शताब्दी की चयनित कहानियों में डॉ. वर्मा की भी कहानी

साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा शताब्दी की कालजयी कहानियों का चयन किया गया है। चयनित कहानियां किताब घर प्रकाशन से ४ खण्डों में प्रकाशित हुई है। विगत सौ वर्षों से कथा लेखकों में छत्तीसगढ़ के गांव लिमतरा से निकले डॉ. परदेशीराम वर्मा के महत्व को साहित्य अकादमी ने आंका है। इस चयन में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित प्रथम कथा संग्रह "दिन प्रतिदिन" की प्रतिनिधि कहानी को डॉ. परदेशीराम वर्मा की कालजयी कहानी का सम्मान मिला है।
छत्तीसगढ़ में कथा-लेखन की समृद्ध परंपरा है। छत्तीसगढ़ में ही हिन्दी की पहली कहानी "टोकरी भर मिट्टी" यशस्वी कथाकार माधवराव सप्रे ने लिखी। छत्तीसगढ़ के गांव लिमतरा में जन्मे कथाकर डॉ. परदेशीराम वर्मा को मध्यप्रदेश शासन का सप्रे सम्मान मिला। उल्लेखनीय है कि डॉ. परदेशीराम वर्मा छत्तीसगढ़ और देश के विशिष्ट कथाकार हैं जिन्हें कृष्ण प्रताप कथा प्रतियोगिता में लगातार दो बार क्रमशः "लोहारबारी" एवं "पैंतरा" कहानियों के लेखन के लिए पुरस्कृत किया गया। अब तक २५० से अधिक कहानियां तथा अन्य विधाओं की रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। वे अंचल के विशिष्ट कथाकार हैं जो प्रायः सभी विधाओं में लेखन करते हैं। मूलरूप से ग्रामीण पृष्ठभूमि के गहरे जानकार डॉ. परदेशीराम वर्मा ने फौज में भी सेवा दी। वे भारतीय डाकघर विभाग तथा भिलाई इस्पात संयंत्र में भी सेवा दे चुके हैं। हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी में लिखित उनके उपन्यास बेहद चर्चित हैं। हिन्दी के उपन्यास "प्रस्थान" को जहां महंत अस्मिता सम्मान मिला वहीं छत्तीसगढ़ी उपन्यास "आवा" को एमए पूर्व के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया।
साप्ताहिक हिन्दुस्तान के सर्वभाषा कहानी विशेषांक में हिंदी के प्रतिनिधि के रूप में डॉ. परदेशीराम वर्मा को सम्मिलित किया गया था। उन्हें जीवनी "आरुग फूल" के लेखन के लिए मध्यप्रदेश शासन का सप्रे सम्मान मिल चुका है। २००३ में पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय ने उन्हें मानद डी. लिट की उपाधि दी। पांच हिंदी तथा एक छत्तीसगढ़ी के कथा संग्रह के लेखक डॉ. वर्मा की कहानियां बंगला, उड़िया, मलयालय, तमिल तथा तेलुगु में अनुदित होकर भिन्न-भिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है। छत्तीसगढ़ शासन के शिक्षा विभाग के लिए त्रिभाषाई शब्दकोष निर्माण में डॉ. परदेशीराम वर्मा की उल्लेखनीय एवं प्रशंसनीय भूमिका रही। लेखन के साथ ही वे सांस्कृतिक संस्था अगासदिया की रचनात्मक गतिविधियों का संचालन भी करते हैं। विशिष्ट पत्रिका अगासदिया के अब तक ३८ विशेषांक भी निकल चुके हैं जिनका संपादन डॉ. परदेशीराम वर्मा ने किया है।

सुप्रसिद्ध साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध की पत्नी श्रीमती शांता मुक्तिबोध का निधन

