विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
छत्तीसगढ के शक्तिपीठ – 3
पौराणिक राजा मोरध्वज एक बार अपनी रानी कुमुददेवी के साथ आमोद हेतु शिवा की सहायक नदी खारून (इसका पौराणिक नाम मुझे स्मरण में नहीं आ रहा है) नदी के किनारे दूर तक निकल गए वापस आते-आते संध्या हो चली थी अत: धर्मपरायण राजा नें खारून नदी के तट पर संध्या पूजन करने का मन बनाया । राजा की सवारी नदीतट में उतरी । रानियां राजा के स्नान तक प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण नदी तट में भ्रमण करने लगी तो देखा कि नदी के पानी में एक शिला आधा डूबा हुआ है और उसके उपर तीन चार काले नाग लिपटे हैं ।
अचरज से भरी रानियों नें दासी के द्वारा राजा को संदेशा भिजवाया । राजा व उनके साथ आए राजपुरोहित कूतूहलवश वहां आये । राजपुरोहित को उस शिला में दिव्य शक्ति नजर आई उसने राजा मोरध्वज से कहा कि राजन स्नान संध्या के उपरांत इस शिला का पूजन करें हमें इस शिला में दैवीय शक्ति नजर आ रही है ।
राजा मोरध्वज स्नान कर उस शिला के पास गए और उसे प्रणाम किया, उस शिला में लिपटे नाग स्वमेव ही दूर नदी में चले गए । राजा नें उथले तट में डूबे उस शिला को बाहर निकाला तो सभी उस दिव्य शिला की आभा से चकरा गए । उस शिला के निकालते ही आकाशवाणी हुई ‘राजन मैं महामाया हूं, आपके प्रजाप्रियता से मैं अत्यंत प्रसन्न हूं, मुझे मंदिर निर्माण कर स्थापित करें ताकि आपके राज्य की प्रजा मेरा नित्य ध्यान पूजन कर सकें ।‘
राजा मोरध्वज नें पूर्ण विधिविधान से नदी तट से कुछ दूर एक मंदिर का निर्माण करा कर देवी की उस दिव्य प्रतिमा को स्थापित किया जहां वे प्रत्येक शारदीय नवरात्रि में स्वयं उपस्थित होकर पूजन करने का मॉं को आश्वासन देकर प्रजा की सेवा एवं राज्य काज हेतु अपनी राजधानी चले गए एवं अपने जीवनकाल में राजा मोरध्वज प्रत्येक शारदीय नवरात्रि को मॉं महामाया के पूजन हेतु उस मंदिर में आते रहे । किवदंती यह है कि आज भी शारदीय नवरात्रि में राजा मोरध्वज वायु रूप में मॉं महामाया की पूजन हेतु उपस्थित रहते हैं ।
राजा मोरध्वज द्वारा स्थापित यह मंदिर वर्तमान में रायपुर की मॉं महामाया के रूप में प्रसिद्ध है एवं छत्तीसगढ के शक्तिपीठ के रूप में जानी जाती है ।
पौराणिक राजा मोरध्वज एक बार अपनी रानी कुमुददेवी के साथ आमोद हेतु शिवा की सहायक नदी खारून (इसका पौराणिक नाम मुझे स्मरण में नहीं आ रहा है) नदी के किनारे दूर तक निकल गए वापस आते-आते संध्या हो चली थी अत: धर्मपरायण राजा नें खारून नदी के तट पर संध्या पूजन करने का मन बनाया । राजा की सवारी नदीतट में उतरी । रानियां राजा के स्नान तक प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण नदी तट में भ्रमण करने लगी तो देखा कि नदी के पानी में एक शिला आधा डूबा हुआ है और उसके उपर तीन चार काले नाग लिपटे हैं ।
अचरज से भरी रानियों नें दासी के द्वारा राजा को संदेशा भिजवाया । राजा व उनके साथ आए राजपुरोहित कूतूहलवश वहां आये । राजपुरोहित को उस शिला में दिव्य शक्ति नजर आई उसने राजा मोरध्वज से कहा कि राजन स्नान संध्या के उपरांत इस शिला का पूजन करें हमें इस शिला में दैवीय शक्ति नजर आ रही है ।
राजा मोरध्वज स्नान कर उस शिला के पास गए और उसे प्रणाम किया, उस शिला में लिपटे नाग स्वमेव ही दूर नदी में चले गए । राजा नें उथले तट में डूबे उस शिला को बाहर निकाला तो सभी उस दिव्य शिला की आभा से चकरा गए । उस शिला के निकालते ही आकाशवाणी हुई ‘राजन मैं महामाया हूं, आपके प्रजाप्रियता से मैं अत्यंत प्रसन्न हूं, मुझे मंदिर निर्माण कर स्थापित करें ताकि आपके राज्य की प्रजा मेरा नित्य ध्यान पूजन कर सकें ।‘
राजा मोरध्वज नें पूर्ण विधिविधान से नदी तट से कुछ दूर एक मंदिर का निर्माण करा कर देवी की उस दिव्य प्रतिमा को स्थापित किया जहां वे प्रत्येक शारदीय नवरात्रि में स्वयं उपस्थित होकर पूजन करने का मॉं को आश्वासन देकर प्रजा की सेवा एवं राज्य काज हेतु अपनी राजधानी चले गए एवं अपने जीवनकाल में राजा मोरध्वज प्रत्येक शारदीय नवरात्रि को मॉं महामाया के पूजन हेतु उस मंदिर में आते रहे । किवदंती यह है कि आज भी शारदीय नवरात्रि में राजा मोरध्वज वायु रूप में मॉं महामाया की पूजन हेतु उपस्थित रहते हैं ।
राजा मोरध्वज द्वारा स्थापित यह मंदिर वर्तमान में रायपुर की मॉं महामाया के रूप में प्रसिद्ध है एवं छत्तीसगढ के शक्तिपीठ के रूप में जानी जाती है ।
(इस सिरीज के लेख डॉ.हीरालाल शुक्ल व अन्य महात्म लेखकों के छत्तीसगढ पर केन्द्रित विभिन्न लेखों व जनश्रुति के आधार पर मेरे शव्दों में प्रस्तुत है, शक्तिपीठों व छत्तीसगढ के पर्यटन संबंधी कुछ विवरण छत्तीसगढ पर्यटन मंडल के ब्रोशर में भी उपलब्ध है)
संजीव तिवारी
छत्तीसगढ़ के बारे में व वहाँ के दर्शनीय स्थानों के बारे में जानकारी देकर आप एक महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
बढ़िया!!
जवाब देंहटाएंमहामाया मंदिर में प्रतिमा सीधी न हो कर थोड़ी तिरछी खड़ी है और कहा जाता है कि इसके पीछे भी देवी का ही कोई हठ ही था!