द्रोपदी जेसवानी की ‘अंतःप्रेरणा’

अभी हाल ही में द्रोपदी जेसवानी की एक कविता संग्रह ‘अंत: प्रेरणा’ आई है। संग्रह की भूमिका डॉ. बलराम नें लिखी है, जिसमें द्रोपदी जेसवानी की संवेदशील प्रवृत्ति के संबंध में बताते हुए वे लिखते हैं कि उनकी रचनाओं में वेदना और संवेदना के छायावादी चित्र झलकते हैं। डॉ. बलराम लिखते हैं कि रचनाओं में सत्य की झलक है और कुछ में चुनौतियाँ भी हैं। भूमिका में डॉ. बलराम नें चंद शब्दों में ही पूर्ण दक्षता के साथ कवियित्री की संवेदना एवं उनकी कविताओं से हमारा परिचय करा दिया है।

कवियित्री नें इस संग्रह को अपने आराध्य भगवान शिव को अर्पित किया है। साथ ही अपने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बड़े पिताजी व पारिवारिक सदस्यों को और शुभचिंतकों को समर्पित किया है। ऐसे समय में जब परिवार नाम की ईकाई के अस्तित्व पर संकट हैं, प्रेम का छद्मावरण लड़कियों के मुह में स्कार्फ की भांति सड़कों में आम है। किसी रचना संग्रह को अपने परिवार जनों को समर्पित करना एक रचनाकार के संवेदनशीलता को प्रदर्शित करता है।

'फिर भी कुछ रह गया' में इस संग्रह के प्रति दो शब्द लिखते हुए कवियित्री अपने अंतरतम अनुभूति का उल्लेख करते हुए लिखती हैं कि, शब्दों का समुचित आवरण ओढ़कर मेरी भावनाएँ इस संग्रह में प्रदर्शित हुई है। उनका मानना है कि कविता, सत्य को जीने और व्यक्त करने का एक सहज माध्यम है। कविताओं के माध्यम से से खुद को पहचानने और जानने का रास्ता बताती कवियित्री कहती है कि कविता, खुद को जानने का रास्ता है। इसीलिए तो उनकी कविता कहती है कि, जो चल सकते हो मेरे साथ तो चलो।

इस संग्रह की कविताओं में संवेदना का बेहतर प्रवाह है। सहज शब्दों में पिरोते हुए प्रतीकों का सटीक और सुन्दर प्रयोग किया गया है। इस संग्रह में भारतीय आध्यात्म दर्शन को कविताओं के माध्यम से प्रस्तुत करने में द्रोपदी जेसवानी सफल रही है। इस संग्रह की कवितायें हमें बार बार चिंतन की उस स्थिति पर ले जाती है जहाँ भारतीय आध्यात्म और दर्शन की गहरी जड़ें हैं।

उनकी कविताओं के साथ आगे चलते-चलने पर कवियित्री बालसुलभ सहजता से गंभीर बात कहती है कि, ऐसा कोई शब्द नहीं है जो मुझे व्यक्त कर सके। शब्‍दों में उनकी यही सहजता गंभीर बातों को भी सरल बनाती हैं और उनकी भावनाओं को अभिव्यक्त भी करती है। बार-बार आकुल मन की पुकार उनके शब्दों में मुखर होती है, उनका नि:शब्द निवेदन कि मुझे सुनो, मेरी बात सुनों। कवियित्री चाहती है कि समाज में खोए हुए मानवीय मूल्य स्थापित हो, समाज में आपसी संवाद हो सके। किन्तु संवाद एकतरफा है, कोलाहल है संभवत: इसीलिए कवियित्री स्वयं अपने आप से संवाद करती है, अपने अंतर्मन से संवाद करती है, जो इस संग्रह के रूप से आप सबके सामने है।

-संजीव तिवारी

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