भाषा के लिये आवश्‍यक है योग्‍य व्‍याकरण (Grammer) का होना

मानक छत्‍तीसगढी व्‍याकरण एवं छत्‍तीसगढी शव्‍दकोश

छत्‍तीसगढ राज्‍य के निर्माण के साथ ही छत्‍तीसगढी भाषा को राजभाषा का दर्जा भी दे दिया गया । अब इस भाषा के विकास के लिये सरकार की सुगबुगाहट के साथ ही स्‍वैच्छिक रूप से क्षेत्र के विद्वानों के द्वारा सहानुभूतिपूर्वक सक्रियता दिखाई जा रही है । भाषा के मानकीकरण के लिये ख्‍यात भाषाविद डॉ.चित्‍तरंजन कर एवं प्रदेश की एकमात्र नियमित छत्‍तीसगढी भाषा की पत्रिका ‘लोकाक्षर’ नें अपने प्रयास आरंभ कर दिये हैं । छत्‍तीसगढ में भाषा के विकास के लिये ‘व्‍याकरण’ एवं ‘शव्‍द कोश’ पर निरंतर गहन शोध व संशोधन हुआ है एवं समय समय पर छत्‍तीसगढी व्‍याकरण व शव्‍द कोश का प्रकाशन भी होते रहा है । व्‍याकरण के लेखक चाहे जो भी हों किन्‍तु प्रत्‍येक प्रकाशन के साथ ही इसमें निखार आता गया है । छत्‍तीसगढ में छत्‍तीसगढी सहित अन्‍य कई बोलियां बोली जाती है, छत्‍तीसगढी भाषा में भी स्‍थान स्‍थान के अनुसार से किंचित भिन्‍नता है इस कारण छत्‍तीसगढी के मानक व्‍याकरण की बहुत समय से प्रतीक्षा थी । इस प्रतीक्षा को दूर किया चंद्र कुमार चंद्राकर जी की कृति ‘मानक छत्‍तीसगढी’ नें ।

छत्‍तीसगढ की क्षेत्रीयता और जातिभेद से उपजी सभी उप बोलिंयों के मानक रूप पर आधारित यह ‘मानक छत्‍तीसगढी व्‍याकरण’ महज एक श्रेष्‍ठ कृति नहीं, आज की आवश्‍यकता है एवं भविष्‍य में भाषा के विकास के लिये एक आवश्‍यक अंग है । इस कृति में व्‍याकरण के सभी पक्षों पर सोदाहरण गहन विवेचना किया गया है । इस ग्रंथ में समानार्थी, विरूद्धार्थी, पर्यायवाची, अनेकार्थी, अनेक शव्‍दों के स्‍थान पर एक शव्‍द तथा शव्‍दों के लिंग-भेद की विस्‍तृत विवेचना, विविध प्रकार के वाक्‍य दोष तथा मुहावरों एवं लोकोक्तियों के वाक्‍य प्रयोग के साथ कोश देने से ‘मानक छत्‍तीसगढी व्‍याकरण’ का महत्‍व और बढ गया है । भाषा के विकास में चंद्र कुमार चंद्राकर जी का यह योगदान अत्‍यंत प्रसंशनीय है ।

