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जनवरी, 2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

सदभाव के शिल्‍पी : पद्मश्री जे.एम.नेल्‍सन

छत्‍तीसगढ के प्रसिद्ध मूर्तिकार जे.एम.नेल्‍सन को इस वर्ष पद्मश्री का सम्‍मान प्रदान किया गया । हम भिलाई में कई वर्षों से नेल्‍सन के कलागृह के सामने बडी-बडी मूर्तियों को आकार लेते देख रहे हैं साथ ही मीडिया में उनके मूर्तियों के जगह-जगह पर स्‍थापित होने का समाचार भी पढते आ रहे हैं । उनकी बनाई मूर्तियों की खासियत यह होती है कि राह चलता व्‍यक्ति भी उन मूर्तियों को देखकर ठिठक पडता है और निहाने लगता है उसकी जीवंतता को । आज नेलसन जी का जन्‍म दिन है, हम पिछले कई दिनों से उनसे मिलने का कार्यक्रम तय कर रहे हैं पर हो ही नहीं पा रहा है, आज उनके घर में हमने दस्‍तक दिया तो पता चला कि जे.एम.नेल्‍सन जी भिलाई के कुष्‍ट रोगियों के बीच परिवार सहित अपना जन्‍म दिन मनाने गये हैं अत: उनसे मुलाकात नहीं हो पाई, पर आज उनका जन्‍मदिन है इस कारण हम इस पोस्‍ट को और विलंब न करते हुए आज ही प्रस्‍तुत कर रहे हैं । मूर्तिकार नेलसन को जब यह सम्‍मान प्राप्‍त हुआ तो हमारे पत्रकार मित्रों से चर्चा के दौरान सहज स्‍वभाव के धनी नेलसन नें कहा कि ‘ कर्म ही पूजा है। इसी भावना से मैने अपना कर्म किया। सरकार ने उसका सम्मान करते हुए

क्या गरूड वनस्पति या इसकी फली घर मे रखने से साँप नही आता?

5. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या गरूड वनस्पति या इसकी फली घर मे रखने से साँप नही आता? छत्तीसगढ और आस-पास के राज्यो मे यह माना जाता है कि गरुड नामक वनस्पति या इसके पौध भागो को घर मे रखने से साँप नही आते है। इस बार इसी विषय पर चर्चा की जाये। प्राचीन और आधुनिक वैज्ञानिक साहित्यो मे दुनिया भर मे बहुत सी ऐसी वनस्पतियो का वर्णन मिलता है जिनमे साँपो को दूर रखने की क्षमता है। बहुत सी ऐसी भी वनस्पतियाँ है जो साँपो को आकर्षित करती है। छत्तीसगढ मे भ्रमरमार नामक दुर्लभ वनस्पति साँपो को आकर्षित करने के गुणो के कारण जानी जाती है। राज्य के जाने-माने वनौषधि विशेषज्ञ माननीय भारत जी जो अब हमारे बीच नही है, इस वनस्पति से कैसर जैसे असाध्य समझे जाने वाले रोगो की चिकित्सा करते थे। साँपो से अपनी आजीविका चलाने वाले सपेरे बहुत सी ऐसी वनस्पतियो के विषय मे जानते है जो साँपो को दूर रखती है। मैने अपने वानस्पतिक सर्वेक्षणो के माध्यम से हजारो शोध आलेख लिखे ह ै इस विषय पर अभ

