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अपने समय का सच उलीचती कवितायें
एक बार रूस के महान कथाकार दोस्तोवस्की अपने भाई इवान के साथ ईश्वर पर बहस कर रहे थे । दोस्तोवस्की ने इवान को ईश्वर के अस्तित्व तथा उसके द्वारा रचित समस्त ब्राम्हाण्ड के सूर्य, पृथ्वी, सागर, चंद्रमा, आकाशगंगा तथा सभी ग्रहों की महत्ता समझाते हुए इसबात पर जोर दिया कि इवान ईश्वर पर विस्त्रास करने पर राज़ी हो गया लेकिन इवान ने दोस्तोवस्की को एक छोटी से घटना बताई -
दस वर्ष की उम्र का एक बालक पत्थरों से खेल रहा था । उसकी माँ धनाढ्य मालिक के यहाँ काम करती थी । दुर्घटनावश बच्चे का एक पत्थर मालिक के कुत्ते को जा लगा । मालिक ने बच्चे को नंगा कर दौड़ने को कहा और उस पर कुत्ता छोड़ दिया गया । माँ की आँखों के सामने बालक को कुत्ते ने मार डाला । इवान ने आगे कहा कि किसी बड़े व्यक्ति, जिसने बहुत से पाप अपने जीवन में किए हों, को यदि दण्ड मिले और तुम्हारा ईश्वर मौन रहे यह मेरी समझ में आ सकता है किंतु उस दस वर्ष के बच्चे ने ऐसा कौन-सा पाप किया था जो तुम्हारा ईश्वर चुप रहा ? दोस्तोवस्की निरूत्तर हो गया ।
हमारे चारों ओर इसी प्रकार ऐसा बहुत कुछ फैला पड़ा है जिसका कोई उचित उत्तर हमारे पास नहीं है । समुचित उत्तर न होते हुए भी कुछ महापुरूष सदा ही मौलिक सत्य का अन्वेषण करते रहते हैं, भेले ही उनहें इसमें सफलता न मिले । वे ईश्वर से प्रकृति से, समाज से और यहां तक कि स्वयं से भी हमेशा सवाल पूछते रहते हैं यद्यपि वे जानते हैं कि इन प्रश्नों का समुचित उत्तर उन्हें नहीं मिलेगा ।
एक रचनाकार शून्य से कुछ निर्माण करता है । वह रचना करता है समाज के इतिहास से, जनता के चेतन-पूर्व मानस और लोक कथाओं से । वह मानव सभ्यता के मौलिक उपादानों की खोज भी करता है । ऐसी सारी कठिनाइयों के वावजूद भी वह रचना करता है । रचना की शक्ति जीवित हे, रचनाकार का लेखन जारी है । भेले ही उसे अपने सारे प्रश्नों के उत्तर न मिल रहे हों, उसे प्रश्न पूछते ही जाना है - ईश्वर से, समाज से, प्रकृति से तथा स्वयं अपने से ।
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सबसे बड़ी चुनौती का सामना एक रचनाकार उस समय करता है जब अपने लेखन के विषय में वह अपने से ही यह पूछता है -क्या मुझे यह रचना करनी चाहिये ? मेरी रचना का उदृदेश्य क्या है ? क्या मेरी रचना उचित है ? मैं अपने रचनाकार होने के प्रति क्या न्याय कर रहा हूँ ? इस न्यायोचित् भाव के साथ बाँटना पड़ता है जिसका प्रभाव दीर्घ स्थायी होता है । यद्यपि वह अपने चारों ओर फैली सभी विसंगतियों को ठीक नहीं कर सकता फिर भी वह औरों को समाज में सचेत तो कर ही सकता है । क्योंकि रचनाकार स्वयं जानता है कि बहुत सारी ऐसी चीज़ें हैं, ऐसे प्रश्न है जिनका जवाब हम नहीं दे सकते ।