इस व्‍याकरण के साथ ही चंद्र कुमार चंद्राकर जी की कृति  ‘छत्‍तीसगढी शव्‍दकोश’ भी अत्‍यंत सराहनीय एवं संग्रहणीय है । चंद्राकर जी का यह शव्‍दकोश, छत्‍तीसगढी में अब तक का सबसे बडा शव्‍दकोश है, इसमें 27000 शव्‍द हैं । शव्‍दों के सहीं अर्थ अभिव्‍यंजित होने के कारण सुविज्ञ पाठकों नें इसे ‘श्रेष्‍ठ कोश’ के रूप में स्‍वीकारा हैं । अनेकों विलुप्‍त शव्‍दों को जीवंत करनेवाला यह कोश छत्‍तीसगढी भाषा प्रेमियों, शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों के लिए अनुपम उपहार है ।
इस कोश का संशोधित एवं परिर्वधित रूप अतिशीध्र प्रकाशन को जा रहा है, जिसमें शव्‍द-संख्‍या में श्री वृद्धि भी हुई है साथ ही शव्‍दों की उत्‍पत्ति भी दर्शाई गई है ताकि अर्थ में विश्‍वसनीयता बढे । इसमें शब्‍दों के उदाहरण भी दिये गये हैं, इन सब के कारण व मुहावरों के प्रयोग आदि से अभिधा, लक्षणा एवं व्‍यंजना तीनों शव्‍दशक्तियों में अर्थ का द्योतन होने लगा है ।इनके व्‍याकरण की ही तरह यह शव्‍दकोश भी निश्‍चय ही छत्‍तीसगढी भाषा-विकास के पथ का ‘मील का पत्‍थर’ होगा ।
संजीव तिवारी

‘श्री चंद्राकर नें यह शब्‍दकोश पूर्ण समर्पण भाव से तैयार कर के छत्‍तीसगढी की प्रतिदिन होती जा रही आधिकारिक प्रगति के यज्ञ में अपने सार्थक परिश्रम की हवि प्रस्‍तुत की है । चूँकि यह कोश छत्‍तीसगढी के अभी तक प्रकाशित शब्‍दकोशों में सर्वाधिक शब्‍दों को अपने कलेवर में समेटे हुए है, इसलिये इस का स्‍वागत छत्‍तीसगढ की सारी मेजों द्वारा किया जाना निश्चित है । इस की सार्वजनिक उपयोगिता को नकारना किसी के लिए भी संभव नहीं है, क्‍योंकि यह छत्‍तीसगढी-भाषियों के लिए ही नहीं, अन्‍यों के लिये भी वक्‍त की माँग को पूरा करता है ।‘ डॉ.(प्रो.) रमेश चंद्र महरोत्रा


मानक छत्‍तीसगढी व्‍याकरण 
लेखक – चंद्र कुमार चंद्राकर
प्रकाशक – शताक्षी प्रकाशन, रायपुर
मूल्‍य – 395/- रूपये

छत्‍तीसगढी शव्‍दकोश
लेखक – चंद्र कुमार चंद्राकर
प्रकाशक – श्री प्रकाशन, दुर्ग
मूल्‍य – 505/- रूपये

लेखक परिचय
 
नाम : चंद्र कुमार चंद्राकर
जन्‍म तिथि : 23.01.1962 जन्‍म स्‍थान : ग्राम चौरेल, तह. गुण्‍डरदेही, जिला दुर्ग (छ.ग.)
माता : स्‍व.श्रीमती गिरिजा बाई चंद्राकर पिता : श्री गंगा प्रसाद चंद्राकर
संगिनी : श्रीमति उपासना चंद्राकर
शिक्षा : एम.ए., एम.फिल (भूगोल)
कृतियॉं : 1. छत्‍तीसगढी व्‍याकरण 2. छत्‍तीसगढ की वर्तनी 3. छत्‍तीसगढी कहावतें एवं लोकोक्तियॉं 4. छत्‍तीसगढी हंसौला संग्रह
संप्रति : प्राचार्य, संत राजाराम शदाणी नागरिक महाविद्यालय, डौंडी लोहारा, जिला दुर्ग, (छ.ग.)
संपर्क : ग्राम अरजुन्‍दा, तह. गुण्‍डरदेही, जिला दुर्ग (छ.ग.)
मो. : 094241 14632

