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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

पुस्तक-समीक्षा: संघर्षाग्नि का ताप केरवस

छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य में उपन्‍यास लेखन की परम्‍परा नयी है, उंगलियों में गिने जा सकने वाले छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यासों की संख्‍या में अब धीरे धीरे वृद्धि हो रही है। पिछले दो तीन वर्षों में कुछ अच्‍छे पठनीय उपन्‍यास आये हैँ । इसी क्रम में अभी हाल ही में प्रकाशित छत्‍तीसगढ़ी, हिन्‍दी, उर्दू और गुजराती के स्‍थापित साहित्‍यकार मुकुन्‍द कौशल द्वारा लिखित छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास ‘केरवस’ भी प्रकाशित हुआ है। ‘केरवस’ सत्‍तर के दशक के छत्‍तीसगढ़ का चित्र प्रस्‍तुत करता है। ‘केरवस’ की कथा और काल उन परिस्थितियॉं को स्‍पष्‍ट करता है जिनके सहारे वर्तमान विकसित छत्‍तीसगढ़ का स्‍वरूप सामने आता है। विकासशील समय की अदृश्‍य छटपटाहट उपन्‍यास के पात्रों के चिंतन में जीवंत होती है। उपन्‍यास को पढ़ते हुए यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि यह उपन्‍यास लेखक का भोगा हुआ यथार्थ है। नवजागरण के उत्‍स का दस्‍तावेजीकरण करता यह उपन्‍यास सत्‍तर के दसक में उन्‍नति की ओर अग्रसर गॉंव की प्रसव पीड़ा की कहानी कहता है। अँधियारपुर से अँजोरपुर तक की यात्रा असल में सिर्फ छत्‍तीसगढ़ की ही नहीं अपितु गॉंवों के देश भारत की विकास यात्रा है। यह उभरते राज्‍य छत्‍तीसगढ़ के गॉंवों में आ रही वैचारिक क्रांति की कहानी है।

उपन्‍यास में शांत दिखते गॉंव अँधियारपुर में शोषण व अत्‍याचार से पीड़ितों की चीत्‍कारें दबी हुई हैँ , विरोध के स्‍वरों पर राख पड़ी हुई हैँ । सेवानिवृत चंदेल गुरूजी इसे वैचारिक हवा देते हैँ और नवजागरण का स्‍वप्‍न युवा पूरा करते हैँ । अलग अलग छोटी छोटी कहानियां की नदियॉं एक बड़ी नदी से मिलने के लिए साथ साथ चलती है और समग्र रूप से साथ मिलकर उपन्‍यास का रूप धरती है।

उपन्‍यास का कथानक अँजोरपुर के बड़े जलसे से आरंभ होता है जहॉं डीएसपी बिसाल साहू व उसकी पत्‍नी निर्मला गॉंव की ओर जीप से जा रहे हैँ । बिसाल साहू की यादों में उपन्‍यास आकार लेने लगता है। गॉंव के आयोजन में शामिल होने के लिए अन्‍य अधिकारियों के साथ ही अँधियारपुर निवासी स्‍टेनों फूलसिंह भी जा रहा है। वही जीप में बैठे अधिकारियों को अँधियारपुर से अँजोरपुर बनने का किस्‍सा बताता है। उपन्‍यास का कथानक वर्तमान और भूत के प्‍लेटफार्म को फलैशबैक रूप में प्रस्‍तुत करते हुए आगे बढ़ता है। अँधियारपुर के मालगुजार सोमसिंह, लालच में थुलथुल शरीर वाली कन्‍या केंवरा से अपने पुत्र मालिकराम का विवाह करवा देता है। मालिकराम रायपुर में वकालत की पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर गॉंव आकर रहने लगता है। गॉंव के गरीब किसानों को कर्ज देकर उनके जमीनों को अपने नाम कराने और शोषण व अत्‍याचार करने का उसका पारंपरिक कार्य आरंभ हो जाता है। मालिकराम सहकारी समितियों से कृषि कार्य के लिए खुद अपने नाम से एवं अपने कर्मचारियों के नाम से कर्ज लेता है पर उसे चुकाता नहीं। उसके दबदबे के कारण उससे कोई वसूली करने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाता। परेशान गॉंव में एसे ही किसी दिन एक समिति सेवक मोहन सोनी पहुँचता है और हिम्‍मत करके मालिकराम को समिति का मॉंग पत्र पकड़ा देता है। गॉंव में अदृश्‍य क्रांति का बिगुल उसी पल से फूँक दिया जाता है। समिति प्रबंधक के प्रयास से मालगुजार मालिकराम बैंक का कर्ज चुका देता है। सोनी बाबू समिति के लिए मेहनत करता है और कृषि विकास समिति को नया जीवन देता है। समिति सेवक जिसे गॉंव वाले बैंक बाबू या सोनी बाबू कहते हैँ वह परभू मंडल के घर में रहने लगता है। घर में केजई और उसकी बेटी मोंगरा भी रहते हैँ ।

