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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

सार्वजनिक जगह पर भी लोगों का निजी दायरे का दावा


पिछले दिनों राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी का संस्‍मरण हमने अपने पाठकों के लिए छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित किया था. महत्‍वपूर्ण एवं विश्‍व भर में चर्चित कारवां के बाद सुनील कुमार जी, अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में भारतीय मूल के लोगों द्वारा गांधी की 1930 की ऐतिहासिक दांडी-यात्रा की याद में निकाली गई 240 मील की पदयात्रा में भी शामिल हुए। इस पदयात्रा का संस्‍मरणात्‍मक विवरण दैनिक छत्‍तीसगढ़ के अप्रैल अंकों में प्रकाशित हुआ है. टैक्‍स्‍ट आधारित सर्च इंजनों में चाणक्‍य पीडीएफ समाचार पत्रों के आलेखों की अनुपलब्‍धता के कारण हम इस आलेख को ब्‍लॉगर दस्‍तावेजीकरण करते हुए, यहॉं क्रमश: पुन: प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्‍तुत है सातवीं किस्त ....


दांडी मार्च-2 के दौरान अमरीका को कुछ अधिक बारीकी से और कुछ अधिक करीब से देखने का मौका इसलिए भी मिला कि पखवाड़े लंबी यह पदयात्रा शुरू होने के पहले एक दिन और खत्‍म होने के बाद तीन दिन मुझे एक साधारण सैलानी की तरह घूम ने का मौका मिला और अलग-अलग जगहों पर अलग- अलग बातों से सामना भी हुआ। पश्चिम के कुछ दूसरे विकसित देशों की तरह अमरीका में भी लोगों के मन में अपने निजी अधिकारों के लिए एक बड़ा चौकन्नापन है। किसी सार्वजनिक जगह पर रहते हुए भी कोई किस तरह अपने निजी दायरे को निजी मानकर उसमें किसी की दखल का कैसा विरोध करता है इसका एक-दो मामलों में मुझे अनुभव हुआ। फोटोग्राफी करते हुए बहुत हिचककर और झिझककर काम नहीं चलता, इसलिए एक-दो मौकों पर मैंने कुछ छूट लेकर कुछ लोगों की तस्वीरें खींचने की कोशिश की। सान फ्रांसिस्को के सबसे गहमागहमी वाले इलाके के एक फुटपाथ पर एक नौजवान लडक़ी एक लडक़े के साथ चली आ रही थी। दोनों का हुलिया काफी रंगीन था, बाल, गहने, कपड़े सबकुछ बहुत अजीब से थे। इस लडक़ी के कंधे पर एक बिल्‍ली बैठी हुई थी और सबकुछ एक बहुत अच्‍छी , दिलचस्प तस्वीर का सामान दिख रहा था। मैंने अपने तैयार कैमरे से तुरंत ही उसकी तस्वीर खींची और उसने मुझे रोककर इसका विरोध किया और कहा कि मैंने उसकी इजाजत के बिना उसकी तस्वीर खींची है। अब कुछ झिझकते हुए मैंने उससे कहा कि उसकी बिल्‍ली की वजह से मैंने यह तस्वीर खींची थी, और अगर उसे आपत्ति हो तो मैं यह तस्वीर मिटा देता हूं। उसने मेरे कैमरे में देखते हुए यह तस्वीर मिटवाकर दम लिया और बात वहीं खत्‍म हुई। लेकिन एक बगीचे में बच्‍चों के झूलों सरीखे सामानों के बीच खेलते हुए बहुत से बचचों की तस्वीरें मैं लेना चाहता था। पास ही एक बेंच पर तीन महिलाएं बैठकर उन बचचों की निगरानी कर रही थीं इसलिए मैंने काफी देर इंतजार करने के बाद उनसे पूछा कि क्‍या मैं इन बचचों की तस्वीरें ले सकता हूं। उनमें से एक महिला ने कहा कि वह इसे पसंद नहीं करेगी। उसके शब्‍द थे- आई वोंट बी कम्फर्टेबल। लेकिन ऐसे ही एक दूसरे बगीचे में एक दूसरी महिला से जब मैंने उसके बचचे के साथ तस्वीरें लेने के बारे में पूछा तो उसने विनम्रता से इसकी वजह पूछी। जब मैंने कहा कि मैं हिन्‍दुस्‍तान से आया हुआ एक अखबारनवीस हूं तो उसने हामी भर दी। इसके बाद इस महिला से बहुत अच्‍छी बातचीत होती रही और फिर उसने अपने कैमरे से हम लोगों की तस्वीरें भी खींची और हमारे साथ खड़े रहकर अपनी तस्वीरें भी खिंचवाई।