दण्‍डक वन का ऋषि : लाला जगदलपुरी

बस्‍तर के लोक जीवन का चित्र जब जब हमारे सामने आता है तब तब एक शख्‍श का नाम उभरता है और संपूर्णता के साथ छा जाता है वह नाम है लाला जगदलपुरी का । साहित्‍य और संस्‍कृति के क्षेत्र में बस्‍तर के पहचान के रूप में लाला जी बिना हो हल्‍ला के पिछले पचास वर्षों से लगातार इस पर अपना छाप छोडते रहे हैं । उनके लेख व किताबें बस्‍तर के एतिहासिक दस्‍तावेज हैं । बस्‍तर के अरण्‍य वनांचल के गोद में छिपे लोक जीवन, साहित्‍य व संस्‍कृति के संबंध में सर्वप्रथम एवं प्रामाणिक जानकारी संपूर्ण नागर जगत को लाला जी के द्वारा ही प्राप्‍त हो सका है । इसके बाद तो लाला जी के सानिध्‍य एवं लेखनी व उनके सूत्रों का उपयोग कर अनेकों लोगों नें रहस्‍यमय और मनोरम बस्‍तर को जनता के सामने लाया और अपनी राग अलापते हुए अपने ढंग से प्रस्‍तुत भी किया जो आज तक बदस्‍तूर जारी है । 


बस्‍तर की लोक संस्‍कृति, लोक कला, लोक जीवन व लोक साहित्‍य तथा अंचल में बोली जाने वाली हल्‍बी–भतरी बोलियों एवं छत्‍तीसगढी पर अध्‍ययन व इन पर सतत लेखन करने वाले लाला जी निर्मल हृदय के बच्‍चों जैसी निश्‍छल व्‍यक्ति हैं । सहजता ऐसी कि सांसारिक छल छद्म से परे जो बात पसंद आयी, उस पर लिखलखिला उठते हैं । मन के अनुकूल कोई बात न हुई, तो तुरंत विरोध करते हैं । स्‍पष्‍टवादिता ऐसी कि गलत बात वे बर्दाश्‍त नहीं कर पाते इसी के कारण कोई उन्‍हें तुनकमिजाज भी कह देता है । धीर-गंभीर व्‍यक्तित्‍व, सदैव सब को अपने ज्ञान दीप से आलोकित करता एवं अपने प्रेम रस में आकंठ डूबोता हुआ ।
 

लाला जी का जन्‍म 17 दिसम्‍बर 1920 में जगदलपुर में हुआ था । शैशवकाल में ही के इनके पिता की मृत्‍यु हो गई एवं इनके उपर विधवा मॉं दो छोटे भाई एवं एक छोटी बहन का दायित्‍व आ गया, पढाई बीच में ही छूट गई । रोजी रोटी के इंतजाम के साथ ही लाला जी अपने रचना संसार में गीत, गजल, नई कविता, छंद, दोहों के साथ बस्‍तर की लोक कला, संस्‍कृति, इतिहास, आदिम जाति के जन जीवन पर गहराई से अध्‍ययन कर सूक्ष्‍म विवेचन प्रस्‍तुत करते रहे । इनके प्रयासों से ही भतरी व हल्‍बी बोलियों को जन के सामने अभिनव रूप में लाया जा सका । आदिम मुहावरों व लोकोक्तियों पर लालाजी नें खोजपूर्ण परिश्रम किया । बस्‍तर का पर्व जगार इनका सदैव हमसफर रहा, जगार को उन्‍होंनें अपने स्‍पर्श से सुगंधित किया और भूमकाल के नायक गूंडाधूर को उन्‍होंनें नई पहचान दी । इतना विशद लेखन एवं कार्य के बावजूद वे एक संत की भांति महत्‍वाकांक्षा से सदैव दूर रहे जिसके कारण उनके कार्यों का समयानुसार मूल्‍यांकन नहीं हो सका । अन्‍य साहित्‍यानुरागियों व विद्वानों की तरह, अपने निच्‍छल व सहज भाव के कारण समय को बेहतर ढंग से भुना नहीं सके, दरअसल वे इसे कभी भुनाना ही नहीं चाहे । वे संपूर्ण जीवन संघर्ष करते रहे एवं लिखते रहे हैं । वे स्‍वयं अपनी एक कविता में स्‍वीकारते हैं ‘जितना दर्द मुझे दे दोगे / उतने भाव संजो लूंगा मैं / जितने आंसू दोगे दाता / उतने मोती बो दूंगा मैं / जितनी आग लगा दोगे तुम / उतनी ज्‍योति जगा दूंगा मैं ...।’ बस्‍तर के संसाधनों की तरह इनके भी बौद्धिक अधिकारों की लूट मची रही है और ये सच्‍चे फकीर की भांति सबकुछ बांटकर भी मस्‍त मौला गुनगुनाते रहे हैं, बस्‍तर के दर्द को प्राथमिकता से महसूस करते हुए । बस्‍तर की पीडा को सच्‍चे मन से स्‍वीकारते हुए शोषण के हद तक दोहन पर उनके गीत मुखरित होते हैं – ‘यहां नदी नाले झरने सब / आदिम जन के सहभागी हैं / यहां जिंदगी बीहड वन में / पगडंडी सी चली जा रही / यहां मनुजता वैदेही सी / वनवासिन है वनस्‍थली में / आदिम संस्‍कृति शकुन्‍तला सी / प्‍यार लुटाकर दर्द गा रही ...’
 

