दरोगा जी
रोगा जी !
देश के
शक्ल में हाथी
बन्दूक के साथी
तोंदिल दरोगा जी
तुम भर दुबले न हुए
गुलामी के हुकुमबरदार
अंधे क़ानून के तरफदार
अफसर के सिपहसालार
तुम भर आदमी नही हुए
तुम्हारी सुरक्षा में
गुंडा खिलखिलाता है,
सत्तासीनो की जायज संतान
दरोगा जी, तुम भर नही बदले
विभ्रम की वह घटा छँट रही
स्मृतियों की किरणे बिखरी
उजास भरा मन का आंगन है
बोलो, कितना पावन है
कवि वही जो न पड़े
तुकबन्दी के फेर में
कवि वही जो न बैठे
अनावश्यक शब्दों के ढेर में
कवि ने कवि-भाव से पूछा
कौन हो तुम
कवित्व मुस्कुराया और बोला
तुम्हारी कविता हूँ मैं
अपनी लेखनी को विराम मैं मिश्र जी की इन पंक्तियों के साथ देना चाहूंगा।
वक्त है बुरा तो पहचान लो
जरा झुककर इसे गुजार लो
रह गए गर जड़ तक जमे हुए
अरे, फिर खड़े हो जाओगे तन कर
पंकज अवधिया
रोगा जी !
देश के
शक्ल में हाथी
बन्दूक के साथी
तोंदिल दरोगा जी
तुम भर दुबले न हुए
गुलामी के हुकुमबरदार
अंधे क़ानून के तरफदार
अफसर के सिपहसालार
तुम भर आदमी नही हुए
तुम्हारी सुरक्षा में
गुंडा खिलखिलाता है,
सत्तासीनो की जायज संतान
दरोगा जी, तुम भर नही बदले
दरोगा जी जिनसे हम-आप सभी परिचित हैं युगों से वैसे ही है और युगों तक वैसे ही रहेंगे। यही कारण है कि किसी भी आयु का पाठक जब इन पंक्तियों को पढता है तो उसे लगता है कि यह उसके समय के लिए लिखी गयी है। दरोगा जी कितने भी अत्याधुनिक हथियार से लैस हों कवि की कलम के आगे सारे अस्त्र-शस्त्र बेकार साबित होते हैं। कवि पीढीयों से ऐसे ही समाज की आवाज बनता रहा है।
अक्सर हम कवि को उसकी अकादमिक और साहित्यिक उपलब्धियों से जानने और मानने का प्रयास करते हैं पर कवि की सही पहचान उसकी रचना, उसकी कृति से होती है। आप उसकी कोई भी रचना कहीं से भी लेकर पढ़ें आप बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के सब कुछ जान जायेंगे उसके विषय में।
"उजास भरा मन का आंगन" पढने के बाद मेरी इस सोच को और बल मिला। वैभव प्रकाशन (मो. ०९४२५३-५८७४८) , रायपुर द्वारा वर्ष २००९ में प्रकाशित इस काव्य-संग्रह में श्री बबनप्रसाद मिश्र की २५ कविताएँ हैं। वे लिखते हैं
विभ्रम की वह घटा छँट रही
स्मृतियों की किरणे बिखरी
उजास भरा मन का आंगन है
बोलो, कितना पावन है
जब मन की भावनाएं उद्दाम वेग से निकलती हैं तो फिर वह भाषा और लेखन के जटिल नियमों को मानने से इनकार कर देती है। जो इस वेग को रोकने का तनिक भी प्रयास नही करते हैं वे ही इस संसार को ऐसा कुछ दे जाते हैं जो पीढीयों तक प्रेरणा देता रहता हैं ।
मिश्र जी की कविताओं में तुकबन्दी कम ही मिलती है । यहाँ कवि "दर्द हिन्दुस्तानी" की ये पंक्तियाँ याद आती हैं
तुकबन्दी के फेर में
कवि वही जो न बैठे
अनावश्यक शब्दों के ढेर में
आजकल की कविताओं के विपरीत मिश्र जी की कविताएँ अनावश्यक शब्दों का ढेर नही है। बेहद सरल और आसानी से समझ आने वाली कवितायें है। वे लिखते हैं
कवि ने कवि-भाव से पूछा
कौन हो तुम
कवित्व मुस्कुराया और बोला
तुम्हारी कविता हूँ मैं
मिश्र जी एक नियमित कवि नही हैं जिनकी प्रतिदिन कविता की रचना करने की किसी तरह की व्यवसायिक मजबूरी हो। यही कारण है कि इस काव्य-संग्रह में उनके सारे जीवन का निचोड दिखता है।
देश भर के प्रबुद्ध साहित्यकारों ने इस काव्य-संग्रह की समीक्षा की है पर मुझे लगता है कि इस तरह के प्रकाशन केवल साहित्य बिरादरी के लिए सीमित नही है। यह आम जनता का साहित्य है इसलिए साहित्य की मुख्य विधा से न जुडे मुझ जैसे आम लोग भी इसकी समीक्षा करें। मैं श्री संजीव तिवारी जी का आभारी हूँ जिनके ख्यातिलब्ध ब्लॉग के माध्यम से आप इस समीक्षा को पढ़ पा रहे हैं।
अपनी लेखनी को विराम मैं मिश्र जी की इन पंक्तियों के साथ देना चाहूंगा।
वक्त है बुरा तो पहचान लो
जरा झुककर इसे गुजार लो
रह गए गर जड़ तक जमे हुए
अरे, फिर खड़े हो जाओगे तन कर
पंकज अवधिया
बहुत ही सुन्दर समीक्षा, मन का उजास निश्चिन्त हो फैले..
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