बटकी मा बासी अउ चुटकी मा नुन

रवि रतलामी जी ने पिछली पोस्ट "छत्तीसगढ़ी ब्लॉगर्स की ऊर्जा" पर कमेट करते हुए कहा कि " ज्ञानदत्त जी हम छत्तीसगढ़िया बटकी में बासी और चुटकी में नून खाते हैं (बटकी में बासी और चुटकी में नून - में गावत हों ददरिया तें खड़े खड़े सून) तो, आरंभ में बासी और बटकी और चटनी ( अमारी ) के बारे में भी ऐसा ही विस्तृत लेख लिख दें तो मजा आ जाए..." तो उनकी कहे को आदेश मानते हुए लीजिए पढ़िए :- छत्‍तीसगढ के ददरिया के संबंध में बहुत बार लिखा जा चुका है जिसमें हमारे हिन्‍दी ब्‍लागर कामरान परवेज जी एवं सीजी नेट के युवराज जी नें काफी विस्‍तार से लिखा है । हम यहां आपको इसका संक्षिप्‍त परिचय देते हुए एक मशहूर बंद को आप तक पहुचाना चाहते हैं । डॉ.पालेश्‍वर शर्मा ददरिया को इस तरह से व्‍यक्‍त करते हैं ‘ददरिया छत्‍तीसगढ के उद्दाम यौवन का स्‍वच्‍छंद अभिव्‍यंजन है । जब ददरिया का मदिर स्‍वर सन्‍नाटे के आलम में, नीरव निर्जन में, विजयवन में, सुदूर कानन प्रांतर में, स्‍तब्‍धनिशा में गूंजता है, तो प्रियतम की बहुत याद आती है अथवा प्रियतम को ही प्रणयाराधिका प्रणयातुर होकर पुकारती है ।‘ । अनेकों प्रचलित

छत्तीसगढ़ी ब्लॉगर की उर्जा

आदरणीय ज्ञानदत्‍त पाण्‍डेय जी नें अपने बुधवासरीय पोस्‍ट में लिखा :- ‘एक और बात - ये छत्तीसगढ़ी ब्लॉगर क्या खाते हैं कि इनमें इतनी ऊर्जा है? मैं सर्वश्री पंकज , संजीत और संजीव की बात कर रहा हूं? कल पहले दोनो की पोस्टें एक के बाद एक देखीं तो विचार मन में आया। इनकी पोस्टों में जबरदस्त डीटेल्स होती हैं। बहुत विशद सामग्री। इन्हीं के इलाके के हमारे इलाहाबाद के मण्डल रेल प्रबंधक जी हैं - दीपक दवे। बहुत काम करते हैं। पता नहीं सोते कब हैं।‘ मैनें जब से इस अंश को पढा है मन अभिभूत हुआ जा रहा है, यह मानव स्‍वभाव है कि प्रोत्‍साहन से मन प्रफुल्लित होता है । ज्ञान जी के हम बहुत आभारी है कि जिन्‍होंनें हमें यह सम्‍मान दिया । इसके साथ ही एक प्रश्‍न बार बार कौंध रहा है कि क्‍या हमारा प्रयास इतना सराहनीय है ? यह तो पाठक ही समझेंगें क्‍योंकि हम स्‍वयं अपना सटीक आंकलन नहीं कर सकते । ज्ञान जी के ‘उर्जा’ के प्रश्‍न पर मैं जो सोंचता हूं वह प्रस्‍तुत कर रहा हूं :- आदरणीय डॉ.पंकज अवधिया जी वनस्‍पति विज्ञानी है, शोधकार्यों व यात्राओं के कारण इनके पास समय का पूर्णत: अभाव है, इनका कार्य हिन्‍दी ब्‍लागिंग के क्षे

हरेली (हरियाली अमावस्या) मे नीम की डाल घरो मे लगाना अन्ध-विश्वास है या नही?

4 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? -पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय हरेली (हरियाली अमावस्या) मे नीम की डाल घरो मे लगाना अन्ध-विश्वास है या नही? हरेली (हरियाली अमावस्या) का पर्व वैसे तो पूरे देश मे मनाया जाता है पर छत्तीसगढ मे इसे विशेष रूप से मनाया जाता है। इस दिन लोग अपने घरो के सामने नीम की शाखाए लगा देते है। यह मान्य्ता है कि नीम बुरी आत्माओ से रक्षा करता है। यह पीढीयो पुरानी परम्परा है पर पिछले कुछ सालो से इसे अन्ध-विश्वास बताने की मुहिम छेड दी गयी है। इसीलिये मैने इस विषय को विश्लेषण के लिये चुना है। नीम का नाम लेते ही हमारे मन मे आदर का भाव आ जाता है क्योकि इसने पीढीयो से मानव जाति की सेवा की है और आगे भी करता रहेगा। आज नीम को पूरी दुनिया मे सम्मान से देखा जाता है। इसके रोगनाशक गुणो से हम सब परिचित है। यह उन चुने हुये वृक्षो मे से एक है जिनपर सभी चिकित्सा प्रणालियाँ विश्वास करती है। पहली नजर मे ही यह अजीब लगता है कि नीम को घर के सामने लगाना भला कैसे अन्ध-विश्