इनके समकालीन अनेक सहयोगी एवं साहित्‍यकार स्‍वीकारते हैं कि लाला जी की सरलता एवं सभी पर विश्‍वास करने व ज्ञान बाटने की प्रवृत्ति के बावजूद उनकी  साहित्तिक उपेक्षा की गई है । अपनी सादगी, शांत प्रकृति, किसी के प्रति अविश्‍वास नहीं करने की प्रवृत्ति, परदुखकातरता और विशाल हृदयता के अतिरिक्‍त उदारता नें लाला जी जैसे विद्वान और शीलवान रचनाकार को हासिये पर ढकेले रखा । अपनी एक कविता में वे इस बात को पूर्ण आत्‍मस्‍वाभिमान से प्रस्‍तुत करते हैं – ‘चाहते मुझको न गाना / अप्रंशेसित गेय हूं / चाहते मुझको न पाना / मैं अलक्षित ध्‍येय हूं / चाहते जिसको न लेना / वह प्रताडित श्रेय हूं / मैं स्‍वयं अपने लिये / उपमान हूं, उपमेय हूं / दृश्‍य हूं / दृष्‍टा स्‍वयं हूं / पर अमर ...।‘ उन्‍होंनें सब पर विश्‍वास किया । यह तो एक सामान्‍य सी बात है । भ्रष्‍ट राजनेता और उनकी राजनैतिक पैतरेबाजी किसी को भी हासिये पर डाल सकती है । परन्‍तु लालाजी के साथ राजनितिकों नें शायद कुछ नहीं किया । अलबत्‍ता उनका दोहन तो उन बुद्धिजीवियों नें किया जो छल-कपट के लिये आज भी सराहे जाते हैं । इसके बावजूद लाला जी बैरागी भाव से कहते हैं ‘मैं इंद्रावती नदी के बूंद-बूंद जल को / अपने दृग-जल की भंति जानता आया हूं / दुख पर्वत-घाटी जैसे मेरे संयोगी / सबकी सुन-सुन, जिनकी बखानता आया हूं ...।’
 


नाटक, रूपक, निबंध और कहानी आदि अन्‍यान्‍य विधाओं में इनका लेखन रहा है । इनकी अब तक दो कविता संग्रह प्रकाशित हुई हैं - ‘मिमियाती जिन्‍दगी: दहाडते परिवेश’ एवं ‘पडाव 5’ । लोक साहित्‍य विषयक शोध एवं सर्वेक्षण के ग्रंथ बस्‍तर:लोकोक्तियॉं, बस्‍तर की लोककथांए, हल्‍बी लोककथांए, वन कुमार के साथ ही सर्वाधिक चर्चित शोध ग्रंथ – बस्‍तर : इतिहास एवं संस्‍कृति का प्रकाशन हुआ है । इसके अतिरिक्‍त इनके ढेरों लेख व कवितायें स्‍थानीय पत्र-पत्रिकाओं, चांद, विश्‍वामित्र, सन्‍मार्ग, प्रहरी, युगधर्म, वातायन, नवनीत, हिन्‍दुस्‍तान व कादम्बिनी आदि में प्रकाशित हुए हैं व आकाशवाणी से प्रसारित हुए हैं ।
 