कविवर अशोक सिंघई का दूसरा प्रकाशित काव्य-संग्रह संभाकर रखना अपनी आकाशगंगा २४ नई कविताओं को अपने कमनीय कलेवर में समेट कर प्रयोगवादी लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए नये विषयों । नये क्षेत्रों के अन्वेषण में एक सार्थक भूमिका का निर्वाह करता प्रतीत होता हे जिसकी एक विशेष दिशा है । इस दिशा विशेष में रचनाकार की रचना प्राचीनता से नवीनता की ओर बढ़ती है । जहाँ वह परंपराओं से स्थापित सत्य से आगे चली जाती है यद्यपि इसका लक्ष्य परंपराओं का खंडन करना नहीं है प्रत्युत रचना में निर्जीव तत्वों के स्थान पर नये सजीव तत्वों का अन्वेषण करना है तथा अशक्त रूढ़ियों का खंडन करके अभिव्यक्ति के नये माध्यम अपनाना है ।
हिंदी साहित्य के इतिहास में पिछले पचास वर्षों से प्रयोगवादी काव्य-धारा प्रवाहित हो रही है जो नई कविता के नाम से अभिहित हुई है । नई कविता के प्रत्येक कवि ने नई परिस्थितियों, नई समस्याओं, नये सामाजिक तथा साहित्यिक मूल्यों को अपने चिंतन का लक्ष्य बनाया है । इसके साथ ही टेकनीक के क्षेत्र में भी नई भाषा, नई लय तथा नये विधि-विधान को अत्यधिक सशक्त रूप में प्रेषणीय बनाने का प्रयास किया है । नई कविता के प्रमुख हस्ताख्रों में अज्ञेय के साथ गिरिजा कुमार माथुर, मजानन माधव मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर, धर्मवीर भारती, सर्वेस्त्रर दयाल सक्सेना, जगदीश गुप्त, लक्ष्मीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय तथा नरेश मेहता के नाम लिये जा सकते है।
गत् पचास वर्षों में नई कविता ने स्वयं अपनी राह खेज निकाली है । सप्तकों के प्रयोगवादी कवि नई राहों के अन्वेषी थे । नई कविता अथवा नव लेखन की साहित्य प्रतिष्ठा की दिशा में `प्रतीक` `पाटल` `कल्पना` `निकष` `संकेत` `नई कविता` `ज्ञानोदय` `कृति` `धर्मयुग` `लहर` `निष्ठा` `शताब्दी` तथा `कखग` जैसे अनेकश: पत्र-पत्रिकाओं का योगदान भी महत्वपूर्ण रहा है ।
प्रयोगवादी काव्य-धारा (नई कविता) पर कुछ विद्वानों ने आरोप भी लगाये हैं, उस पर कुछ आक्षेप भी किये हैं ।
आचार्य नंददुलारे बाजपेयी लिखते हैं - ``प्रयोगवादी साहित्यकार से साधारणत: उस व्यक्ति का बोध होता है जिसकी रचना में कोई तात्विक अनुभूति, कोई स्वाभाविक क्रम विकास या कोई सुनिश्चित व्यक्तित्व न हो ।``
``एक तो प्रयोगवादी रचनायें पूरी तरह काव्य की चौहद्दी में नहीं आती, वे अतिरिक्त बुद्धिवाद से ग्रस्त हैं दूसरे वे वैचित्यप्रिय हैं । वृत्ति का सहज़ अभिनिवेश उनमें नहीं है और तीसरे वे वैयक्तिक अनुभूतियों के प्रति भी इमानदार नहीं हैं और सामाजिक उत्तरदायित्व को भी पूरा नहीं करती`` ।
डॉ० प्रेमनारायण शुक्ल ने लिखा है - ``वैचित़्र्य विधान के मोह में पड़कर प्रयोगवादी कलाकार कला की आत्मा की बड़ी निमर्म हत्या करके भी यह समझता है कि उसने आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए पुण्य-पथ का प्रदर्शन किया है `` ।
रचनाकार की रचना में शिल्प के प्रति अत्यधिक जागरूकता भी नई कविता के प्रति लगाये गये आक्षेपों का कारण है । उसके भाषा प्रयोगों में एक कृत्रिमता है । असामाजिक भावनाओं, मानसिक कुण्ठाओं एवं दमित यौवन वृत्तियों के उलझे हुये उपभनों एवं प्रतीकों के कारण नई कविता एक प्र वाचक चिन्ह के साथ देखी जाने लगी है ।
नई कविता की इसी उक्त पृष्ठ भूमि को यदि कसौटी मानकर समीक्ष्य कविता संग्रह का उचित आकलन किया जाये तो अधिक न्यायसंगत् होगा ।
