भाषा के लोकतंत्र की रक्षा का दायित्व हर भाषा-भाषी के ऊपर है।

नया ज्ञानोदय में प्रकाशित जया जादवानी की कहानी ‘मितान’ पर मेरी असहमति
साहित्य में क्षेत्रीय भाषा के शब्दों का प्रयोग बहुधा होते आया है और इसी के कारण क्षेत्रीय भाषा के शब्दों को गाहे बगाहे हिन्दी नें अपना लिया है। क्षेत्रीय भाषा के शब्दों के प्रयोग के माध्यम से लेखक हिन्दी भाषी पाठकों को देश के स्थानीय संस्कृति व परंपरा से जोडने का प्रयास करते हैं! इसी कारण प्रेमचंद से लेकर अभी तक के कई कहानीकार पात्रों के नाम व अन्य शब्दों को, हिन्दी में लिखने के बजाए अपने स्थानीय प्रचलित शब्दों में लिखते रहे हैं, जिससे हम स्थाननीय शब्दों का अर्थ भी को समझ कर आत्मसाध कर पाते है। ‘मैं उस जनपद का कवि हूं’ कहने वाले त्रिलोचन नें भी अपनी हिन्दी लेखनी में जनपदीय भाषा का प्रयोग किया है एवं समय समय पर अपने आख्यानों में उन्होंनें स्वीकार किया है कि वे स्थानीय बोली-भाषा के शब्दों को पढने व जानने की निरंतर अपेक्षा रखते थे। बाबा त्रिलोचन स्वयं एक साक्षात्कार में स्वीकारते हैं कि उन्होंनें छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों की रचनाओं से छत्तीसगढ़ी भाषा के कुछ शब्दों को सीखा है। हिन्दीं लेखनी में स्थानीय छत्तीसगढ़ी भाषा-बोली का प्रयोग अनेक स्थानीय साहित्यकारों नें किया है। छत्तीसगढ़ की मिट्टी की सोंधी महक आप गुलशेर अहमद ‘शानी’, मेहरून्निशा परवेज और डॉ.परदेशीराम वर्मा जी जैसे साहित्यकारों की कहानियों में भी देख सकते हैं।
कथा साहित्य के इस संस्कार से मैं थोड़ा-बहुत लिखने-पढ़ने के शौक़ के कारण परिचित रहा हूं। देश के अलग-अलग कोने में निवासरत पाठकों से संवाद के दौरान छत्तीसगढ़ी शब्दों पर यदा-कदा बातें भी होती रहती है। उत्तरांचल उच्च शिक्षा विभाग में प्राध्यापक और कर्मनाशाकबाडखाना वाले भाई डॉ.सिद्धेश्वर सिंह जैसे शुभचिंतक मेरे इस स्थानीय भाषा प्रेम को और प्रगाढ बनाने में संबल देते हैं साथ ही शब्दों के प्रयोग से स्थानीय बोली के शब्दों का अर्थ समझने का निरंतर प्रयास भी करते रहते हैं। सिद्धेश्वर जी जैसे कई हैं जिन्हें मेरे प्रदेश की कुछ आम भाषा की बानगी, हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में स्थानीय साहित्यकारों के कविता, कहानी व अन्य‍ लेखनी के प्रकाशन के द्वारा ज्ञात होती है। इन्ही सन्दर्भों मे पिछले दिनों नया ज्ञानोदय के दिसम्बर 2009 अंक में छत्तीसगढ़ की ख्यात महिला कथा लेखिका जया जादवानी की एक कहानी पर मेरी नजर पडी शीर्षक था ‘मितान’। छत्तीसगढ़ी शीर्षक के कारण सबसे पहले मैंने उसी कहानी को पढना आरंभ किया। कहानी मुझे बहुत अच्छी लगी किन्तु बार बार मुझे कथा के नायक के द्वारा नायिका को ‘मितानी’ संबोधित करना खटकता रहा। नायक कथा के आरंभ में ही इस क्षेत्र के संबंध में व छत्तीसगढ़ी भाषा ज्ञान को प्रदर्शित करता है।
पूरी कहानी में महिला मित्र को छत्तीसगढ़ी भाषा में ‘मितानी’ संबोधन करना छत्तीसगढ़ी ज्ञान वाले नायक के मुह से सुनकर हर बार अटपटा लगता रहा। मैं मूलत: छत्तीसगढ़ के गांवों में पला-बढा़ ठेठ छत्तीसगढिया हूं। मैंनें छत्तीसगढ़ी की कोई अकादमिक शिक्षा नहीं ली किन्तु् मुझे इस भाषा का संस्कार पारंपरिक रूप से प्राप्त हुआ इस कारण इसके हर शब्द का अर्थ मेरा मानस समझता है और उसके अनुरूप प्रतिक्रिया करता है। इस कहानी में उपयोग किया गया यह शब्द ‘मितानी’ कहानी ही नहीं पूरी पत्रिका को पढते हुए मुझे बार-बार खटकता रहा। आज भी जैसे ही मैं नया ज्ञानोदय के उस अंक के  पेजों को देखता हूं,  मैं ‘मितानी’ पर अटक जाता हूं।
इस शब्द का विश्लेषण करते हुए संजीत त्रिपाठी नें एक बार कहा था “छत्तीसगढ़ी में "मितान" शब्द प्रयोग होता रहा है। मितान पुल्लिंग है जबकि मितानिन स्त्रीलिंग मतलब यह कि अगर पुरुष किसी दूसरे पुरुष को मित्र बनाना चाहे तो वह मितान कहलाएगा जबकि स्त्री किसी दूसरी स्त्री को मित्र/सखी/सहेली बनाना चाहे तो वह मितानिन कहलाएगी। मितान या मितानिन बनाने की यह प्रक्रिया ' मितान/मितानिन बदना' कहलाती है। 'बदना' से यहां पर आशय "तय करने" से है।”
यदि कोई पुरूष किसी महिला को मित्र बनाना चाहे तो भी वह महिला मित्र ‘मितानिन’ ही कहलायेगी। लेखिका नें ‘मितानी’ शब्द को महिला मित्र के स्थानीय पूरक के रूप में प्रस्तुत किया है जबकि छत्तीसगढी भाषा का अल्प से अल्प ज्ञान रखने वाला भी बतला सकता है कि छत्तीसगढ में महिला मित्र के लिए जो शब्द प्रयोग में लाया जाता है वह शब्द है ‘मितानिन’। प्रदेश सरकार इस शब्द को प्रयोग कर महिला एवं बाल विकास के केन्द्रीय कार्यक्रमों का कार्यान्वयन भी करा रही है एवं गांव-गांव, गली-गली मितानिन बनाए जा रहे हैं बच्चा-बच्चा मितानिन का अर्थ समझता है। मितान में ई प्रत्यय जोड कर ‘मितानी’ बनाया गया है जिसका छत्तीसगढी भाषा में अर्थ मित्रता से है। हमने पढा है कि जनभाषा व्याकरण के नियमों का अनुसरण नहीं करती, परंतु व्याकरण को जनभाषा की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करना पड़ता है, छत्तीसगढी में महिला मित्र को ‘मितानिन’ कहा जाता है ‘मितानी’ नहीं। ‘कहो मित्रता क्या हाल चाल है’ क्या आप अपने मित्र को ऐसा कहेंगें, कदापि नहीं किन्तु कहानी में ऐसा बार बार कहा गया है।

जया जादवानी हिन्दी की उन विरल लेखिकाओं में से है जिनकी रचनाएं मनुष्य के अंतर्मन की यात्राएं करती हैं। अनुभूतियों के कोमल संपदनों को बुनने वाली  जया का जन्म 1 मई 1959 कोतमा में हुआ।
जीवन की रागात्मकता का उत्सव रचने वाली, उसे आध्यात्म प्रत्ययों की रोशनी में देखने वाली जया को "तत्वमसि" उपन्यास से लोकप्रियता मिली। उनके कथा संग्रह "अन्दर के पानियों से कोई सपना बहता है", "मुझे होना है बार-बार", "उससे पूछो", "मैं अपनी मिट्टी में खड़ी हूं कांधे पे अपना हल लिए", की कहानियों ने प्रतिभूत कर देनेवाली संवेदना अर्पित की है। उनके कविता संग्रह "मैं शब्द हूं", अनंत संभावनाओं के बाद भी और उठाता है कोई एक मुट्ठी ऐश्वर्य इसका परिचायक है।
उनकी कई कहानियों पर वृत्तचित्र बने हैं, वे कई संस्थानों से पुरस्कृत हुई हैं । उन्होंने हिमालय के अत्यंत बीहड़ व मनोरम स्थल की यात्राएं की हैं। उनके भीतर एक ऐसी आतुरता और भावाकुलता सांस लेती है जो सदैव किसी अच्छी रचना के लिए प्रतिश्रुत रहती है। इन दिनों वे बी-1/36 वीआईपी स्टेट, विधानसभा मार्ग रायपुर छत्तीसगढ़ में रहती हैं।

यह सर्वविदित सत्य है कि “किसी भाषा के बोलने वाले अन्य भाषा-भाषियों के साथ प्रायः उस भाषा के मानक रूप का ही प्रयोग करते हैं, किसी बोली का अथवा अमानक रूप का नहीं।” भाषा शास्त्री प्रो. चित्तरंजन कर जी कहते हैं कि “भाषा के लोकतंत्र की रक्षा का दायित्व हर भाषा-भाषी के ऊपर है। भाषा में एक ओर लोक है, तो दूसरी ओर तंत्र है। यह तंत्र स्वतंत्रता की अनुमति तो देता है, परंतु स्वच्छंदता उसे कदापि स्वीकार्य नहीं है।” पता नही क्यू मुझे लगता है कि इस कहानी में लेखिका नें भाषा के प्रयोग में कुछ स्वच्छंदता का परिचय दिया है।
सुविधा के संतुलन के अनुसार जया जी यह कह सकती है कि कहानी के उस पुरूष पात्र नें ‘मितानी’ शब्द का प्रयोग किया है जो छत्तीसगढी भाषा का जानकार नहीं है इस कारण अपभ्रंश में वह ऐसा शब्द बोल रहा है। किन्तु लेखिका छत्तीसगढ के भूगोल का प्रतिनिधित्व करती है एवं एक जानी मानी हिन्दी कहानी लेखिका है। उनके लिखे शब्दों का अर्थ पाठक वही समझते है जो वो लिखती हैं ऐसे में छत्तीसगढी शब्द ‘मितानिन’ के स्थान पर ‘मितानी’ को स्थापित करना मुझे उचित प्रतीत नहीं होता। यह हमारी भाषा को गलत ढंग से जनता के सामने प्रस्तुत करने का प्रयास है । जया जादवानी जी स्थापित लेखिका हैं, देश-विदेश के बडे-बडे़ साहित्तिक कार्यक्रमों में सम्मिलित होती रहती हैं और देश के अति बौद्धिक वर्ग की श्रेणी में शुमार हैं। मैं स्वयं जया जी की लेखनी का कायल हूं किन्तु इस प्रकार से हमारी (जया जी की भी) भाषा का  प्रयोग ‘मितान’ कहानी में पढकर मुझे अच्छा नहीं लगा।
मेरी असहमतियों को दर्ज किया जाए।
भवदीय
संजीव तिवारी

क्या वे औसत दर्जे के परिणामों से संतुष्ट रहेंगे या .... ? : वेंकटेश शुक्ल

इस आलेख की पहली कड़ी : छत्‍तीसगढ़ सोने की चिडि़या यहां पढ़ें. 
सबसे बड़ी महत्ता रोजगार की
किसी भी अर्थ व्यवस्था का मापदंड है रोजगार की बहुलता। जब आम लोगों के पास रोजगार होता है तब वे घर लेते हैं, फर्नीचर खरीदते हैं, यातायात, मनोरंजन और कपड़ों - जूतों में पैसा खर्च करते हैं जिस से इन सब क्षेत्रों में रोजगार बढ़ता है। राज्य स्वयं एक बहुत बड़ा मालिक है किन्तु उसकी भी सीमा होती है अतिरिक्त रोजगार देने की। छत्तीसगढ़ में बहुत से लोग कृषि तथा वन पर निर्भर होकर किसी तरह जीवन-यापन करते हैं और उन्हें कहीं और अधिक आय मिले तो वे उसे सहर्ष स्वीकार करेंगे। छत्तीसगढ़ के सामने सबसे बड़ी चुनौती है रोजगार बढ़ाने की। यह स्थापित तथ्य है कि 80 फीसदी रोजगार लघु एवं मध्यम श्रेणी के उद्यमियों के माध्यम से बनते हैं। बस मालिक, होटल मालिक, खुदरा व्यापारी, ठेकेदार जैसे उद्यमी कम हुनर वाले लोगों को रोजगार देते हैं जबकि कारखाने तथा उद्योग धंधे जैसे मध्यम श्रेणी के उद्यमी थोड़े बहुत हुनर वालों को काम देते हैं।

छत्तीसगढ़ कैसे बने सोने की चिडिय़ा? भाग - 2



वेंकटेश शुक्ल कैलिफोर्निया में एक कम्प्यूटर चिप डिजाईन सॉफ्टवेयर कंपनी के अध्यक्ष हैं।  छत्तीसगढ़ के जांजगीर जिले के अकलतरा में पढ़े, श्री शुक्ल  छत्तीसगढ़  प्रवासी भारतीय पुरस्कार 2007 से सम्मानित हो चुके हैं। 2002-03 में  छत्तीसगढ़ शासन के सलाहकार रह चुके हैं। वे अमरीका में रहते हुए भी  छत्तीसगढ़ के लगातार संपर्क में रहते हैं और इंटरनेट पर 'छत्तीसगढ़’ के  नियमित पाठक भी हैं। वे भारत में प्रतिभाशाली और जरूरतमंद बच्चों को पढ़ाई  में मदद करने वाले एक संगठन में भी सक्रिय हैं। उनका यह लंबा लेख छत्तीसगढ़  जैसे राज्य को एक अंतरराष्ट्रीय खनिज-देशों के साथ जोड़कर देखता है  –संपादक, छत्तीसगढ़.