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल में जनसंचार विभाग में रीडर एवं विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी जी नें अपने ब्‍लॉग चिंतन-शिविर में अभी कुछ समय पूर्व ही यह दुखद समाचार दिया है कि सुप्रसिद्ध साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध की पत्नी श्रीमती शांता मुक्तिबोध का गुरुवार की रात रायपुर में निधन हो गया. 88 वर्ष की शांता मुक्तिबोध लंबे समय से अस्वस्थ चल रही थीं.
1939 में गजानन माधव मुक्तिबोध के साथ प्रेम विवाह करने वाली शांता जी ने मुक्तिबोध जी के हर सुख-दुख में साथ निभाया. गजानन माधव मुक्तिबोध के निधन के बाद उन्होंने अपने बच्चों का लालन-पालन और बेहतर शिक्षा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. शांता जी के बेटे दिवाकर मुक्तिबोध देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं, वहीं गिरीश मुक्तिबोध भी पत्रकारिता से संबद्ध हैं. रमेश मुक्तिबोध और दिलीप मुक्तिबोध ने गजानन माधव मुक्तिबोध की अप्रकाशित कृतियों का संपादन किया है।
गजानन माधव मुक्तिबोध जी की कविता के साथ श्रीमती शांता मुक्तिबोध को हमारी श्रद्धांजली.....

मृत्यु और कवि

घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, निस्तब्ध वनंतर
व्यापक अंधकार में सिकुड़ी सोयी नर की बस्ती भयकर
है निस्तब्ध गगन, रोती-सी सरिता-धार चली गहराती,
जीवन-लीला को समाप्त कर मरण-सेज पर है कोई नर
बहुत संकुचित छोटा घर है, दीपालोकित फिर भी धुंधला,
वधू मूर्छिता, पिता अर्ध-मृत, दुखिता माता स्पंदन-हीन
घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, कवि का मन गीला
"ये सब क्षनिक, क्षनिक जीवन है, मानव जीवन है क्षण-भंगुर" ।

ऐसा मत कह मेरे कवि, इस क्षण संवेदन से हो आतुर
जीवन चिंतन में निर्णय पर अकस्मात मत आ, ओ निर्मल !
इस वीभत्स प्रसंग में रहो तुम अत्यंत स्वतंत्र निराकुल
भ्रष्ट ना होने दो युग-युग की सतत साधना महाआराधना
इस क्षण-भर के दुख-भार से, रहो अविचिलित, रहो अचंचल
अंतरदीपक के प्रकाश में विणत-प्रणत आत्मस्य रहो तुम
जीवन के इस गहन अटल के लिये मृत्यु का अर्थ कहो तुम ।

क्षण-भंगुरता के इस क्षण में जीवन की गति, जीवन का स्वर
दो सौ वर्ष आयु होती तो क्या अधिक सुखी होता नर?
इसी अमर धारा के आगे बहने के हित ये सब नश्वर,
सृजनशील जीवन के स्वर में गाओ मरण-गीत तुम सुंदर
तुम कवि हो, यह फैल चले मृदु गीत निर्बल मानव के घर-घर
ज्योतित हों मुख नवम आशा से, जीवन की गति, जीवन का स्वर ।

छत्तीसगढ़ की संस्‍कृति से संबंधित महत्‍वपूर्ण लिंक

संस्‍कृति विभाग छत्‍तीसगढ़ की वेब साईट में पिछले कुछ महीनों से कुछ महत्‍वपूर्ण जानकारियॉं पुरातत्‍व एवं संस्‍कृति विभाग के उच्‍च अधिकारी व सिंहावलोकन ब्‍लॉग वाले आदरणीय बड़े भाई राहुल सिंह जी के निर्देशन में जोड़ा गया है. जोड़ी गई नवीन जानकारियों से संबंधित पेज के लिंक आपकी सुविधा के लिए यहां दिया जा रहा है-

