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अगस्त, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

नीली फ़िल्म दिखाकर/छुपाकर लाल हुए पत्रकार ......

रायपुर में पिछले दिनों एक अफ़सर और उसकी पत्नि की ब्ल्यू फ़िल्म के सार्वजनिक हो जाने के बाद से चर्चा का बाजार गर्म है, अमीर धरती गरीब लोग में अनिल पुसदकर जी ने इसी मुद्दे पर मीडिया की लक्ष्‍मण रेखा में विमर्श प्रस्‍तुत किया था. न्‍यूज 36 वाले अहफाज रशीद जी नें भी सच का सामना - साधना में इस पर जानकारी प्रस्‍तुत की थी. आज अहफाज रशीद जी नें अपने ब्‍लाग में इस पर तीखी प्रतिक्रिया प्रस्‍तुत की है, हम उनसे अनुमति प्राप्‍त कर यह पोस्‍ट यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं -  नीली फ़िल्म दिखाकर/छुपाकर लाल हुए पत्रकार ......     अहफ़ाज रशीद छत्तीसगढ़ का पत्रकारिता जगत आज अपने आप में शर्मिंदा है। एक अफसर और उसकी पत्नी की नीली फ़िल्म दिखाने, छुपाने या अफसर से बाईट के बहाने मिलने वाले कई पत्रकारों के चेहरे की रौनक उडी हुई है। न्यूज़ २४ ने तो इसी मामले में अपने संवाददाता अर्धेन्दु मुख़र्जी को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। वैसे मैं अर्धेन्दु मुख़र्जी को व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ वो वसूली जैसे मामलों से हमेशा दूर रहा है। मैं शुरू से उन वसूलीबाज़ पत्रकारों को जानता हूँ जो पत्रकारिता करने नहीं सिर्फ़ वसूल

देवकीनंदन खत्री बनने का प्रयास

हमने पढ़ा है जीवन के शाश्वत सत्यों को चुनना और अपनी रचना का हिस्सा बनाना, रचनाकार की परिपक्व़ता और विस्तार का संकेत होता है. कथा साहित्य का यही वास्तविक मूल होता है, जिसमें आगे चलकर लेखक की दृष्टि, उसकी वैचारिक समझ, अनुभव तथा विभिन्न जानकारियां शाखाओं के रूप में प्रस्फुटित होकर फलती फूलतीं हैं. लेखक ओमप्रकाश जैन की औपन्यासिक कृति 'संघर्ष और सपने' अपने प्रस्तुत कलेवर में इन्हीं जानकारियों के खजाने का भ्रम प्रस्तुत करती है. मानव मन और उसकी अतलातल गहराई के सच को जानने एवं स्‍वानुभूत सत्य अथवा जिया भोगा यथार्थ को शव्द देने का भरसक प्रयास लेखक नें प्रस्तुत उपन्यास में किया है. अपने लेखकीय कथन में उसने स्वीकारा है कि प्रस्तुत उपन्यास में उसने सामाजिक कुरीतियों पर सीधे प्रहार किए है एवं उपन्यास की गरिमा बनाए रखने के लिए उन्होंनें कठोर संघर्ष किया है. उपन्यास ‘संघर्ष और सपने’ में बाबा विक्रम सिंह, सुलोचना व अमृतलाल जैसे पात्रों की आभासी उपस्थिति प्रस्तुत करते हुए लेखक नें 'प्रभात' नामक एक पात्र को आदर्श रूप में प्रस्तु्त किया है. उपन्यासों के संबंध में प्रचलित पूर्वोक्ति यह