http://www.dailychhattisgarh.com से साभार

शासन की नीतियां ऐसी होनी चाहिए कि लघु और मध्यम श्रेणी के ज्यादा से ज्यादा उद्यमी छत्तीसगढ़ की ओर आकर्षित हों जो छोटे मोटे कारखाने, व्यापार, उद्योग और संयंत्र स्थापित करें और, जब तक ये कानून को न तोड़ें, उनके काम में कम से कम बाधा आये। टाटा, मित्तल, इनफ़ोसिस ये सब बड़े रोजगारी हैं और इन सबको जरूर बुलाना चाहिए। मगर राज्य तभी सफल होगा जब मेरे भोपाल वाले मित्र जैसे उद्यमी यहाँ आएंगे। जब ऐसे उद्यमी प्रदेश में आते हैं तो अखबारों में सुर्खियाँ नहीं छपतीं जो टाटा के आने में छपती हैं मगर ऐसे लोगों को राज्य में लाना ज्यादा बड़ी उपलब्धि है क्योकि रोजगार समस्या का यही समाधान है कि हजारों लाखों इस तरह के लघु और मध्यम श्रेणी के उद्यमी और व्यापारी आएं।
छत्तीसगढ़ को अगर तेजी से प्रगति करना है तो ऐसे लघु एवं मध्यम श्रेणी के उद्यमियों को आकर्षित करना होगा। यह काफी नहीं है कि बिजली, पानी और रोड की सुविधा बाकि राज्यों के मुकाबले अच्छी है। अगर ये सुविधाएं काफी होतीं तो आज केरल भी अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों की तरह सफल होता। शासन की नीतियां ऐसी होनी चाहिये कि प्रदेश को आसपास के प्रदेशों के मुकाबले प्रतिस्पर्धात्मक लाभ मिले और रोजगार सृजन करने वाले दूसरे राज्यों को छोड़कर छत्तीसगढ़ आएं।
विलम्ब कम करें रोजगार बढ़ाने के लिए
छत्तीसगढ़ के पास एक स्वर्णिम अवसर है उद्यमियों एवं व्यापारियों को आकर्षित करके रोजगार बढ़ाने का। रोजगार बढ़ाने की रामबाण दवा है- धंधे लगाने और चलाने में होने वाली देरी को कम से कम करना। हांगकांग में केवल बीस दिनों के भीतर उद्योग लगाने की अनुमति मिल जाती है जबकि भारत में औसतन 89 दिन लगते हैं। कुछ देरी केंद्र शासन के कारण होती है किन्तु ज्यादा से ज्यादा देरी राज्य स्तर की संस्थाओं के कारण होती है। इसे कम करें और देखें इसका परिणाम।
शुरू होने के बाद, उद्यमों और व्यापारों की उन्नति में सबसे बड़ी बाधा है करारों (कांट्रेक्ट) को लागू करने में देरी। सिंगापोर में करार को लागू करने में मात्र 120 दिन लगते हैं जबकि भारत में, वित्त मंत्रालय में सलाहकार कौशिक बासु के अनुसार, 1420 दिन लगते हैं कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाते लगाते। दूसरी बाधा तब होती है जब चेक बाऊंस होते हैं और भुगतान नहीं होता। यद्यपि चेक बाऊंस होने पर कानून बना है किन्तु रोते धोते ये सब मामले पहुंचते हैं न्यायालयों में जहाँ सालों लगे रहेगा केस। दुबई में चेक बाऊंस का मामला एक महीने में निपट जाता है और तीन साल की कैद हो सकती है। विलम्ब को दूर करने में सिंगापोर, दुबई और हांगकांग जग माहिर हैं। दुनिया भर के लोग इन देशों में आते हैं मगर कोई बेरोजगारी नहीं। देरी कम कीजिये छत्तीसगढ़ में और देखिये कैसे देश भर के उद्यमी, निवेशक और व्यापारी यहाँ आने की मारामारी करते हैं।
विलम्ब कम कैसे हो- जहाँ होना चाहिए वहाँ से शासन लापता है-
1. न्यायालयों को और सशक्त करें। न केवल जज और स्टाफ ज्यादा हों बल्कि विशेष न्यायालयों की स्थापना की जाये जो केवल उद्योग / व्यापार सम्बन्धित विवाद पर फोकस करें जैसे कि करारनामे, चेक बाऊंस के विवाद और अन्य आर्थिक अपराध। भारत में न्यायपालिका पर खर्च सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जी एन पी) का मात्र 0.3 फीसदी है जबकी छत्तीसगढ़ 0.4 फीसदी खर्च करता है। इससे भी ज्यादा न्यायपालिका पर खर्च करना प्रदेश के लिए बहुत फायदेमंद होगा। दूसरे राज्य इस तथ्त को या तो नहीं समझते या उनके पास न्यायपालिका पर खर्च बढ़ाने के किये पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। सिंगापोर न्यायपालिका पर 1.2 फीसदी खर्च करता है। यदि छत्तीसगढ़ न्यायपालिका पर अधिक निवेश करे जिससे करारनामे शीघ्रता से लागू हों और चेक बाउंस के मामले जल्दी निपट जाएँ तो पूरे भारतवर्ष में यह राज्य निवेशकों, उद्यमियों और व्यापारियों के लिए स्वर्ग बन जायेगा और रोजगार की बहुलता में देरी नहीं होगी।
2. प्रदेश में निवेश की क्या प्रक्रिया है यह आसान और स्पष्ट होना चाहिए और उस पर अमल होना चाहिए। मेरे एक मित्र अध्यक्ष हैं एक अमेरिकी कंपनी के जिसके हैदराबाद में करीब 1000 इंजीनियर हैं। वे हैदराबाद में आसमान छूती कीमतों तथा यातायात में दिक्कतों से परेशान थे। मैंने उन्हें सलाह दी कि अपने उद्योग बढ़ाने के लिए छत्तीसगढ़ जाएँ और कुछ उच्च अधिकारियों से मिलें। ये वर्ष 2008 के शुरुआत की बात है। उस बिचारे ने मेरी बात मान कर रायपुर की दो यात्राएं कीं, चिलचिलाती धूप में अधिकारियों से मिलने के लिए घंटों बाहर खड़े रहे ताकि उन्हें ऑफिस के लिए एक-दो एकड़ जमीन ऐसी जगह मिल जाए जहाँ इंजीनियर जाने के लिए तैयार हों। मगर किसी ने भी यह नहीं बताया कि काम कैसे होगा। बस यहाँ से वहाँ उन्हें भेजते रहे। तंग आकर वह चले गए तमिलनाडु जहां एक नोडल ऑफिस जमीन, बिजली, पानी, इण्टरनेट, और प्रदूषण जैसे सारे कामों का एक जगह इंतजाम करता है। जहां उद्यमी जाते हैं वहीं रोजगार भी जायेगा।
विलम्ब कम कैसे हो: जहाँ नहीं होना चाहिए वहाँ शासन घुसा बैठा है- 1. यह आवश्यक है की नौकरशाही के निचले स्तर, जिसका सामना आम आदमी से होता है, पर अंकुश रखा जाये। ऐसे नीति नियम न बनाये जाएँ जिसका दुरूपयोग व्यक्तिगत हित के लिए हो सके।उदाहरण के तौर पर हर दवाई की दुकान को कुछ वर्षों में अपना लाइसेंस रिन्यू कराना पड़ता है जिसमें दूकानदार का समय बर्बाद होता है और घूस खिलानी पड़ती है। क्या ऐसा नहीं किया जा सकता है कि लाइसेंस रिन्न्युअल अपने आप हो जब तक दूकान के खिलाफ कोई विश्वसनीय शिकायत न हो? एक बस मालिक की तो और भी परेशानी है। कभी पुलिस वाले, सभी परिवहन विभाग वाले और कभी श्रम विभाग वाले पीछे पड़े रहते हैं।
मुझे बताया गया है कि बस चलाने के सैंकड़ों कायदे कानून हैं और पुलिस चाहे तो किसी को भी कभी भी पकड़ कर चालान कर सकती है क्योकि किसी न किसी कायदे कानून की अवहेलना तो पक्की है। फिल्म कलाकार गोविंदा की एक फिल्म है,'चल चला चल' जिसमें एक मेहनती बस मालिक की नौकरशाही के हाथों की परेशानी का बड़ा मार्मिक प्रदर्शन है। अगर रोजगार बढ़ाना है तो ऐसे सभी नियमों को हटाना होगा जिनसे न तो शासन को फायदा होता है और न ही आम जनता को, बल्कि फायदा होता है केवल बेईमान बाबुओं और इंस्पेक्टरों को। ऐसे नियमों को हटाएँ तो रोजगार द्रुत गति से बढ़ेगा। इन नियमों की लिस्ट बनाना आसान है, सम्बंधित व्यापार संघ बड़ी खुशी से लिस्ट बना देंगीं।
2. शासन को ऐसी सभी जगह से हट जाना चाहिए जहाँ उसकी मौजूदगी से जनता को नुकसान ज्यादा और फायदा कम होता है। एकाधिकार प्राप्त संस्थाएं जैसे हाऊसिंग बोर्ड या डेवेलपमेंट अथॉरिटी जिन्हें नगरीय भूमि पर एकाधिकार है, आर्थिक प्रगति में ब्रेक लगाती हैं। शुरुआत में ये विकास संस्थाएं सक्षम होती हैं, नेक इरादों से इनकी शुरुआत होती है किन्तु पांचेक वर्षों के भीतर ही जब प्रारंभिक प्रबंधन टीम बदलती है, ये संस्थाएं भ्रष्टाचार का गढ़ बन जाती हैं। इन संस्थाओं से न तो शासन को और न ही जनसाधारण को कोई फायदा मिलता है। फायदा रहता है केवल इनमे काम करने वालों का और उनको जिनकी पहुँच है इन कर्मचारियों तक। ऐसी संस्थाएं विकास की गति को रोकती हैं, गलत परियोजनाओं में निवेश करती हैं जिनका कुल मिलाकर बुरा असर रोजगार पर होता है। कोई भी नई एकाधिकार प्राप्त अथॉरिटी शुरू करते समय ही उसकी समाप्ति की तिथि भी निर्धारित होनी चाहिए। जहाँ भी एकाधिकार दिया जाता है उसका दुष्प्रयोग निश्चित है, आर्थिक विकास में बाधा निश्चित है। इसलिए आर्थिक क्षेत्र में जहाँ-जहाँ भी एकाधिकार समाप्त हुआ है, परिणाम अच्छे ही हुए हैं। छत्तीसगढ़ शासन ने राज्य परिवहन निगम को बंद किया और आज केवल एक ही वर्ग इस निर्णय से अप्रसन्न हैं - निगम के पूर्व कर्मचारी। शासन को घाटे के उपक्रम में निवेश नहीं करना पड़ता और आम जनता को विभिन्न दरों पर यातायात की अच्छी सुविधा मिल रही है। जब से मोबाइल फोन और निजी फोन कंपनियां आईं हैं, आम आदमी को फोन विभाग के कर्मचारियों से परेशान नहीं होना पड़ता, फोन कनेक्शन के लिए आठ वर्षों का इंतज़ार नहीं करना पड़ता। हाऊसिंग बोर्ड या डेवेलपमेंट अथॉरिटी के बजाय अगर विकास की प्राथमिकताएं तय हों, स्पष्ट नियम हों जिनका पालन हो तो ज्यादा मकान जल्दी बनेंगे और नए मकान मालिक फर्निचर, सज्जा सामग्री, इत्यादि पर खर्च करेंगे जिससे विकास दर तीव्र होगी और रोजगार बढ़ेगा।
खनिज उत्खनन के लिए विश्व मान्य पद्धतियां अपनाएं बोत्स्वाना का उदाहरण अपनाएं - माइनिंग कंपनियों से लंबी अवधि का अनुबंधन करें और एक समय की लाइसेंस फ़ीस के बजाय मुनाफे में हिस्सा लेते रहें। जिम्बाब्बे, कांगो या झारखण्ड की तर्ज पर खनिज उत्खनन का सौदा नहीं करना चाहिए। जिसमे एक बार की लाइसेंस फ़ीस के एवज में लंबे समय तक उत्खनन का अधिकार दे दिया जाता है। मधु कोड़ा जैसे आज के निर्णयकारी तो अपनी जेब भर लेते हैं लेकिन राज्य को इसका लंबे समय तक नुकसान उठाना पड़ता है। 'ग्लोबल उत्खनन उद्योग ट्रांसपरेंसी पहल' को अपनाएं जो पारदर्शिता का मापदंड रखता है। जिस तरह सूर्य की रोशनी संक्रमण के विरुद्ध वरदान है उसी तरह पारदर्शिता भ्रष्टीकरण के खिलाफ कारगर है।
उपसंहार
छत्तीसगढ़ राज्य के पास देश के संपन्नतम राज्यों में से एक बनने का अवसर है, पर्याप्त संभावनाएं हैं। शासन की नीतियों में आमूलचूल क्रांतिकारी बदलाव की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है सही नीतियों की, लीक से हटकर चलने के राजनैतिक मनोबल की, और निर्णयों को कार्यान्वित करने की क्षमता। क्या छत्तीसगढ़ के शासकों में इस चुनौती को उठाने की सामर्थ्य है? क्या वे औसत दर्जे के परिणामों से संतुष्ट रहेंगे या प्रदेश को सोने की चिडिय़ा बनाने के सुयोग का लाभ उठाएंगे?

