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छत्तीसगढ के प्रसिद्ध मूर्तिकार जे.एम.नेल्सन को इस वर्ष पद्मश्री का सम्मान प्रदान किया गया । हम भिलाई में कई वर्षों से नेल्सन के कलागृह के सामने बडी-बडी मूर्तियों को आकार लेते देख रहे हैं साथ ही मीडिया में उनके मूर्तियों के जगह-जगह पर स्थापित होने का समाचार भी पढते आ रहे हैं । उनकी बनाई मूर्तियों की खासियत यह होती है कि राह चलता व्यक्ति भी उन मूर्तियों को देखकर ठिठक पडता है और निहाने लगता है उसकी जीवंतता को ।
आज नेलसन जी का जन्म दिन है, हम पिछले कई दिनों से उनसे मिलने का कार्यक्रम तय कर रहे हैं पर हो ही नहीं पा रहा है, आज उनके घर में हमने दस्तक दिया तो पता चला कि जे.एम.नेल्सन जी भिलाई के कुष्ट रोगियों के बीच परिवार सहित अपना जन्म दिन मनाने गये हैं अत: उनसे मुलाकात नहीं हो पाई, पर आज उनका जन्मदिन है इस कारण हम इस पोस्ट को और विलंब न करते हुए आज ही प्रस्तुत कर रहे हैं ।
मूर्तिकार नेलसन को जब यह सम्मान प्राप्त हुआ तो हमारे पत्रकार मित्रों से चर्चा के दौरान सहज स्वभाव के धनी नेलसन नें कहा कि ‘ कर्म ही पूजा है। इसी भावना से मैने अपना कर्म किया। सरकार ने उसका सम्मान करते हुए मुझे सम्मानित किया है। यह सम्मान प्रत्येक छत्तीसगढ़ वासियों का हैं जिनके आशीर्वाद व प्यार से आज मैं इस मुकाम तक पहुंचा हूं। उन्होंने कहा कि प्रकृति मेरा गुरू है। ईश्वर को इसका पूरा श्रेय देता हूं क्योंकि ईश्वर के द्वारा दी हुई कला को मैं केवल निखारता हूं। प्रदेश में चाहने वालों के कारण सरकार ने मुझे इस योग्य समझा व मुझे यह सम्मान दिया। कर्म की पूजा करने वाला प्रत्येक व्यक्ति सम्मानित होता है। शासन ने भी इस भावना को ध्यान में रखकर मुझे यह सम्मान दिया। मैने कभी भी सम्मान अथवा पुरस्कार के लिए कोई कार्य नहीं किया किन्तु प्रदेश की जनता ने मुझे हमेशा ही सम्मानित किया है। वर्षों से मैं तपस्या करता आ रहा हूं। किन्तु कभी भी सम्मान की चाह नहीं रखी परंतु मुझे हमेशा ही लोगों ने पूरा आशीर्वाद व सम्मान दिया। उन्होंने कहा कि सरकार ने यह सम्मान देकर मुझे और अधिक कार्य करने के लिए संबल प्रदान किया है।‘
छत्तीसगढ के स्वनामधन्य जनों पर कलम चलाते हुए डॉ.परदेशीराम वर्मा जी इनके संबंध में लिखते हैं ‘ छत्तीसगढ के प्रसिद्ध मूर्तिकार जे.एम.नेल्सन की आज चतुर्दिक ख्याति है । विगत चालीस वर्षों की सतत कला साधना में रत नेलसन की कला नें आज एक विशेष मुकाम हासिल कर लिया है । उनके बनाये विशाल तैल चित्रों को देखकर कलापारखी चकित रह जाते हैं । अलग – अलग माध्यमों का भरपूर उपयोग कर जे.एम.नेल्सन नें स्वयं को अभिव्यक्त किया है ।
बमलेश्वरी मैया की नगरी डोंगरगढ से जब रेलगाडी गुजरती है तो खिडकी के पास बैठा यात्री मंदिर के ध्वज को दूर से देखकर सर झुका लेता है । डोंगरगढ से गुजर रही रेलगाडी की खिडकी से आजकल एक और भव्य मूर्ति का दमकता मस्तक दिखता है । यह माथा सहस्त्र सूर्यों के समान दैदिप्यमान, संसार में ज्ञान की दिव्य आंख के रूप में पूजित भगवान बुद्ध का है । भगवान बुद्ध की यह प्रतिमा 30 फीट उंची है । ध्यान मुद्रा में बैठे तथागत की यह भव्य मूर्ति प्रज्ञा पहाडी डोंगरगढ में स्थापित है । यहां हर वर्ष प्रज्ञा मेला लगता है । हम सब यह देखकर चकित हैं कि अपनी शर्तों पर जीते हुए उपलब्धि पाने वाला यह कलाकार यहीं रहकर यश के शिखर की ओर बढ चला है । आज उसकी बनाई महात्मा गांधी की भव्य धातु निर्मित मूर्ति छत्तीसगढ के विधान सभा भवन में स्थापित है ।‘