गॉंव में अनेक कहानियॉं संग चलती हैं उनमें से कालीचरण की कहानी आकार लेती है। पत्‍नी की असमय मौत से विधुर हो गए कालीचरण नाई के छोटे बच्‍चे राधे को पालने का भार कालीचरण पर रहता है। कालीचरण मालिकराम जमीदार के घर में काम करता है इस कारण वह बच्‍चे की देखभाल नहीं कर पाता। एक दिन गॉंव के सब लोग उसके घर के सामने इकट्ठे हो जाते हें क्‍योंकि गॉंव वालों को खबर लगती है कि कालीचरण एक औरत को घर लेकर आया है। गॉंव वालों को कालीचरण बताता है कि वह दरभट्ठा के बस स्‍टैंड में होटल चलाने वाली चमेली यादव की बेटी है, चमेली को वह बस स्‍टैंड में ही मिली थी जब उस बच्‍ची को कोई वहॉं छोड़ दिया था। रूपवती बिलसिया अपने प्रेम व्‍यवहार से काली ठाकुर और उसके बच्‍चे का दिल जीत लेती है। गॉंव में उसके रूप यौवन की चर्चा रहती है वैसे ही उसके व्‍यवहार की भी चर्चा रहती है। कालीचरण के साथ ही बिलसिया भी मालिकराम के यहॉं काम करने जाने लगती है।

लेखक नें बिलसिया को मालगुजार मालिकराम के प्रति स्‍वयं ही आकर्षित होते हुए दिखाया है। यह बिलसिया जैसी रूपवती चिर नौयवना के हृदय में भविष्‍य के प्रति सुरक्षा के भाव को दर्शाता है। बिलसिया का अपने पति व मालिकराम के अतिरिक्‍त किसी अन्‍य के साथ दैहिक संबंधों का कोई उल्‍लेख उपन्‍यास में नहीं आता। मालिकराम और बिलसिया दोनों एक दूसरे के प्रति आकर्षित रहते हैँ । मालगुजार को बिना दबाव के सहज ही बिलसिया की देह मिल जाता है। मालिकराम एक बिलसिया से ही संतुष्‍ट नहीं होता वह नित नये शिकार खोजता है इसी क्रम में वह बाड़े में काम करने वाले कासी की नवयौवना बेटी गोंदा का शिकार करता है। मालिकराम के कुत्सित प्रयासों से गोंदा को गर्भ ठहर जाता है। लेखक नें इस घटना को मालिकराम के चरित्र को प्रस्‍तुत करने के लिए बड़े रोचक ढ़ग से लिया है हालांकि गोंदा के गर्भ ठहरने पर मालिकराम की पत्‍नी का नारीगत विरोध के अतिरिक्‍त उपन्‍यास में आगे कोई प्रतिक्रया नहीं है। मालिकराम के द्वारा गॉंव की औरतों के शारिरिक शोषण के चित्र को स्‍पष्‍ट करने के लिए लेखक नें ‘खास खोली’ का चित्र उकेरा है जो मालिकराम के एशगाह को नित नये शोषण का साक्षी बनाती है। कथा के अंतिम पड़ाव पर इसी कुरिया में बिलसिया मालगुजार को अपनी देह सौंप कर अपने परिवार के प्रति निश्चिंत हो जाती है।

