विनोद साव
सुखद दाम्पत्य जीवन के दो आधार..पत्नी का समर्पण और पति का प्यार। यह सूक्तिवाक्य चाहें तो दम्पत्तिगण अपने शयनकक्ष में लगाकर रख लें। दिन में पांच बार इसका जाप कर लें तो यह दिनभर उनके मन में किसी नारे की तरह गूंजता रहेगा। इससे हर पत्नी अपने मन मंदिर के देवता की उपासना भी करती रहेगी और हर पति अपनी पत्नी को हूर की परी समझने लगेगा। रोज सबेरे जब उनकी नींद खुले तो यह नारा उनकी ऑखों के सामने होगा जो उन्हें किसी शक्तिवर्द्धक पेय की तरह तरोताजा रखेगा। रात में सोते समय इस सूक्तिवाक्य पर दृष्टि पड़ जाए तो वह शिलाजीत की तरह तेज एवं भरोसेमंद साबित होगा। रोजमर्रा के जीवन में जहॉ बच्चों की चिल्ल-पों, भोजन व नाश्ते के बीच की खिटखिट, किराने दुकान की किटकिट और दिनभर घर में बर्तन मांजने, कपड़ा धोने व झाड़ूपोंछा करने की किचकिच के बीच यह नारा पति-पत्नी को सदाबहार बनाए रखेगा।
समानता की आवाज है। नारी जागरण का उफान है। तैंतीस प्रतिशत आरक्षण का तूफान है। लोग कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं। एक कवि महोदय मंच पर दहाड़ रहे थे कि `हमने कंधे से कंधा मिलाया तो ईनाम में दर्जन भर बच्चों को पाया।` मंच से उतरकर वे गदगद थे। श्रृंगार रस की कविताओं से वे ओतप्रोत हुए जा रहे थे। गले में चंदन माल और उपर चंदन भाल। हाथ में रखे लिफाफे से उनके पॉव भारी थे। हमने उनसे आटोग्राफ मांगा तो वे अभिभूत हुए। हमारी डायरी और हमारी पेन मांगकर उस पर अपना पता लिख दिया - सुकवि रासबिहारी `प्रणय`, कन्हैया-ट्वेल्व्ह, वृन्दावन की कुंज गली। हमने पूछा `कवि महराज! ये कन्हैया-ट्वेल्वह क्या है क्या कन्हैयाजी की सोलह हजार एक सौ आठ रानियों में से किसी एक का नम्बर है`
उन्होंने भावविव्हल होते हुए कहा कि `महाशयजी! ये हमारे सुखद दाम्पत्य जीवन का परिणाम है। हमने अपनी जीवनसंगिनी को हमेशा बराबरी का दर्जा दिया। उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया।`
`तो इससे कन्हैया-ट्वेल्व्ह का क्या सम्बंध है सुकवि! कृपया शंका समाधान करें।`
वे किसी शीलवती नारी की तरह सकुचाते हुए बोले `दरअसल कन्हैया .. हमारा सबसे छोटा और एकमात्र पुत्र है जो ग्यारह बेटियों के बाद पैदा हुआ है। हमने अपने मकान का नाम उसी चिरंजीव के नाम पर रखा है यानी कि कन्हैया-ट्वेल्वह।` दाम्पत्य जीवन में उनकी श्रम-साधना के परिणाम को जानकर मैं बाग बाग हुआ।
भ्रष्टाचार के आरोप तो अब एक आरोप नहीं कल्चर बन गए हैं। लेनेदेन और खानपान का संस्कार है। एक से लेना तो दूसरे को देना की परम्परा बढ़ चली है। अपने महकमे के जिम्मेदार अधिकारी हैं फिर भी दयनीय होकर कह उठते हैं कि `क्या बताएं साब .. हमारे उपर भी तो कोई बैठा है। हम न भी लेना चाहें तो ये उपर वाले कहॉ मानते हैं। लेना और देना हम सबकी मजबूरी है।` जो आया है सो जाएगा के फकीरी अंदाज में वे बोल पड़ते हैं कि `जो देगा वह पाएगा। जो खिलाएगा उसका काम होगा। अपना पेट तो तन्ख्वाह से भर लेते हैं लेकिन साथ में एक बीवी और चार बच्चे भी हैं। उनकी खुशी का खयाल भी तो रखना है।` वे लिफाफा टेबल के नीचे सरकाते हुए सरक उठे।
मैंने पूछा कि `क्या आप घर में इस परम्परा को बनाए रखें हैं! लेनेदेन और चाटुकारिता का विभागीय मामला घर में भी निर्णायक साबित होता है`
वे छूटते ही बोले `हॉ.. क्यों नहीं! हर महीने बीवी के लिए साड़ी या गहने का इंतजाम करो और बच्चों को कपड़े व खिलौने देते रहो तो घर के दाल आटे का भाव पता नहीं चलता। अपुन तो बस आजाद पंछी। सबेरे घर से काम पर निकलो और देर रात तक घर पहुंचो।` वे अपने घर की देर रात फिल्म का किस्सा सुनाने लगे। जो उनके सुखद दाम्पत्य जीवन का राज था।