प्रज्ञागिरि में स्थापित गौतम बुद्ध की मूर्ति के निर्माण की अपनी कहानी है । संभवत: नेलसन को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाने में भगवान बुद्ध की ही कृपा रही हो । इस पर स्वयं नेलसन के अनुभव सुनिये जिसे डॉ.परदेशीराम वर्मा जी नें अपने शव्द दिये हैं ।
‘1997 की बात है । तब मैं भिलाई स्पात संयंत्र का कर्मचारी था । संयंत्र भवन में ‘कर्म ही पूजा है’ इस संदेश पर केन्द्रित मूर्ति गढ रहा था कि वहां से तत्कालीन ए.जी.एम. फूलमाली जी गुजरे । उन्होंनें कुछ देर ठहर कर मेरी कृति को देखा, फिर उन्हें याद आया कि बीस वर्ष पहले मैं ही उनके आग्रह पर बुद्ध की छोटी मूर्ति बना चुका हूं । उस घटना को याद करते हुए फूलमाली जी नें बताया कि डोंगरगढ में जापान से कुछ लोग आये हैं और वहां वे बुद्ध की भव्य मूर्ति स्थापित करना चाहते हैं । आप भी चलिए, वे मुझे डोंगरगढ ले गए ।
साथ में मैं अपनी कृतियों का एलबम ले गया था और मुझे ही यह काम मिला । तय हुआ कि सामाग्री उनकी होगी और मुझे अस्सी हजार देने की बात सुनिश्चित कर दी गई । यह राशि यद्यपि नगण्य थी लेकिन भावनावश मैंनें स्वीकार कर लिया । अब सवाल माडल का था । मैं कई तरह से प्रयोग करता रहा, इसी बीच विश्व शांति रैली निकली । मेरे कलागृह से रैली गुजरी । मैनें एक भक्त को बैठाकर मॉडल बनाया । मॉडल को आधार बनाकर मैनें मूर्ति के लिए कुछ छाया चित्र लिए ।
अब काम की शुरूआत हुई । प्रज्ञा पहाडी पर नागपुर के एक आर्टिस्ट को मूर्ति के लिए आधार तैयार करने का काम दिया गया । उसने पत्थरों में छेद कर रॉड डालकर बेस तैयार करने का यत्न किया । लगभग 3 लाख रूपये स्वाहा हो गए लेकिन बेस तैयार नहीं हुआ, फिर उन्होंनें आधार तैयार करने का काम भी मुझे सौंपा । मॉडल को मिली स्वीकृति से मैं बेहद उत्साहित था । इसे विशेषज्ञों के दल नें स्वीकृति दी । इस दल में धम्म त्योति यात्रा में आये इण्डो-जापान यात्रा में निकले इण्डो-जापान बुद्धिस्ट फ्रेंड एसोसियेशन के महासचिव भन्ते संघ माण्डे, भन्ते सिन्द कोदो (जापान), भन्ते तर्सोवन्नो (थाईलेंड), भन्ते सोबतेन लोनसुक (तिब्बत), माता धम्मवती (नेपाल), भन्ते महासथिविर (भारत), भन्ते धम्मरण (श्रीलंका) जैसे विशिष्ठ पारखी जन थे । इन्होंनें मॉडल को देखकर खूब पसंद किया । इस तरह मुझे आशीष मिला और एक बडी यात्रा की शुरूआत हुई ।
अब डोंगरगढ की उस एकाग्र टिकरी पर मेरा डेरा लग गया साथ में मेरा आर्टिस्ट भागीरथी, मेरे दोनों बेटे एलिस तथा जेवियर फ्रांसिस गये । तब वे 15 से 17 वर्ष के किशोर थे । पहाड पर नीचे रेत, ईंट, पानी लाना होता था । करीब एक किलोमीटर दूर से पानी आता था । पहाड पर पानी था नहीं । अधिक उम्र में मजदूर काम नहीं कर पाते, छोटी उम्र के बेहद चुस्त लडके लडकियां काम पर लगे । घोडों से समान लेकर वे उपर आते । यह कविता मुझे उन दिनों खूब याद आई ...