सृजनगाथा के चौथे आयोजन में ब्‍लॉगर संजीत त्रिपाठी सम्मानित : रिपोर्ट

वेब पत्रिका सृजन गाथा डॉट काम एवं प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के द्वारा छत्‍तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के प्रेस क्‍लब में आयोजित एक गरिमामय व्याख्यान एवं सम्‍मान समारोह  में आज हिन्‍दी ब्‍लॉग लेखन में उल्‍लेखनीय योगदान के लिए प्रदेश के ब्‍लॉगर संजीत त्रिपाठी सहित साहित्‍यकार व पत्रकारों का सम्‍मान किया गया।
सृजन गाथा डॉटकाम का यह चौथा आयोजन था। व्याख्यान में कविता क्या, कविता क्यों विषय पर प्रमुख व्याख्यान देते हुए इलाहाबाद से आए कवि, लेखक एवं समीक्षक प्रकाश मिश्र ने अपने उद्बोधन में कहा कि यश व धन कविता के शत्रु नहीं है पर कविता को मनुष्यता पर आधारित होना चाहिए कविता को कुरूपता से बचना चाहिए व उसे सहज भी होना चाहिए कविता की शुरूआत से आज तक कई परिवर्तन आए है। छंद लय रस से लेकर गद्यात्मक कविता का दौर भी आया है। उन्होने कहा कि गद्यात्मक कविता के माध्यम से भी भाव की अभिव्यक्ति की जा सकती है केवल निरा छंद कौशल ही कविता नहीं है। जिसमें संवेदना,संस्कृति एवं जीवन में संसार का भाव हो वही कविता है।  
व्याख्यान कार्यक्रम के अध्यक्षीय उद्बोधन में गंगा प्रसाद बरसैया ने कहा कि कविता वेदों से शुरू होती है और मनुष्य जीवन में परिवर्तन के साथ चलती है। रस का संबंध मनुष्य की अनुभूति से है कविता में कड़ी शब्द साधना है। कविता धरती से दूर जाएगी तो वह समाप्त हो जाएगी। कविता सत्ता के भरोसे अधिक दिन तक जिंदा नही रह सकती है। जनता की बात हो वहीं कविता है, कविता लोगों की आंख खोलती है और आदमी को आदमी से जोड़ती है। आज कविता जमीन छोड़ दी है। धरती से दूर हो रही है। पाठक का संकट नही, कविता से आचरण का संबंध है। 
व्याख्यान पर अपनी टिप्पणी देते हुए छत्तीसगढ़ के पूर्व निर्वाचन आयुक्त सुशील त्रिवेदी ने कहा कि कविता लिखने का प्रयोजन आनंद है। वरिष्ठ पत्रकार एवं छत्तीसगढ़ ग्रंथ अकादमी के संचालक रमेश नैय्यर ने कहा कि जब तक इंसान व इंसानियत जिंदा है तब तक कवि को कविता करते रहना चाहिए। कविता रस संगीत से मुक्त नही हो सकती है। वरिष्ठ पत्रकार एवं दैनिक अमृत संदेश के प्रधान संपादक गोविंद लाल वोरा ने कहा कि कविता जोश पैदा करती है। मन से निकला भाव कविता है। जनसत्ता के संपादक अनिल विभाकर ने कहा कि कविता के लिए सर्वप्रथम पाठक होना जरूरी है। कविता का संबंध जीवन मूल्य से है और उसमें कमी आने के कारण पाठकों का संकट उत्पन्न हो गया है। 
कार्यक्रम के आरंभ में संस्था के संस्थापक वेब एवं इंटरनेट विशेषज्ञ तथा सृजनगाथा डॉट काम वेब पत्रिका के प्रधानसंपादक जयप्रकाश मानस ने अतिथियों का स्वागत किया। लघु कथा लेखक राम पटवा ने स्वागत भाषण में सृजनगाथा डॉट काम के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी दी।  कार्यक्रम के द्वितीय सत्र सम्मान समारोह में सनत चतुर्वेदी पत्रकारिता क्षेत्र में , अशोक शर्मा  वेब तकनीक के क्षेत्र में योगदान के लिए सम्मानित किए गए।  रेडियों रंगीला के संपादक संदीप अखिल, फोटों पत्रकारिता के लिए नरेंद्र बंगाले,  लघु पत्रिका क्षेत्र में दीपांशु पाल,  इलेक्ट्रानिक मीडिया से संतोष जैन, कथालेखक कैलाश वनवासी, हिंदी ब्‍लॉग लेखन में योगदान के लिए संजीत त्रिपाठी का सम्मान किया गया। कार्यक्रम का संचालन डॉ.सुधीर शर्मा ने किया व आभार प्रदर्शन वरिष्ठ पत्रकार आरएनएस के संपादक एचएस ठाकुर ने किया ।

