पिछले दिनों समाचार पत्रों में एक खबर प्रमुखता से आई थी कि इंटरनेट में सोशल नेटवर्किंग साईटों में अपने कर्मचारियों की सक्रियता पर संस्था प्रमुखों के द्वारा नजर रखी जा रही है. इस पर कई उदाहरण एवं अनुभव प्रस्तुत किए गए थे कि कैसे बॉस कर्मचारियों की चौबीसों घंटे की नेट सक्रियता का आकलन कर रहे हैं. कार्यालय समय में सोशल नेटवर्किंग साईटों पर सर्फिंग ना करने की शख्त हिदायत और कहीं कहीं इसे बेन करने का प्रयास भी किया जा रहा है. दरअसल कार्यालय समय में काम में हील हवाला करके इंटरनेट साईटों में समय गवानें पर अंकुश लगाने एवं अपने कर्मचारियों की कार्यक्षमता का संपूर्ण सदुपयोग (दोहन) करने के उद्देश्य से किए जा रहे यह कार्य सराहनीय हैं.
किन्तु समाचार पत्र के इन समाचारों को पढ कर नेट व संचार तंत्र के अल्पज्ञ बॉस या संस्था प्रमुख को बेवजह का टेंसन हो गया है. कुछ संस्थाओं में तो यह टेंसन कुछ इस कदर बढ गया है कि जैसे ही अपने किसी कर्मचारी को कलम छोडकर कीबोर्ड में हाथ चलाते कहीं बॉस ने देख लिया तो चाहे वह कार्यालयीन कार्य क्यूं न हो वह समझने लगते हैं कि मेरा कर्मचारी सोशल नेटवर्किंग साईट देख रहा है. और बिना कुछ कहे उस कर्मचारी को बेवजह के कामों में बिजी करा दिया जाता है जो बॉस के चिढ एवं खीझ को दर्शाता है एवं कर्मचारी भी अनमने से सौंपे गये कार्य को पूरा करता है. इस अनुभव से क्षेत्रीय कई कर्मचारियों को आजकल गुजरना पड रहा है.
मेरे एक मित्र कहते हैं कि 'मुझे स्वयं अब यह लगने लगा है कि मेरे संस्था प्रमुख मेरे ब्लाग सक्रियता पर दूसरे कर्मचारियों के माध्यम से नजर रखवा रहे हैं. या मेरे दूसरे मित्र कर्मचारी साथी जानबूझकर मेरी ब्लागरी को नमक मिर्च के साथ पेश कर रहे हैं.' मित्र के इन शव्दों का अर्थ एवं उनके पदचापों को मं स्वयं अनुभव कर रहा हूं. इसीलिये मैंनें पोस्ट लिखने एवं पब्लिश करने का समय कार्यालयीन समय के बाद तय कर लिया है. ब्लागों को पढने एवं उन पर टिप्पणी करने का समय भी कार्यालयीन समय पर न हो ऐसा भरसक प्रयत्न कर रहा हूं.
मित्र जनाब फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' के निम्नलिखित शव्दों को चिढकर सुना रहे हैं. पर इस मौके पे इन शव्दों को याद करना कतई लाजमी नहीं है फिर भी मन इन पंक्तियों को फिर से दुहराना चाहता है-
मता-ए-लौहो-कलम छिन गई तो क्या गम है
कि खूने-दिल में डुबो ली है उंगलियां मैंने
जबां पे मुहर लगी है तो क्या रख दी है
हर एक हल्का-ए-ज़ंजीर में ज़ुबां मैंने॥..
कोई पुकारो कि उम्र होने आई है
फ़लक को का़फ़िला-ए-रोज़ो शाम ठहराए
सबा ने फिर दरे-ज़िंदां पे आके दी दस्तक
सहर करीब है दिल से कहो न घबराए॥
संजीव तिवारी
ऐसा होना लाजिमी भी है।
जवाब देंहटाएंऐसा होना सही भी है कार्यालयीन समय कार्य का होता है न कि सोशल नेटवर्किंग का, जितना सोशल नेटवर्किंग और ब्लोगिंग करना है घर पर करिये।
जवाब देंहटाएंविचारणीय पोस्ट लिखी है।काम के समय काम ही हो यही सही है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी पोस्ट लिखी है संजीव जी. कुछ लोग तो ऑफिस का इस्तेमाल केवल अपना ब्लॉग सँवारने के लिए ही करते हैं.इस पर अंकुश लगनी ही चाहिए और हाँ सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी निगरानी रखने का विचार अच्छा है.
जवाब देंहटाएंयहाँ तो आलम यह है की सहर की आस तो है मगर जिन्दगी की आस नहीं !
जवाब देंहटाएंइस पर तो खतरा होना ही था
जवाब देंहटाएंपर अफसरों की अफसरी पर
अफसरों की रिश्वती पर
कब होगा खतरा
उसी दिन का बेसब्री से
इंतजार कर रहे हैं हम
बहुत बेसब्रे हैं हम।
अविनाश वाचस्पति जी के साथ मैं भी इंतजार कर रही हूं .. अफसरों की अफसरी पर अफसरों की रिश्वती पर कब आएगा खतरा !!
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