वेंकटेश शुक्ल
इस आलेख की पहली कड़ी : छत्‍तीसगढ़ सोने की चिडि़या यहां पढ़ें. 
(इस लेख से सहमति, असहमति या टिप्पणी लेखक को हिन्दी या अंग्रेजी में vnshukla@yahoo.com पर भेजी जा सकती है।)

छत्तीसगढ़ एक सोने की चिडिय़ा? : वेंकटेश शुक्ल

छत्तीसगढ़ के पास देश के सम्पन्नतम राज्यों में से एक बनने का अवसर है, पर्याप्त संभावनाएं हैं। शासन की नीतियों में आमूलचूल क्रांतिकारी बदलाव के बिना यह सम्भव है। यह संभव है अगर ऐसी समझ आ जाए कि किसी भी देश या प्रांत को समृद्धता भाग्य से नहीं मिलती। भाग्य से मिली हुई खनिज संपत्ति, जलवायु, संस्कृति, भौगोलिक स्थिति अथवा प्राकृतिक संसाधन के बल पर ही कोई देश या राज्य समृद्ध नहीं होता है। समृद्धता का कारण हमेशा राज्य या देश द्वारा जाने या अनजाने में चुनी हुई नीतियाँ होती हैं। चूँकि यह तर्क परंपरागत शासन के विरुद्ध है, इस का गहराई से विश्लेषण करना होगा। इस लेख में पहले देश विदेशों के ऐतिहासिक अनुभवों का वर्णन किया जाएगा और इन अनुभवों से कुछ निष्कर्ष निकाले जाएंगे। फिर यह प्रयास रहेगा कि इन निष्कर्षों को ध्यान में रखते हुए, किस तरह की नीतियाँ और किस तरह का परिवर्तन छत्तीसगढ़ को करना चाहिए ताकि यह राज्य सोने की चिडिय़ा बन जाए। 
छत्तीसगढ़ एक सोने की चिडिय़ा? 
भाग - 1

वेंकटेश शुक्ल कैलिफोर्निया में एक कम्प्यूटर चिप डिजाईन सॉफ्टवेयर कंपनी के अध्यक्ष हैं। छत्तीसगढ़ के जांजगीर जिले के अकलतरा में पढ़े, श्री शुक्ल छत्तीसगढ़ प्रवासी भारतीय पुरस्कार 2007 से सम्मानित हो चुके हैं। 2002-03 में छत्तीसगढ़ शासन के सलाहकार रह चुके हैं। वे अमरीका में रहते हुए भी छत्तीसगढ़ के लगातार संपर्क में रहते हैं और इंटरनेट पर 'छत्तीसगढ़’ के नियमित पाठक भी हैं। वे भारत में प्रतिभाशाली और जरूरतमंद बच्चों को पढ़ाई में मदद करने वाले एक संगठन में भी सक्रिय हैं। उनका यह लंबा लेख छत्तीसगढ़ जैसे राज्य को एक अंतरराष्ट्रीय खनिज-देशों के साथ जोड़कर देखता है –संपादक, छत्तीसगढ़.
http://www.dailychhattisgarh.com से साभार
 
क्या खनिज बाहुल्य से समृद्धता आती है?
हमेशा नहीं। अर्थशास्त्रियों की जमात में एक मुहावरा प्रचलित है - 'रिसौर्स कर्स’ अथवा संसाधनों का अभिशाप। ज्यादातर देखा यह गया है कि जिस देश में जितनी ज्यादा खनिज संपत्ति है वहां की जनता उतनी ही ज्यादा बदहाल है। कांगो, जिम्बावे, नाइजीरिया और अंगोला जैसे देश जिनमें दुनिया की सबसे ज्यादा खनिज संपदा है, वहीँ के नागरिक सबसे ज्यादा परेशान हैं भुखमरी, हिंसा, निरक्षरता और बीमारियों से। यह स्पष्ट है कि इन देशों में साधनों की कमी नहीं है मगर फिर भी आम जनता में हाहाकार मचा हुआ है क्योकि इन सब देशों के कर्ता-धर्ताओं ने ऐसी नीतियाँ अपनायीं जिनसे उनकी जेब भरी किन्तु देश का बुरा हाल हुआ। केवल नीतियों से जमीन आसमान का फर्क देखिये। इन सब देशों का एक पड़ोसी देश है बोत्सवाना। अपनी स्वतंत्रता के समय 1963 में, बोत्सवाना इस धरती के सबसे गरीब देशों में था। लेकिन अगले 33 सालों तक यह देश 9 फीसदी फीसदी सालाना की शानदार दर से विकसित होता गया। दुनिया भर में लोग एशियन टाइगर (कोरिया, थाईलैंड, मलेशिया) से प्रभावित हैं कि किस तरह इन देशों ने अस्सी के दशक में जबरदस्त तरक्की करके अपनी जनता की आर्थिक स्थिति को उभारा। मगर बोत्सवाना की प्रगति दर ने इन सबों को पीछे छोड़ दिया। आज ये हाल है कि बोत्सवाना की प्रति व्यक्ति आय भारत से सात गुनी है। इतना अंतर क्यो? मोटे तौर पर अपने पड़ोसियों से इतना अंतर बोत्सवाना की दो नीतियों का कमाल है। पहली बात तो ये कि बोत्सवाना ने उत्खनन कंपनियों के साथ अपने रिश्ते कुछ अलग तरह से गढ़े। उनको लम्बी अवधि के उत्खनन अधिकार दिए किन्तु मुनाफे में 50 फीसदी की हिस्सेदारी ली। उत्खनन कंपनी के दूरगामी हित देश के हित से मिले हुए हैं। ऐसा नहीं कि एक बार किसी तरह से उठा पटक कर लाइसेंस ले लीजिए और फिर लूट सके तो लूट। उत्खनन कंपनियां ताबड़तोड़ उत्खनन की लूट के बजाय, टिकाऊ उत्खनन में निवेश करने में रूचि रखती हैं। दूसरे देशों में उत्खनन कम्पनियों ने मुनाफे की दीर्धकालीन हिस्सेदारी के बजाय उत्खनन के अधिकार हासिल करने के लिए रिश्वत दिये लेकिन गृह युद्ध, तथा सरकारी नीतियों के बदलने के डर से इन कंपनियों ने ताबड़तोड़ उत्खनन किया। कंपनी और देश के हित बिलकुल विभिन्न थे।
दूसरा अंतर यह कि बोत्सवाना के संस्थापक नेताओं ने राजनीतिक व्यवस्था में व्यापक भागीदारी का इनतेजाम किया और खनिजों से मिलने वाली स्थिर आय का शिक्षा में बड़े पैमाने पर निवेश किया। इसके अलावा आर्थिक नीतियों में उदारीकरण का रास्ता अपनाया। मिसालन बोत्सवाना में कीमती जमीन पर एकाधिकार वाली हाऊसिंग बोर्ड या विकास प्राधिकरण जैसी कोई चीज नहीं है। ताज्जुब नहीं है कि ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल बोत्सवाना को अफ्रीकी देशों में सबसे कम भ्रष्ट देश मानता है।
तेल निर्यातक देशों के भी अलग-अलग अनुभव हैं। वेनिजुएला, नाइजेरिया, मेक्सिको जैसे तेल निर्यातक देशों में आबादी गरीब है जबकि नॉर्वे जैसे देश में प्रतिव्यक्ति आय विश्व में सर्वोच्च है। वेनिजुएला में समाजवाद के नाम पर सत्ता का एक व्यक्ति में केंद्रीयकरण बरबादी के लिए जिम्मेदार है। नाइजेरिया सर्वाधिक रोगविकृत प्रकरण है जहाँ शासकवर्ग राज्य तिजोरी को लूट रहे हैं। मेक्सिको में कुप्रबंध की भरमार है। भारत से अमेरिका फोन करने में प्रति मिनट सात रुपए लगते हैं किन्तु अमेरिका के पड़ोसी देश मेक्सिको से अमेरिका फोन की दर 100 रु प्रति मिनट से भी ज्यादा है। भारत में भी छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखण्ड व्यापक प्राकृतिक सम्पदा से संपन्न हैं लेकिन सबसे ज्यादा गरीबी भी इन प्रांतों में है। खनिज संपदा अपने आप में समृद्धि की गारन्टी नहीं हो सकती। समृद्धि इस बात पर निर्भर करती है कि खनिज संपत्ति का किस व्यवस्था से दोहन किया जाता है, उससे मिलने वाली आय को किस तरह बांटा जाता है और उसे किस तरह निवेशित किया जाता है - जन सामान्य के दीर्घकालिक हित में या किसी ताकतवर गुट के स्विट्जरलैंड के बैंक अकाउंट में।
क्या इतिहास, संस्कृति, जलवायु, या भौगोलिक परिस्थिति कोई मायने रखती है?
दो अपेक्षाकृत नए देशों की मिसाल देना दिलचस्प होगा। दोनों एक जैसे इतिहास, संस्कृति और साधन-संपन्नता को लेकर आगे बढ़े और समृद्धि के ऊंचे स्तरों को दोनों देशों ने एक ही वक्त पर छुआ। लेकिन एक की अर्थव्यवस्था उखड़ती चली गई, और एक सदी के बाद आज भी उसका लुढ़कना जारी है। फर्क, एक देश द्वारा चुना गया समृद्धि का रास्ता टिकाऊ नहीं था, और देश में सत्ता के ढांचे ने वक्त के साथ सुधार नहीं होने दिए। शुरुआत में अमेरिका और अर्जेंटीना में बहुत सी समानताएं थीं। यूरोप से आए प्रवासियों से आबाद, परस्पर 50 वर्षों में अपने अपने औपनिवेशक मालिकों से स्वतंत्र, दोनों के पास विशाल भू-क्षेत्र और समृद्ध जनतंत्र था। 1929 तक दोनों दुनिया के दस सबसे संपन्न देशों में शामिल थे। उस समय कोई यह भविष्यवाणी नहीं कर सकता था की अगले 20 वर्षों में अमेरिका दुनिया की सबसे समृद्ध अर्थव्यवस्था के रूप में उभरेगा, और अर्जेंटीना अपने कर्ज भी अदा नहीं कर पाएगा, और तानाशाही की गिरफ्त में चला जाएगा। अपने मौजूदा संकट के बावजूद, अमेरिका आगे आने वाले 50 सालों के लिए दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में सुस्थापित है। दूसरी ओर अर्जेंटीना एक संकट से दूसरे संकट के झटके खाता हुआ, समय- समय पर अपने नागरिकों की बचत, और आज भी उसे कर्ज देने की बेवकूफी करने वाले विदेशियों के पैसे डुबाए जा रहा है।
फर्क क्या था? यह अपने आप में एक लंबा विषय है। यहाँ कहने के लिए ये पर्याप्त है कि अंतर था उनकी नीतियों में। अमेरिका ने एक बड़ा मध्यम वर्ग बनाया और उसके जरिये औद्योगिक प्रगति की लेकिन किसी को भी ज्यादा पावरफुल नहीं बनने दिया। अर्जेंटीना ने बढ़ावा दिया जमींदारों और अफसरों को जिन्हें मेहनत से कमाई करनी आती नहीं थी पर अर्थ व्यवस्था पर उनका पूरा नियंत्रण था। जैसे ही 1929 का विश्वव्यापी आर्थिक संकट आया और शासन ने कुछ शक्तिशाली वर्गों के पक्ष में निर्णय लिए, क्रांति के बादल छा गए।
हमें दूर जाने की जरूरत नहीं है। जो कोई भी गुजरात और उत्तर प्रदेश गया है वह वहाँ की सरकारों द्वारा चुनी हुई नीतियों के अलग-अलग परिणामों को समझ सकता है। आजादी के 25 वर्षों के भीतर ही गुजरात विकास के प्रक्षेप पथ पर आ चुका था जिसे मोदी काल ने और भी गति प्रदान की है। देश में किसी भी उद्यमी या उद्योगपति से दोनों राज्यो में से किसी एक को चुनने को कहिए तो ज़्यादातर लोग गुजरात को चुनेंगे। मेरा एक मित्र भोपाल में टर्बाइन बना कर पूरे विश्व में निर्यात करता है। कम लागत और अच्छी गुणवत्ता के लिए उसकी साख है। अपने उत्पाद की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए वह 100 कामगारों की क्षमता वाली एक और फैक्ट्री डालना चाहता है।
क्या यह तर्कसंगत नहीं लगता कि वह अपनी दूसरी फैक्ट्री भी भोपाल में ही लगाये? लेकिन नहीं। वह इसे गुजरात में लगा रहा है। मध्यप्रदेश में रोजगार सृजन करने वालों पर होने वाले इंस्पेक्टर राज के हमले वह बहुत झेल चुका है। मंजूरी, अनापत्ति प्रमाणपत्र, और दूसरी चीजों के लिए तमाम तरह के बाबुओं के धक्के भी खा चुका है। मेरे मित्र का पूरा जीवन भोपाल में बीता है। गुजरात में न तो कभी उसने कोई व्यापार किया है, न ही वहाँ उसका कोई रिश्तेदार रहता है लेकिन फिर भी वह गुजरात का रुख कर रहा है। मध्यप्रदेश को बेहतर भौगोलिक परिस्थिति का फायदा है, लेकिन वह अपनी भ्रष्ट और अक्षम नौकरशाही पर काबू नहीं कर सकता। गुजरात की नीतियां बेहतर हैं और उन पर वह बेहतर ढंग से अमल करता है। मध्यप्रदेश ने 100 लोगों को नौकरी से वंचित कर दिया और गुजरात ने अपने 100 और नागरिकों को नौकरी दिला दी। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दो पड़ोसी प्रदेशों में से एक देश के सबसे संपन्न प्रदेशों में है और दूसरा सबसे गरीब प्रदेशों में गिना जाता है। इन सब उदाहरणो से साफ हो गया है कि इतिहास, संस्कृति, भौगोलिक स्थिति इत्यादि समरूप हों तब भी देश प्रदेशों की समृद्धि में जमीन आसमान का अंतर हो सकता है।
जिनके पास कुछ भी नहीं वो क्या गरीबी से बच सकते हैं?
उन जगहों का क्या, जिनके पास कोई खनिज संपदा नहीं है, भौगोलिक दृष्टि से भी कोई फायदा नहीं है, और जिनके पास पर्यटन स्थलों की ऐसी कोई विरासत भी नहीं है। आप सोचेंगे कि ऐसे देश तो गरीब ही होंगे। ऐसा जरूरी नहीं। सिंगापोर, हांगकांग, और दुबई को देखें। इन तीनों देशों की आर्थिक नीतियाँ काफी आकर्षक हैं। ये देश दुनियां में सबसे ज्यादा रहने लायक जगहों में माने जाते हैं। केवल दस किलोमीटर दूर चले जाएँ इन शहरों से, तो मकान का किराया दस गुना कम हो जाएगा लेकिन लोग दस गुना किराया देने के लिए तैयार रहते हैं ताकि सिंगापुर, हांगकांग और दुबई में रह सकें। इन शहरों में अपराध की दर कम है, सड़कों पर गंदगी नहीं है। व्यापार के लिए कम अड़चनें और कानून का सख्त अमल है। इन तीनों देशों में न तो कोई खनिज संपदा है, न ही कोई प्राकृतिक सुंदरता और जलवायु भी साधारण है। फिर भी ये देश विश्व के सबसे उन्नत देशों में से हैं। इन सब उदाहरणो से कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। किसी देश या प्रदेश की सम्पन्नता केवल इस पर निर्भर नहीं है की उसके पास कितनी खनिज सामग्री है, कितनी नैसर्गिक संम्पत्ति है, कैसी जलवायु है, कैसी भौगोलिक स्थिति है या कोई ऐतिहासिक या सांस्कृतिक लाभ है या नहीं। सम्पन्नता सबसे ज्यादा इस बात पर निर्भर करती है कि शासन की नीतियाँ कैसी हैं, किसके भले के लिए बनती हैं और अगर जन हित का ख्याल है तो उन नीतियों को बदलने की या निष्पादित करने की क्षमता है या नहीं।
ऊंची जगहों पर ईमानदारी से कोई फर्क नहीं पड़ता
यह निगलना भले ही मुश्किल हो लेकिन सचाई की बात तो ये है कि मुख्यमंत्री, मुख्यसचिव और पुलिस महानिदेशक चाहे कितने भी ईमानदार क्यो न हों, आम जनता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क इस बात का पड़ता है कि क्या इन पदासिनों में काबलियत है कि निचले स्तर की बेलगाम नौकरशाही को नियंत्रण में रख कर शासन की नीतियों का पारदर्शक रूप से पालन हो। प्रताप सिंह कैरों जो पंजाब के मुख्यमंत्री थे कोई गुणो की खान नहीं थे किन्तु 11 वर्षों के भीतर उन्होने पंजाब में सिंचाई, उद्योग और शिक्षा की ऐसी आधारशिला रखी कि आने वाले समय में राज्य की लगातार प्रगति होती रही। कैरों के थोड़े आगे पीछे समकालीन मुख्यमंत्री रहे उत्तरप्रदेश में गोबिंद वल्लभ पंत, संपूर्णानंद और सुचेता कृपलानी तथा मध्यप्रदेश में रहे रविशंकर शुक्ल , मंडलोई और काटजू जैसे दिग्गज राष्ट्रीय स्तर के नेता। हालाँकि ये सब नेता सम्माननीय हैं और कैरों के मुकाबले ये सब महात्मा लगते हैं लेकिन ये सब अपने प्रदेशवासियों का जीवनस्तर उठाने में लगभग असफल रहे। 
भारत के बाहर भी यही अनुभव है कि सर्वोच्च स्तर पर ईमानदारी आर्थिक समृद्धि का आश्वासन नही है। 1995 के ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के सर्वेक्षण के अनुसार, चीन और इंडोनेशिया दुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों में गिने गए थे इसके बावजूद ये दोनों देश सबसे ज्यादा आर्थिक प्रगति भी कर रहे थे। इंडोनेशिया के जनरल सुहार्तो एक अत्यधिक भ्रष्ट शासक थे किन्तु उनके नेतृत्व में वह देश गरीबी को पीछे छोड़कर एक मध्यम आय वर्गी देश बन गया। उन्होने भ्रष्टाचार को रोका नहीं -उसका केन्द्रीकरण कर दिया और हर तबके के लिए रेट पक्का कर दिया। पर विकास के किसी भी काम में देरी बिलकुल बर्दाश्त नहीं की। इनसे बिलकुल अलग थे तंजानिया के राष्ट्रपति जुलिअस नयेरेरे जिनकी ईमानदारी और कटिबद्धता की ख्याति दूर-दूर तक फैली। मगर नयेरेरे के लंबे कार्यकाल ने देश का बेड़ागर्क कर डाला। उनके कार्यकाल की शुरुआत में तंजानिया कृषि क्षेत्र में अफ्रीका महाद्वीप के सबसे बड़े निर्यातक देशों में एक था परंतु उनके शासन के अंत तक सबसे बड़ा आयातक देश बन गया। समाजवाद की तलाश में उन्होने किसान और व्यापारी पर भरोसा न कर एक बड़ी नौकरशाही व्यवस्था बनाई, लंबे चौड़े नियम और कानून बनाए। कृषि और बाजार को नियंत्रित करने के लिए नौकरशाही को तमाम अधिकार दिए पर उसे लगाम न लगा पाए। परिणाम हुआ विकेन्द्रीकृत भ्रष्टाचार- हर नौकरशाह का जेब भरने का अपना तौर। कभी देरी, कभी अनिश्चितता। तंजानिया की अर्थव्यवस्था चौपट हो गई। खुद तो ईमानदार थे किन्तु नयेरेरे साहेब के नीचे की पूरी व्यवस्था न केवल भ्रष्ट थी बल्कि अक्षम और मनमानी करने वाली। जनरल सुहार्तो की व्यवस्था थी भ्रष्ट किन्तु सक्षम और सुनिश्चित। इंडोनेशिया में कुछ अंडों की चोरी हुई मगर तंजानिया में मुर्गी को अंडे निकालने की ही इजाज़त नहीं मिली। इंडोनेशिया की जनता मध्यमवर्गीय हो गई और तंजानिया की जनता का हाल बद से बदतर हो गया। दुनिया भर का अनुभव यह है कि सबसे ज्यादा हानिकारक भ्रष्टाचार उस तरह का होता है जो विकेन्द्रीकृत हो, पता नहीं कौन बाबू और कौन छोटे साहब कितना लेंगे, काम होगा की नहीं, होगा तो कब होगा।