डाली डाली उड उड करके खाए फल अनमोल वृक्षों को किसने उपजाया देख उसे दृग खोल : पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र'

धन धन रे मोर किसान, धन धन रे मोर किसान! मैं तो तोला जानेव रे भईया, तैं अस भुंईया के भगवान ...... भैया लाल हेडाउ के सुमधुर स्‍वर में इस गीत को छत्‍तीसगढ़ी भाषा के प्रेमियों नें सुना होगा। इस गीत के गीतकार थे छत्‍तीसगढ़ी भाषा के सुप्रसिद्ध गीतकार द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र'। ऐसे लोकप्रिय गीत के गीतकार विप्र जी नें तदसमय में छत्‍तीसगढ़ी भाषा को अभिजात्‍य वर्ग के बीच बोलचाल की भाषा का दर्जा दिलाया।
पं.द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र' जी का जन्‍म छत्‍तीसगढ़ के संस्‍कारधानी बिलासपुर के एक मध्‍यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में 6 जुलाई सन् 1908 में हुआ. विप्र जी के पिता का नाम पं. नान्‍हूराम तिवारी और माता का नाम देवकी था। विप्र जी, दो भाई और दो बहनों में मंझले थे जिसके कारण वे मंझला महराज के नाम से भी जाने जाते थे। हाई स्‍कूल तक की शिक्षा इन्‍होंनें बिलासपुर में ही प्राप्‍त की फिर इम्‍पीरियल बैंक रायपुर एवं सहकारिता क्षेत्र में कार्य करते हुए सहकारी बैंक बिलासपुर में प्रबंधक नियुक्‍त हुए। सादा जीवन उच्‍च विचार से प्रेरित विप्र जी जन्‍मजात कवि थे, बात बात में गीत गढ़ते थे। ठेठ मिठास भरी बिलासपुरी छत्‍तीसगढ़ी बोलते उन्‍हें जिसने भी सुना है वह उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा है। कविताओं के साथ ही उन्‍हें संगीत से भी लगाव था वे सुमधुर सितार बजाते थे, हाथरस से प्रकाशित होने वाली संगीत की पत्रिका 'काव्‍य कलाधर' में सितार से सिद्ध की गई उनकी कवितांए मय नोटेसन के प्रकाशित होती थी, नोटेसन खुद विप्र जी तैयार करते थे।
छत्‍तीसगढ़ी लोकाक्षर के संपादक समालोचक व साहित्‍यकार नंदकिशोर तिवारी जी के संपादन में विप्र जी की संपूर्ण रचनाओं का 'विप्र रचनावली' के नाम से प्रकाशन किया गया है। नंदकिशोर तिवारी जी नें विप्र रचनावली में अपने लेख 'अकुंठित व्‍यक्तित्‍व के धनी पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र'' में उनके व्‍यक्तित्‍व एवं रचना संसार के संबंध में लिखा हैं। भविष्‍य में विस्‍तार से विप्र जी के संबंध में जानकारी हम यहां प्रस्‍तुत करेंगें, विप्र जी को आज याद करते हुए उनकी कविताओं के कुछ अंश हम यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं -
छत्‍तीसगढ़ी -
हम गांव ला अपन बढ़ाबोन गा, हम गांव ला अपन बढ़ाबोन गा।
जइसन बनही तइसन ओला, सरग मा सोझ चढ़ाबोन गा।
खेत खार खुबिच कमाके, रंग-रंग अन्‍न उपजाबोन गा,
अपन देस के भूख मेटाबो, मूड़ी ला उंचा उठाबोन गा।
उपन देस के करब बढ़ोतरी, माई-पिल्‍ला कमाबोन गा,
चला रे भईया चली हमू मन, देस ला अपन बढ़ाबोन गा।
कई किसिम के खुलिस योजना, तेमा हाथ बटाबोन गा।
देश प्रेम -
हिन्‍द मेरा वतन, मैं हूँ उसका रतन
इस वतन के लिए जन्‍म पाया हूँ मैं
इसकी धूलि का कण, मेरा है आवरण
इसकी गोदी में हर क्षण समाया हूँ मैं.
भक्तिकालीन चेतना -
यह संसार बसेरा है सखि
विपदा विवश बसेरा है
बंधा कर्म जीवन में जाने
कितने दिनो का डेरा है।
xxx
डाली डाली उड उड करके
खाए फल अनमोल
वृक्षों को किसने उपजाया
देख उसे दृग खोल।

