हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और रविन्द्र नाथ त्यागी की व्यंग तिकडी हिन्दी पाठकों के बीच अपार लोकप्रिय है । इनका अपना विशाल पाठक समूह हैं । एक समीक्षक किस्म के पाठक नें मुझे बताया कि परसाई को तामसिक, जोशी को सात्विक और त्यागी को राजसिक प्रवृत्ति के पाठक बहुत पसंद करते हैं । एक पाठक जो व्यंगकारों को साग-सब्जी समझता था, मुझसे बोला, ‘क्या बात है साब अपने व्यंगकारों की । सबके स्वाद अलग अलग हैं । परसाई करेला है, जोशी ककडी है और त्यागी खरबूजा है ।‘ उसकी बात से लगा, तीनो में से कोई भी उसे मिला तो वह कच्चा चबा जायेगा ।
हिन्दी साहित्य के इतिहास के मर्मज्ञ एक पाठक बोले ‘राजनीति उस समय फलती फूलती है, जब किसी चौकडी का जन्म होता है और साहित्य तब समृद्ध होता है, जब कोई तिकडी उस पर छा जाती है । प्रसाद, पंत और निराला की ‘त्रयी’ जब प्रगट हुई, तभी छायावाद फला फूला । हिन्दी की नयी कहानी भी कमलेश्वर, मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव के पदार्पण से ही सम्पन्न हुई । यही हाल हिन्दी व्यंग का है । परसाई, शरद जोशी और रविन्द्रनाथ त्यागी हिन्दी व्यंग के ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं ।‘
रोज बडी संख्या में व्यंगकारों को पाठकों के अजीबोगरीब पत्र प्राप्त होते हें । इनकी फाईलों में सेंध लगाकर बडी मुश्किल से प्राप्त किये गये तीन पत्र आपकी खिदमत में पेश है :-
पहला पत्र : हरिशंकर परसाई के नाम
अधर्म शिरोमणि,
ईश्वर तुम्हे सदबुद्धि दे ।
तुम जैसे नास्तिकों को हरि और शंकर जैसे भगवानों के नाम शोभा नहीं देते । अच्छा हो यदि तुम एच.एस.परसाई लिखा करो । म्लेच्छ-भाषा ही तुम्हारे लिए ठीक है ।
मेरा नाम स्वामी त्रिनेत्रानंद है और मैं भूत, वर्तमान और भविष्य सभी देखने की सामर्थ्य रखता हूं । ‘पूर्वजन्मशास्त्र’ का तो मैं विशेषज्ञ ही हूं । मैने बडे बडे नेताओं, महात्माओं और ज्ञानियों के पूर्वजन्म का पता लगाया है ।
पंडित जवाहर लाल नेहरू को मैने ही बताया था कि वे पूर्व जन्म में सम्राट अशोक थे । मेरे कथन की सत्यता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सम्राट अशोक भी शांतिप्रिय थे और पंडित नेहरू भी । अशोक नें विश्व शांति के लिए धर्मचक्र प्रवर्तित किया था और पंडितजी नें पंचशील । दोनों की जन्म कुण्डलियां इस सीमा तक मिलती थी कि यदि जन्मतिथि का उल्लेख न होता तो यह बताना कठिन था कि कौन-सी अशोक की है और कौन-सी पंडित जी की ?