गणेश उत्‍सव और आस्‍था का बेढंगापन

तिथि में घट-बढ एवं पंडितों पुरोहितों के मतभिन्‍नता के कारण इस वर्ष कहीं तृतीया (तीज) के दिन ही गणेश चतुर्थी मनाया गया तो कहीं पंचमी के दिन गणपति बप्‍पा भव्‍य पंडालों में विराजमान हुए. अब जगह जगह गणेश उत्‍सव की धूम है, ढोल-नगाड़े बज रहे हैं और भक्‍तजन गणेश जी की सेवा में तन-मन-धन से जुटे हैं, अस्‍थाई गणेश पंडालों में भव्‍यता जड़ने के लिए हर उस रसूखदारों का दरवाजा टटोला जा रहा है जो इन आयोजनों के लिए पानी जैसा पैसा बहाते हैं. किसी एक जगह सामूहिक आयोजन करने के बजाए प्रत्‍येक गली मुहल्‍लों में बाकायदा प्रतिस्‍पर्धा के उद्देश्‍य से यह उत्‍सव किए-कराए जा रहे हैं और प्रत्‍येक चार कदम पर छोटे-बडे गणेश पंडाल नजर आ रहे हैं. आस्‍था से जुडे मुद्दे के कारण इसे कोई फिजूलखर्ची कहकर अपना मुह खोलना नहीं चाहता किन्‍तु पैसे की इस कदर बरबादी से आमजन आहत होता है. बालगंगाधर तिलक ने जब गणपति उत्‍सव आरंभ किया था तब इस उत्‍सव में बाहृय आडंबर न्‍यून व हृदय की आंतरिक श्रद्धा का संचार सर्वत्र था. अब आंतरिक श्रद्धा न्‍यून किन्‍तु बाह्य श्रद्धा का आडंबर इतना विशाल है कि लोग अपने आप को गणपति का बड़ा से बड़ा भक्‍त जत

कार्यालयीन कर्मचारियों की ब्‍लागरी खतरे में

पिछले दिनों समाचार पत्रों में एक खबर प्रमुखता से आई थी कि इंटरनेट में सोशल नेटवर्किंग साईटों में अपने कर्मचारियों की सक्रियता पर संस्‍था प्रमुखों के द्वारा नजर रखी जा रही है. इस पर कई उदाहरण एवं अनुभव प्रस्‍तुत किए गए थे कि कैसे बॉस कर्मचारियों की चौबीसों घंटे की नेट सक्रियता का आकलन कर रहे हैं. कार्यालय समय में सोशल नेटवर्किंग साईटों पर सर्फिंग ना करने की शख्‍त हिदायत और कहीं कहीं इसे बेन करने का प्रयास भी किया जा रहा है. दरअसल कार्यालय समय में काम में हील हवाला करके इंटरनेट साईटों में समय गवानें पर अंकुश लगाने एवं अपने कर्मचारियों की कार्यक्षमता का संपूर्ण सदुपयोग (दोहन) करने के उद्देश्‍य से किए जा रहे यह कार्य सराहनीय हैं. किन्‍तु समाचार पत्र के इन समाचारों को पढ कर नेट व संचार तंत्र के अल्‍पज्ञ बॉस या संस्‍था प्रमुख को बेवजह का टेंसन हो गया है. कुछ संस्‍थाओं में तो यह टेंसन कुछ इस कदर बढ गया है कि जैसे ही अपने किसी कर्मचारी को कलम छोडकर कीबोर्ड में हाथ चलाते कहीं बॉस ने देख लिया तो चाहे वह कार्यालयीन कार्य क्‍यूं न हो वह समझने लगते हैं कि मेरा कर्मचारी सोशल नेटवर्किंग साईट देख रहा