मैदान में ही सब अकडते हैं
पहाड पर आदमी तो आदमी
पेड भी सीधे हो जाते हैं ।
शाम होते ही पहाडी के उपर उल्लू बोलते । लकडबघ्घे घूमते । अमावस की रात में तो हम अपनी कुटी में दुबक जाते मगर चांदनी रात में नजारा स्वर्गिक हो जाता तब मैथिलीशरण गुप्त की पंक्ति याद हो आती ...
चारू चंद्र की चंचल किरणे
खेल रही है जल थल में
स्वच्छ चांदनी बिछी हुई है
अवनि और अंबर तल में
स्वच्छ चांदनी में सरसराते सांपों को हमने देखा है । एक अवसर पर तो न भूलने वाला दृश्य देखने को मिला । दोपहर का समय था । एक शिलाखण्ड पर लगभग 25 फीट लम्बा, तगडा, अजगर धीरे-धीरे सरक रहा था । चील उपर आवाज करते हुए मंडरा जरूर रहे हैं मगर तगडे भजंग को छेडने का साहस वे भी नहीं कर रहे थे । जीवित, ताकतवर सांप पर वार करना ठीक नहीं है, यह चील भी जान रहे थे । करीब आते मगर चोंच मारने का दुस्साहस नहीं करते । मर्यादा में रहते । लगभग दो घंटे तक सांप सरकता रहा, तब कहीं चटटानी दरार में वह घुसा । चीलें चिल्लाते हुए उड गई अन्य दिशा को, और तब धर्मवीर भारती की अंधा युग की कविता उस पल मुझे आद आयी ..
मर्यादा मत तोडो
तोडी हुई मर्यादा
कुचले हुए अजगर सी
गुंजलिका में कौरव वंश को लपेट कर
सूखी लकडी सा तोड डालेगी ।
पहाडी की अपनी विशेषता थी और मुझ जैसे मैदानी व्यक्ति की अपनी कमजोरियां । मैं पहली बार पहाडी पर रह रहा था । यह रहना भी सामान्य निवास की तरह नहीं था । मूर्ति बनाने के लिए पहाडी पर मैं गया लेकिन पहाडी नें मेरे भीतर भी कुछ जोडा । मुझे भीतर से समृद्ध किया । पाकीजा फिल्म में जुगनुओं से लदे पेड का दृश्य है, ऐसे दृश्यों की गहराई में उतरने का मुझे वहां अवसर मिला । एकांत पहाडी पर गरजते बादलों की दुंदुभी का अपना भी वैभव होता है । नागार्जुन की यह पंक्ति बेहद चर्चित है ...