वेंकटेश शुक्ल
इस आलेख की दूसरी कड़ी : छत्‍तीसगढ़ कैसे बने सोने की चिडि़या यहां पढ़ें.  
(इस लेख से सहमति, असहमति या टिप्पणी लेखक को हिन्दी या अंग्रेजी में vnshukla@yahoo.com पर भेजी जा सकती है।)

ऐसी कोई तकनीक है ही नहीं जो यह सिद्ध कर दे, कि बेनामी और फर्जी आईडी से की गई टिप्पणियों के टिप्पणीकर्ता को पहचाना जा सके

"शास्त्री जी आपने लिखा है कि “ओ छत्तीसगढ़ के महारथी! क्या तुम्हारा नाम ब्लॉग-जगत् को बता दूँ?” पर अभी जब मैं यह पोस्ट पढ रहा हूं तब तक उस रथी का नाम सामने नहीं आया। न आना था ना आयेगा और दो कदम आगे बढकर मैं यह कहता हूं कि कोई ऐसी तकनीक है ही नहीं जो यह सिद्ध कर दे, कि बेनामी और फर्जी आईडी से की गई टिप्पणियों के टिप्पणीकर्ता को पहचाना जा सके। जो तकनीक उपलब्ध है वह अनुमान लगाने एवं परिस्थिजन्य साक्ष्य निर्मित करनें में सहायक मात्र हैं। न्यायालयीन शब्दों में कहें तो उस तकनीक से प्राप्त सूचनाओं को विवेचना, अनुसंधान एवं न्यायालयीन कार्यवाही के स्तर से गुजरते हुए ही सिद्ध किया जा सकता है।
आपके पोस्ट के शुरूआती शब्दों के निहितार्थ से यह स्पष्ट‍ है कि आपनें छत्तीसगढ़ के किसी तथाकथित महारथी पर आरोप लगाया है और धमकाया भी है। खैर हमें क्या ऐसे मसलों में सिद्ध करने का भार आरोप लगाने वाले का होता है। हालांकि आपनें अंतिम में लिखा है कि जब तक वह स्वयं अपने नाम को बतलाने के लिए नहीं कहेगा तब तक आप उसका नाम नहीं बतलायेंगें। क्या अपराधी स्वयं अपना अपराध कबूल करता है ? ऐसे में तो संपूर्ण छत्तीसगढ़ के ब्लॉगरों पर आरोप लग रहा प्रतीत हो रहा है।
आदरणीय डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी आपसे अनुरोध है कि हमारे संपूर्ण प्रादेशिक भूगोल के ब्लॉगरों पर इस तरह से तलवार ना लटकावें।"
मैंने यह टिप्पणी शास्त्री जी के उसी पोस्ट पर की थी किन्तु यह टिप्पणी प्रकाशित नहीं की गई है। शास्त्री जी के ब्लॉग में कमेंट माडरेशन है, कमेंट में माडरेशन लगाने के बाद टिप्पणियों के प्रकाशन में सुविधा का संतुलन सदैव अपने हित में करने का प्रयास किया जाता हैं जो उन्होनें किया है। उन्होनें चर्चा मंच में एक पोस्ट 'झूठ और सच' पब्लिश किया है किन्तु मेरी टिप्पणी प्रकाशित नहीं किया है इस कारण मुझे इसे पोस्ट के रूप में प्रकाशित करना पडा। यद्धपि शास्त्री जी नें 'महारथी' शब्द के प्रयोग से नाम स्पष्ट करने का प्रयास भी किया है, पर मुझे लगता है कि इस 'महारथी' शब्द नें ही सब घालमेल कर दिया हैं।
दूसरे के नाम का उपयोग करते हुए पीडादाई टिप्पणियां चाहे जिसने भी की हो उसने अच्छा नहीं किया है, हम सब इसका विरोध करते हैं। एक दो ब्लॉगरों से वैचारिक मतभेद (पिछले दिनों पोस्ट में हुई दंगल के आधार पर) हो जाने के कारण तथाकथित टिप्पणियों में जिसके नाम का उपयोग हुआ है उनका वकील बनकर छत्तीसगढ़ के सभी ब्लॉगरों को धमकाना क्या उचित है शास्त्री जी।

सद्भावना के शिल्पी भाई गिरीश पंकज : डॉ. परदेशीराम वर्मा

जनवादी कवि नासिर अहमद सिकंदर पन्द्रह वर्ष पूर्व कवियों पर एक स्तंभ लिखते थे । नवभारत में वे प्रति सप्ताह एक कवि से साक्षात्कार लेते थे । यह लोकप्रिय स्तंभ था । नासिर का सीना वैसे भी चौड़ा है मगर उन दिनों इस स्तंभ के कारण उसके सीने की चौड़ाई में कुछ और इजाफा सा हुआ दिखता था । एक दिन उसने मुझे भी रायपुर चलकर नवभारत में कार्यरत अपने मित्र से मिलने का न्यौता दिया । हम तेलघानी नाका के पास तब के नवभारत में पहुंचे । नवभारत में कार्यरत आशा शुक्ला जी भर को मैं पहचानता था । वे रायपुर के समाचार पत्र जगत में धमाके से आई एक मात्र युवती थी । इसलिए भी उन्हें हम सब आदर देते थे । कुछ विस्मय भी होता था कि पुरूषों से भरे समाचार पत्र के दफ्तर में वे अकेली महिला होकर भी किस तरह सफलतापूर्वक और सम्मानजनक ढंग से काम कर लेती हैं । सोचा उनसे भी भेंट हो जायेगी । नासिर ने मुझे पान ठेले पर ही रोक दिया । 
कुछ देर बाद वह एक खूबसूरत गोरे चिट्टे नौजवान के साथ चहकता हुआ लौटा । अभी वह परिचय करा ही रहा था कि मेरे मुंह से निकल गया, अरे पंकज भाई आप । नासिर को यह जानकर कि मैं गिरीश पंकज से पूर्व परिचित हूं थोड़ा झटका लगा । मैंने बताया कि पंडरी में स्थित युगधर्म में बरसों पहले गिरीश पंकज काम करते थे । वहां मेरे अग्रज भूषण वर्मा भी मुलाजिम थे । इसलिए मैं गिरीश भाई से पूर्व से ही खूब परिचित हूं ।
गिरिश पंकज तेजी से लिखने और प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में छपने वालों की टीम के सदस्य शुरू से ही रहे । राष्ट्रीय ख्याति की तमाम पत्रिकाओं में उनकी भिन्न भिन्न विधाओं की रचनायें आये दिन छपती थीं । कुछ उसी तरह का कारोबार मेरा भी था इसलिए हम एक दूसरे से घनिष्ट होते चले गए । काफी दिनों बाद मुझे पंचशील नगर स्थित उनके शासकीय र्क्वाटर में जाने का अवसर लगा । कुर्सी में बैठने के बाद मैंने सरसरी तौर पर उनकी किताबों के रैक पर नजर डालते हुए जो दरवाजे के ऊपर देखा तो देखता ही रह गया । वहां भिन्न भिन्न मुद्राओं में छ: बड़े बड़े फोटोग्राफस एक साथ फ्रेम कर सज्जित किया गया था । वे सभी चित्र भाई गिरीश पंकज के थे । मुझे जिज्ञासा हुई कि भाई कहीं फिल्मी दुनिया में ट्राई तो नहीं मार रहे । पता लगा कि ऐसी कोई बात नहीं है । मुझे बेशाख्ता यह चलताऊ शेर याद हो आया ....
"खुदा जब हुश्न देता है,
नजाकत आ ही जाती है ।"
साक्षरता अभियान से छत्तीसगढ़ के कुछ चुनिंदा साहित्यकार ही जुड़े । प्रारंभिक दौर में प्रतिष्ठित या प्रतिष्ठा प्रेमी साहित्यकार साक्षरता अभियान से जुड़ने में महसूस करते थे । इस दौर में रायपुर के श्री गिरीश पंकज इस अभियान से जुड़े । उन्होने नवसाक्षरों के लिए एक किताब लिखी - "भानसोज की चैती" ! चैती रायपुर के पास भानसोज गांव की लड़ाका स्त्री थी । चैती ने मद्यनिषेध के लिए गांधीगीरी किया था । वह सफल रही । और सफल रही उस पर लिखी किताब "भानसोज की चैती"
गिरीश भाई १९९५ से सदभावना दर्पण निकाल रहे हैं । इस पत्रिका के सफल संपादन के लिए वे पुरस्कृत हो चुके हैं । उपन्यास, कहानी, गीत, गजल, व्यंग्य, निबंध, सभी विधाओं में मस्त रहने वाले रचनाकार हैं भाई गिरीश पंकज । किताब घर, नेशनल पब्लिकेशन हाउस, वाणी प्रकाशन, एन.बी.टी. जैसी प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थाओं से गिरीश पंकज की किताबें प्रकाशित हुई हैं । कुल लगभग ३० किताबें उनकी प्रकाशित हुई हैं । वे दक्षिण अमेरिका, ब्रिटेन, बहरीन, ओमान, मारिशस, श्रीलंका, थाइलैंड की यात्रा कर चुके हैं । उनकी कुण्डली को जांचकर एक पंडित ने कह दिया है कि वे विदेश में ही बसेंगे । अट्टहास सम्मान, सदभावना सम्मान तथा लीलारानी स्मृति सम्मान से विभूषित श्री गिरीश कई समाचार पत्रों के उपसंपादक एवं ब्यूरो प्रमुख रहे ।
छत्तीसगढ़ी राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के कार्यकारी अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ व्यंग्यापन के महासचिव, छत्तीसगढ़ सर्वोदय मंडल के प्रदेश मंत्री, छत्तीसगढ़ बाल कल्याण परिषद के सदस्य तथा बालहित पत्रिका के संपादक मण्डल के सदस्य गिरीश पंकज ने जयप्रकाश नारायण से प्रभावित होकर जनेऊ हटा दिया । जनेऊ हटने पर भी गिरीश पंकज के भीतर बैठा ब्राम्हण अक्सर चमक कर सामने आ जाता है । लेकिन वे मनु महाराज से लगातार तर्क वितर्क करते चलते हैं।
गिरीश पंकज सदभावना शुचिता, ईमानदारी, जैसे शब्दों के प्रति बेहद संवेदनशील हैं मगर आत्म-मुग्धता के चलते वे इन शब्दों को पूरी तरह हृदयंगम कर लेने का मुगालता भी पाल लेते हैं । अभी वे मात्र पचास वर्ष के हैं । हम आशा कर सकते हैं कि धीरे धीरे वे अपने निर्धारित आदर्शो के अनुसार जीवन को ढाल भी पायेंगे । वे खादी पहनते हैं, शराब नहीं पीते । विसंगतियों पर प्रहार करते हैं । मगर विसंगतियों को जन्म देने वालों के कृपा-पात्र बनने की ललक अभी उनमें बाकी है । इस टेढ़ी दुनिया को टेढे पन के बगैर साध लेने का भ्रम हमारे गिरीश भाई को है । वे स्वयं को सीधे तने हुए पाते हैं मगर देखने वाले अदृश्य से खम को भी देखकर मुस्कुराते हैं और सदभावना के इस घोषित सिपाही को बधाई भी देते हैं।
गरीश ने उपाध्याय सरनेम को हटाकर भी आदर्शवादी कदम उठाया लेकिन मेरे गुरूदेव राजनारायण ने मिश्रा सरनेम हटाये बिना जाति तोड़ो समाज जोड़ो सिद्धांत को अमली जामा पहनाकर दिखा दिया, मुझे वह ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है । हां, गिरीश ने उपनाम पंकज चुनकर बुद्धिमता का परिचय जरूर दिया । वे कीचड़ में नहीं जन्मे इसलिए यह पंकज उपनाम उपयुक्त नहीं लगता मगर रूप उनका पंकज की तरह है इसलिए इस उपनाम को धारण करने के सच्चे अधिकारी वे सिद्ध होते हैं ।
अतिथि कलम में डॉ.परदेशीराम वर्मा जी का आलेख उनकी पत्रिका अगासदिया 32 जगमग छत्तीसगढ अंक से साभार.

