आलेख : रामहृदय तिवारी
प्रकृति बोलती है, कभी क्रोध से, कभी करूणा से, कभी दुत्कार से तो कभी दुलार से । भौंचक मनुष्य समझ नहीं पाता, सिर्फ महसूस करता है प्रकृति की अनंत बोलियों को । मनीषी कहते हैं प्रकृति की सारी ध्वनियॉं अज्ञात अनंत सत्ता की सांकेतिक अभिव्यक्तियॉं है । तत्व दर्शियों ने इन्हें अनहद नाद कहा, कभी अल्लाह कहा, कभी यहोवाह, कभी आमेन तो कभी ओम । कहते हैं कि स्रष्टि की सारी ध्वनियों का, सारी बोलियों और भाषाओं का स्रोत यह उँ ही है । यह अनहद नाद समूचे ब्रम्हाण्ड में परिव्याप्त है । मनुष्य का शरीर भी इस नाद का केन्द्र बिन्दु है, जहां से नि:स्रत होती है । विभिन्न घ्वनियां । मनुष्य ने इस घ्वनियों को शब्दों में ढालकर ग्राहा और संप्रेषणीय बना दिया है । संसार की सारी बोलियां मनुष्य के सतरंगी मनोभावों की उद्दाम परिणतियां हैं । विश्व की तमाम बोलियां हमारी उत्कट भावनाओं के प्रतिफलन और हमारी सामाजिकता की आधारशिलाएं हैं । बोलियों को मनुष्य ने कब बोलना सीखा, हम नहीं जानते, लेकिन क्यों और कैसे बोलना सीखा- इसका पर्याप्त प्रमाण है – हमारे पास ।
लगभग तीन हजार भाषाओं वाले इस सभ्य संसार में अनगिनत बोलियां है । उन सबकी अलग अलग अभिव्याक्तियां मानव जाति की अमूल्य धरोहर है । बोलियां सांस्क्रतिक जगत की श्रेष्ठतम उपलब्धियों में एक है । अलग- अलग तेवर, तर्ज और रंग होने के बावजूद सारी बोरियों की गंध एक ही है । - माटी की गंध । माटी चाहे वह किसी भी देश, प्रान्त या अंचल की हो, उसकी आत्मा में बस एक ही तडप होती है – फूल बनकर लिखने की, हरियाली बनकर लहलहाने की । मनुष्यता के साथ जीने की । रंगो, नस्लों, कौमों, मजहबों और सरहदों के पास बोलियों की यही तडप उनकी सबसे बडी पहिचान है, सबसे बडी ताकत है ।
जैसा कि हम जानते हैं, दुनिया के नक्शे में एक जगमगाता हुआ देश है, हिन्दुस्तान । हिन्दुस्तान के ह्रदय स्थल के रूप में सोलह जिलों को अपनी बाहों में समेटे, एक प्यारा अंचल है छत्तीसगढ, जो अब स्वयं नए राज्य के रूप में आकार ले चुका है । धान का कटोरा नाम से सुविख्यात इस गमकते हुए छत्तीसगढ राज्य की शस्य श्यामला धरती में ऐसा बहुत कुछ है जिसकी मोहकता, मादकता और माधुर्य पर हम न्यौछावर हैं । यहां बोली जाने वाली छत्तीसगढी बोली भी उन्हीं में से एक है । दक्षिणापथ, दक्षिण कौशल, महाकान्तार और दण्डकारण्य जैसे प्राचीन संबोधनों से सुशोभित हमारा छत्तीसगढ, संस्क्रति, पर्व और परंपराओं का मानसरोवर है । जैसे लहरों के बिना सरोवर सूना और श्रीहीन है, वैसे ही बोलियों के बिना अंचल । छत्तीसगढी केवल बोली ही नही, इस अंचल की धडकन है । छत्तीसगढी एक ऐसी बोली है, जिसके साथ समूचे छत्तीसगढ प्रान्तर की आत्मीयता, आवेग, आदर और स्वाभिमान की भावनाएं जुडी हुई हैं । इसकी ध्वनियां सरगुजा की सरहदी पहाडियों से बस्तर के सघन वनों तक, बिलासपुर जिले के खंडहरों से राजनांदगांव की डोंगरियों तक अपने पूरे वैभव सामर्थ्य और अर्थवत्ता के साथ प्रतिध्वनित होती है । उसकी आभा मैकल के आर-पार बिखरती है । छत्तीसगढी बोली इस अंचल की आंतरिक सुषमा और उसका बाह्य श्र्रंगार है । इसकी सरसता, सरलता, माधुर्य और लचीलापन मन को बरबस मोह लेता है । एक उदाहरण देखें :
धरम धाम भुइंया छत्तीसगढ,
महानदी के धार जेकर चरन पखारथे,
जिहां राजीव लोचन सौंहत बिराजथे,
माटी जिंहा सोन के लोंदा अउ मनखे जइसे चंदैनी गोंदा, रागी,
अब ओखर कतेक करौं मैं बन्दन,
