संग्रह का नाम - गॉंव कहॉं सोरियावत हे
कवि - बुध राम यादव
प्रकाशक - छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति, बिलासपुर
मूल्य - रु. 100/-
समीक्षक - विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ
मो. 9407984014
कवि - बुध राम यादव
प्रकाशक - छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति, बिलासपुर
मूल्य - रु. 100/-
समीक्षक - विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ
मो. 9407984014
बुधराम यादव बड़े प्रतिभा सम्पन्न कवि हैं। वे छत्तीसगढ़ी और हिन्दी के एक समर्थ कवि और गीतकार हैं, बल्कि कहें तो वे गीतकार की कोटि में अधिक खरे उतरते हैं। उन्हें कविता के अन्धड़ से बचने के लिए गीत की गुफाओं में पनाह लेनी चाहिए। यहॉं बैठकर अपनी षष्ठपूर्ति के पांच बरस निकल जाने के बाद अपनी रचना यात्रा पर एक विहंगम दृष्टि डालते हुए आगे की सृजन योजना पर उन्हें विचार करना चाहिए।
बुधराम यादव न केवल अच्छे गीत लिख लेते हैं बल्कि अपने गीतों का मधुर गायन भी वे कर लेते हैं। कवि सम्मेलन के मंचों पर उन्हें गाते हुए लोगों ने सुना है। वे बहुत पहले अपने हिन्दी गीतों का भी गायन किया करते थे। हिन्दी और छत्तीसगढ़ी के गीतों का गायन करते हुए उनके स्वर में एक विरह वेदना होती है। उनमें क्षरित होते मानवीय सम्बंधों और पारम्परिक मूल्यों के लिए एक पछतावापूर्ण पीड़ा होती है। अपनी रचनाओं के जरिये अपने वर्तमान में उन मूल्यों को टटोलने की वे हमेशा कोशिश करते हैं जो कभी उन्हें संस्कार, संवेदना और प्रेरणा देते थे। उन मूल्यों और व्यवहारों को फिर से पाने और उन्हें आज के वातावरण में पुनः स्थापित करने की छटपटाहट उनमें साफ देखी जा सकती है।
कवि का स़द्यः प्रकाशित छत्तीसगढ़ी काव्य-संग्रह ‘गॉंव कहॉं सोरियावत हे’ उनकी ऐसी ही प्रेरणाओं की उपज है। इनमें कवि ने अपने समय में देखे गॉंव, ग्रामवासियों के आत्मीय व्यवहार, गॉंव के तीज-तिहार और गॉंव के प्राथमिक रिश्तों की खूब सुध ली है (उन्हें सोरियाया है):
ओ सुवा ददरिया करमा अउ, फागुन के फाग नंदावत हे
ओ चंदैनी ढोला मारु, भरथरी भजन बिसरावत हे
डोकरी दाई के जनउला, कहनी किस्सा आनी बानी
ओ सुखवंतिन के चौंरा अउ, आल्हा रम्मायन पंडवानी
तरिया नदिया कुवॉं बवली के पानी असन अटावत हें।
मोर गॉंव कहॉं सोरियावत हें।
इसके साथ ही आज के समय में उस गुम हो चुके गॉंव को तलाशने की कोशिश है जो आज औद्योगिकीय और प्रौद्योगिकीय हमले का शिकार हो चुका है जो कम्पयूटर क्रान्ति और इन्टरनेटी अनुभूतियों में कहीं खो गया है। शहर के कांक्रीट विकास ने जिनकी सीमाओं का अतिक्रमण कर गॉंवों को किसी डम्प-स्टेशन या कचरा घर में तब्दील कर दिया हैः
जुन्ना दइहनही म जब ले, दारु भट्ठी होटल खुलगे
टूरा टनका मन बहकत हें, सब चाल चरित्तर ल भुलगें
मुख दरवाजा म लिक्खाये, हावय पंचयती राज जिहॉं
चतवारे खातिर चतुरा मन, नइ आवत हावंय बाज उहॉं
गुरतुर भाखा सपना हो गय, सब कॉंव कॉंव नरियावत हें।
मोर गॉंव कहॉं सोरियावत हे।
संग्रह की कविताओं की सर्जना में कवि की अभिव्यक्ति उनकी अपनी बिलसपुरिहा बोली और आंचलिकता से पगी हुई है। लोक के प्रति अनुराग और उसे संरक्षित रखने की चाह छत्तीसगढ़ के बिलसपुरिहा (बिलासपुर क्षेत्र के) कलाकारों और कलमकारों में अधिक है इसलिए भी इस अंचल में लोक जीवन तुलनात्मक रुप से कहीं अधिक उपस्थित और समृद्ध है। कवि का यह उपक्रम एक ‘नास्टेल्जिया’ है। कवि का अतीतजीवी होना या अपने अतीत से बहुत प्रेम होना, यह रचनाकार का ‘रिटर्न टू द रुट’ है यानी अपनी जड़ों की ओर लौटने की चाह। ऐसी स्थितियॉं बहुत से रचनाकारों को निरन्तर सृजन के लिए प्रेरित करती हैं। बुधराम यादव को भी लगातार प्रेरित कर रही हैं।
इस खण्ड काव्य को हम गुरतुर गोठ में क्रमश: प्रस्तुत करेंगें। भाई समीर यादव जी के ब्लॉग मनोरथ में इसे आज से क्रमिक रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है।
बने खबर बताएस भाई, अब मनोरथ मा जाके मनोरथ पुरा करे जाए।
जवाब देंहटाएंसुभकामना
रचना लाजवाब है, कहीं दुहराव की समस्या भी है, लेकिन इस भाषा का इस्तेमाल होता देख मन भर आता है. अतिशयोक्ति न हो तो कहना चाहूंगा कि इस रचना को पढ़ने के लिए छत्तीसगढ़ी सीखना पोसा जाएगा.
जवाब देंहटाएंआपने बिलासपुर को मान दिया है, धन्यवाद. ज्यादातर का छत्तीसगढ़ दुर्ग-भिलाई में सिमटा हुआ है, बहुत आगे बढ़े तो रायपुर-नांदगांव, बिलासपुर पहुंचते तक तो ज्यादातर का दम फूलने लगता है, आगे की कौन कहे.
जवाब देंहटाएंलोकभाषा का विकास ऐसे ही सम्भव है।
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