ब्‍लॉगरों पर साढ़े साती शनी : और हम हिन्‍दी के भविष्‍य के लिए कुछ भी नहीं कर पाए.

आप सभी इस बात से वाकिफ हैं कि हिन्‍दी ब्‍लॉगजगत से परे अंग्रेजी व हिन्‍दी वेब जगत में ज्‍योतिष का चहुंओर बोलबाला है. गूगल सर्च पर धका-धक ज्‍योतिष से संबंधित वेबसाईट खोजे जा रहे हैं और आनलाईन कुण्‍डली बनवाकर फलित बांचा जा रहा है. मूंदरी-गंडा-ताबीज आनलाईन पेमेंट करके प्राप्‍त किए जा रहे हैं और अवसर का सहीं उपयोग करने वाले ज्‍योतिषियों के बल्‍ले बल्‍ले है. नेट में तो इन वैबमालिक लैपटापधारी सुविधासम्‍पन्‍न ज्‍योतिषियों से कभी-कभार सामना होते रहता है किन्‍तु चौंक चौराहों में फुटपात पर बैठे ज्‍योतिषियों से आपका सामना रोज होता होगा. ये अलग बात है कि हम इन्‍हें ध्‍यान दिए बगैर आगे बढ़ जाते होंगें पर हमारे मोबाईल कैमरे की नजर में गड़ गई यह तस्‍वीर आप भी देखें-
हम दरअसल लगातार टंकी में चढते व छुट्टी में जाते ब्‍लॉगरों को देखते हुए उसके पास हिन्‍दी ब्‍लॉगजगत के भविष्‍य के संबंध में 'बिचरवाने' गए थे कि क्‍या ब्‍लॉगरों पर साढ़े साती शनी का प्रभाव है. किन्‍तु फुटपात पर बैठे हस्‍तरेखा विशेषज्ञ बेदम कर रही गर्मी के चलते ग्राहक की कमी के कारण अपने स्‍वयं के भविष्‍य से बेखबर लम्‍बी तान कर सो रहा था. और ....... हम हिन्‍दी के भविष्‍य के लिए कुछ भी नहीं कर पाए.

कौन झूठ बोल रहा है ... ??

मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार या पुलिस अधीक्षक अमरेश मिश्रा : जलता बस्‍तर 

आई गूगल में पसंदीदा समाचारों को खंगालते हुए  जागरण  का एक समाचार नजर आया जो इस प्रकार है - माओवादियों से लोहा लेने का सिरदर्द पुलिसकर्मियों के लिए काफी नहीं है क्योंकि छत्तीसगढ़ में नक्सल विरोधी अभियान में जुटी पुलिस को एक और मोर्चे पर जूझना पड़ता है तथा काफी समय अदालतों के चक्कर काटते गुजरता है। शीर्ष पुलिस अधिकारियों ने आज कहा कि पुलिस को अक्सर विभिन्न अदालतों के चक्कर काटने पड़ते हैं। उनके खिलाफ दायर मानवाधिकार हनन के कथित मामलों से जूझना पड़ता है जिससे नक्सल प्रभावित राज्य में अभियान में लगी पुलिस को मानव संसाधनों को किसी दूसरी जगह लगाना पड़ता है।
उहापोह की स्थिति किसी और की नहीं, बल्कि खुद राज्य के पुलिस महानिदेशक विश्व रंजन की है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के माध्यम से फैलाए जा रहे दुष्प्रचार के कारण राज्य के पुलिसकर्मियों को वकीलों के साथ अधिक समय बिताना पड़ता है। पुलिस के पक्ष पर जोर देने के लिए माओवादियों के गढ़ दंतेवाड़ा कांड का उदाहरण दिया गया। जिले के पुलिस अधीक्षक अमरेश मिश्रा को दायर की गई एक जनहित याचिका के कारण अपना आधा समय वकीलों के साथ दिल्ली के चक्कर लगाने में बिताना पड़ता है। मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने यह याचिका उच्चतम न्यायालय में दाखिल की। उनका आरोप है कि फर्जी मुठभेड़ों में 13 लोगों की हत्या कर दी गई। रंजन ने कहा कि सचाई यह है कि 13 लोग जीवित हैं और उनके बयान दिल्ली की एक अदालत में दर्ज कराए गए हैं। उन्होंने प्रेस ट्रस्ट से कहा, ''इन आरोपों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए मेरे पुलिस अधीक्षक को वकीलों को सूचना देने के लिए दिल्ली के चक्कर लगाने पड़ते हैं।''
इसके पूर्व छत्‍तीसगढ़ हाईकोर्ट में प्रस्‍तुत फर्जी याचिकाओं के संबंध में भी कुछ इसी प्रकार की जानकारी पिछले दिनों समाचार पत्रों में पढने को मिली थी जिसको हमने यहां प्रस्‍तुत किया था। छत्‍तीसगढ़ में व्‍याप्‍त अशांति के नेपथ्‍य में इन समाचारों व विरोधाभाषी बयानों की सत्‍यता में जनता उलझी रहती है और न्‍यायालयों में पेंडेंसी के चलते सुनवाई के लिए डेट पे डेट पड़ते रहते हैं. लंबित प्रकरणों को आधार बनाकर समाचारों को अपने अपने हित के लिए भुनाया जाता है और बौद्धिकता को प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है।

आदिवासियों ने उठाया हक का सवाल : कंगला मांझी स्मृति स्वर्ण जयंती समारोह

'लगातार शोषण और उपेक्षा के कारण आदिवासी असंतुष्ट हुआ है। आदिवासी कभी किसी का हक नहीं छीनता, मगर लगातार उसके हकों को छीना गया। ' यह उद्गार छत्‍तीसगढ़ के बघमार गांव में प्रसिद्ध आदिवासी क्रांतिवीर व संगठक  कंगला मांझी स्मृति स्वर्ण जयंती समारोह व दो दिवसीय सैनिक सम्मेलन के समापन दिवस के मुख्य अतिथि संत कवि पवन दीवान ने कहा! विशेष अतिथि अगासदिया के संपादक साहित्यकार डॉ.परदेशीराम वर्मा ने कहा कि केवल अपने विगत इतिहास को याद कर गर्वित होने से वर्तमान नहीं संवर सकता। कंगला मांझी ने सभी संघर्षशील अधिकारहीन लोगों को एकताबद्ध होने का नारा दिया। आज भी उनका उद्देश्य अधूरा है। कंगला मांझी के सभी सैनिक वर्दी पहनकर और विनम्र सेवक बन जाते हैं। निःशुल्क सेवा ही उनका धर्म है। उनकी ताकत का सदुपयोग होना चाहिए। वे अनुशासित, संगठन राष्ट्र एवं समाज भक्त हैं।
कार्यक्रम में दुर्ग के कलेक्टर ठाकुर राम सिंह एवं राजमाता फुलवादेवी ने अगासदिया के सैनिक अंक का विमोचन किया। विशेष अतिथि श्रीमती अनिता भेड़िया, जिला पंचायत सदस्य डौंडीलोहारा ने कहा कि जो समस्या है उनके निदान के लिए प्रशासन तक पहुंचने और समाधान लाने की दिशा में हम सब काम करेंगे। राजमाता फुलवादेवी कांगे ने बताया कि छत्तीसगढ़ सासन द्वारा ६४ लाख रुपए के कार्य स्वीकृति हुई है। मांझी के पुत्र कुंभदेव कांगे ने बताया कि बिना प्रशिक्षण एवं किसी सुविधा के हमारे सैनिक अनुशासित जीवन जीते हैं। अपने गांवों की हर समस्या का हल करते हैं। लगभग पांच हजार वर्दीधारी सैनिक तथा दो हजार महिला सैनिकों के साथ ही हजारों समर्थक शामिल हुए।
कार्यक्रम में खड़ानंद वर्मा, भास्कर मढ़रिया, गैंदलाल वर्मा, थानेश्वर निर्मल, श्रीमती हेमवती वर्मा, श्रीमती स्मिता वर्मा, श्रीमती यमुनोत्री वर्मा, संतोष, छत्तीसगढ़ आसपास के संपादक प्रदीप भट्टाचार्य, आदिवासी सत्ता परिवार के स्थानीय प्रतिनिधि शामिल हुए। इस अवसर पर ३४ सैनिकों के जीवन पर केन्द्रित अगासदिया की प्रति, स्मृति चिन्ह तथा शाल अभिनंदन पत्र भेंट कर सैनिकों का सम्मान किया गया। कार्यक्रम में बालाघाट से गोंगपा महिला प्रकोष्ठ राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीमती हीरामन उइके, नईदिल्ली के मांझी कार्यालय प्रभारी केजी उमरे, गोंदिया से तीजूराम हेकाम, छिंदवाड़ा से मन्नूलाल मरकाम, नागपुर से वासुदेव शाहा, पत्रकार बीआर कोर्राम, संपादक गोंडवाना दर्शन मुन्नालाल निषाद तथा कमिश्नर भिलाई निगम राजेश टोप्पो सहित जिले के आला अफसर सम्मिलित हुए। संचालन कंगला मांझी के सैनिक हरीलाल पन्द्रे ने किया।

(समाचार डॉ. परदेशीराम वर्मा जी द्वारा जारी विज्ञप्ति के आधार पर) 

दलित चेतना का सूर्य : शबरी - आचार्य सरोज द्विवेदी

छत्तीसगढ़ के इतिहास और संस्कृति कें मूल में जब हम झांकने का प्रयत्न करें तो हमें जाज्वल्यमान नक्षत्र के रूपमें एक मात्र नाम दिखाई देगा शबरी का । श्रीराम भक्त शबरी के पूर्व का कोई इतिहास उपलब्ध नहीं है । इतिहासवेत्ताओं के अनुसार रामायण नौ लाख चौरासी हजार वर्ष पूर्व की घटना है और तब से लेकर अब तक छत्तीसगढ़ क्षेत्र के किसी व्यक्ति का नाम चल रहा है तो वह शबरी ही है । आदि कवि महर्षि वाल्मीकि ने रामायण मे शबरी की भक्ति का मार्मिक चित्रण किया है ।
इतिहास बताता है कि गंगा से गोदावरी के मध्य भाग को कौशल क्षेत्र कहा जाता था । इन दोनों नदियों के बीच विन्ध्याचल पर्वत स्थित है । विन्ध्याचल के उपरी (उत्तरी) क्षेत्र को उत्तर कौशल और नीचे दक्षिणी क्षेत्र को दक्षिण कौशल कहा गया । हमारा छत्तीसगढ़ दक्षिण क्षेत्र में आता है । श्री राम की वन यात्रा में दक्षिण कौशल को दण्डकवन कहा गया है । अब यह भी प्रमाणित हो गया है कि इस दण्डकारण्य में शिवरीनारायण (बिलासपुर) में ही शबरी का आश्रम था ।
शिवरीनारायण में महानदी, शिवनाथ और जोंक नदियों का संगम है । इस संगम के तट पर ही शबरी के गुरू महर्षि मंतग का आश्रम था । ऋषि मतंग के बाद शबरी इस आश्रम की आचार्या बनीं । बाद में गोस्वामी तुलसी दास ने रामचरित मानस में शबरी कथा का मधुर और भावपूर्ण चित्रण किया है । छत्तीसगढ़ का नामकरण उन्नीसवीं सदी में हुआ किन्तु दक्षिण कौशल नाम उस समय प्रसिद्ध था । इसका प्रमाण यह है कि यहां की बेटी (आरंग नरेश भानुमन्त की पुत्री) कौशल्या से राजा दशरथ का विवाह हुआ था । कौशल्या नाम कौशल क्षेत्र की कन्या होने के कारण पड़ा, जैसे कैकयसे कैकई । कौशल्या दशरथ की बड़ी रानी थी जिनके गर्भ से श्रीराम का जन्म हुआ । श्रीराम छत्तीसगढ़ की बेटी कौशल्या के पुत्र थे ।
रामायण और रामचरित मानस में श्रीराम की वनयात्रा में शबरी प्रसंग सर्वाधिक भावपूर्ण है । भक्त और भगवान के मिलन की इस कथा को गाते सुनाते बड़े-बड़े पंडित और विद्वान भाव विभोर हो जाते है । शबरी का त्याग और संघर्ष पूर्ण जीवन, नि:स्वार्थ सेवा, निष्काम भक्ति और गुरू तथा श्रीराम के प्रति पूर्ण समर्पण दूसरी जगह देखने में नहीं आता । इसलिए शबरी आज भी जीवंत है । शबरी की सेवा से मुग्ध मतंग मुनि जब प्राण त्यागने लगे तब दुखी शबरी उनके साथ जाने की जिद करने लगी । मतंग मुनि ने कहा शबरी, मेरी भक्ति अधूरी रह गई । मुझे श्री राम के दर्शन नहीं हो पायेंगे किन्तु तेरी भक्ति पूर्ण होगी । श्रीराम तुम्हे दर्शन देगें, वे तुमसे मिलने जरूर आयेगें । तुम श्रद्धा और धीरज रखकर उनकी प्रतीक्षा करना । शबरी ने भक्ति और संयम के साथ प्रभु की प्रतीक्षा की । श्रीराम ने शबरी से वर मांगने कहा तो शबरी ने जनम जनम भगवान की भक्ति ही मांगी । भगवान जब जाने लगे तो शबरी ने भाव विव्हल होकर उन्हें विदाई दी । प्रभु चले गये तो शबरी ने स्वयं योग अग्नि पैदा कर अपने नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया । शबरी अमर हो गई ।
शबरी और श्रीराम का मिलन दक्षिण कौशल (अब छत्तीसगढ़) के धार्मिक इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना है । इसलिये आज भी लोग इस कथा को पूरी श्रद्धा से गाते और सुनते हैं । शबरी कथा वर्णन रामायण और रामचरित मानस में ही नहीं अनेक प्राचीन ग्रन्थों में है । महर्षि वेद व्यास ने शबरी का वर्णन पद्म पुराण में किया है । बाद में अनेक संतो, भक्तों और कवियों ने शबरी का वर्णन किया है किन्तु शबरी पर स्वतंत्र पुस्तक अभी तक प्रकाशित नहीं हुई है । गीता प्रेस गोरखपुर की अनेक किताबों और भक्ति ग्रन्थों मे शबरी को सम्मान जनक स्थान सदा मिलता रहा है । शबरी का जीवन त्याग, तप, सेवा, सद्भाव, साधना सिद्धि, श्रद्धा और भक्ति से परिपूर्ण है । धर्म के उक्त मानदण्डों पर शबरी का जीवन खरा उतरता है । इसका प्रमाण यह है कि स्वयं श्रीराम उससे मिलने आये और उसे इतना प्रेम और सम्मान दिया । शबरी का व्यक्तित्व छत्तीसगढ़ की धरोहर है । 
सच कहा जाय तो दस लाख वर्ष पहले शबरी ने छत्तीसगढ़ के संस्कारों को जन्म दिया था । शबरी की जितनी प्रशंसा की जाए कम है किन्तु शबरी सदा से उपेक्षित है । वाल्मीकि और तुलसी ने महाग्रन्थों में इन्हें संक्षिप्त स्थान दिया । इसके लिए हम उनके ऋणी हैं किन्तु बाद में शबरी पर विशेष काम नहीं हुआ । समाज और सरकारों ने भी इसे ध्यान नहीं दिया । अधिक आश्चर्य तो इस बात का है कि हमारे कलमकार भी इस ओर उदासीन रहे ।
आज जब छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ियों की सरकार बन गई है तब शबरी की ओर ध्यान दिया जाना चाहिये । छत्तीसगढ़ का सर्वोच्च पुरस्कार शबरी के नाम पर होना चाहिये । जगह जगह शबरी सेवा केन्द्र होना चाहिये । शबरी के नाम पर शोध पीठ होना चाहिए । इतना ही नहीं जगह जगह शबरी और श्रीराम का मन्दिर बनना चाहिये । सबसे अधिक आश्चर्य तो मुझे इस बात का है कि हमारे आदिवासी समाज के लोग शबरी की ओर ध्यान नहीं देते । शबरी इस धरती की प्रथम आदिवासी नारी है जिसने भगवान को प्राप्त कर लिया । शबरी दलित चेतना का सूर्य है ।
यह आलेख 'अगासदिया' के मातृ अंक से साभार लिया गया है. इस आलेख के लेखक  पं. सरोज द्विवेदी ज्योतिष के आचार्य, सुपरिचित साहित्यकार और कुशल प्रवचनकर्ता हैं ।