गॉंव में शहर से आई रमशीला देशमुख उर्फ रमा, स्‍कूल में शिक्षिका है वह स्‍वाभिमानी है व अपने कर्तव्‍यों के प्रति सजग है। मालिक राम चाहता है कि वह उसके द्वार पर हाजिरी लगाने आए किन्‍तु वह नहीं जाती। सुखीराम एक मेहनतकश किसान है जो अपनी पत्‍नी अमरबती और बेटी दुरपती के साथ गॉंव में रहता है। दुरपति गॉंव में ही पढ़ती है और शाम को सोनी बाबू के पास पढ़ने आती है। सुखीराम का एक बेटा है जो शहर में रह कर पढ़ाई कर रहा है, सुखीराम नें अपने बेटे कन्‍हैंया की पढ़ाई के लिए मालिकराम से कर्ज लिया है उसके लिए मालिकराम उसे बार बार तंग करता है। सुखीराम हाड़तोड़ मेहनत कर कुछ पैसे इकट्ठे करता है , उसके पास दुविधा है कि वह पैसों से बेटी के हाथ पीले करे या जमीदार का कर्ज लौटाये?

मनबोधी साहू किसान है और गॉंव में किराना एवं कपड़ा दुकान भी चलाता है, उसका बेटा बिसाल शहर से पढ़ कर गॉंव आता है। बिसाल और कन्‍हैया दोनों बचपन के दोस्‍त हैँ । बिसाल पढ़ाई के साथ ही संगीत में भी प्रवीण है, उसका गला अच्‍छा है। पड़ोस के गॉंव में एक बार रामायण गायन प्रतियोगिता आयोजित होती है जिसमें गॉंव वालों के साथ बिसाल भी भाग लेने जाता है। वहॉं उद् घोषिका निर्मला, उसे भा जाती है, दोनों परिवार की रजामंदी से उनका विवाह हो जाता है। सत्‍तर के दसक में छोटे से गॉंव में अपनी संस्‍कृति के प्रति प्रेम के बरक्‍स बच्‍चों को डॉक्‍टर इंजीनियर बनाने की होड़ को पीछे छोड़ती निर्मला नें संगीत में स्‍नातक किया है।

इधर नौकरी नहीं मिलने से कन्‍हैया गॉंव वापस आ जाता है। स्‍कूल शिक्षिका रमा से उसकी अंतरंगता बढ़ने लगती है। इस प्रेम के अंकुरण के साथ ही दमित शोषित समाज को मुख्‍यधारा में लाने का प्रयास दोनों के संयुक्‍त नेतृत्‍व से आरंभ हो जाता है। बिसाल एवं अन्‍य युवा इसमें सक्रिय योगदान करने जुट जाते हैँ ।

गॉंव में एक सेवानिवृत शिक्षक चंदेल भी रहते हैँ जो गॉंव में नवजागरण के स्‍वप्‍न सँजोए गॉंव वालों को जगाने के लिए निरंतर प्रयास करते रहते हैँ। वे समय समय पर गॉंव की उन्‍नति, मालगुजार के शोषण व अत्‍याचार से मुक्ति एवं पृथक छत्‍तीसगढ़ राज्‍य के लिए क्रांति करने को प्रेरित करते रहते हैँ । गॉंव में कन्‍हैया, बिसाल और रमा के आने से युवा लोगों का उत्‍साह बढ़ता है और वे चंदेल गुरूजी की बातों से प्रभावित होने लगते हैँ । युवाओं में विद्रोह की भावना प्रबल होने लगती है और मालगुजार इस विद्रोह को दबाने के लिए पुलिस से मदद पाने की जुगत भिड़ाता है, और एक नामी लठैत को घर में बुलवाता है।