इसी प्रकार बाबू राजनारायण को भी मैने ही बताया था कि वे पूर्वजन्म में दुर्वासा ऋषि थे । दुर्वासा के भीतरी और बाहरी दोनों ही लक्षण उनमें दिखाई देते थे । दाढी बाहरी लक्षण हैं और क्रोधी मन भीतरी । उनके शाप के कारण ही जनता-पार्टी का राजपाठ चौपट हो गया था ।
दुर्बुधे, तुम्हारे भी पूर्वजन्म का पता मैने लगाया है । कुछ दिन पूर्व एक धर्मप्राण सज्जन मेरे पास आये थे । तुम्हारी कुण्डली देकर बोले, ‘यह लेखक धर्म-कर्म के विरूद्ध अनाप-शनाप लिखता है इसकी अक्ल ठिकाने लगाने की कोशिस कर हम हार गये हैं । अब आप ही ऐसा कोई अनुष्ठान कीजिये, जिससे इसकी बुद्धि निर्मल हो जाये । इसे व्यंगकार से प्रवचनकार बना दीजिये ।‘
तुम्हारी कुण्डली देखने पर ज्ञात हुआ कि तुम द्वापर के अश्वत्थामा हो । धर्म, नीति और न्यायभ्रष्ट, अभिशप्त । पाण्डवों द्वारा पिता के अधमपूर्वक मारे जाने से विक्षिप्त, पशू युगों-युगों से दिशाहीन भटकते हुए । यह सत्य है, अश्वस्थामा कभी मरा नहीं, वह सदियों से नये नये रूपों में प्रकट होता रहता है । कभी कार्ल मार्क बनकर आता है तो कभी हरिशंकर परसाई ।
यज्ञ द्वारा तुम्हारी मुक्ति और विवेक निर्मल करने में समय लगेगा । मैं शार्टकट चाहता हूं । जिससे अनुष्ठान का चक्कर भी न चलाना पडे और तुम्हारा परिष्कार भी हो जाये । तुम केवल इतना करो कि नास्तिक लेखन छोड दो ‘रानी नागफनी की कहानी’ के स्थान पर ‘नर्मदा मैया की कहानी’ जैसी रचनायें लिखने लगो । इससे तुम्हारी शुद्धि चाहने वाले इतने मात्र से संतुष्ट हो जायेंगें । अनुष्ठान का पैसा हम और तुम आधा-आधा बांट सकते हैं ।
एक काम और मैं करूंगा अपनी पूर्वजन्म की विद्या से सिद्ध कर दूंगा कि तुम त्रेता के परशुराम हो । परसाई परशुराम का ही तो अपभ्रंश रूप है । परशुराम भी ब्राह्मण और अविवाहित थे, तुम भी हो । फर्क इतना ही है कि फरसे की जगह इस बार हाथ में कलम है ।
तुम्हें अश्वस्थामा बनना पसंद है या परशुराम, यह तुम सोंचो । आशा है, अपने निर्णय की शीध्र सूचना दोगो ताकि मैं भी अपना कर्तव्य निश्चित कर सकूं ।
सदबुद्धि के शुभाशीष सहित,
- स्वामी त्रिनेत्रानंद
(आवारा बंजारा वाले संजीत त्रिपाठी के प्रिय प्रोफेसर श्री शुक्ल जी के शेष दो पत्र अगले पोस्टों पर हम प्रस्तुत करेंगे)
संजीव जी, हमें प्रतीक्षा है अब अगली किश्त की
जवाब देंहटाएंबहुत खूब!!
जवाब देंहटाएंशुक्ल सर से पूछना पड़ेगा कि उन्हें अपने पुराणिक जी के नाम पाठक का कोई पत्र अब तक मिला है या नही!!
हिन्दी से हमारा लगाव बढ़ाने वालों मे से एक शुक्ल जी भी है, विश्वविद्यालय के टीचिंग डिपार्टमेंट से एम ए करने के दौरान हमारी एक कक्षा शुक्ल सर लिया करते थे! नमन उन्हें!
गजब हैं त्रिनेतानन्द, ये अपना भूत तय करने की च्वाइस भी देते हैं. कौन अश्वत्थामा बनना चाहेगा?
जवाब देंहटाएंबहुत आनन्द आया. अगली कड़ियों का इन्तजार है.
जवाब देंहटाएंवाकई गज़ब कि बात है एसा इंसान आज कहाँ जो भूत,भविष्य,वर्तमान सारी जानकारी दे दे,मुझे तो विश्वास ही नही होता एसी बातों पर,मगर पत्र कि शैली विश्वास करने पर मजबूर करती है, आपकी अगली पोस्ट की प्रतिक्षा रहेगी....
जवाब देंहटाएंशानू
मामू आज हमे काहे नही टिपीयाये...:)
सही है। अगले पत्र शीघ्र दिखायें!
जवाब देंहटाएंरचना बहुत अच्छी लगी। पढ़कर मजा आ गया। पढ़वाने के लिये साधुवाद!
जवाब देंहटाएंऔर हाँ, कानूनी जानकारी देने वाला आपका चिट्ठा भी जब और समृद्ध हो जायेगा तो अन्तरजाल पर हिन्दी के लिये बहुत बड़ी सामग्री मिल जायेगी। इसे प्रयत्न पूर्वक धीरे-धीरे अवश्य पूरा करियेगा।
जवाब देंहटाएं(आपके उस चिट्ठे पर टिप्पणी की सुविधा न पाकर यह टिप्पणी यहाँ कर दी है)