मुफ्त में अपने ब्‍लॉग का ट्रैफिक बढावें - जुगाड तकनीक

पिछले दिनों मैंनें अपने इस ब्‍लॉग में एवं दो अन्‍य ब्‍लॉग में विभिन्‍न वेबसाईटों के सहारे लगाए जा रहे चटकों का लेखाजोखा लिया तो पाया कि ब्‍लागवाणी के बाद मेरे ब्‍लॉग में  दूसरे क्रम पर गूगल के ईमेज सर्च से ट्रैफिक का बहाव है. यह कहा नहीं जा सकता कि इसके सहारे जो चटका लगाने वाले आ रहे हैं वे पाठक हैं कि नहीं किन्‍तु आने के बाद वे पुराने पोस्‍टों (पेज व्‍यू) में कुछ तलाशते हैं इसीलिये कहा जा सकता है कि उनमें से कुछ पाठक जरूर होते हैं. 
तो साथियों अपने ब्‍लॉग में अतिरिक्‍त पाठक लाने के लिए आप अपने अधिकतम पोस्‍ट में रायल्‍टी फ्री या स्‍वयं के द्वारा खींचा गया फोटो लगावें एवं फोटो का फाईल नेम ज्‍यादा सर्च हो रहे शव्‍दों से मिलता जुलता रखें. पोस्‍ट के कंटेंट अच्‍छे रहेंगें तो सोने में सुहागा. आप देखेंगें कि कुछ माह में आपके ब्‍लॉग का ट्रैफिक बढनें लगेगा.

माओ के पोतो, तुम कायर-बटमार हो... : दीपक शर्मा

पिछले दिनों बस्तर के चिंतलनार में हुई भयानक घटना की खबर इंटरनेट अखबार में पढ़ी तब से अब तक रह-रह यह विचार दिल को कुरेदते हैं कि जिन परिजनों को अपने प्रिय को खोने का दुख हुआ होगा उन पर क्या बीत रही होगी। उनके आंखों के आंसू सूखेंगे या नहीं। वस्तुत: यह घटना सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा करती है कि नक्सलवाद नाम के इस उपद्रव को क्या आंदोलन या क्रांति मान लिया जाए? और इनके तथाकथित वैचारिक दलालों से भी ये जानने का समय है कि क्या आप इस वीभत्स कायराना हरकत पर कुछ कहेंगे या सिर्फ मौन हो कर इंतजार करेंगे कि किसी तरह फिर सत्ता की कोई गलती हाथ लग जाए जिस पर हाईकोर्ट तक डंका बजाया जाए। 
यह प्रकृति का नियम है कि आप जिससे लड़ते है, धीरे-धीरे आप उसी तरह हो जाते है इसलिए अगर मुकाबला बटमारों और कायर-कपटी लोगों से हो तो बगैर छल-कपट आप उससे जीत नहीं सकते। इतनी भारी संख्या में जवान इसलिए शहीद हुए क्योकि वो लड़ाई संवैधानिक तरीके से लड़ रहे है, कोई बेकसूर न मारा जाए इस बात का ध्यान रखकर नीतियां बनाई गई हैं, इसी का फायदा खुद को क्रांतिकारी कहने वाले ये बटमार उठा रहे है, जिन्होने बंदूक को जैसे आखिरी शस्त्र मान लिया हो। इन्हे यह जरूर याद रहे कि लोकतंत्र लाख लचीला हो मगर उसके लचीलेपन की भी एक सीमा है, इसलिए जिस दिन यह सीमा टूटेगी और हवाई-हमले जैसे अनेक तरीके उपयोग में लाए जाएंगे तब किसी पत्थर या झाड़ी के पीछे ये कथित क्रांतिकारी छुपते और अपनी जान बचाते नजर आएंगे। 
ये कैसी क्रांति है, जिसे लाने के लिए ये अराजक उन्मादी मासूम बच्चो का गला रेत रहे हैं। जिन बच्चो को स्कूल में बारहखड़ी पढऩा चाहिए वो एंबुश बिछा रहे है। जिस जवान के कंधों पर घर और समाज की जिम्मेदारी होनी चाहिए वो कंधे बंदूक लिए घूम रहे हैं। लोगों के हिस्से से उनका उजाला छीना जा रहा है और ये सारे काम कनपटी पर बंदूक रखकर कराए जा रहे हैं। जवानों के खून से बस्तर को लाल किया जा रहा है। क्या ये जवान उसी आम-जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते जिनके हक कि लड़ाई का कथित दम ये कायर भरते है। क्या जंगल के अंदर और जंगल के बाहर रहने वाले आम-जनता में भी इन फिरौतीखोरों को फर्क दिखता है? 
76 जवानों की शहादत, सचमुच दिल को दुखाने वाली है...मगर यह नक्सलियों की वीरता का सबूत नहीं है, यह कोई साहस नहीं है, यह सिर्फ मुंह बिचकाने वाली बात है। मै यहां तक कहूंगा कि ये कायर है और इनकी कायरता का सबूत है इनके कंधों पर लटकी बंदूक, इन्हे पता है कि इनकी सारी तानाशाही सिर्फ और सिर्फ बंदूक के बल पर चल सकती है मगर, इन्हे शायद पता नहीं इसी बंदूक की दम पर गरजने वाले लिट्टे का इसी बंदूक ने क्या हाल किया। जो लिट्टे का अतीत है वही इनका भविष्य है। 
लोकतंत्र  का लचीलापन इसलिए होना चाहिए कि कोई बेगुनाह अन्याय का शिकार न हो मगर, जब इसी लचीलेपन का कुछ मक्कार फ़ायदा उठाने लगे तब मेरा मानना है कि लोकतंत्र को बचाने के लिए अगर तानाशाह भी होना पड़े और इन जैसे सिरफिरों के सफाए के लिए कड़े कदम भी उठाए जाने से परहेज नहीं किया जाना चाहिए। लोकतंत्र के वो सारे हिस्से जो उसकी विशेषता हैं उसको उसकी कमजोरी बनने से रोकना लोकतंत्र को बचाये रखने के लिए अत्यंत  आवश्यक दिखता है। खुद को क्रांतिकारी कहने वाले लोगों को यह भी पता होना चाहिए कि क्रांति व्यवस्था बदलने का नाम है और यह विशुद्ध रूप से उसे बदलने के लिए अपनाए गए तरीकों पर निर्भर करती है। आज आप बंदूक और संगठन के दम पर सत्ता और ताकत अपने हाथ मे लेंगे, कल कोई दूजा प्यादा बड़ा संगठन और बंदूक लेकर आपको बाहर फेंक देगा और अंततोगत्वा हर चीज का फैसला वहा सिर्फ बंदूक से होगा। 
इन तथाकथित क्रांतिकारियों का यह समाज कितना वीभत्स हो सकता है इसकी कल्पना तक असंभव सी दिखती है। इसलिए यह आवश्यक है लोकतंत्र खुद बंदूक उठा ले और बंदूक से दुनिया बदलने वालों को यह दिखा दे कि बंदूक के बल पर न कभी कुछ बदला है न ही कुछ बदलेगा। किसी हत्यारे को लोकतंत्र यह छूट नहीं दे सकता कि जाइए हमारा भरोसा तो बंदूक में नहीं है इसलिए आप खुलेआम लोगों का गला काटते फिऱें। मेरी पूरी सिफारिश है कि लोकतंत्र को भी तलवार चलाना आना चाहिए, जरूरी नहीं कि इसका उपयोग कर किसी पर आक्रमण करना है मगर, इसलिए जरुरी है कि जब कोई सिरफिरा तलवार लेकर आपको चुनौती दे तब लोकतंत्र और निर्दोष जनता की रक्षा के लिए आप इसका उपयोग करने में समर्थ हों । 
माओ और लेनिन का दम भरने वाले उनके पोतों को ये पता होना चाहिए कि माओ और लेनिन के अच्छे होने से इनके अच्छे और बुरे होने में कोई फ़र्क नहीं पड़ता। तुम्हारे अच्छे अतीत से तुम्हारा कलंकित वर्तमान नहीं धुलता और वर्तमान चीख- चीख कर यह कह रहा है कि तुम एक कायर बटमारों का संगठन हो जो फिरौती खाने और लोगों के खून से होली खेलने का आदी हो गया है। 
नक्सलवाद जैसी विकराल और जटिल समस्या पर कांग्रेस की राजनीतिक कबड्डी अत्यंत निराश करने वाली है। नेता देश के सबसे मौकापरस्त लोग होते है यह बात इन्होने कल उपद्रव करके सिद्ध किया। आज नौटंकी करने वाली कांग्रेस को यह याद नहीं आता कि इस पार्टी ने सलवा- जुडूम जैसे मुद्दे पर तटस्थ रहने का निर्णय लिया था (?) तब ये चिल्लपों सुनाई नहीं देती थी। दर-असल एक कुर्सी बचाने में लगा है तो दूजा कुर्सी हथियाने में। और इस बीच जवान-निरीह आदिवासी पिसे जा रहे हैं। इनका विरोध बस इतना है कि उसे कुर्सी से उतारो और हमें कुर्सी में बिठा दो। आज लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि तंत्र बनाया तो जनता के इस्तेमाल के लिए गया मगर, आज जनता ही इस तंत्र के हाथों इस्तेमाल हो रही है। ऐसी ही खामियों के चलते नक्सलवाद जैसा अराजक उपद्रव यहां अपनी जगह बना पाता है। इसलिए एक तरफ़ तो यह जरूरी है कि नक्सलवाद जैसे अराजक उपद्रव को हथियार के दम पर ही सही मगर, माकूल जवाब दिया जाए और उन्हे याद दिलाया जाए कि लोकतंत्र इतना कमजोर नहीं कि कोई उन्मादी इसे बंदूक कि नोंक पर खत्म कर देगा। साथ ही दूसरी तरफ लोकतंत्र की सारी खामियों को चुन-चुन कर ठीक किया जाए और जरूरत पड़े तो संविधान के सारे पन्ने खंगाले जाएं और तंत्र के ढांचे मसलन न्याय, मीडिया इत्यादि को समय की मांग के अनुरूप सुधारा जाए। जनता भी चौकन्नी होकर यह देखे कि नक्सलवाद जैसे मुद्दे पर राजनीति नहीं हो और अगर कोई ऐसा करे तो जनता को अपने सारे पुराने जूते इन कुर्सी के जोंकों पर अर्पण करने से भी गुरेज नहीं करना चाहिए। 
इस भयानक घटना में जिन्होने अपने परिजन खोए उनका दुख मेरे ये शब्द दूर नहीं कर सकते फिर भी शब्द के सहारे वह रखने कि कोशिश कर रहा हूं जो शायद उनको दिलासा दे। प्रेम शब्द नहीं है वह शब्द से कहीं आगे की बात है मगर अभिव्यक्ति शब्द से ही होती है। उन अमर जवानों को विनम्र श्रद्धांजलि। इस आशा के साथ कि अपने हक के पैसे के लिए कम से कम इन जवानों के परिवार वालों को घूस ना देनी पड़े?
संयुक्त अरब अमीरात
दीपक शर्मा छत्तीसगढ के राजिम नगर के पास एक गांव के मूल निवासी है वर्तमान मे संयुक्त अरब अमीरात के सीमेंट प्लांट मे कार्यरत है. इनका "विप्लव" नाम से एक ब्लाग था जिसे इन्होने डिलीट कर दिया. दीपक भाई बहुसक्रिय हिन्दी ब्लागर थे. दीपक भाई आजकल छत्तीसगढ के मुद्दो पर पैनी नजर रखते है और क्षेत्रीय समाचार पत्रो के सम्पादकीय पन्ने पर इनके विचार आलेख प्रमुखता से प्रकाशित होते है. मेरे जैसे छत्तीसगढ के अतिसक्रिय हिन्दी ब्लागरो को दीपक भाई से सीख लेनी चाहिये. ..... संजीव तिवारी

फीडबर्नर सब्‍सक्राईबर मेल में अपने पोस्‍ट के फोंट साईज को बडा करना

पिछले चार दिनों से मेरे एक फीडबर्नर मेल सब्‍सक्राईबर श्री आनंद कुमार भट्ट जी का मेल आ रहा था कि मेरे पोस्‍ट जो उन्‍हें फीडबर्नर के द्वारा प्राप्‍त हो रहे हैं उन्‍हें वे पढ नहीं पा रहे हैं क्‍योंकि मेल से प्राप्‍त पोस्‍ट में फोंट का साईज काफी छोटा है यद्यपि वापस टिप्‍पणी सहित प्राप्‍त मेल में फोंट साईज ठीक नजर आ रहा है. इस प्रकार की समस्‍या कथा चक्र के फीड मेल में  है.
मैं पिछले चार दिनों से इस समस्‍या का हल फीडबर्नर में खोजने का प्रयत्‍न कर रहा था किन्‍तु हल नहीं मिल पा रहा था. आज हमें इसका हल प्राप्‍त हुआ और हमने फोंट का साईज बढा दिया है. हो सकता है आपके साथ भी यह समस्‍या हो तो हम इसका समाधान यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं.