ब्लॉगर संजीत त्रिपाठी को चौंथा सृजनगाथा सम्मान

संपूर्ण विश्‍व में हिन्‍दी ब्‍लॉगों की लोकप्रियता दिन ब दिन बढ़ती जा रही है. अन्‍य प्रदेशों की भांति छत्‍तीसगढ़ में भी हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग बहुत लोकप्रिय हो चुकी है. प्रदेश में सक्रिय ब्‍लॉग लेखकों एवं अब्‍लॉगर पाठकों की संख्‍या निरंतर बढ़ रही है। इस विधा को प्रोत्‍साहन देने के लिए छत्‍तीसगढ़ के प्रथम हिन्‍दी ब्‍लागर जयप्रकाश मानस द्वारा पिछले वर्षों से पुरस्‍कार व सम्‍मान प्रदान किया जा रहा है। 
जयप्रकाश मानस जी द्वारा संपादित राज्य की पहली वेब पत्रिका तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित, साहित्य, संस्कृति, विचार और भाषा की मासिक पोर्टल सृजनगाथा डॉट कॉम (www.srijangatha.com) के चार वर्ष पूर्ण होने पर चौंथे सृजनगाथा व्याख्यानमाला का आयोजन 6 जुलाई, 2010 दिन मंगलवार को स्थानीय प्रेस क्लब, रायपुर में दोपहर 3 बजे किया गया है । 
इस अवसर पर चौंथे सृजनगाथा डॉट कॉम सम्मान से श्री सनत चतुर्वेदी (पत्रकारिता), श्री नरेन्द्र बंगाले (फोटो पत्रकारिता), श्री संतोष जैन (इलेक्ट्रानिक मीडिया), श्री संदीप अखिल (रेडियो पत्रकारिता), श्री अशोक शर्मा (वेब-विशेषज्ञ), श्री संजीत त्रिपाठी (हिन्दी ब्लॉगिंग), श्री त्र्यम्बक शर्मा (कार्टून) और श्री कैलाश वनवासी, दुर्ग (कथा लेखन) श्री देवांशु पाल, बिलासपुर (लघुपत्रिका ) को सम्मानित किया जायेगा।
फरवरी 2007 से नियमित हिन्‍दी ब्‍लॉग में सक्रिय आवारा बंजारा वाले संजीत त्रिपाठी हिन्‍दी ब्‍लॉगरों के बीच जाना पहचाना नाम है। सहज सरल व्‍यक्तित्‍व के धनी संजीत त्रिपाठी अपने प्रोफाईल में स्‍वयं कहते हैं 'एक आम भारतीय, जिसकी योग्यता भी सिर्फ़ यही है कि वह एक आम भारतीय है जिसे यह नहीं मालूम कि आम से ख़ास बनने के लिए क्या किया जाए फ़िर भी वह आम से ख़ास बनने की कोशिश करता ही रहता है…।'