धुर्रा फुदकी घलो जिंहा मलागर के चन्दन ।
छत्तीसगढी बोली के कोषागार में सरस लोक-गीत है, सम्रद्व लोकगाथाएं हैं, कथाएं हैं, पहेलियां, किंवदंतियां, कहावतें और मुहावरे हैं । पंथी, पंडवानी, करमा, ददरिया जैसे लोकगीतों के साथ छत्तीसगढी लोकनाट्य नाचा तो अंचल में ही नहीं, विश्व के मंचीय जगत में विख्यात है । नाचा, जीवन केन्द्रित एक ऐसी लोकनाट्य विधा है जिसमें मनोरंजन और लोक शिक्षण का दुर्लभ संयोग देखा जा सकता है । नाचा छत्तीसगढी बोली का सर्वाधिक स्पष्ट, मुखर और नयनाभिराम आईना है । पंडवानी महाभारत के अमर पात्रों की शौर्य गाथा का छत्तीसगढी संस्करण है । पंडवानी के नाम से किसी महाकाव्य का लोक शैली में गायन छत्तीसगढी बोली की अन्यतम विशेषता है । पंडवानी छत्तीसगढ की लोकवाचिका परम्परा का श्रेष्ठतम उदाहरण है । ददरिया छत्तीसगढी लोकगीतों की राजललना है । बिहारी के दोहों की भांति तीखापन और व्यापक अर्थवत्ता लिए ददरिया में ग्रामीण युवा ह्रदयों की सहज सुकुमार भावनाएं तरंगायित होती है । क्रषि प्रधान इस अंचल के लिए ददरिया, श्रमशक्ति संचार और श्रम परिहार का सहज सुलभ साधन है । सुवागीत में नारी-पंगों के मंडलाकार गतिचक्र और हथेलियों की समरस लयबद्वता के साथ-साथ छत्तीसगढी बोली के कल-कल निनादी प्रवाह का मोहक समन्वय है । आत्मा के प्रतीक सुवा को संबोधित सुवा गीत में नारी विरह वेदना ही आकुल अभिव्यक्ति ही नहीं, अंततोगत्वा इष्ट के एकाकार होने की चरमचाह और सर्वजन कल्याण की उदात्त भावनाएं हैं ।
शोधकर्ताओं के अनुसार छत्तीसगढ के पूर्व में उत्तर दक्षिण उडीषा भाषा का विस्तार है । इस संक्रांति क्षेत्र की बोली लरिया के नाम से जानी जाती है । दक्षिण में मराठी के प्रभाव से छत्तीसगढी का जो रूप प्रचलित है उसे हल्बी की संज्ञा मिली है । उत्तर में भोजपुरी का प्रभाव है । बोधगम्यता और आंतरिक एकरूपता की द्रष्टि से छत्तीसगढ के सोलह जिलों की इस बोली को ही छत्तीसगढी बोली के नाम से पुकारा जाता है । अधिकाश विद्धान मानते हैं कि यह बोली अर्ध-मागधी की दुहिता और अवधी की सहोदरा है । छत्तीसगढ से प्राप्त शिलालेखों में अवधीपन का स्पर्श और रामचरित मानस में छत्तीसगढी शब्दों का बाहुल्य अवधि छत्तीसगढी की अंतरंगता को प्रमाणित करता है । ऐसा माना जाता है कि आज से लगभग 1080 वर्ष पूर्व अर्धमागधी के गर्भ से छत्तीसगढी बोली का जन्म हुआ । इन हजार वर्षो में इस बोली पर अन्य भाषाओं की छाया पडती गई । उत्तरोत्तर उसका स्वरूप परिवर्तित होता गया । आज यह बोली अपने सम्रद्ध लोक साहित्य के कारण, बोली के स्तर से उठकर भाषा के सिंहासन पर आरूढ होने की स्थति में आ पहुंची है ।
छत्तीसगढी बोली की परिव्याप्ति का क्षेत्रफल 51,888 वर्गमील है । गणनानुसार छत्तीसगढी बोलने वालों की संख्या लगभग डेढ करोड से उपर आंकी गई है। प्रत्येक जिले की बोली में स्थानगत भेद स्पष्ट दिखाई देता है । इसके ग्राम्य और नागर रूप में भी कुछ अंतर देखा जा सकता है । जैसे दसना दसा दे नागर रूप का ग्राम्य रूप जठना जठा दे है । छत्तीसगढी बोली में विभिन्न भाषाओं के शब्दों का पर्याप्त प्रभाव और घुसपैठ अस्वाभाविक बात नहीं है । संस्क्रत, प्राक्रत, अपभ्रंश तथा पूर्वी हिन्दी के शब्दों का पाया जाना तो स्वाभाविक है ही, क्योंकि उन्हीं स्तरों को पार करके छत्तीसगढी को यह रूप मिला है, इसमें मराठी, उडिया और नेपाली शब्दों के अतिरिक्त