अशोक सिंघई का यह काव्य संग्रह उनके मित्र स्व. प्रमोद वर्मा को समर्पित है जिसमें कवि का एकालाप कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है :-
`मृत्यु का उतना ही महत्व है । जीवन में । जितना संवाद में मौन का । गणित में शून्य का । जो जीता है, अपनेसमय में । वह फिर जन्मता है । जन्मती है उसकी यथ: काया ।
प्रमोद वर्मा को एक अज़नबी मित्र की संज्ञा देते हुए कवि उन्हें अपने शब्दों में परिभाषित करने का प्रयत्न करते हुए इस शब्द चित्र में उकेरता है -दिनकर की दीप्त कर आँखें । एक नि:स्तब्ध निशा में । कुछ गूँजते गीतों की । विस्मृत स्मृतियों में। मैंने देखा उसे । एक अज़नबी मित्र । इतना कोमल जैसे साँस । याद है वह नि:स्तब्ध निशा । बऱ्फ सा पिघलता । धूप सा बिरना । मैंने देखा है उसे । एक अजनबी मित्र । जीवन था जिसका एक प्रवास । अपने दिवंगत अजनबी मित्र की पुण्य स्मृति में कवि का समर्पण एक ऐतिहासिक यादगार है जिसके लिए वे बधाई के सुपात्र हैं ।
कवि अशोक सिंघई प्रखर संवेदनों के रचनाकार हैं । उनकी यह संवेदना बौद्धिकता द्वारा अनुशासित होती चलती है । संवेदना बौद्धिकता द्वारा अनुशासित होती चलती है । संवेदना और बौद्धिकता की यह सहयात्रा रूमानी परंपरा को तोड़कर नये सौंदर्य बोध से संपन्न स्वरूप काव्य को जन्म देती है । एक बानगी देखिये :-
``चहकती है चिड़िया हर नई सुबह । भारी पड़ती निचोवन पर । सरोद पर । रविशंकर के सितार पर । इस वास्तविक महाभारत में । सत्य की जीत का भी नहीं है कोई आग्रह । जनेगी एक दिन चिड़िया । कभी न कभी ऐसा अभिमन्यु । जो कर देगा विच्छिन्न सारे चक्रव्यूह । और जीवित लौट आयेगा घोंसले में । पंजों में उठा सारी धरा ।``
`नाखूनों` को काटने का सही सलीका` शीर्षक से रचित अशोक सिंघई की कविता को पढते हुये मुझे भी अपना बचपन याद आया जो ठेठ एक गाँव में बीता था । गाँव से शहर तक की यह जीवन यात्रा मनुष्य की विकासऱ्यात्रा को प्रमाणित करती है । कवि की इस वैचारिक विशिष्ठता को साधुवाद देना होगा । रामलाल नाई के/ घुटनों में दबाि मेरा सिर/ मशीन से उधेड़ता बाल/ और नहन्नी से छील देता था नाखूऩ उसकी कल्पना से आज रोंगटे खड़े हो जाते है । जैसे तब तन जाते थे/ सिर के बाल और ज़ोर-ज़ोर से । डर से काँपता था छोटा-सा सीना । कोई बचने का रास्ता/ नहीं था तब/ अब/ पंच सितारा होटलों में बड़ी नफ़ासत, बड़ी नज़ाकत और नखरों से / संवारे जाते हैं मेरे बाल/ मैं आँखें बंद कर सोचता/ कितना जीवंत स्पर्श था/ कितना अपनापन था/ इस व्यवसायिकता के प्रदूषण से कोसों दूर/ रामलाल नाई की गोद में ।
इन पंक्तियों से गुज़रते हुए मैं स्वयं अपनी विकासयात्रा से जुड़ रहा हूँ और यही एक सफल रचना को प्रमाणित करती है । हम यह जानते हैं कि मनुष्य को जीवन की गतिशीलता की विरासत काव्य से ही मिली है किंतु यह भी सत्य है कि नि को मथे कविता का अभ्युदय नहीं हो पाता । कविता में मन की संवेदनायें भी गुंथी होती हैं । इसका स्पश्ट प्रमाण अशोक सिंघई की उन कविताओं में मिलता है जिनमें रचनाकार ने प्रकृति के चित्रण को छायावादी प्रभाव से मुक्त रखते हुए अपने सच्चे युगबोध का परिचय देकर युगसत्य को भी चित्रित किया है । कवि की , वर्तमान सामाजिक स्थितियों में जीती चिंदगी के प्रति यह चिंता संवेदना स्तर पर मुखरित हुई है: -