अपने एक पोस्‍ट में वे कहते हैं -

नाम मेरा संजीत त्रिपाठी है, जन्मा रायपुर, छत्तीसगढ़ मे। यहीं पला-बढ़ा,पढ़ा-लिखा और एक आम भारतीय की तरह जिस शहर में जन्मा और पला-बढ़ा वहीं ज़िन्दगी गुज़र रही है।

पैदा हुआ मैं एक स्वतंत्रता सेनानी परिवार में, दादा व पिता जी दोनो ही स्वतंत्रता सेनानी थे, दादाजी को देखा भी नही पर राष्ट्र और राष्ट्रीयता की बातें एक तरह से मुझे घुट्टी में ही मिली। घर में पिता व बड़े भाई साहब को पढ़ने का शौक था सो किताबों से अपनी भी दोस्ती बचपन से ही हो गई। आज भी पढ़ना ही ज्यादा होता है, लिखना बहुत कम।

मेरे बारे मे जितना कुछ मैं कह सकता हूं उस से ज्यादा और सही तो मुझसे जुड़े लोग ही कह पायेंगे…समझ नही पाता कि अपने बारे में क्या कहूं क्योंकि अपने आप को जानने समझने की प्रक्रिया जारी ही है…निरंतर फ़िर भी…

भीड़ मे रहकर भी भीड़ से अलग रहना मुझे पसंद है……कभी-कभी सोचता हूं कि मैं जुदा हुं दुसरों से,पर मेरे आसपास का ताना-बाना जल्द ही मुझे इस बात का एहसास करवा देता है कि नहीं, मैं दुसरों से भिन्न नहीं बल्कि उनमें से ही एक हूं…!

और हां,अक्सर जब कभी अपने अंदर कुछ उमड़ता-घुमड़ता हुआ सा लगता है,लगता है कि अंदर दिलो-दिमाग में कुछ है जिसे बाहर आना चाहिए,तब पेन अपने-आप कागज़ पर चलने लगता है और यही बात मुझे एहसास दिलाती है कि मैं कभी-कभी कुछ लिख लेता हूं…

"शब्द और मैं"
शब्दों का परिचय,
जैसे आत्मपरिचय…
मेरे शब्द!
मात्र शब्द नही हूं,
उनमें मैं स्वयं विराजता हूं,
बसता हूं
मैं ही अपना शब्द हूं,
शब्द ही मैं हूं !
निःसन्देह !
मैं अपने शब्द का पर्याय हूं,
मेरे शब्दों की सार्थकता पर लगा प्रश्नचिन्ह,
मेरे अस्तित्व को नकारता है…
मेरे अस्तित्व की तलाश,
मानो अर्थ की ही खोज है॥

संजीत त्रिपाठी भाई को सृजन सम्‍मान के लिए 'काबा भर परेम अउ गाड़ा गाड़ा बधई.'

सप्रेम शुभकामनांए .......  