गॉंव में दहशत फैलाने के उद्देश्‍य से मालिकराम लठैत के साथ घूमता है व अपने कर्ज में दिए गए पैसे की वसूली मार पीट कर करता है ऐसे ही दबावपूर्ण परिस्थितियों में एकदिन मालिकराम और गुंडों के द्वारा मारपीट करने से सुखीराम की मौत हो जाती है। कन्‍हैया के पिता की मौत से विद्रोह का शंखनाद हो जाता है। लेखक नें विद्रोह और उसके बाद की क्रमबद्धता को बहुत जल्‍द ही समेट दिया है कुछ ही पैराग्राफों के बाद जमीदार के घर में घुस आए युवक खाता बही और जबरदस्‍ती अंगूठा लगा लिए गए स्‍टैम्‍प पेपरों की होली जला देते हैँ और चुटकियों में रावण का अंत हो जाता है जैसे दशहरे में कृत्तिम रावण पल भर में जल जाता है।

ग्राम सेवक सोनी गॉंव में सांस्‍कृतिक चेतना जगाता है और अपने कर्तव्‍यों के उचित निर्वहन के साथ ही कृषि सहकारिता के विकास में अपना सक्रिय योगदान देता है। शहर से पढ़कर गॉंव आने वाला कन्‍हैया रमा से विवाह करके, गॉंव में ही बस जाता है और अपने गॉंव का सर्वांगीण विकास का सपना साकार करते हुए सरपंच चुना जाता है। गॉंव का अंधकार मिट जाता है और गॉंव में चारो ओर विकास, सुख व संतुष्टि का उजाला फैल जाता है। लेखक का प्रतिनायक उपन्‍यास के अंत में कहीं गायब हो जाता है, मरता नहीं। जैसे लेखक कहना चाह रहा हो कि शोषण और अत्‍याचार का अभी अंत नहीं हुआ है, उसे हमने अपने संयुक्‍त प्रयासों से दूर भले भगा दिया है वो फिर आयेगा रूप बदल कर, हमें सावधान रहना है।

मुकुन्‍द कौशल जी की विशेषता रही है कि, वे अपनी कविताओं में बहुत सहज और सरल रूप से पाठकों को तत्‍कालीन समाज की जटिलता से वाकिफ कराते है। इस उपन्‍यास में भी उनकी यह विशेषता कायम है, पात्रों का चयन, कथोपकथन, पात्रों के कार्य व्‍यवहार, घटनाक्रम का विवरण एवम् परिस्थितियों का चित्रण वे इस प्रकार करते हैँ कि उपन्‍यास के मूल संदेश के साथ छत्‍तीसगढ़ के ग्रामीण समाज को समझा जा सके। लेखक नें काली नाई की पत्‍नी बिलसिया के चरित्र के चित्रण में इसी प्रकार की विसंगतियों का चित्रण किया है, उपन्‍यास में उसे बिना मा बाप की अवैध संतान बताया है जिसे बस स्‍टैंड के होटल वाले पालते हैँ , लेखक नें उसकी खूबसूरती का भी बहुत सजीव चित्रण किया है, उसमें प्रेम दया के भाव कूटकूट कर भरे हैँ । कथा में वह अपने पति की पहली पत्‍नी के बेटे को उसी प्रकार स्‍नेह देती है जैसे वह उसका खुद का बेटा हो। वह अपने पति का ख्‍याल रखते हुए भी जमीदार को जीतने का ख्‍वाब रखती है और अपने रूप बल से उसे जीतती भी है। कथाक्रम में स्‍वयं की पत्‍नी और काली को, जमीदार मरवा देता है जिसे दुर्घटना का रूप दे दिया जाता है। बिलसिया अपने पति की मृत्‍यु के बावजूद जमीदार की सेज पर जाती है। लेखक नें उपन्‍यास में लिखा है - ‘बिलसिया ह आज अड़बड़ खुस हे, अउ काबर खुस नइ होही आज त ओकर मनौती अउ परन पूरा होवइया हे। अपन नवा रेसमइहा लुगरा ला बने डेरी खंधेला पहिर के चेहरा म चुपरिस पावडर, होठ म लगाइस लाली अउ गोड म रचाइस माहुर। अँगरी मन म नखपालिस रचा के पहिरिस तीनलड़िया हार। कान म झुमका अउ अँगरी म अरोइस मुँदरी। कपार म टिकली चटका के, सिंघोलिया ले चुटकी भर सेंदुर निकाल के भरिस अपन मॉंग, ते सुरता आगे राधे के ददा के।‘ यह दर्शाता है कि बिलसिया को अपने राधे की चिंता है, उपन्‍यास के अंत में लेखक नें राधे को सायकल में स्‍कूल जाते हुए दर्शाया है और बिलसिया को जमीदार के बाड़े में रहते हुए चित्रित किया है। सपाट अर्थों में इस वाकये को स्‍त्री स्‍वच्‍छंदता भले मान लिया जाए किन्‍तु उसके पीछे का गूढ़ार्थ नारी अस्मिता को भलीभांति स्‍थापित करता है। बिलसिया का द्वंद यह है कि मालिकराम उसके देह को छोड़ेगा नहीं और बिलसिया अपने पति और बच्‍चे को छोड़ेगी नहीं। इसका आसान सा हल मालिकराम के सम्‍मुख समर्पण के अतिरिक्‍त और कुछ भी नहीं है।