फीडबर्नर में लागईन होंवें यदि आपका एक से अधिक ब्‍लाग के फीड का एकाउंट यहां है तो जिस ब्‍लॉग के फीड का फोंट साईज संपादित करना है उसे क्लिक करें - Publicize में जावें - Email Subscriptions में जावें - Email Branding को क्लिक करें. नीचे स्‍क्रोल करें वहां फोंट साईज को बढानें व घटाने का विकल्‍प मौजूद है, पाठकों की रूचि के अनुरूप उसे बढा या घटा लेवें, सेव करें. अब आप जब पोस्‍ट लिखेंगें तो आपके फीड सब्‍सक्राईबरों को यह संपादन नजर आयेगा. इस चित्र में प्रक्रिया को तीर के चिन्‍ह के साथ बतलाया गया है -
मेरे फीडबर्नर मेल सब्‍सक्राईबरों से मेरा अनुरोध है कि इस पोस्‍ट को मेल से प्राप्‍त होने के पश्‍च्‍यात मुझे मेल से बताने की कृपा करें कि फोंट साईज उनके अनुरूप है या नहीं.

भिलाई में मिले तीन ब्‍लॉगर : मिलने-मिलाने का दौर चलता रहे

कल रविवार का दिन था यानी घर-परिवार का दिन. घर के ही बहुत सारे निजी काम थे जो मुझे निबटाने थे, बेटे और श्रीमतीजी की गुजारिश थी कि हम दिन भर उनके साथ रहें. मैं सुबह - सुबह अपने तेरह वर्षीय पुत्र को खुश रखने हेतु उसे मोटर बाईक विदाउट गियर सिखाने स्‍टेडियम के पास वाले ग्राउंड ले गया जिसे मैं काफी दिनों से टालते आ रहा था. हांलाकि यह समय मैंनें छत्‍तीसगढ़ के ख्‍यात साहित्‍यकार डॉ.परदेशीराम वर्मा जी से मिलने हेतु तय किया हुआ था. उनकी पत्रिका 'अगासदिया' का नया अंक मुझे लेना था एवं बैसाखियों पर चलती क्षेत्रीय भाषा पर होने वाले एक सम्‍मेलन पर बात करना था. किन्‍तु पुत्र को बाईक चलाना सिखाना ज्‍यादा आवश्‍यक था, आगे चलकर वही मेरी बैसाखी बनने वाला है.
रविवार के अन्‍य संभावित कार्यक्रमों में पाबला जी के साथ रायपुर फिर अभनपुर ललित शर्मा जी के पास जाने का था. पर घर को छोडकर जाने की परमिशन नहीं मिल पा रही थी. इसी बीच बिलासपुर में क्रातिदूत वाले  अरविंद झा जी का फोन आ गया था कि वे एक वैवाहिक कार्यक्रम में भिलाई आने वाले हैं और दुर्ग-भिलाई के साथी ब्‍लॉगरों से मिलना चाहते हैं. हमनें बडी मुश्किल से दोपहर के दो घंटे की छुट्टी की परमिशन ली. इधर अरविंद झा जी भिलाई पहुच गए थे और सेक्‍टर 6, बाकलीवाल भवन के वैवाहिक कार्यक्रम में सम्मिलित होकर हमसे मिलने के लिए तैयार थे. उनके साथ उनके मित्र श्री गौतम जी भी आये थे जिन्‍हें शाम को बिलासपुर वापस लौटना था जिसके लिए उन्‍हें ट्रेन जल्‍दी पकडनी थी अत: एक घंटे का सीमित समय ही हमारे पास था. हमने सूर्यकांत गुप्‍ता जीशरद कोकाश भईया को फोन किया  तय यह हुआ कि सेक्‍टर 6 से अरविंन्‍द जी को रेलवे स्‍टेशन दुर्ग जाना है तो रास्‍ते में ही स्‍टैट बैंक कालोनी सेक्‍टर 8 में सूर्यकांत गुप्‍ता भईया के घर में कुछ पल मिल बैठकर बातें की जाए. शरद भईया का सीमित समय में हमसे मिल पाना संभव नहीं था इसलिए वे नहीं आ पाये. मजेदार स्‍वल्‍पाहार व सूर्यकांत भईया के चुटकियों के साथ क्रांतिदूत से बातें हुई. ब्‍लॉगजगत की वर्तमान परिस्थितियों और ललित शर्मा जी के ब्‍लागजगत को अलविदा कहने के संबंध में चिंता जाहिर की गई. उधर इसी समय पाबला जी ललित शर्मा जी को टंकी से सकुशल वापस उतार लाये थे.
हैप्‍पी ब्‍लॉगिंग मित्रों, मिलने-मिलाने, रूठने-मनाने का दौर चलता रहे. ऐसे चलताउ पोस्‍ट के साथ ही छत्तीसगढ़ से "हजार पच्यासीवें का बाप [बस्तर में जारी नक्सलवाद के समर्थकों के खिलाफ] - राजीव रंजन प्रसाद" जैसे दमदार व विचारोत्‍तेजक पोस्‍टें आती रहे.

संजीव तिवारी

परेशान हूं मैं मेरे नाम को गलत लिखने वालों से


साथियों मेंरा नाम है संजीव तिवारी, छत्‍तीसगढ़ के स्‍थानीय पत्र-पत्रिकाओं में मेरी कलम घसीटी समय-समय पर प्रकाशित होती है. किन्‍तु प्रकाशनों में टंकण त्रुटि के कारण मेरे लेखों में कई-कई बार मेरा नाम संजीव तिवारी के स्‍थान पर 'संजय तिवारी' छपा रहता है (या छाप दिया जाता है), इससे अपने लेखों-कविताओं-कहानियों के प्रकाशन के बाद जो उत्‍साह लेखक के मन में होता है वह एक क्षण के लिए हवा हो जाता है. प्रकाशक को पत्र लिखने से आगामी अंकों में क्षमा सहित दो लाईन छपता है जिसे कोई नहीं पढता और मन मसोस कर रह जाना पडता है. 
इसी तरह क्षेत्र के लेखक साथियों के द्वारा पत्र  प्रेषित करने पर भी कई बार मुझे 'संजय तिवारी' लिखा जाता है. यह सब तो चलते ही रहता है किन्‍तु जब सही नाम से रचना के प्रकाशन के एवज में प्रकाशक महोदय द्वारा मानदेय की राशि का चेक 'संजय तिवारी' के नाम से प्राप्‍त होता है तब भूल सुधार छापने से भी काम नहीं चलता. मन कहता है कि नेम-फेम के चक्‍कर में मत पड़ा करो पर बैंक वालों को तो मैं नहीं कह सकता ना कि नाम में क्‍या रख्‍खा है.
संजीव तिवारी

गूगल की प्रतियोगिता 'है बातों में दम' का पुरूस्‍कार हमें प्राप्‍त हुआ

कल हमें एक मेल प्राप्‍त हुआ जिससे ज्ञात हुआ कि, विगत दिनों गूगल द्वारा आयोजित प्रतियोगिता 'है बातों में दम' में सहभागिता के लिए हमें रू. 3000/- का पुरूस्‍कार प्राप्‍त हुआ है.

Dear Hai Baaton Mein Dum? Contest Winner,
We apologize for the delay in the delivery of your prize.
We have been working hard over the last month to procure the internet connections that we had planned to give away as prizes. However, due to irresolvable issues with the Internet Service Provider that we had identified, we have substituted the internet connection with a bigger and better prize: a gift voucher worth 3000 Rs from Flipkart (www.flipkart.com), one of India’s premier online bookstores!
Once again, congratulations on the superb quality of your submission that earned you a prize!
Best regards,
Hai Baaton Mein Dum? Contest Team
आशा है यह पुरस्‍कार हमारे अन्‍य प्रतिभागी मित्रों को भी प्राप्‍त हुआ होगा. यह पुरस्‍कार ई-गिफ्ट वाउचर के रूप में है जो एक वर्ष के लिए प्रभावशील है. इस ई-गिफ्ट वाउचर से हम 3000/- रूपये की पुस्‍तकें lipkart.com से खरीद सकते हैं. हमने कल ही कुछ जरूरी पुस्‍तकें यहां से क्रय भी कर ली जो चार-पांच दिनों में हमें प्राप्‍त हो जावेगी. गूगल बाबा को एवं 'है बातों में दम' टीम को धन्‍यवाद. 

संजीव तिवारी

तथाकथित मानवाधिकार वादियों बस्‍तर के आदिवासियों को मुहरा बनाना बंद करो

पिछले दिनों छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के गलियारों से एवं समाचार पत्रों से प्राप्‍त जानकारी छत्‍तीसगढ़ के लिए तो चौंकाने वाला नहीं है किन्‍तु यह उन तथाकथित वनवासियों के शुभचिंतकों के लिए अवश्‍य चौंकाने वाला है. इस समाचार से यह स्‍पष्‍ट हो गया है कि तथाकथित मानवाधिकार वादी बस्‍तर के आदिवासियों को मुहरा बनाकर किस प्रकार से सरकार के विरूद्ध खेल खेल रहे हैं. इस समाचार नें उन सभी याचिकाओं की पोल खोल दी है जो तथाकथित मानवाधिकार वादियों के द्वारा हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक विभिन्‍न न्‍यायालयों में दायर की गई हैं. यह समाचार छत्‍तीसगढ़ के विभिन्‍न समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ है जिसे हमने अपने ब्‍लॉग जूनियर कौंसिल में भी प्रकाशित किया है. समाचार यह है -

नक्‍सल क्षेत्र दंतेवाड़ा जिले के एर्राबोर थाने का मामला

छत्तीसगढ हाईकोर्ट के १० वर्षों के न्यायालयीन इतिहास में यह पहला मामला है जब याचिकाकर्ता ने कोर्ट में उपस्थित होकर किसी तरह की याचिका दायर करने से ही इनकार कर दिया। जिस याचिका पर हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच में सुनवाई हो रही है उसमें एर्राबोर पुलिस पर आरोप लगाया है कि उसके पिता व बहन को गायब कर दिया गया है। पिछले सात महीने से इस याचिका पर डिवीजन बेंच में सुनवाई चल रही थी।

  • कोर्ट में आया अनुवादक

सिन्ना चूंकि हिंदी न तो बोल पाता है और न ही समझ पाता है। वह गोडी बोली बोलता और समझता है। इसे देखते हुए कोर्ट ने अनुवादक की व्यवस्था करने के निर्देश शासन को दिए थे। लिहाजा, अनुवादक के माध्यम से कोर्ट ने अपना सवाल किया। इस दौरान उन्होंने इस तरह का खुलासा किया।
यह चर्चित मामला दंतेवाड़ा जिले के एर्राबोर थाने की लेदरा ग्राम पंचायत के ग्राम दरभागुड़ा का है। यहां के निवासी विंगोसिन्ना ने १८ सितंबर २००९ को अपने वकील के जरिए बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की थी। याचिका में पुलिस पर आरोप लगाते हुए कहा था कि अप्रैल-मई २००८ को उसके पिता वेकोदुल्ला व बहन वेको बजरे को पुलिस बलात्‌ उठाकर ले गई। याचिकाकर्ता ने कहा कि जिस वक्त पुलिस वहां पहुंची तो उसके परिवार के अन्य सदस्य जंगल की ओर भाग गए। लिहाजा, पुलिस उसे पकड़ नहीं पाई। याचिका में पिता व बहन को पुलिस के चंगुल से छुड़ाने के लिए पुलिस महानिदेशक व पुलिस अधीक्षक से शिकायत करने पर कोई कार्रवाई नहीं करने का आरोप भी लगाया गया है। इस मामले की सुनवाई डिवीजन बेंच में चल रही थी। इसी बीच १ फरवरी २०१० को याचिकाकर्ता के वकील ने हाईकोर्ट में इस बात की जानकारी दी कि याचिकाकर्ता से उसका कोई संपर्क नहीं हो पा रहा है।

  • चेतना परिषद पर लगाया आरोप

सिन्ना ने आदिवासी चेतना परिषद के पदाधिकारियों पर आरोप लगाते हुए कहा कि उसके अलावा कई और आदिवासियों को चेतना परिषद के पदाधिकारी दो बार बिलासपुर लेकर आए थे। इसी दौरान कई दस्तावेजों पर उसके हस्ताक्षर लिए गए थे। किस बात के लिए हस्ताक्षर लिए गए थे इसकी जानकारी उसे नहीं है।
वकील की शिकायत को गंभीरता से लेते हुए डिवीजन बेंच ने याचिकाकर्ता की खोजबीन करने व कोर्ट में उपस्थित करने के लिए शासन को नोटिस जारी किया था। डिवीजन बेंच के निर्देश के बाद पुलिस ने २३ मार्च २०१० को याचिकाकर्ता विंगोसिन्ना को डिवीजन बेंच के समक्ष पेश किया। याचिकाकर्ता के वकील ने अपने मुवक्किल के रूप में उसकी पहचान की। डिवीजन बेंच द्वारा पूछताछ के दौरान याचिककर्ता ने कोर्ट के समक्ष सनसनीखेज खुलासा करते हुए कहा कि उसने किसी तरह की कोई याचिका हाईकोर्ट में दायर ही नहीं की है। और न ही पुलिस पर किसी तरह का आरोप लगाया है। विंगोसिन्ना ने इस बात की जानकारी कोर्ट को दी कि उसके पिता व बहन पिछले कुछ दिनों से गायब हैं। इस पर जस्टिस धीरेंद्र मिश्रा व जस्टिस आरएन चंद्राकर की डिवीजन बेंच ने दंतेवाड़ा एसपी को सिन्ना के पिता व बहन की खोजबीन करने के निर्देश दिए। साथ ही याचिका को निराकृत कर दिया है।

इस समाचार की सत्‍यता जानने के बाद सुप्रीम कोर्ट में लगाए गए बस्‍तर संबंधी विभिन्‍न याचिकाओं पर भी मन में शंका हो रही है कि वे इसी तरह से फर्जी तो नहीं हैं. हांलांकि इस समाचार के विरोध में तथाकथित मानवाधिकार वादी यह भी कहने से नहीं चूकेंगें कि सरकार व पुलिस किसी अन्‍य व्‍यक्ति को न्‍यायालय में प्रस्‍तुत कर याचिकाकर्ता के रूप में प्रस्‍तुत कर रही है, या याचिकाकर्ता को धमकाया गया है. 6/4 के निर्मम घटना के बाद भी  विदेशों में व दिल्‍ली में बैठे बुद्धजीवी इन फर्जी मानवों के खून चूसने वालों पर विश्‍वास करती है तो बौद्धिकता पर शर्म आती है.