यह फिल्म का दूसरा हिस्सा है। जहॉ एक कोई कहता है तो दूसरा उसका खंडन करता है। खंडन मंडन भी खूब जमकर चल रहा है। सत्ता ने स्टेटमेंट दिया तो संगठन ने उसका खंडन किया। सरकार ने कोई घोषणा की तो विपक्षी दल ने खंडन किया। निर्णय लेने के लिए मैनेजमेंट है तो उनका खंडन करने के लिए यूनियन है। सुखद दाम्पत्य जीवन का राज बताया पति महाशय ने तो पत्नी ने उसका खंडन किया `इनको क्या पता है! ये घर में रहते ही कब हैं। घर-गृहस्थी के झंझट में तो हम फॅसे हैं। इन्हें तो सचमुच दाल-आटे का भाव भी नहीं मालूम। एक बार घर से निकले तो फिर गायब, सीधे रात को खाने और सोने के लिए पहुंचेंगे। घर को घर नहीं सराय बना लिया है। कुछ कहती हूं तो द्रौपदी-सत्यभामा संवाद सुनाते हैं कि पत्नी का पति के प्रति आदर्श व्यवहार क्या हो - अपने अंदर के अहंकार को दूर कर पति में अपने नारीत्व को पूजा के फूल की तरह निष्काम प्रेम के जल से सुरभित कर उड़ेल देना। पत्नी को पति का प्रिय भोजन स्वयं बनाना और बैठकर भोजन कराना है। पति के आगे स्वयं को सतेज, सुन्दर, चिरऱ्यौवना के रुप में रखने का प्रयास करना। तुम मेरे हो के बजाय मैं आपकी हूं का भाव पति के साथ रखना।` क्या करेंगे भैया.. मर्दों की दुनियॉ है जैसा कहेंगे वैसा करेंगे। औरत के नसीब में तो बस कहीं भी खटना लिखा है।`
उत्सवधर्मियों की यह दुनियॉ है। कहीं उदघ़ाटन तो कहीं शिलान्यास, कहीं जन्मतिथि तो कहीं पुण्यतिथि, कहीं नारी उत्थान तो कहीं विधवा विवाह, कहीं वेलेन्टाइन-डे तो कहीं मैरीज एन्नीवर्सरी। बाजार में ऐसी भीड़ है जैसे ज़िन्दगी चार दिन की है। मिठाइयॉ, उपहार और गुलदस्ते लेते हुए सफेद पाजामें में कत्थई कुर्ता पहने आशिकी अन्दाज में वे मिल गए, बोले `आज शादी की सालगिरह है। इसलिए कुछ ले जा रहा हूं।`
मैंने पूछा `आज के दिन आप अपनी पत्नी को डॉटते फटकारते नहीं? और उसकी भावनाओं को चोट नहीं पहुंचाते?`
`अजी इसके लिए तो साल भर पड़ा है। कम से कम एक दिन तो हम हॅसते खेलते बिता लें। फिर पति-पत्नी के बीच खटपट तो होती रहनी चाहिए जैसे संसद में प्रधानमंत्री और विपक्षी नेता के बीच होती है। यही सच्चा प्रजातंत्र है। इससे लगता है दाम्पत्य जीवन में कुछ घट रहा है। नहीं तो दोनों एक एक ओर मुंह फुलाए बैठे हैं तो क्या मतलब। पति पत्नी के बीच नोंकझोंक दाम्पत्य सम्बंधों में प्रगाढ़ता के लक्षण हैं।` उन्होंने दाम्पत्य सम्बंध को लोकतांत्रिक रुप दिए जाने पर जोर दिया।
हर माकूल समय में उपहार देने का चलन है। कुछ उपहार देने के बहाने रिश्वत खिला देते हैं तो कोई रिश्वत देने के बहाने उपहार थमा देते हैं। साहब के पास जाओ तो उपहार ले जाओ, बाबू के पास जाओं तो उपहार ले जाओ, प्रीतिभोज में जाओ तो वर वधू को लिफाफा पकड़ाओ जैसे खाने के बिल का एडवांस पेमेन्ट हो। वे नार्थस्टार-शू के उपर जीन्स, जीन्स के उपर टी-शर्ट, टी-शर्ट के उपर गॉगल और गॉगल के उपर हैट पहने हुए हीरो लग रहे थे लेकिन एक बम्फर सेल में बड़े पशोपेश में खड़े थे। मुझे देखते ही झल्ला पड़े `यार..दुनियॉ में किसी को भी कोई गिफ्ट देना तो समझ में आता है कि क्या देना है लेकिन इन बीवियों के मामले में दिमाग काम नहीं करता!`
मैंने संस्कृत के एक चले हुए श्लोक को बमुश्किल उच्चारित करते हुए उन्हें सुनाया कि `पुरुषस्य भाग्यम नारी चरित्रम् दैवो ना जानधि कुतो मनुष्या।` पुरुष के भाग्य और नारी के चरित्र को देवता भी नहीं जान सकते तो आदमी की क्या बिसात।`
