाए पर जिसे आपने यह भार दिया है उसका दायित्व होता है कि वह उस कृति को एक सामान्य पाठक और लेखक की इच्छा के अनुरूप समालोचक की दृटि से पढ़े. इसके लिये समय की आवश्यकता होती है. प्रस्तुत उपन्यास के लेखक ओमप्रकाश जैन जी के द्वारा मुझे पिछले कई महीनों से लगातार फोन आ रहे थे और व्यक्तिगत संपर्क भी किए जा रहे थे किन्तु मैं उनके उपन्यास को एक दो पन्ने से ज्यादा पढ़ ही नहीं पा रहा था. मुझे किशोरावस्था में पढ़े गए दूसरे दर्जे के बाजारू जासूसी उपन्यासों की 'लरिकाई' उस उपन्यास में नजर आती थी और मैं पढ़ना बंद कर देता था इधर जैन साहब का फोन फिर आ जाता था. आखिर में मैंनें लगभग 250 पृष्टों के डिमाई साईज के इस उपन्यास को शुरू से अंत तक पढ़ा. बहुत कठिन है किसी लेखक की कृति के संबंध में सार्वजनिक तौर पे कुछ कहना और ऐसे लेखक की कृति पर जो उसकी पहली रचना हो. जैन साहब और पाठक दोनों को क्षमा सहित.)
संजीव तिवारी
अच्छी और ईमानदार समीक्षा!
जवाब देंहटाएंसही समीक्षा!!
जवाब देंहटाएं