पंडवानी के नायक भीम और महाभारत के नायक अर्जुन

यह सर्वविदित तथ्य है कि छत्तीसगढ़ की लोकगाथा पंडवानी महाभारत कथाओं का लोक स्वरूप है। वैदिक महाभारत के नायक अर्जुन रहे हैं जबकि पंडवानी के नायक भीम हैं। पिछले पोस्ट में पंडवानी की तथाकथित शाखा और शैली के संबंध में हमने बतलाया था। जिसके निष्कर्ष स्वरूप आप यह न समझ बैंठें कि वेदमति शाखा के नायक अर्जुन और कापालिक शाखा के नायक भीम हैं। उपलब्ध जानकारियों के अनुसार छत्तीसगढ़ में प्रचलित दोनों शाखाओं के नायक भीम ही रहे हैं। इसे आप जनरंजन के रूप में भी स्वीकार सकते हैं। इसके मूल में क्या कारण रहे हैं इस संबंध में रामहृदय तिवारी जी नें अपने एक आलेख में लिखा है-
महाभारत के इतने विविध चरित्रों में पंडवानी गायकों नें भीम को ही इतनी प्रमुखता और महत्ता क्यों दी इसके अपने सूक्ष्‍म मनोवैज्ञानिक कारण हो सकते हैं। यह एक रोचक तथ्य है कि पंडवानी गायन परंपरा में संलग्न लगभग सभी कलाकार द्विजेतर जातियों के हैं। सदियों से उपेक्षित, तिरस्कृत और दबे कुचले इन जातियों के लोग अपने दमित आक्रोश की अभिव्यक्ति और संतुष्टि भीम के चरित्र में पाते हैं। भीम की अतुल शौर्यगाथा गाकर ये कलाकार अपने भीतर छुपे प्रतिशोध की चिरजीवी साध को संतुष्ट करते हैं, साथ ही अपने बीच भी किसी महान पराक्रमी भीम के अवतरण की मंशा संजोए कथा में डूबते उतराते रहते हैं। भीम के कथा प्रसंग को जिस तन्मयता और गौरव के साथ ये सिद्धस्थ कलाकार गाते हैं, उसमें उनकी जातिगत मौलिकता और आदिम लोक तत्व की उर्जा विद्यमान रहती है।
तिवारी जी के इस कथन से भीम को नायक के रूप में स्वीकार करने की धुंध कुछ छटती है। इस संबंध में आदिवासी लोक कला परिषद भोपाल व अन्यान्य देशों के आदिवासियों पर शोध कर रहे मनीषियों को शोध में सहायता करने वाले आदिवासी इन्साईक्लोपीडिया निरंजन महावर जी भी तिवारी जी के इन कथनों की हामी भरते हैं।