``कितना रोमांचक होता है /अनुभूत करना/घास की नोक पर/ देख लेना/ एक इन्द्रधनुष/पैरों के पास/ बिल्कुल पास। फिर भी/पकड़ कहाँ पाऊँगा/आकाश में तना इन्द्रधनुष/आँखों में बना इन्द्रधनुष/सदियों की साध/हाथ मेरे छोटे/हर आदमी की तरह/
जीवन की भाँति कविता भी अपरिमेय होती हैं और एक कवि इसी अपरिमेयता को बिंबो, प्रतीकों, फंतासियों के माध्यम से रचता है । इस रचनात्व पर देश, काल और परंपरा का निश्चय ही प्रभाव पड़ता है परन्तु जिस उदात्त मानवीय दृष्टि से वे रचनायें उद्भूत होती हैं वे इतनी निर्बंध होती हैं कि सभी की मानवता उनसे संबोधित होती है । कवि हर परिसिस्थति में कविता को बचना चाहता है, उसमें समाहित जीवन मूल्यों की रक्षा करना चाहता है तभी तो कवि अशोक सिंघई इतना आशावान है आदमी और कविता दोनों के लिये-
``सम्माल कर रखेगा आदमी/अपनी आकाशगंगा को/ जैसे बच्चा संभालता है/ अपना हवा भरा गुब्बारा/
और
``जब तक/ बची रहेगी लोरी/जब तक/बची रहेगी धड़कर दिल की/ जब तक/ बची रहेगी ध्वनि/ जब तक/ बची रहेगी प्रार्थना/ बची रहेगी कविता/ तब तक/
इस प्रकार अशोक सिंघई का रचनाकार जहाँ नई परिस्थितियों, नई समस्याओं, नये सामाजिक संदर्भों को अपनी रचनाओं के चिंतन में लक्ष्य बनाकर चला है वहीं उसने साहित्यिक मूल्यों का संरक्षण एवं संवर्द्धन भी किया है किंतु प्रयोग के तौर पर कहीं भी नई ज़मीन तोड़ते नज़र नहीं आये । जहाँ तक रचनाओं की तकनीक का प्रश्न है उस क्षेत्र में भी रचनाओं का शिल्प और उसके प्रति रचनाकार की अत्यधिक जागरूकता उसको बुद्धिवाद की अतिरिक्तता तथा वैचित्र्यप्रियता से बचा नहीं पाई है । भाषा के प्रयोगों में भी नैसर्गिकता का अभाव खटकता है जो अंत्यंत बोझिल लगती है वैसे वास्तव में ही सामाजिक चेता के सही स्वरूप को कवि ने अपनी प्रखर काव्यधारा में अभिव्यंञ्ति किया है । उन्होंने अपने युगधर्मै, आत्मबोध, राष्ट्रीयता, मानवीयता एवं प्रगतिशीलता को अपनी रचनात्मक दृष्टि के साथ अपने कर्तव्यबोध को भी रचनाधर्मिता का लाक्ष्य बनाकर अपनी सभी रचनाओं में मुखरित किया है । मेरी शुभकामनाओं के बकुल पुड्ढ इस प्रगतिशील रचनाकार को अर्पित हैं । चाहता हूँ श्री अशोक सिंघई के रचनाकार तथा उसकी शब्द यात्रा की उम्र लंबी हो ।
हरिप्रकाश वत्स
`उमाँजलि`मैत्रीविहार,धमतरी (छग.)
सम्माल कर रखेगा आदमी/अपनी आकाशगंगा को/ जैसे बच्चा संभालता है/ अपना हवा भरा गुब्बारा/
जवाब देंहटाएंअशोक सिंघई की कविताओं से परिचय कराने के लिए धन्यवाद। उनके परिचय के साथ आपका अतिरिक्त विवरण भी रोचक और ज्ञानवर्धक है। बस पोस्ट थोड़ी लंबी हो गई।
बढ़िया!!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया इस समीक्षा को हम तक पहुंचाने के लिए!
अच्छी समीक्षा की हरिप्रकाश वत्स जी ने. आपको इस प्रस्तुति के लिये आभार.
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