छत्‍तीसगढी तिहार - पोला और किसानों की पीड़ा

आज छत्‍तीसगढ़ में पोला पर्व मनाया जा रहा है. पोला पर्व प्रतिवर्ष भाद्र कृष्ण पक्ष अमावस्या को मनाया जाता है. पूरे देश में भयंकर सूखे की स्थिति को देखते हुए सब तरफ त्‍यौहारों की चमक अब फीकी रहने वाली है. फिर भी हर हाल में अपने आप को खुश रखने के गुणों के कारण भारतीय किसान अपनी-अपनी क्षेत्रीय संस्‍कृति के अनुसार अपने दुख को बिसराने का प्रयत्‍न कर रहे हैं. छत्‍तीसगढ़ में अभी कुछ दिनों से हो रही छुटपुट वर्षा से किसानों को कुछ राहत मिली है किन्‍तु सौ प्रतिशत उत्‍पादन का स्‍वप्‍न अब अधूरा ही रहने वाला है. फिर भी अंचल में पर्वों का उत्‍साह बरकरार है. छत्‍तीसगढ़ में एक कहावत है 'दहरा के भरोसा बाढ़ी खाना' यानी भविष्‍य में अच्‍छी वर्षा और भरपूर पैदावार की संभावना में उधार लेना,  वो भी लिये रकम या अन्‍न का ढ़ेढ गुना वापस करने के वचन के साथ. किसान गांव के महाजन से यह उधार-बाढ़ी लेकर भी त्‍यौहारों का मजा लूटते हैं. पोरा के बाद तीजा आता है और गांव की बेटियां जो अन्‍यत्र व्‍याही होती है उन्‍हें मायके लाने का सिलसिला पोला के बाद आरंभ हो जाता है. बहन को या बेटी को मायके लिवा लाने के लिये कर्ज

टिप्पणी (?) करना बंद कर दें अन्यथा अमिताभ बच्‍चन ब्लॉग लिखना बंद कर देंगे .....

कुछ अखबारों नें सूचना दी है कि अमिताभ बच्‍चन अपना ब्‍लाग बंद करने वाले हैं. यह समाचार अमिताभ बच्‍चन के करोड़ों प्रसंशकों को दुख पहुंचाने वाली है, क्‍योंकि यही वह अड्डा था जिसमें वे बिना प्रेस के नमक मिर्च के साथ प्रस्‍तुत होते थे. हालांकि इसके साथ ही बहुत से ब्‍लाग साथियों की यह भी शिकायत रही कि वे टिप्‍पणियों को तवज्‍जो नहीं देते. अमिताभ के ब्‍लाग के संबंध में नित नई जानकारी देने वाले जोश नें ये पढ़ें वो पढ़ें करते हुए जो विवरण प्रस्‍तुत किया है उसके  अनुसार अपने ब्लॉग पर निजी एवं भद्दी किस्म की टिप्पणियों से आहत अभिनेता अमिताभ बच्चन ने ऐसी टिप्पणियां लिखने वालों को चेतावनी दी है कि या तो वे ऐसा करना बंद कर दें अन्यथा वह ब्लॉग लिखना बंद कर देंगे। बिग बी ने अपने ब्लाग ‘बिगबीडॉटबिगअड्डा’ पर लिखा है कि अपने ब्लॉग पर ऐसी टिप्पणियों को देखकर उन्हें ऐसा लगा मानो कलेजे में किसी ने शूल चुभा दी हो। उन्होंने लिखा है “ऐसे में मेरे पास यही विकल्प है। या तो आप ऐसा करना बंद कर दें या मैं ही बंद कर देता हूं।” बिग बी की इस चेतावनी से उनके प्रशंसक चिंतित हैं और वे अपने प्रिय अभिनेता से ब्लॉग बंद नही

तू आ भी जा

छलिया तूने छला है मुझे बार बार मेरी आंखों में अंतस तक भींग जाने का स्‍वप्‍न दिखाकर दूर कहीं क्षितिज में खो गया है. और मैं तेरा बाट जोहती अंजुरी में बुझ चुके त्‍यौहारों का दीप जलाती ठेठरी खुरमी और लाई बतासा लिये दरकते खेतों में अपलक निहारते खड़ी हूं. मेरे आंखों से टपकते अश्रु और बदन से टपके श्रमसीकर से मैं अपने खेतों की प्‍यास नहीं बुझा पाउंगी. तू आ तो मेरे खुशियों में पानी फेरने के लिए ही सही. संजीव तिवारी

हरिभूमि के हिमांशु द्विवेदी को ‘वसुंधरा सम्मान’