लगभग तीन दर्जन पात्रों के साथ गुथे इस उपन्यास के अन्य पात्रों में बेरोजगारी का दंश झेलते कन्हैया, गॉंव में शिक्षा का लौ जलाती रमा, क्रांति का मशाल थामे शहर से पढ़कर गॉंव आने वाला बिसाल, सेवानिवृत प्रधानाध्यापक बदरी सिंह चंदेल, स्वामी भक्त और किंकर्तव्‍यविमूढ़ कालीचरण नाई, गॉंव में सहकारिता और विकास के ध्वज वाहक सोनी बाबू जैसे प्रमुख पात्रों नें उपन्यास में छत्तीसगढ़ की ग्रामीण जनता के असल चरित्र को व्यक्त किया है.

लेखक चंदैनी गोंदा, सोनहा बिहान एवं नवा बिहान जैसे छत्‍तीसगढ़ के भव्‍य व लोकप्रिय लोकनाट्य प्रस्‍तुतियों के गीतकार रहे हैँ । इन प्रस्‍तुतियों में वे पल पल साथ रहे हैँ इस कारण उन्‍हें पटकथा के गूढ़ तत्‍वों का ज्ञान है जिसको उन्‍होंनें उपन्‍यास में उतारा है। पढ़ते हुए ऐसे लगता है जैसे घटनायें ऑंखों के सामने घटित हो रही है, उपन्‍यास का कथोपकथन कानों में जीवंतता का एहसास कराता है। उपन्यासकार नें कथोपकथन के सहारे कथा को विस्तारित करते हुए सहज प्रचलित शब्दों का प्रयोग कर संवाद को प्रभावपूर्ण बनाया हैँ . एक संवाद में चंदेल गुरूजी गॉंव वालों के मन में ओज भरते हुए छत्तीसगढ़ की गौरव गाथा बहुत सहज ढ़ंग से कहते हैँ , जो पाठक के मन में भी माटी प्रेम का जज़बा भर देता है— ‘ये माटी अइसन’वइसन माटी नोहै रे बाबू हो, ये माटी बीर नरायन सिंह के, पं. सुन्‍दरलाल के, डाकुर प्यारेलाल सिंह अउ डॉ.खूबचंद बघेल के जनम देवईया महतारी ए। महानदी, अरपा, पैरी, खारून, इन्द्रावती अउ सिउनाथ असन छलछलावत नंदिया के कछार अउ फागुन, देवारी, हरेली, तीजा’पोरा असन हमर तिहार।‘ उपन्यास के नामकरण को स्पष्ट करता हुआ एक कथोपकथन उपन्यास में आता है जिसमें दुरपति और सहोद्रा बड़े दिनों के बाद मिलकर बातें कर रहे हैँ उनके बीच जो बातें हो रही है उसमें गूढ़ शब्दों का प्रयोग हो रहा है. शहर में व्याही सहोद्रा जब गॉंव में रहने वाली महिलाओं के जन जागरण में शामिल होने पर सवाल उठाती है तब दुरपति कहती है '... बटलोही के केरवस त धोवा जाथे बहिनी, फेर उही केंरवस कहूँ मन म जामे रहिगे तब कइसे करबे? लगही त लग जाए, फेर केंरवस ये बात के परमान रिही के इहॉं कभू आगी बरे रिहिस ...’ उपन्यासकार कितनी सहजता से अपने पात्र के मुख से दर्शन की बात कहलवाते हैँ . शोषण, अन्याय, अत्याचार की आग के विरूद्ध यदि संघर्ष करना है तो उसका रास्ता भी आग से ही होकर जाता है. संघर्ष करने वालों को इस आग से जलना भी है और जलन की निशानी को बरकरार भी रखना है क्योंकि यह निसानी इस बात को प्रमाणित करती है कि हमने अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष किया था. यह संदेश है उन सभी दमित और शोषित जन के लिए कि हमारे मन में लगा केरवस प्रमाण है, हमारे संघर्षशील प्रकृति का, चेतावनी है कि हमें कमजोर समझने की भूल मत करना.