हॉलीवुड के यूनिवर्सल स्टुडियो में, इस बार के अमरीका प्रवास का पहला ही दिन था। वह जगह पूरी दुनिया से पहुंचे हुए पर्यटकों से बुरी तरह भरी हुई थी और इतनी अधिक संस्कृतियों के बीच कई तरह की गलतफहमी होने की गुंजाइश भी थी। इसलिए मैं कुछ सावधानी से चल रहा था। वहां पर एक चित्रकार कम्‍प्रेशर से चलने वाले स्‍प्रे को ब्रश की तरह इस्तेमाल करते हुए लोगों की तस्वीरें बना रहा था। खूब रंगे हुए चेहरे वाले एक बच्‍ची की तस्वीर बनते मैं देखते रहा और जब तस्वीर पूरी हो गई तो उसकी मां से इजाजत लेकर मैंने उसके साथ उसकी तस्वीर की तस्वीर उतारी। इसी स्टुडियो में एक दूसरे कोने पर एक महिला अपनी बहुत ही स्मार्ट बच्‍ची की तस्वीरें अपने मोबाईल फोन के कैमरे से ही ले रही थी। एक पेशेवर मॉडल की तरह यह बच्‍ची अपनी मां के कैमरे के लिए तरह-तरह के पोज दे रही थी। मुझे उसकी तस्वीरें खींचने का दिल किया और मैंने कुछ पूछने के बजाय उसकी मां की तरफ देखकर एक मुस्कुराहट के साथ अपना कैमरा उठाया और उसने भी कुछ कहे बिना सिर्फ मुस्कुराकर एक किस्म से इजातत दे दी। नतीजा यह हुआ एक मॉडल फैशन शूट की तरह बहुत सी अच्‍छी तस्वीरें मेरे पास आ गईं। एक पल को मुझे यह भी लगा कि मैं उससे ईमेल एड्रेस मांग लूं ताकि इन खूबसूरत तस्वीरों को भेज सकूं, या अपना पता उसे दे दूं, लेकिन फिर मुझे लगा वह मुझे ऐसा पेशेवर फोटोग्राफर न समझ ले जो उससे कुछ कमाई करना चाहता है। इसलिए उस अनजान खूबसूरत बच्‍ची की तस्वीरों के साथ बिना उसके नाम के मैं आगे बढ़ गया।

पदयात्रा पूरी होने के बाद जब मैं न्‍यूयार्क के यूनियन स्‍क्‍वेयर पर गांधी प्रतिमा तक पहुंचा तो वहां ढाई बरस पहले की तरह ही दर्जनों कलाकार अपने काम को बिक्री के लिए रखकर बैठे हुए थे। इनमें से कुछ ने मुझे अपने काम की तस्वीरें खींचने की इजाजत दी और कुछ ने मना कर दिया लेकिन साथ ही कहा- आपने पूछा इसके लिए हम आपकी तारीफ करेंगे। वहां पर एक चित्रकार युवती की बनाई तस्वीरों के साथ उसके विजिटिंग कार्ड भी रखे थे जिनमें इंडिया शब्‍द भी लिखा था। उससे मैंने इसका मतलब पूछा तो उसने कहा कि यह उसकी बिल्‍ली का नाम है। यह नाम उसने इसलिए रखा है कि उसे इंडिया बहुत पसंद है और अपनी बिल्‍ली उतनी ही पसंद है। यहां पर अफ्रीकी मूल की एक महिला चित्रकार ऐसी मिली जिसने गांधी की कुछ तस्वीरें बनाई हुई थीं और उन तस्वीरों में गांधी के चेहरे के साथ-साथ चारों तरफ बहुत से फूल खिले हुए थे। उसने कहा कि बसंत के दौरान इस गांधी प्रतिमा के आसपास इसी तरह फूल खिलते हैं और उसने उसी वक्त को अपनी तस्वीर में उतारा है। उसकी एक तस्वीर खरीदने के बाद मैंने उससे कुछ तस्वीरें खिंचवाने का अनुरोध किया तो वह तैयार हो गई।