लोक जागृति के ध्वजवाहक का बहुमान स्व.देवीप्रसाद चौबे की स्मृति में स्थापित प्रतिष्ठित वसुंधरा सम्मान आज लोक जागरण के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए हरिभूमि समाचार पत्र समूह के प्रबंध संपादक हिमांशु द्विवेदी को प्रदान किया गया। भिलाई निवास में आयोजित भव्य समारोह में केबिनेट मंत्री हेमचंद यादव और संसदीय सचिव विजय बघेल के हाथों श्री द्विवेदी को 21 हजार की सम्मान निधि व शाल-श्रीफल से नवाजा गया। प्रारंभ में कीर्तिशेष स्व.देवी प्रसाद चौबे के तैलचित्र पर अतिथियों ने माल्यार्पण व दीप प्रज्वलित कर श्रद्धांजलि दी। तत्पश्चात अतिथियों का सम्मान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रविन्द्र चौबे, प्रदीप चौबे व राजेन्द्र चौबे ने किया। उपस्थित बुद्धिजीवियों को सम्बोधित करते हुए हिमांशु द्विवेदी ने कहा कि पहले यह लाईफ टाईम एचीवमेंट सम्मान की तरह देखा जाता था, जिसने पत्रकारिता के क्षेत्र में वर्षों अपना योगदान दिया उसे यह सम्मान दिया जाता था। अब पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय लोगों को भी दिया जाने लगा है। श्री द्विवेदी ने कहा ‘आज मैं आकाश में टिमटिमाने की कोशिश कर रहा हूं, तारे की हैसियत नहीं है

कविता पर तनाव : विविक्षा ब्‍लाग से

छत्तीसगढ़ में शायद पहली बार किसी कवि की कविता पर तनाव की स्थिति पैदा हो गई। पेशे से शिक्षक कवि बद्रीप्रसाद पुरोहित की कविता सरायपाली के एक अखबार में छपी थी। बसना, सरायपाली और पिथौरा क्षेत्र तक सीमित अखबार छत्तीसगढ़ शब्द में आखिर ऐसा क्या था कि मुस्लिम समाज के कुछ युवकों ने उन्हें स्कूल से बाहर बुलाया और मारपीट की। आगे की जानकारी और कवि की उस कविता को पढें रायपुर से प्रकाशित समाचार पत्र छत्तीसगढ़ में सहायक संपादक के पद पर कार्यरत श्री डॉ. निर्मल साहू के ब्‍लाग विविक्षा में. श्री साहू जी के इस ब्‍लाग में अभी तक यही आखरी पोस्‍ट है इसके बाद इस ब्‍लाग में नियमित पोस्‍ट नहीं है. उनकी व्‍यस्‍तता हम समझ सकते हैं किन्‍तु विविक्षा के कुल 17 पोस्‍टों को पढते हुए ऐसा लगता है कि विविक्षा को नियमित रहना चाहिये. आप अपनी राय विविक्षा में ही देवें तो बेहतर होगा.

आस्‍था की व्‍यावसायिकता या जड़ों की कीमत

सुबह घर से आफिस के लिये निकलने से लेकर रात को घर के लिये वापस आफि़स से निकलते तक श्रीमति जी नें बीसियों बार याद दिलाया कि घर आते समय बाजार से पूजा का सामान लेते आना, कल हलषष्‍ठी है. छत्‍तीसगढ में पिछले रविवार से कुछ अच्‍छी बारिश हो रही है जो आज तक धीरे धीरे चल रही थी. हम आफिस से इंदिरा मार्केट दुर्ग पहुंचे, देखा रिमझिम बारिश के बावजूद मार्केट के पहले से ही छतरियों का रेला लगा हुआ था. जैसे तैसे गाडी पार्क कर हम थैला हाथ में लेकर आगे बढ़े. मार्केट के बाहर ही 'खमरछठ' (हलषष्‍ठी को छत्‍तीसगढ़ में खमरछठ कहा जाता है) के पूजा सामान बेचनें वाले 'पसरा' फैलाये बैठे थे. पसहर चांवल (ऐसा अन्‍न जो गांव में तालाबों के किनारों में स्‍वमेव ही उगता है और जिसे पकने पर सूप से झाड़ कर इकत्रित कर, कूट कर चांवल बनाया जाता है), महुये के फल, पत्‍ते, उसी के लकड़ी के दातौन व बिना जुते हुए भूमि से स्‍वाभाविक रूप से उगे शाक वनस्‍पतियों के पांच प्रकार की भाज़ी इत्‍यादि के बाजार सजे थे. लोग उन्‍हें खरीदने पिल पडे थे. कौड़ी के मोल इन चीजों को हमने भी बहत ज्‍यादा कीमत में खरीदा. फिर डेयरी में लाईन लगा क

