विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
नया ज्ञानोदय में प्रकाशित जया जादवानी की कहानी ‘मितान’ पर मेरी असहमति साहित्य में क्षेत्रीय भाषा के शब्दों का प्रयोग बहुधा होते आया है और इसी के कारण क्षेत्रीय भाषा के शब्दों को गाहे बगाहे हिन्दी नें अपना लिया है। क्षेत्रीय भाषा के शब्दों के प्रयोग के माध्यम से लेखक हिन्दी भाषी पाठकों को देश के स्थानीय संस्कृति व परंपरा से जोडने का प्रयास करते हैं! इसी कारण प्रेमचंद से लेकर अभी तक के कई कहानीकार पात्रों के नाम व अन्य शब्दों को, हिन्दी में लिखने के बजाए अपने स्थानीय प्रचलित शब्दों में लिखते रहे हैं, जिससे हम स्थाननीय शब्दों का अर्थ भी को समझ कर आत्मसाध कर पाते है। ‘मैं उस जनपद का कवि हूं’ कहने वाले त्रिलोचन नें भी अपनी हिन्दी लेखनी में जनपदीय भाषा का प्रयोग किया है एवं समय समय पर अपने आख्यानों में उन्होंनें स्वीकार किया है कि वे स्थानीय बोली-भाषा के शब्दों को पढने व जानने की निरंतर अपेक्षा रखते थे। बाबा त्रिलोचन स्वयं एक साक्षात्कार में स्वीकारते हैं कि उन्होंनें छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों की रचनाओं से छत्तीसगढ़ी भाषा के कुछ शब्दों को सीखा है। हिन्दीं लेखनी में स्थानीय छत्तीसगढ़ी भा