बंगला, भोजपुरी, बुंदेलखंडी, ब्रजभाषा, गोंडी, संथाली, कोरकू, तुर्की, अरबी तथ फारसी के शब्द छत्तीसगढी में नीर क्षीर की भांति घुले मिले हैं । वैज्ञानिक अध्ययन की द्रष्टि से बोलियां, भाषाओं की अपेक्षा नि:संदेह अधिक महत्व रखती हैं । बोलियों की अक्रत्रिमता, ताजगी और प्राणवत्ता आत्मा को छूती है । उनके मुहावरों, कहावतों, कथाओं, एवं गीतों में लोक जीवन का अनगढ मगर सरल, सरस और उद्दाम सौंदर्य झलकता है । छत्तीसगढी कहावतों और पहेलियों में जीवन के गहरे अनुभव और शब्द विन्यास की छटा सुनने तथ गुनने की चीज है । गंवई के चिन्हार अउ सहर के मितान, पर्रा भर लाई – देस भर बगराई, चार गोड के चिप्पो, तेमा बइठे मिप्पो, ओला लेगे निप्पो, बइठे चापक चिप्पो । इस तरह अनगिनत उदाहरण है ।
जैसा कि सर्वविदित है – अंचल का चिर संचित स्वप्न छत्तीसगढ राज्य अब आकार ले चुका है । नए राज्य के अल्हाद में लोक संस्क्रति का सागर अपने पूनम के चांद को छूने बेचैन है । पूनम जब अपने यौवन में सोलहवें श्र्रंगार के साथ मचलता है तब सागर भी पगला उठता है और लहरें गले मिलने आतुर हो दौड पडती है । अंचल का जनसागर अपनी छाती में क्या क्या दबाए अभिव्यक्ति के लिए आज मचल उठा है । अब छत्तीसगढी में साहित्य स्रजन की प्रव्रत्तियां ऊफान पर है । छत्तीसगढियों का चरम आज अपना सम्पूर्ण ह्रदय खोलकर रख देने को आकुल है :
लहर लहर लहरावे खेती, चंवर डोलावे धान,
कोदो राहेर तिंवरा बटुरा, मा भर थे मुस्कान ।
हरियर हरियर जम्मो कोती, दिखथे सबो कछार,
दूध असन छलकत जावत हे, महानदी के धार ।
यह स्वीकृत सत्य है कि अब तक विश्व में जो भी अविष्क्रत बोलियां और भाषाएं हैं, वे मनुष्य की अथाह अनुभूतियों को व्यक्त करने में अभी भी पूर्ण सक्षम और समर्थ नहीं हो पायी हैं । गूंगे के गुड की तरह हक अभी भी अपने भावोद् गारों को अभिव्यक्त करने, परिभाषित करने छटपटाते हैं । आवश्यकता है एक ऐसी विश्व जमीन बोली की जहां हम पूरी तरह खुल सकें, मिल सकें, परस्पर प्रेम कर सकें । यही हर बोली की अभीप्सा है, अभिप्राय है :
पोथी पढ पढ जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढे सो पंडित होय ।
आत्मीयता और प्रेम छत्तीसगढी बोली की मौलिक विशेषता है । क्रोध, कुत्सा, ईर्ष्या और घ्रणा जैसे मनोविकारों का शब्दिक पर्याय ही नहीं है इस बोली में । सर्वत्र प्रेम है, स्नेह और आतिथ्य परायण्ता के मनोभाव हैं । दूसरों के लिए सर्वस्व त्याग करने की उत्कट कामना है । सभी प्राणियों के लिए मंगल कामनाएं, जडचेतन के लिए नैष्ठिक अनुराग छत्तीसगढी बोली का अन्यतम आकर्षण है और इसी में अंतर्निहित है छत्तीसगढ की आत्मा, छत्तीसगढ राज्य की गरिमा
उडत चिरइया रूम झूम ले
ए बहिनी उडत चिरइया रूम झूम ले
राम रमउवा ले ले
ए बहिनी, राम रमउवा ले ले
ए भइया राम रमउवा ले ले.
सुंदर लेख!!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया इसे यहां प्रस्तुत करने का।
एक बात समझ मे नही आती,
एक तरफ़ साहित्यकार अपनी रचनाओं को छत्तीसगढ़ी को बोली के रुप मे बताते है, गुण गाते हैं पर दूसरी तरफ़ सरकार से मांग करते हैं कि इसे राजभाषा घोषित कर दी जाए। मै ऐसा कहकर विरोध नही कर रहा लेकिन इस विरोधाभास को समझ भी नही पा रहा।
रामहृदय तिवारी जी आलेख पेश करने का आभार.
जवाब देंहटाएंसंजीत का प्रश्न विचारणीय है.
संग्रहणीय लेख। हमेशा ही बडी ही अनोखी सामग्री लेकर आते है आप।
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