पर उनका कंझाना सतत जारी था `शादी की सालगिरह है अब पत्नी को कौन सा उपहार दूं! उसे अपने नए मकान की चाबी सौंप दूं या किसी हिल-स्टेशन में घुमा लाउं! घर में ही कार्यक्रम बनाएं या किसी होटल में सेलीबे्रट करें। सोने का कोई गहना पहनाउं या हाथीदांत व चंदन की लकड़ी का बना कोई आभूषण खरीदूं! यार.. मुझे ये सुखद दाम्पत्य जीवन की कोशिश बड़ी दुखद लग रही है।`
मैंने कहा `बंधु! नारी को सबसे प्यारी साड़ियॉ है। वह जब भी शॉपिंग के लिए जाती है तो कोई साड़ी खरीद लाती है। कभी कोई फेरी वाला आ जाता है तो उसके साड़ी के ठेले के आसपास मोहल्ले भर की पत्नियॉ ऐसे चिपक जाती हैं जैसे शहद के छत्ते से मुधमक्खियॉ। एक महिला दूसरे की मेहमान होती है तो उसे सम्मान में साड़ी मिलती है। दूसरी महिला पहले के घर आती है तो वह साड़ी के बदल साड़ी पाती है। जैसे नारी के तन पर साड़ियॉ चमकती हैं वैसे ही साड़ियों के बीच में नारी दमकती है। इस पर हिन्दी व्याकरण में भ्रांतिमान अलंकार का एक सुन्दर उदाहरण भी है कि `नारी बीच साड़ी है कि साड़ी बीच नारी है..नारी है कि साड़ी है कि साड़ी है कि नारी है।` जब भ्रांतिमान अलंकार के लिए नारी और साड़ी के उदाहरण को उपयुक्त माना गया तो अपनी पत्नी की पसंदगी पर आपका भ्रम स्वाभाविक है।` इस उदाहरण से उन्हें पत्नी की पसंद का सूत्र मिल गया था और वे कंझाना छोड़कर साड़ियों की दुकान की ओर भाग खड़े हुए।
आजकल मार्निगवाक की भागमभाग है। सेहत बनाने और मांसपेशी दिखाने का फैशन है। मैक्सी के अन्दर बीवी है तो चार साल का बेटा फूलपेंट में डूबा है और पिताश्री उतर आए हैं हाफपेंट पर। तीनों का बरमूड़ा ट्रैंगल है। बरमूड़ा पहने वे पत्नी और बच्चे के साथ दौड़े जा रहे थे। ओलम्पिक में जैसे किसी विजेता धावक के पीछे पत्रकार दौड़ते हैं मैंने उनके पीछे दौड़ लगाते हुए कहा कि `सर! शायद आपके सुखद दाम्पत्य जीवन का यही राज है कि हर रोज आप पत्नी व बच्चों के साथ दौड़ लगाते है।`
`ज़िन्दगी तो दौड़धूप का दूसरा नाम है।` पहले वे दार्शनिक भाव से बोले। .. जब दौड़ना है तो अकेले क्यू.. पत्नी को भी साथ रखिए क्योंकि पति और पत्नी गृहस्थी की गाड़ी के दो चक्के हैं और इसे चलाने के लिए दोनों चक्कों का दौड़ना जरुरी है।` अब वे गृहस्थ मुद्रा में आ गए थे।
`.. फिर साथ में यह तीसरा चक्का क्यों।` मैंने उनके बेटे की ओर ईशारा करते हुए कहा।
`बेटा स्टेपनी है.. जब एक चक्का पंक्चर हो जाता है तो तो स्टेपनी काम आता है।` अब वे घोर व्यावहारिकता में उतर आए थे। कहने लगे `रोज सबेरे दौड़ लगाकर सेहत बनाने का हमारा उदद़ेश्य भूख बढ़ाना है। आपको आश्चर्य होगा कि हमारे सुखद दाम्पत्य जीवन का मुख्य आधार `मुर्गा` है।`
`लेकिन आदमी के सुखद दाम्पत्य जीवन से भला एक मुर्गे का क्या सम्बंध है।` मैंने चौकते हुए पूछा।
`सम्बंध है साहब सम्बंध है.. अब देखिए मेरी बीवी मुर्गा बहुत अच्छा बनाती है। जिस दिन वह लजीज मुर्गा बनाती है उस दिन हमारे दाम्पत्य सम्बंध मुधर हो उठते हैं। जिस दिन मुर्गा बनाने में देरी हुई या मुर्गा ठीक नहीं बना तो हम दोनों के बीच मुर्गा लड़ाई शुरु हो जाती है। हम रोज सबेरे दो मील दौड़ लगाते हैं ताकि हमें ज्यादा से ज्यादा भूख लगे और हम ज्यादा से ज्यादा मुर्गा खा सकें।` यह कहते हुए उन्होंने अपनी पत्नी की ओर किसी मुर्गे की तरह प्यार से गर्दन उठाकर देखा तो पत्नी फुदकते हुए समर्पण भाव से निहाल हो उठी। ये उसी सूत्र का परिणाम था जिससे यह नारा बना है कि सुखद दाम्पत्य जीवन के दो आधार पत्नी का समर्पण और पति का प्यार।
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विनोद साव
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