अमल धवल गिरि के शिखरों पर
बादल को घिरते देखा है ।
गिरि शिखर पर बादल से मेल मिलाप का अनुभव क्या है, यह उस अनुभव से गुजर कर ही जाना जा सकता है । सुखद अनुभूतियां थी तो दुख के पहाड भी थे । उंची पहाडी से नीचे संदेश देना तो कठिन था ही, तब मोबाईल फोन की सुविधा होती तो कलादल की बहुतेरी परेशानियां खत्म हो जाती । विज्ञान कला के पीछे चला है, कला सदा विज्ञान के आगे चलती है और स्वयं अपना मार्ग प्रशस्त भी करती है ।
मूर्ति दो हिस्सो में दो अलग-अलग जगहों पर बनी । धड पहाडी पर ढल रहा था । सिर को मैं अपने सेक्टर 1 के कलागृह में जाकर बनाया, सिर 18 तुकडों में बना, 30 फीट की मूर्ति थी । सिर भी उसी अनुपात में ढला । जब धड ढल गया तब सिर के 18 तुकडे लाए गये । पांच हजार रूपये में सिर के तुकडों को उपर लाने के लिए कांवर वाले श्रमिकों को ठेका दिया गया । दस-दस लोग एक एक तुकडे को उठाकर चलते और धीरे-धीरे सम्हलकर उपर लाते ।
सभी तुकडे आ गए, अब शुरू हुई असल परीक्षा । एक तुकडे को स्थापित करने के बाद फिर शेष तुकडे बिठाये जाने थे । मैं भीतर से डरा हुआ भी था । पहला तुकडा ठीक बैठे तो फिर शेष अपना आकार ग्रहण करे । ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ का निनाद मेरे भीतर अनुगूंजित होता रहता था । धीरे-धीरे तुकडों नें स्थान लिया और हम सब रात 10 बजे खुशी से उछल पडे । जब भगवान गौतम बुद्ध अपने पूरे प्रभाव में प्रज्ञा गिरि में विराजित हो गये । उसी दिन पूजा प्रारंभ हो गई, वह 5 फरवरी की तारीख मैं कभी नहीं भूल पाता ।
6 फरवरी को मेला लगा । जापान से भिच्छु पधारे थे दो चार्टड जहाज में जापान से भक्तगण आये थे, एक में वहां से धनिक लोग आये थे, एक में भिक्षुगण ।
भगवान भुवन भास्कर की पहली किरण मुर्ति पर पडी और मेरे पास खडे एक बौद्ध भिक्षु नें यह पंक्ति सर झुका कर पढा ...
प्रभातवेलेव, सहस्त्रभनुम
प्रदोषलक्ष्मीरिव शीत रश्मिम
भद्रे मुहुर्ते नृपधर्मपत्नी
प्रासूत पुत्रम भुवनैक नेत्रम ।
मैं भावविह्लल भक्तों की भीड में घिर सा गया । सबने मुझे कुर्सी पर बिठा लिया । विदेशी भिक्षुक सब नीचे जमीन पर बैठे । वे मुझे उंचा आसन देकर सम्मान दे रहे थे । मेरी आंखें भी तरल हो गई, मुझे लगा कि इस मूर्ति को बनाकर ही मेरा जीवन सार्थक हो गया, मगर यह तो इस तरह की यात्रा की शुरूआत थी ।
जापानी नोहिशिको हिबोनो नें मुझे बाहों में लेते हुए कहा कि जापान चलिए, वहां सौ फीट की मूर्ति बनाईये, हम ऋणी रहेंगें । मैं कुछ कह न सका लेकिन जब वक्त आया तो मैनें बता दिया कि छत्तीसगढ छोडकर मैं कहीं नहीं जाउंगा । इस पुण्य धरा में ही मेरी भक्ति और मुक्ति है ।
भविष्य में हम उनसे मिलकर आपको इस संबंध में और जानकारी देंगें । आज पद्मश्री जे.एम.नेल्सन जी के जन्म दिवस पर हमारी हार्दिक शुभकामनायें ।
संजीव तिवारी
बहुत सुंदर जानकारी दी है आपने रोचक लगी यह :)
जवाब देंहटाएंहम तो आपको लेखन पर बधाई देंगे - यह परिचय कराने के लिये।
जवाब देंहटाएंनेल्सन साहब को बधाई तो है ही लेकिन इस पोस्ट में तो भाषा शैली ने मन मोह लिया खासतौर से परदेशी राम वर्मा जी की शैली ने।
जवाब देंहटाएंमहाकौशल कला परिषद मे उनसे मुलाकात होती रही है। नेल्सन जी और उनके कार्य निश्चित ही हम सब को प्रेरित और गौरवांवित करते है।
जवाब देंहटाएंsir i have read all your literature and it was nice , i am very thankful to you for your kind help , i have got ID and wanted to meet you as soon as possible for further improvement of site
जवाब देंहटाएंonce again thank you for your kind help
Sculptor J.M.elson