रायपुर की मॉं महामाया

छत्‍तीसगढ के शक्तिपीठ – 3 पौराणिक राजा मोरध्‍वज एक बार अपनी रानी कुमुददेवी के साथ आमोद हेतु शिवा की सहायक नदी खारून (इसका पौराणिक नाम मुझे स्‍मरण में नहीं आ रहा है) नदी के किनारे दूर तक निकल गए वापस आते-आते संध्‍या हो चली थी अत: धर्मपरायण राजा नें खारून नदी के तट पर संध्‍या पूजन करने का मन बनाया । राजा की सवारी नदीतट में उतरी । रानियां राजा के स्‍नान तक प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण नदी तट में भ्रमण करने लगी तो देखा कि नदी के पानी में एक शिला आधा डूबा हुआ है और उसके उपर तीन चार काले नाग लिपटे हैं । अचरज से भरी रानियों नें दासी के द्वारा राजा को संदेशा भिजवाया । राजा व उनके साथ आए राजपुरोहित कूतूहलवश वहां आये । राजपुरोहित को उस शिला में दिव्‍य शक्ति नजर आई उसने राजा मोरध्‍वज से कहा कि राजन स्‍नान संध्‍या के उपरांत इस शिला का पूजन करें हमें इस शिला में दैवीय शक्ति नजर आ रही है । राजा मोरध्‍वज स्‍नान कर उस शिला के पास गए और उसे प्रणाम किया, उस शिला में लिपटे नाग स्‍वमेव ही दूर नदी में चले गए । राजा नें उथले तट में डूबे उस शिला को बाहर निकाला तो सभी उस दिव्‍य शिला की आभा से चकरा गए । उस शिला

क्यो कहा जाता है कि अमली (इमली) के वृक्ष मे भूत रहते है?

3. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए : कितने वैज्ञानिक कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया इस सप्ताह का विषय क्यो कहा जाता है कि अमली (इमली) के वृक्ष मे भूत रहते है? आम तौर पर यह माना जाता है कि इमली के पेड मे भूत होते है और विशेषकर रात के समय इसके पास नही जाना चाहिये। इस मान्यता को अन्ध-विश्वास माना जाता है और आम लोगो से इस पर विश्वास न करने की बात कही जाती है। चलिये आज इसका ही विश्लेषण करने का प्रयास करे। प्राचीन ग्रंथो मे एक रोचक कथा मिलती है। दक्षिण के एक वैद्य अपने शिष्य को बनारस भेजते है। वे बनारस के वैद्य की परीक्षा लेना चाहते है। अब पहले तो पैदल यात्रा होती थी और महिनो लम्बी यात्रा होती थी। दक्षिण के वैद्य ने शिष्य से कहा कि दिन मे जो खाना या करना है, करना पर रात को इमली के पेड के नीचे सोते हुये जाना। हर रात इमली के नीचे सोना- वह तैयार हो गया। कई महिनो बाद जब वह बनारस पहुँचा तो उसके सारे शरीर मे नाना प्रकार के रोग हो गये। चेहरे की काँति चली गयी और वह बीमार हो गया। बनारस के वैद्य समझ गये कि उनकी परीक्षा ली जा रही है। उन्होने उसे जब वापस दक्षिण