पंडवानी के रोचक तथ्य :- पंडवानी के प्रथम ज्ञात लोक गायक झाडूराम देवांगन थे। प्रथम महिला पंडवानी गायिका श्रीमती सुखिया बाई को माना जाता है। पंडवानी के आरंभिक काल में पंडवानी को पुरूषों की परंपरा मानने के कारण श्रीमती सुखिया बाई पुरूषों के वेश में मंचासीन होकर पंडवानी गाती थी। पारंपरिक रूढि़ को तोड़ते हुए महिला के वास्तविक रूप में श्रीमती लक्ष्मी बाई नें पहली बार पंडवानी गाना आरंभ किया। श्रीमती तीजन बाई को पंडवानी के रूप में लोक कला में अप्रतिम योगदान के लिए पद्मभूषण प्रदान किया गया। पद्मभूषण श्रीमती तीजन बाई द्वारा पंडवानी की प्रस्तुति लगभग संपूर्ण विश्व में दी जा चुकी है।
पंडवानी के ज्ञात लोक गायक/ गायिका :- झाडूराम देवांगन, पुनाराम निषाद, चेतन देवांगन, रावन झीपन वाले मांमा-भांजा, श्रीमती सुखिया बाई, श्रीमति लक्ष्मी बाई, पद्मभूषण श्रीमती तीजन बाई, श्रीमती शांतिबाई चेलक, श्रीमती मीना साहू, श्रीमती प्रमिला बाई, श्रीमती उषा बारले, श्रीमती सोमेशास्त्री , श्रीमती टोमिन बाई निषाद, श्रीमती रितु वर्मा, खूबलाल यादव, रामाधार सिन्हा, फूल सिंह साहू, श्रीमती प्रभा यादव, श्रीमती पुनिया बाई, श्रीमती जेना बाई.
पंडवानी का इतिहास :-
नायकों पर चर्चा करते हुए किंचित पंडवानी की शुरूआत पर कुछ नजर डाली जाए। निरंजन महावर जी परंपरा के इतिहास को खंगालते हुए पंडवानी गाने वाले पारंपरिक लोक की व्याख्या करते हुए जो कहते हैं उसे शव्दश: रामहृदय तिवारी जी स्वीकार करते हैं यथा – ‘छत्तीसगढ में गोडों की एक उपजाति परधान के नाम से जानी जाती है और दूसरी घुमन्तु जाति होती है – देवार । शोधकर्ता कहते हैं कि पंडवानी मूलत: इन्हीं दोनों जातियों की वंशानुगत गायन परंपरा है जो पंडवानी नाम धरकर समयानुसार विकसित होते होते वर्तमान स्वरूप तक पहुंची है।
एक आलेख में निरंजन महावर जी स्पष्ट। रूप से इंगिंत करते है कि आंध्र प्रदेश के बुर्रा कथा से पंडवानी का उद्भव हुआ है। आंध्र के बुर्रा कथा का प्रभाव छत्तीसगढ़ तक कैसे आया इस पर वे कहते हैं कि आंध्र प्रदेश के वैष्णव मथुरा-वृंदावन की धार्मिक यात्रा करते थे, छत्तीसगढ़ इस यात्रा पथ में आता है। वे आगे बुर्रा शव्द को तंबूरे से जोड़ते हुए कहते हैं कि कालांतर में ‘तं’ शव्द का लोप हुआ और बुरा कथा बुर्रा कथा हो गया। आंध्र के बुर्रा कथा में भी महाभारत की कहानियों को तम्बूरे के साथ प्रस्तुत किया जाता है।
महावर जी के इस कथन को ध्यान में रखते हुए हम प्राचीन लेखकों में इतिहासकार प्यारेलाल गुप्ता जी की पं.रविशंकर शुक्ल विद्यालय द्वारा प्रकाशित कृति ‘हमर छत्तीसगढ़’ को संदर्भित करना चाहते हैं जिसमें प्यारेलाल जी लोक कथाओं के विकास के काल को विभाजित करते हुए लिखते हैं कि छत्तीसगढ़ के पारंपरिक आदि गाथाओं का काल सन् 1100 से 1500 (आदि काल) तक रहा है (इसे हीरालाल शुक्‍ल, डॉ.दयाशंकर शुक्‍ल, डॉ.हनुमंत नायडू भी स्‍वीकारते हैं) जिसमें पंडवानी लोक गाथा गायन का भी विकास हुआ है। इस समय आंध्र के बुर्रा कथा की क्या स्थिति रही यह अध्ययन का विषय है। आदि पंडवानी लोक गायक सन् 1927 में जन्‍मे बासिन दुर्ग वाले झाडूराम देवांगन जी कहते थे कि वेदमति शाखा का आरंभ मेरे से ही हुआ है इस पर महावर जी का कहना है कि पंडवानी के वेदमति शैली का प्रारंभ बीसवी शताब्दि के आरंभिक काल से है। यदि पंडवानी के वेदमति शाखा को ही पंडवानी की शुरूआत के रूप में स्वीकार किया जाता है तो निरंजन महावर जी के कथनानुसार पंडवानी का आरंभ बीसवीं सदी के आरंभ में हुआ। प्यारेलाल जी और महावर जी के तथ्य विरोधाभाषी हैं। इस पर भी अध्‍ययन की आवश्यकता है।

संजीव तिवारी

इस आलेख के साथ अली सैयद भईया के ब्‍लॉग उम्मतें में अवश्‍य पढें - महाकाव्य की अंचल यात्रा : पंडवानी के नायक भीम कैसे ना होते ?

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...