लेखक की मूल विधा काव्‍य है, वे छत्‍तीसगढ़ के स्‍थापित जनकवि हैँ । गद्य की कसौटी को वे भली भंति समझते हैँ इसी कारण उन्‍होंनें इस उपन्‍यास में शब्‍दों का चयन और प्रयोग इस तरह से किया है कि संपूर्ण उपन्‍यास में काव्‍यात्‍मकता विद्यमान है। कथानक के घटनाक्रमों और बिम्‍बों का चित्रण लेखक इस प्रकार करते हैँ कि संपूर्ण उपन्‍यास एक लम्‍बी लोकगाथा सी लगती है जो काव्‍य तत्‍वों से भरपूर नजर आती है। छत्‍तीसगढ़ी के मैदानी स्‍वरूप में लिखी गई इस उपन्‍यास की भाषा बोधगम्‍य है। सहज रूप से गॉंवों में बोली जाने वाली भाषा का प्रयोग इस उपन्‍यास में हुआ है।

उपन्‍यास में प्रयुक्‍त कुछ शब्‍दों में ऐसे शब्‍द जिन्‍हें हम बोलचाल में अलग अलग करके प्रयोग करते हैँ उसे लेखक नें कई जगह युग्‍म रूप में प्रस्‍तुत किया है जो पठन प्रवाह को बाधित करता है। हो सकता है कि प्रदेश के ज्‍यादातर हिस्‍से में इस तरह के शब्‍द प्रयोग में आते हों। कुछ शब्‍दों का उदाहरण प्रस्‍तुत कर रहा हूं – बड़ेक्‍जन, सबोजिन, बिजरादीस, सिपचाके, लहुटगे, टूरामन, जवनहामन, गुथागै, लहुटके आदि। व्‍यवहार में हम अंतिम शब्‍द पर ज्‍यादा जोर डालते हैँ इस कारण अंतिम शब्‍दों को अलग कर देने से अंतिम शब्‍द पर जोर ज्‍यादा पड़ता है। लेखक ने उपन्‍यास में फड़तूसाई, बंहगरी जैसे कुछ नये शब्‍द भी गढ़े हैँ और व्‍यवहार में विलुप्‍त हो रहे शब्‍दों को संजोकर उन्‍हें प्रचलन में लाया है जैसे पंगपंगावत, पछौत, साहीं, कॉंता, मेढ़ा, बँधिया सिल्‍ली, कड़क’बुजुर, मेरखू आदि। उपन्‍यास में आए उल्‍लेखनीय वाक्‍यांशों की बानगी देखिए – उत्‍साह में कूदकर आकास छूने की बात को कहते हैँ ‘उदक के अगास अमर डारिस’। प्रकृति चित्रण में वे शब्‍द बिम्‍बों का सटीक संयोजन करते हैँ ‘मंझन के चघत घाम मेछराए लगिस’, ‘फागुन अवइया हे घाम ह मडि़या-मडि़या के रेंगत हे’, ‘सुरूज ह बुड़ती डहार अपन गोड़ लमा डारे रहै, सांझ ह घलो अपन लुगरा चारोकती फरिया दे रहिस ...’ आदि। बढ़ती उम्र में गरीब किशोरी के शारीरिक बदलाव को बड़ी चतुराई से शालीन शब्‍दों में कहते हैँ ‘बाढ़त टूरी के देंह बिजरादीस’ इसी तरह मालिकराम के दैहिक शोषण से गभर्वती हो गई किशोरी के गर्भ को प्रकट करने के लिए लेखक लिखते हैँ ‘तरी डाहर फूले पेट ह लगा दीस लिगरी’। इसी तरह मजाकिया लहजे में प्रतिनायक के चरित्र को स्‍पष्‍ट करते हुए लेखक लिखते हैँ ‘जब चालीस कुकुर मरथे त एक सूरा जनम धरथे अउ चालीस सूरा मरथे तब एक मालिकराम।‘ इसी तरह से संपूर्ण उपन्‍यास में हास परिहास, दुख सुख और घटनाक्रमों को लेखक नें बहुत सुन्‍दर ढ़ग से प्रस्‍तुत किया है।