एक बड़ा ही दिलचस्प मामला इसी न्‍यूयार्क में अकेले घूमते हुए सामने आया जब वहां पुलिस के तीन अफसर अफ्रीकी नस्ल के एक नौजवान को फुटपाथ पर ही हथकड़ी डालकर उसके सामानों की तलाशी ले रहे थे। इसकी पिछली रात ही सडक़ों पर घूमते हुए ऐसा ही एक नजारा देखने मिला था और मेरे मेजबान आनंद ने बताया था कि नशे के सामानों की तलाश में पुलिस कई बार ऐसी जांच करती है। उस वक्त दो लोगों को दीवार के सहारे खड़ा करके पुलिस उनकी तलाशी ले रही थी और उनके साथ की दो लड़कियां अपने मोबाईल फोन पर इसकी वीडियो रिकॉर्डिंग कर रही थीं। अगली दोपहर मैं अकेले घूम रहा था और ऐसा ही नजारा फिर देखने मिला लेकिन इस बार इस अफ्रीकन नौजवान को हथकड़ी लगाई जा चुकी थी और उसके साथ आधा दर्जन लोग थे जो कि वीडियो रिकॉर्डिंग भी कर रहे थे। जब मैं इस पूरे नजारे की तस्वीरें लेने लगा तो इस टोली में शामिल एक गोरी लडक़ी ने मेरा विरोध किया और कहा कि मैं इस तरह फोटो नहीं ले सकता। जब मैंने कहा कि यह तो एक सार्वजनिक जगह है और यह खुली हुई पुलिस कार्रवाई चल रही है तो उसका कहना था कि यह पुलिस का रंगभेद चल रहा है और काले या अश्वेत लोगों को रोज ही ऐसी प्रताडऩा झेलनी पड़ती है। मैंने उससे कहा कि मैं हिन्‍दुस्‍तान से आया हूं और ऐसे रंगभेद को अच्‍छी तरह समझता हूं और ऐसे भेदभाव का विरोधी भी हूँ , और इसीलिए यह तस्वीर ले रहा हूं तो वह शांत हुई और फिर अमरीकी पुलिस की रंगभेदी ज्‍यादती के बारे में बताने लगी।


उसकी बातों से मुझे यूनियन स्क्वेयर पर बिकते हुए कुछ टी-शर्ट याद आए। न्‍यूयार्क के इस सबसे जिंदादिल इलाके में सडक़ किनारे बहुत से स्थानीय आदिवासी (रेड इंडियंस) अपने नारों के टी-शर्ट बेचते दिखते हैं। उन पर बनी तस्वीरें आधी सदी से चली आ रही हैं और उन पर किसी का कॉपीराईट भी नहीं है इसलिए मैंने बिना इजाजत ही चुपचाप कुछ तस्वीरें खींच लीं। इनमें अमरीका की सरकारों के खिलाफ वहां के मूल निवासियों की नाराजगी के नारे थे और मुझे इस बात का कोई अंदाज नहीं है कि ये नारे वहां की आज की हकीकत है या फिर ये एक राजनीतिक बेचैनी की वजह से एक आकर्षक और बिकाऊ नारे के रूप में टी-शर्ट पर हैं। इनमें वहां की सरकार को आतंकी करार देते हुए रेड इंडियंस को ही आंतरिक सुरक्षा रखने वाला बताया गया है और एक दूसरे टी-शर्ट पर वहां का एक दूसरा लोकप्रिय नारा था- हां, आप सरकार पर भरोसा कर सकते हैं,... किसी इंडियन (मूल निवासी) से पूछकर देखें। इसी तरह कुछ दूसरे टी-शर्ट थे जिन पर अमरीका की उस विख्यात पहाड़ी, माऊंट रशमोर, की तस्वीर छापी गई थी जिस पर वहां के प्रमुख राष्ट्रपतियों के चेहरे चट्टानों पर तराशे गए हैं। इस टी-शर्ट पर इस पहाड़ी के सामने वहां के मूल निवासी खड़े हुए हैं और इनके बारे में यह नारा लिखा गया है- इस देश के असली पितामह। ऐसी कुछ तस्वीरों को मुझे बिना इजाजत ही लेना पड़ा क्‍योंकि कोई मौलिक डिजाइन न होते हुए भी ऐसे दुकानदार तस्वीरें लेने देना पसंद नहीं कर रहे थे। अमरीकी लोगों में बेतकल्‍लुफी, यूरोपीय लोगों के मुकाबले काफी अधिक है। लेकिन अपनी निजी बातों को निजी रखने को लेकर वे काफी चौकस रहते हैं और यह पसंद करते हैं कि लोग किसी भी तरह की दखल की सोचने के भी पहले उनसे इजाजत ले लें।
क्रमश: ...

सुनील कुमार

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