आप कहॉं रहते हैं ... घर में.

पिछले दिनों एक पोस्‍ट में ज्ञानदत्‍त पाण्‍डेय जी नें अपना पता ठिकाना बतलाते हुए पूछा था कि 'आप' कहां रहते हैं. हालांकि उन्‍होंनें परिवेश के संबन्‍ध में विमर्श चाहा था पर हमारी सोंच कुछ ऐसे चली और यह पोस्‍ट टाईप हो गया. आप भी देखें कि हमारा घर कहां हैं. पढाई के दिनों में हमको हाई स्‍कूल तक स्‍कूल के लिये गांव से पैदल लगभग आठ किलोमीटर जाना और आठ किलोमीटर आना जब पढता था तब हमारे बडे भाई और बहने हमारे दादा जी को बहुत कोंसते थे कि अपार भू-संम्‍पत्ति होते हुए भी हमारे दादा, सिमगा (वह कस्‍बा जहां हम कच्‍ची उम्र से ही पढने आते थे) में एक छोटा सा घर नहीं बनवाये, वक्‍त जरूरत में जहां रूका जा सके या फिर घर के किसी नौकर के साथ रहते हुए बच्‍चे पढाई कर सकें. तब हमें अपने पांवों में दर्द और कच्‍चे रास्‍तों में चलने के कारण नाजुक पैर पर पडे छालों के अतिरिक्‍त और कुछ समझ में नहीं आता था. हम बस्‍ता लटकाये उनके पीछे-पीछे उनकी बातें सुनते चलते रहते थे. और जब कालेज पढने के लिये रायपुर का रूख करना पडा तब हमारे मुंह से भी विरोध के स्‍वर रोज-रोज फूटने लगे. रायपुर में आस-पास के गांव वाले जमीदार, गौं

मित्र के आरकुट प्रोफाईल फोटो में फिर नंगी तस्‍वीर ...

बहुत दिनों से सोंच रहा हूं मेरे आरकुट प्रोफाईल को डिलीट कर दूं. क्‍योंकि अब प्रत्‍येक दिन ऐसे एक-दो फ्रैंड रिक्‍वेस्‍ट आ रहे हैं जो या तो छद्म प्रोफाईल हैं या फिर विशुद्ध रूप से पोर्नसाईटों की ओर ले जाने वाले प्रोफाईल हैं. फ्रैंड रिक्‍वेस्‍ट के बाद स्‍वाभाविक तौर पर उसके प्रोफाईल के तत्‍वों एवं उसके पूर्व मित्रों का अवलोकन कर हम उसे स्‍वीकार कर लेते हैं. बाद में उन प्रोफाईलों की नौटंकी शुरू हो जाती है. ऐसे नये दोस्‍तों या कहें तथाकथित 'दोस्‍तों' से तो एक हद तक किनारा किया जा सकता है किन्‍तु जब किसी जाने पहचाने मित्र के द्वारा भी पोर्नोग्राफी परोसी जाए तो बडी तकलीफ होती है. अभी कल ही मेरे प्रोफाईल में एक वस्‍त्रविहीन कामिनी की तस्‍वीर नजर आ रही थी. हुआ यह था कि मेरे एक आरकुट मित्र नें मुझे के प्रसंशापत्र लिखा था उस मित्र का वह प्रोफाईल फोटो था. प्रसंशापत्र प्रोफाईल के नीचे प्रदर्शित होता है अत: कल दिन भर वह चित्र मेरे प्रोफाईल में चिपका रहा. मित्रों नें मुझे फोन कर बतलाया भी किन्‍तु मैं दिन भर नेट संपर्क से दूर कार्य में व्‍यस्‍त था अत: उस प्रसंशापत्र को हटा नहीं पाया. खैर स