इन संपूर्ण विशेषताओं के बावजूद उपन्‍यास में कुछ छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों का प्रयोग व्‍यवहारगत कारणों से खटकता है किन्‍तु अभी छत्‍तीसगढ़ी भाषा का मानकीकृत रूप सामने नहीं आया है इसलिए मानकीकृत रूप में इसे स्‍वीकरना आवश्‍यक प्रतीत होता है। इसी तरह उपन्‍यास के शीर्षक के संबंध में मेरी धारणा या स्‍वीकृति ‘केंरवछ’ रही है जबकि उपन्‍यासकार नें इसे ‘केरवस’ कहा है। उपन्‍यास में दो तीन स्‍थान पर इस शब्‍द का प्रयोग हुआ है, उसमें संभवत: दो बार ‘केंरवस’ लिखा है। लेखक छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों के प्रति सजग हैँ इस कारण किंचित असहमति के बावजूद हम इसे स्‍वीकार करते हैँ और ‘केरवस’ को मानकीकृत रूप में स्‍वीकारते हैँ ।

छत्तीसगढ़ी की औपन्यासिक दुनिया बहुत छोटी है किन्तु इसमें मुकुन्द कौशल का 'केरवस' एक सार्थक हस्तक्षेप है. यह निर्विवाद सत्य है कि प्रबुद्ध पाठकों के अनुशीलन एवं कमियों के प्रति ध्यानाकर्षण से ही किसी साहित्य का समग्र अवलोकन हो पाता है. लेखक नें जिस उद्देश्य और संदेश के लिए यह उपन्यास लिखा है उसका विश्लेषण आगे आने वाले दिनों में पाठक और आलोचक अपने अपने अनुसार से करेंगें। किन्तु इसमें भी कोई संदेह नहीं कि आगे यह उपन्यास छत्तीसगढ़ी साहित्य में अपनी एक अलग पहचान प्रस्तुत करेगा. छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी से प्रेम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह उपन्यास अनिवार्यता की सीमा तक आवश्‍यक प्रतीत होता है।

शताक्षी प्रकाशन, रायपुर से प्रकाशित इस उपन्यास का कलेवर आकर्षक है. 112 पष्टों के इस हार्डबाउंड उपन्यास की कीमत 250 रूपया है.

संजीव तिवारी

टिप्पणियाँ

  1. लम्बी और अच्छी समीक्षा, सभी कुछ समेट लिया है।

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  2. सुन्दर समीक्षा । सञ्जीव भाई ने इतनी अच्छी समीक्षा की है कि पढ कर मज़ा आ गया ऐसा लग रहा है कि हमने मुकुन्द भाई के उपन्यास को ही पढ लिया है । प्रशंसनीय प्रस्तुति।

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  3. कहानी केरवस बहुत भली और माटी से जुडी लगी किन्तु मेरी जानकारी में विगत ६० बरसों में ऐसा कोई चरित्र किसी भी जाति का नज़र नहीं आया .... कहानी में कई कहानियाँ समेटे कहानी को पढ़ने की इच्छा जगी आपके समीक्षा में पूरी कहानी दृष्टिगोचर हो गई निश्चित रूप से कहानी सराहनीय है लेखक को बधाई एक विशेष बात बिलासपुर में कालिख को **** केरवच **** कहा जाता है

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यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग 1

दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म