त्रिलोचन : किवदन्ती पुरूष

दिसम्‍बर में कवि त्रिलोचन के देहावसान होने के बाद से श्रद्धांजली-गोष्ठियों में त्रिलोचन जी की कृतियों व उन पर केन्द्रित ग्रंथो पर लगातार चर्चा होती रही । सृजनगाथा का ताजा अंक कवि त्रिलोचन पर परिपूर्ण आया, हमारे ब्‍लागर्स भाईयों नें भी कवि त्रिलोचन पर जम कर लिखा, इन्‍हीं दिनों हमारे कुछ मित्रों नें दुर्ग से प्रकाशित व प्रतिष्ठित साहित्तिक पत्रिका ‘सापेक्ष’ (अनियतकालीन) के त्रिलोचन अंक पर हमारा ध्‍यान आर्कषित कराया । हमारे दुर्ग निवास के संग्रह में यह कृति उपलब्‍ध नहीं थी अत: हम सापेक्ष के संपादक डॉ.महावीर अग्रवाल जी के पास पहुचे, हमारी किस्मत थी जो यह कृति वहां से प्राप्‍त हो गई । हमारे अनुरोध पर डॉ.महावीर अग्रवाल जी नें बताया कि इस ग्रंथ की कुछ प्रतियां अभी उपलब्‍ध हैं अत: हम सुधी हिन्‍दी ब्‍लागर्स भाईयों के त्रिलोचन स्‍नेह को देखते हुए, इसमें संकलित विषय सामाग्री से संबंधित संक्षिप्‍त विवरण यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं । डॉ.महावीर अग्रवाल द्वारा संपादित ‘सापेक्ष’ का यह त्रिलोचन विशेषांक 1998 में प्रकाशित हुआ था । 760 पन्‍नो में विस्‍तृत इस पत्रिका को हार्डबाउंड कर एक ग्रंथ (‘त्रिलोचन: क

पुरस्कार हेतु नामित संभावित नये हिन्दी ब्लागर्स के नाम खत

परमआदरणीय प्रत्‍यासियों, आप सभी जानते हैं कि तरकश स्‍वर्ण कलम पुरस्‍कार के लिए नामांकन की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है यह पुरस्‍कार सर्वाधिक नामांकन व मतदान के आधार पर दिया जाने वाला है इसलिए ब्‍लागर्स सक्रिय हो गए हैं । अब हमें इंतजार है सवार्धिक नामांकन प्राप्‍त 10-10 महिला-पुरूष प्रत्‍यासियों का क्‍योंकि हमें आशा ही नहीं वरन विश्‍वास है कि हमारा ब्‍लाग सर्वाधिक को छू भी नहीं पायेगा । इस मतदान प्रक्रिया में एक तरफ बहुत दिनों से ब्‍लागर्स के ब्‍लागों में जो गुट एवं गुटबाजी की बात चल रही थी वह इस समय अपनी अहम भूमिका निभायेगी जहां उसका अस्तित्‍व यदि है तो वह सामने आयेगा । दूसरी तरफ हिन्‍दी ब्‍लाग जगत को स्‍तरीय बनाने के लिए प्रयासरत ब्‍लागर्स एवं पाठकों के समूह के द्वारा निश्चित ही कसौटी में खरे ब्‍लागों को मत दिया जायेगा । मित्रों यदि आपको लगता है कि आपका ब्‍लाग इन दोनों ही स्थितियों में कम मत से मात खा सकता है तो हम चुनाव प्रबंधन के नये प्रयोग के रूप में मित्रों के सहयोग के लिए लगातार प्रयासरत हैं । हमने लोकतंत्र में मत के प्रति सजग होने के कारण 100 निजी जीमेल आई डी और इतने ही हिन्‍दी ब

पीलिया झाडना या उतारना : कितना सही कितना गलत?

2. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? -पंकज अवधिया इस सप्ताह का विषय पीलिया झाडना या उतारना : कितना सही कितना गलत? यूँ तो देश के विभिन्न हिस्सो मे अलग-अलग प्रकार की विधियो का प्रयोग किया जाता है पर आम तौर पर जब कोई रोगी आता है तो उसे दूधिया पानी से भरे पात्र मे खडे होने के लिये कहा जाता है। उसके बाद उपचार करने वाला कुछ मंत्र पढकर रोगी के शरीर पर हाथ फेरता है। उसके बाद जब उसके सिर से पानी उडेला जाता है तो वह नीचे पात्र के दूधिया पानी से मिलकर गहरा पीला रंग पैदा करता है। रोगी को कहा जाता है कि अब उसका पीलिया (जाँडिस) ठीक हो गया है। रोगी जब पीले रंग को देखता है तो समझता है कि सचमुच मंत्र शक्ति या जडी-बूटी के उपचार से उसका पीलिया ठीक हो गया। यह प्रयोग बडा सरल है। दूधिया पानी दरअसल चूने का पानी होता है। उपचार करने वाले हाथो मे आम की अंतर छाल का चूर्ण लगाये होते है। इसी चूर्ण को मंत्रोपचार के दौरान रोगी के शरीर पर फेरा जाता है। फिर जब पानी डाला जाता है तो यह चूर्ण पानी के साथ दूधिया पानी तक पहुँचता है और वह पीला हो जाता है। अमी