इस तरह उगता हूं बार बार : छत्तीसगढ के नक्षत्र

छत्तीसगढ की कला, संस्कृति व साहित्य से संबंधित अनेक पत्र-पत्रिकाओं के बीच छत्तीसगढ की मांगलिक मंजूषा के रूप में विगत कई वर्षों से प्रकाशित पत्रिका ‘झांपी’ का अहम स्थान है. इस पत्रिका में संग्रहित पाठ्य सामाग्रियों में प्रधान संपादक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व गांधीवाधी चिंतक जमुना प्रसाद कसार जी की साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता व सक्रियता देखते ही बनती है. वे विगत कई वर्षों से छत्तीसगढ की गरिमामय परम्पररा के प्रतीक ‘झांपी’ में छत्तीसगढ की संस्कृति व लोक साहित्य को संजों कर नियमित रूप से प्रकाशित कर रहे हैं. इस अंक में कसार जी नें ‘झांपी’ के संपादक मण्डल के सहयोगी महावीर अग्रवाल जी के दुर्लभ साक्षात्कारों को संग्रहित कर उन्हें पुन: आगे बढाया है. पत्रिका के संरक्षक नेता प्रतिपक्ष रविन्द्र चौबे जी की आकांक्षा के अनुरूप महावीर जी नें कसार जी के द्वारा दिये गये इस दायित्व का बेहतर निर्वहन किया है. ‘झांपी’ के इस अंक में ‘रस डूबें हैं सौ-सौ अक्षर, पंक्ति-पंक्ति संगीत मधुर हैं’ नारायण लाल परमार जी के गीत के इस पंक्ति की ही तरह कवियों के जीवन की वीणा झंकृत हुई है. झांपी के इस अंक में छत्तीसगढ

स्‍त्री का सबसे सुन्‍दर हिस्‍सा देह नहीं, उसकी भावना है.

मैं बहुत किशोरावस्‍था में ही कविता के प्रति आकर्षिक हो गया था और सौंदर्य के प्रति कविता में मैंनें कविता की उपमा दी है स्‍त्री से. क्‍योंकि वह सौंदर्य की प्रतिनिधि है. सौंदर्य तो हिमालय के अंचल में पैदा होने के कारण मेरे घर का मेहमान रहा है, सदैव से. तो मैं यह कहना चाहता था कि भाई प्रेम की जो अवस्‍था आज है, जो स्थिति आज है, वह तो द्रोह से, मोह से, लांछन से, कर्दम से घिरी हुई है. हूं, वह कभी सार्थक होगी, मैने हमेशा स्‍त्री के लिये लिखा है् कि उसका हृदय तो तिजोरी में बंद है. उसको तो ऐसा होना चाहिये जैसे फूल अपने नाल से बंधा रहता है, वैसे स्‍त्री को अपने प्रियजन से, बंधा तो रहना चाहिये घर से, लेकिन अपने हृदय का सौरभ जैसे फूल सबों को देता है, वैसे भी स्‍त्री को अपनी भावना समस्‍त लोगों को देनी चाहिए जिससे कि भावना का आदान प्रदान हो सके. क्‍योंकि स्‍त्री का सबसे सुन्‍दर हिस्‍सा देह नहीं, उसकी भावना है. अपनी कविता ' आत्मिका ' की पंक्तियां ' कल्‍मष लांछन के कांटों में खिला प्रेम/ का फूल धरा पर/उसको छूना मौन भू-कर्दम में/ गिरना दुस्‍तर. ' के संबंध में पूछे गए एक प्रश्‍न के उ