संजीव तिवारी

बस्‍तर के चिंतलनार में शहीद जवानों के लिए .....

अफ़शोस कि तू मर गया
गुजरे दिनों की समाचार की तरह
दुख है कि तुझे
जांबाजी से लड़ते हुए
वे देख नहीं पाये
वो देखना भी नहीं चाहते थे
क्‍योंकि वे नहीं जानते जांबाजी किसे कहते हैं

जंगल वार कालेज की हुनर
कोई काम ना आई
ज्ञान जो काम ना आये
वो किस काम का
मगर दुश्‍मन बुजदिल हो, कायर हो
तो हर अभिमन्‍यु ऐसा ही मारा जाता है
उसके लिए कोई अरूंधती रूदाली नहीं पढ़ती
और कोई एलीट कलमा नहीं पढ़ता

मेरे शहीद, मेरे भाई, मेरे मित्र
क्‍या नाम था तेरा, क्‍या पहचान था तेरा
मैं नहीं जानता, पर उन पिचहत्‍तर लाशों में
हर लाश मेरा अपना था.
मेरे अपने वीर सिपाही
तुम्‍हें मेरा बारंबार नमन

संजीव तिवारी

पं. माखनलाल चतुर्वेदी की यादें बिलासपुर जेल से

4 अप्रैल - जयंती विशेष
बिलासपुर में द्वितीय जिला राजनीति परिषद का अधिवेशन सन् 1921 में हुआ जिसकी अध्यक्षता अब्दुल कादिर सिद्धीकी ने की। स्वागताध्यक्ष यदुनन्दन प्रसाद श्रीवास्तव तथा सचिव बैरिस्टर ई. राघवेंद्र राव थे। इसमें ठाकुर लक्ष्मणसिंह चौहान, श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान एवं पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने भाग लिया था। अधिवेशन शनिचरी पड़ाव में आए सर्कस पंडाल में हुआ था। प्रकाश व्यवस्था तब आटोलक्स, पेट्रोमेक्स तथा कोलमेन क्विक लाइट से करते थे। बिजली तब यहां थी नहीं । तेजस्वी वक्ता पं. माखन लाल चतुर्वेदी अधिवेशन को सम्बोधित कर रहे थे कि पेट्रोमेक्स बुझ गया। व्यवस्थापक उसे जलाने में जुटे थे कि उन्‍होंने कहा ‘जैसे यही बत्ती बुझ गई ऐसे ही अंग्रेजों की बत्ती बुझ जाएगी’ कुछ ही क्षणो में पेट्रोमेक्स जल गया तब उन्‍होंने कहा 'और जैसे फिर से प्रकाश फैल गया वैसे ही स्वतंत्रता का प्रकाश चतुर्दिक फैल जाएगा।' सहज रूप में कही गई मनपसंद इस बात पर कई मिनट तालियां बजती रही। जय-जय कार होने लगा। अंग्रेज इससे इतने कुढ़ गए कि उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया।
16 जून व 20 जून की पेशी दी गई। उस दिन फैसला सुनने करीब दो हजार लोग राष्‍ट्रीय झंडा लिए राष्‍ट्रीय गाने गाते और जयघोष करते श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान आदि के साथ अदालत पहुंचे। जिले भर के थानेदार और अनेक सिपाही यहां तैनात थे। पुलिस अधीक्षक मिटीएम कालिन्‍स शांति न रखने पर बल प्रयोग करने की धमकी दे रहे थे। श्रीयुत राघवेन्द्र राव पं. रविशंकर शुक्ल, दाउ घनश्याम सिंह गुप्त, पं. माधव राव सप्रे, पं. सुन्‍दरलाल शर्मा, मौलाना ताजुदीन, बैरिस्टर ज्ञानचंद वर्मा आदि उपस्थित थे। इंडिपेंडेंट, दैनिक प्रताप राजस्थान केसरी, तिलक, कर्मवीर आदि के प्रतिनिधि वहां पहुंच गए थे। 11.30 बजे मि. व्हाइट, डीआईजी द्वारा एक हिन्‍दुस्तानी अफसर के साथ चतुर्वेदीजी को मोटर से लाया गया। सुभद्राजी ने पंडितजी को फूलों का हार पहनाया। मि. पेजली सरकारी वकील बीमारी के कारण अनुपस्थित थे अत: पेशी 25 जून के लिए बढ़ा दी गई।
मजिस्ट्रेट श्री पारथी ने 5 जुलाई 1921 को 8 माह के कठोर कारवास की सजा सुनाई कुछ ही दिनों बाद मजिस्ट्रेट की मृत्यु हो जाने पर लोगों को लगा दैवी कार्य करने वाले को सजा देने का फल मिल गया। पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने अदालत में अपना वक्तव्य अंग्रेजी में दिया था। बिलासपुर जेल से जो जानकारी मिल सकी उसके अनुसार चतुर्वेदी जी पर धारा 124/अ के तहत राजद्रोह का अभियोग लगाया गया था। नाम माखनलाल वल्द नन्‍दलाल, निवास स्थान थाना जबलपुर। क्रिमिनल केस नं. 39 तथा उनकी अवस्था 32 वर्ष थी। इनका कैदी नं. 1527 था। वे 1 मार्च 1922 को केंद्रीय जेल जबलपुर स्थानांतरित किए गए।

बिलासपुर जेल में ही उन्‍होंनें अपनी यह प्रसिद्ध कविता लिखी थी -

चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूथा जाऊँ
चाह नहीं प्रेमी माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ
चाह नहीं सम्राटों के
शव पर हे हरि डाला जाऊँ
चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूँ भाग्य पर इतराऊँ
मुझे तोड़ लेना बनमाली
उस पथ पर तुम देना फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जाएँ वीर अनेक

उस महामानव को जिसने अगणित तरुणों को स्वतंत्रता समर में स्वयं को समर्पित करने की भव्य भावना की प्रेरणा दी। अभाव में आजीवन रहे पर उफ तक नहीं किया तथा लौह लेखनी से राष्‍ट्रीयता की ऋचाएं लिखी उन्‍हें शतश: नमन।
जमुना प्रसाद वर्मा एवं मुरलीधर मिश्र से प्राप्त जानकारी के अनुसार श्यामलाल चतुर्वेदी जी द्वारा लिखे गए आलेख के अंश.

मंच नहीं, भूमि होती है बस्तरिया नाट में : योगेंद्र ठाकुर

हर समाज, देश और प्रांत में अपना नाट्य रंग है। बस्तर के उड़ीसा सीमाई क्षेत्र में "नाट" का अपना अलग जलवा है। यही वजह है कि ऋतु परिवर्तन के साथ ग्रामीण नाट करने टोली के साथ निकल पड़ते हैं और दर्शक सारी रात खुले आसमान के नीचे बैठकर इसका आनंद लेते हैं। बस्तर के ग्रामीणों को नाट देखने या दिखाने के लिए किसी दिवस विशेष की जरूरत नहीं होती। नाट को ये जन्म से लेकर मृत्यु तक के हर संस्कार और समारोह का हिस्सा मानते और आमंत्रित करते हैं। जन्मोत्सव पर जहाँ श्रीकृष्ण और श्रीराम जन्म का पाठ करते हैं,वहीं मृत्यु भोज के दौरान राजा हरिश्चंद व मुंदरा माँझी को कलाकार जीते है। विवाह के दौरान शिव-पार्वती, राम-सीता विवाह का प्रसंग होता है। इसके अलावा अब शासकीय योजनाओं के संदेशों का भी नाट में कमर्शियल ब्रेक की तरह उपयोग होने लगा है। यहाँ कलाकार और दर्शक के बीच दूरी नहीं होती। क्योंकि नाट में नृत्य, गीत, संगीत, संवाद, साज-सज्जा, सहजता और सरल बोली होती है। जिसे दर्शक अपने आसपास के कलाकारों से पाता है और सारी रात खुले मैदान में गुजार देता है। रंगकर्मी और बस्तर नाट पर कार्य कर रहे रुद्रनारायण पाणिग्राही का कहना है कि उड़िया-भतरी नाट को राज्य सरकार संरक्षण और उचित मंच दे तो यह भी राज्य व विश्व में अपनी अलग छवि बना पाएगा अन्य आधुनिकता की होड़ में फिल्मी संगीत में खो जाएगा।
नाट कलाकार भी जमीन से जुड़े होते हैं और उनके गाँव की पहचान भी नाट पार्टी और कलाकारों से की जाती है। वे व्यावसायिक कलाकार न होकर शौकिया और अपनी व गाँव की पहचान बनाए रखने नाट खेलते हैं। अलबत्ता स्पर्धाओं में भाग लेकर अपनी विशेषता दर्शाते हैं। नाट में एक गुरु होता है, जो कथा पाठ के साथ सभी पात्रों के संवाद भी बोलता है। जबकि कलाकार केवल भाव भंगिमा प्रस्तुत कर लोगों को बाँधे रखते हैं। इनकी वेशभूषा भी तड़क-भड़क और रंगबिरंगी होती है। इसमें लहँगा, चोली, झापा, माला, साड़ी, टोपी और लकड़ी से तैयार हाथी-घोड़े और हथियार होते है। जबकि वाद्य यंत्रों में हारमोनियम के साथ मृदंग, मंजीरा, करताल, झाप, तुड़बुड़ी, मोहरी जैसे पारंपरिक यंत्र होते है।
बस्तरिया नाट में महिला पात्र को जीने के लिए महिला कलाकार नहीं होती। इसे पुरुष ही बड़ी सहजता के साथ निभाता है और दुर्गा के रौद्र रूप के साथ सीता क सहज रूप का श्रृंगार पुरुष ही धरता है. बस्तर के लोक नाट्य की सबसे बड़ी परंपरा यह होती है कि उसका कोई रंगमंच नहीं होता। यदि होता भी है तो वह है रंगभूमि, जो बस्तरिया नाट में मिलता है। यह मंच खुले आसमान और खुले मैदान में होता है जहाँ दर्शक तीन तरफ से बैठकर नाट का आनंद लेते हैं।

योगेंद्र ठाकुर

आयोजन - समाजरत्न पतिराम साव अलंकरण समारोह सम्पन्न

रामेश्‍वर वैष्णव और डा.सुखदेव साहू सम्मानित

'गांधीवादी विचारधारा, जीवन शैली और संस्कारों से युक्त पतिराम सावजी को देखकर सहसा मुझे लाल बहादुर शास्त्री का स्मरण हो आता था। सावजी अपनी कद काठी, गांधी टोपी और अपनी स्वाभाविक विनम्रता में शास्त्री जी के समान व्यक्तित्व लगा करते थे। उनकी दृष्टि में मिलने वालों के प्रति बड़ा महत्व होता था। इस तरह की विशेषताएं उनके व्यक्तित्व को और भी बड़ा बनाती थीं।' उक्त उद्गार प्रसिद्ध वक्ता एवं विचारक कनक तिवारी ने समाजरत्न पतिराम साव सम्मान समारोह में मुख्य अतिथि की आसंदी से व्यक्त किए। समारोह की अध्यक्षता कर रहे संसदीय सचिव विजय बघेल ने अपने छत्तीसगढ़ी उद्बोधन में कहा कि 'हमर दुर्ग जिला ह स्वतंत्रता सेनानी अउ समाजसेवी मन के छत्तीसगढ़ के सब ले बड़े गढ़ रहे हे.. जेन मन इहां के समाज ला आगू बढ़ाय बर बड़े काम करे हवयं। ऐमा पतिराम सावजी हा अइसन समाजसेवी रिहिन हवयं जेन जमीनी स्तर पर अपन काम करके देखाइन हवयं। आज भी साहू समाज में अउ साव परिवार में अइसना संस्कारी मन हवयं जउन मन समाज बर काम करे बर आगू आत हवयं।’ कार्यक्रम के विषेष अतिथि छत्तीसगढ़ सहकारी समिति, भिलाई के अध्यक्ष अनूप शर्मा ने कहा कि 'हमारी सहकारी समिति द्वारा छत्तीसगढ़ के महापुरुषों पर कार्यक्रम करने की पहल समय समय पर की जाती है। सावजी पर संपादित ग्रन्थ ’मैं अमर आत्मा हूं’ का लोकार्पण छत्तीसगढ़ भवन भिलाई में करने का अवसर एवं सौभाग्य हमें मिला था।’

इस वर्ष अपनी दीर्घकालीन साहित्य साधना के लिए हास्य व्यंग्य के प्रसिद्ध कवि रामेश्‍वर वैष्णव को तथा शिक्षा एवं समाजसेवा के लिए डा. सुखदेव साहू ’सरस’ को शॉल, श्रीफल और अभिनंदन पत्र से अलंकृत किया गया। सम्मान अलंकरण ग्रहण करने के बाद रामेश्‍वर वैष्णव ने अपनी हास्य व्यंग्य की कविताओं से श्रोताओं को खूब ठहाका लगवाया। प्रयोगधर्मी कवि ने छत्तीसगढ़ी में क्रिस्मस सांग और बाबूलाल भिखमंगा कविता को अपनी चिर परिचित शैली में प्रस्तुत कर खूब समा बांधा। रायपुर से पधारे डा.सुखदेव साहू ’सरस’ ने ’साव जी से मिले संस्कारों का जिक्र किया।’

’साहू सदन’ केलाबाड़ी, दुर्ग में 14 मार्च को आयोजित इस कार्यक्रम में अभिनंदन पत्र का वाचन वीथिका साहू व प्रो. रुख्मणी साव ने किया। अतिथियों का परिचय विनोद साव ने तथा स्वागत भाषण केशरलाल साहू ने दिया। आभार प्रदर्शन प्रो. ललितकुमार साव ने और कार्यक्रम का संचालन सुबोध साव ने किया। आरंभ में अतिथियों का पुष्पगुच्छ से स्वागत प्रभा सरस, विद्या गुप्ता, मीना शर्मा, नीता कम्बोज, प्रदीप भट्टाचार्य तथा अन्य ने किया। इस अवसर पर साहू समाज के गणमान्य नागरिकों के बीच साहित्यकार परदेशीराम वर्मा, बसंत देशमुख, रवि श्रीवास्तव, अशोक सिंघई, गुलबीर सिंह भाटिया, डा. निर्वाण तिवारी, रघुवीर अग्रवाल पथिक एवं अनेक प्रबुद्धजन भारी संख्या में उपस्थित थे।

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

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