डोंगरगढ की मॉं बगलामुखी-बमलेश्‍वरी

छत्‍तीसगढ के शक्तिपीठ – 1 छत्‍तीसगढ के शक्तिपीठ – 2 संपूर्ण भारत में देवी-देवताओं के मंदिर स्‍थापना एवं इससे जुडे कई अन्‍य मिथक कथाए किवदंतियों के रूप में व्‍याप्‍त हैं जिसमें एक ही भाव व कथानक प्राय: हर स्‍थान पर देखी जाती है, स्‍थान व पात्र बदल जाते हैं पर हमारी आस्‍था किसी प्रमाण की कसौटी में खरी उतरने का यत्‍न किये बिना उसे सहज रूप से स्‍वीकार करती है क्‍योंकि यही सनातन परंपरा हमें विरासत में मिली है और इन्‍हीं कथानकों के एक पात्र के रूप में आराध्‍य के सम्‍मुख प्रस्‍तुत मनुष्‍य के मन की श्रद्धा आराध्‍य को जागृत बनाती है । छत्‍तीसगढ के प्रमुख धार्मिक स्‍थलों में से डोंगरगढ की बमलेश्‍वरी माता प्रसिद्ध है हम यहां उससे जुडी हुई दो जनश्रुतियां प्रस्‍तुत कर रहे हैं । छठी शताब्दि के अंत में कोसल क्षेत्र में छोटे छोटे पहाडों से घिरी एक समृद्ध नगरी कामाख्‍या थी जो राजा वीरसेन की राजधानी थी । राजा संतानहीन था राज्‍य के पंडितों नें राजा को सुझाव दिया कि महिष्‍मति क्षेत्र शैव प्रभावयुत जाग्रत क्षेत्र है वहां जाकर शिव आराधना करने पर आपको पुत्र रत्‍न की प्राप्ति होगी । राजा वीरसेन अपनी रानी क

नियोग का श्राप : कलचुरी शासन का अंत

छत्‍तीसगढ इतिहास के आईने में - 1 छत्‍तीसगढ इतिहास के आईने में - 2 छत्‍तीसगढ इतिहास के आईने में - 3 छत्‍तीसगढ के कलचुरियों का शासनकाल शनै: शनै: महाकोशल से कोसल तक सीमित हो गया, इनके राजाओं नें कोसलराज की सामरिक शक्ति के विकास के साथ ही आर्थिक और समाजिक उन्‍नति के लिए हर संभव प्रयास किया और राज्‍य के वैभव को बढाया इसीलिए प्रजाप्रिय हैहयवंशियों का राज्‍यकाल कोसल में स्‍वर्णयुग के रूप में देखा जाता है । इनके राज्‍य क्षेत्र में चहुओर उन्‍नति हुई, बेहतर प्रशासन के लिए संगठनात्‍मक ढांचे पर काम किया गया जिसके कारण ही छत्‍तीसगढ गढ, गढपतियों एवं रियासतों के मूल अस्तित्‍व को बनाए हुए अपना स्‍वरूप ग्रहण कर सका । शिक्षा एवं व्‍यापार-विनिमय में उन्‍नति के साथ ही प्रजा की स्‍वमेव उन्‍नति हुई । कृषि प्रधान इस राज में धान की पैदावार, खनिजों व प्राकृतिक स्‍त्रोतों से प्राप्‍त संसाधनों आदि का समुचित विनिमय हुआ एवं आर्थिक समृद्धि सर्वत्र दृष्टिगोचर हुई । श्रम को पूजने की परंपरा का विकास हुआ जिसमें रतनपुर, शिवरीनारायण, जांजगीर व चंद्रपुर के मंदिरों एवं अन्‍य स्‍थापत्‍य अवशेष इतिहास के साक्षी के रूप में आज