छत्तीसगढ में पिछले रविवार से कुछ अच्छी बारिश हो रही है जो आज तक धीरे धीरे चल रही थी. हम आफिस से इंदिरा मार्केट दुर्ग पहुंचे, देखा रिमझिम बारिश के बावजूद मार्केट के पहले से ही छतरियों का रेला लगा हुआ था. जैसे तैसे गाडी पार्क कर हम थैला हाथ में लेकर आगे बढ़े. मार्केट के बाहर ही 'खमरछठ' (हलषष्ठी को छत्तीसगढ़ में खमरछठ कहा जाता है) के पूजा सामान बेचनें वाले 'पसरा' फैलाये बैठे थे. पसहर चांवल (ऐसा अन्न जो गांव में तालाबों के किनारों में स्वमेव ही उगता है और जिसे पकने पर सूप से झाड़ कर इकत्रित कर, कूट कर चांवल बनाया जाता है), महुये के फल, पत्ते, उसी के लकड़ी के दातौन व बिना जुते हुए भूमि से स्वाभाविक रूप से उगे शाक वनस्पतियों के पांच प्रकार की भाज़ी इत्यादि के बाजार सजे थे. लोग उन्हें खरीदने पिल पडे थे.
कौड़ी के मोल इन चीजों को हमने भी बहत ज्यादा कीमत में खरीदा. फिर डेयरी में लाईन लगा कर गाय के दूध उत्पादों के स्थान पर हलषष्ठी में प्रयोग होने वाले भैंस के दूध, दही और घी खरीदा. फिर याद आया कि पूजा सामानों के साथ चांवल और भाजी तो लिया पर बिना हल जुते उगे मिर्च को लेना रह गया. पूरा बाजार पुन: छान मारा पर वह मिर्च कहीं नहीं मिला. जब बाजार से बाहर निकल रहा था तभी एक 'पसरे' में वह मिर्च दिखा, मटर के दानों जैसा. लोगों की भीड वहां भी थी. हमने कीमत पूछा तो उसने बतलाया कि दस रूपये का एक. मुझे लगा कुछ गलत सुन लिया हूँ, पुन: पूछा तो 'पसरे' वाली बाई ने कुछ तुनकते हुए कहा कि हॉं दस रूपये का एक है.लोग मुट्ठी भर शेष बचे उस छोटे-छोटे मिर्च को छांट-छांट कर खरीद रहे थे. मैंनें सोंचा कि यदि कुछ पल और रूका तो पूरा मिर्च बिक जायेगा. सो मैंनें भी छांटकर तीन मिर्च लिये और चुपचाप तीस रूपया उसके हाथ में धर दिये.
हमें अपने गांव के दिन याद हैं वहां ये सब सामान सहज रूप से उपलब्ध हो जाते थे, बहुत ही कम कीमत में. पर शहर, गांवों के सहज चीजों की कीमत तभी जानती है जब उसकी आवश्यकता हो या वह आस्था से जुड जाए. कुछ भी हो, आस्था जड़ों से पैदा होती है और जड़ों से जुड़ने के लिये कीमत कोई मायने नहीं रखती.
संजीव तिवारी
छत्तीसगढ़ के इस त्यौहार के संबंध में पढ़ें मेरी पुरानी पोस्ट -
बहुराचौथ व खमरछट : छत्तीसगढ़ के त्यौहार
(यह पोस्ट आदरणीय रवि रतलामी जी द्वारा प्रदत्त नया मंगल फोंट से लिखा गया है)
कौड़ी के मोल इन चीजों को हमने भी बहत ज्यादा कीमत में खरीदा. फिर डेयरी में लाईन लगा कर गाय के दूध उत्पादों के स्थान पर हलषष्ठी में प्रयोग होने वाले भैंस के दूध, दही और घी खरीदा. फिर याद आया कि पूजा सामानों के साथ चांवल और भाजी तो लिया पर बिना हल जुते उगे मिर्च को लेना रह गया. पूरा बाजार पुन: छान मारा पर वह मिर्च कहीं नहीं मिला. जब बाजार से बाहर निकल रहा था तभी एक 'पसरे' में वह मिर्च दिखा, मटर के दानों जैसा. लोगों की भीड वहां भी थी. हमने कीमत पूछा तो उसने बतलाया कि दस रूपये का एक. मुझे लगा कुछ गलत सुन लिया हूँ, पुन: पूछा तो 'पसरे' वाली बाई ने कुछ तुनकते हुए कहा कि हॉं दस रूपये का एक है.लोग मुट्ठी भर शेष बचे उस छोटे-छोटे मिर्च को छांट-छांट कर खरीद रहे थे. मैंनें सोंचा कि यदि कुछ पल और रूका तो पूरा मिर्च बिक जायेगा. सो मैंनें भी छांटकर तीन मिर्च लिये और चुपचाप तीस रूपया उसके हाथ में धर दिये.
हमें अपने गांव के दिन याद हैं वहां ये सब सामान सहज रूप से उपलब्ध हो जाते थे, बहुत ही कम कीमत में. पर शहर, गांवों के सहज चीजों की कीमत तभी जानती है जब उसकी आवश्यकता हो या वह आस्था से जुड जाए. कुछ भी हो, आस्था जड़ों से पैदा होती है और जड़ों से जुड़ने के लिये कीमत कोई मायने नहीं रखती.
संजीव तिवारी
छत्तीसगढ़ के इस त्यौहार के संबंध में पढ़ें मेरी पुरानी पोस्ट -
बहुराचौथ व खमरछट : छत्तीसगढ़ के त्यौहार
(यह पोस्ट आदरणीय रवि रतलामी जी द्वारा प्रदत्त नया मंगल फोंट से लिखा गया है)
बाज़ारवाद में बहुत कुछ गुम होता जा रहा है
जवाब देंहटाएंभाई, अब अपने आप उगने वाली वनस्पति तलाश करना मुश्किल काम है। अपने आप उगने वाली मिर्च को उगने को जगह कहाँ बची है। शहर में तो वैसे भी मुश्किल है। सस्ता तब हो सकता है जब उसे भी उगा कर आप के सामने पेश किया जाने लगे।
जवाब देंहटाएंहमारी व्यवस्था सब जगह बाजारीकरण कर रही है . यह एक बड़ी खतरनाक अवस्था है जहाँ लोग मौके का फायदा उठाने से नहीं चूकते . क्या यही हमारी आजादी की धरोहर है ?
जवाब देंहटाएंsanjeev jee, gyaanvardhak aalekh ke liye badhaai
जवाब देंहटाएं- vijay jabalpur
Is ko kahte hain commercialisation
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