इनको मिले पुरस्‍कारों की पडताल करते हुए मुझे इनकी एक कविता याद आती है – ‘वह / प्रकाश और अंधकार / दोनों को कान पकडकर नचाता है / जिसके कब्‍जे में / बिजली का स्विच आ जाता है ...।‘ इनको मिलने योग्‍य पुरस्‍कारों की जब-जब बारी आई, शायद बिजली का स्विच लालाजी के कार्यों से अनभिज्ञ व्‍यक्तियों के हाथ में रहा, इसे विडंबना के सिवा कुछ भी नहीं कहा जा सकता ।

अप्रतिम शव्‍द शिल्‍पी लाला राम श्रीवास्‍तव जी बस्‍तर के लोक भाषा व संस्‍कृति के प्रकाण्‍ड विद्वान हैं वे स्‍वयं इस बात को जानते हैं इसके बावजूद महत्‍वाकांक्षा तो उनकी कभी कोई नहीं रही, मामूली और जरूरी इच्‍छाओं तक को उन्‍होंनें हंकाल दिया । पिता की मृत्‍यु के बाद स्‍कूल से विलग हो जाने वाले लालाजी नें शिक्षा स्‍वाध्‍याय से प्राप्‍त की । गुलशेर खॉंन शानी, प्रो.धनंजय वर्मा जैसे कई योग्‍य एवं प्रसिद्ध साहित्‍यकारों का इन्‍होंनें शव्‍द संस्‍कार किया है एवं इनके आर्शिवाद से अनेकों शव्‍द सेवक आज देश के विभिन्‍न भागों में साहित्‍य सृजन कर रहे हैं ।
 


लाला जी बस्‍तर के दोहन व शोषण से सदैव दुखी रहे, अपनी रचनाशीलता के लिए उन्‍हें सतत संघर्ष भी करना पडा । आज तक वे दुख से उबर नहीं पाये पर वे इस पीडा को अपना साथी मानते आये हैं, वे कहते हैं ‘पीडायें जब मिलने आतीं हैं मेरे गीत संवर जाते हैं ...’
 

उनकी एक हल्‍बी गीत ‘उडी गला चेडे’ मुझे बहुत पसंद है । आज उनकी 78 वीं जन्‍म दिन के अवसर पर उनके दीर्धायु होने की कामना के साथ इसे प्रस्‍तुत कर रहा हूं – ‘राजे दिना/धन धन हयं/उछी उडी करी आयते रला/बसी-बसी करी खयते रला/सेस्‍ता धान के पायते रला/केडे सुन्‍दर/चटेया चेडे/सरी गला धान/भारी गला चेडे/एबर चेडे केबे ना आसे/ना टाक सेला/कमता करबिस/एबर तुय तो ‘खड’ होयलिस/एबर तोके फींगीं देयबाय/गाय खयसी/चेडे गला/आउरी गोटे ‘सेला’ उगर ।‘ लटक झूल रहा था नीचे धान की बालियों का एक झालर । टंगा हुआ था ‘सेला’ दरवाजे के चौंखट पर । अपनी शुभ शोभा छिटकाये दर्शनीय । एक दिन एक सुन्‍दर गौरैया आई, और उसने दोस्‍ती गांठ ली ‘सेला’ से । रोज रोज वह उड उड कर बार बार आती रही थी । बैठ कर सेला धान को खाती रही थी । भूख बुझाती रही थी । एक सुन्‍दर गौरैया । धीरे धीरे कम होते गये सेला के लटकते झूलते दाने । और एक दिन ऐसा आया कि सेला के पास शेष नहीं रह गया एक भी दाना । चिडिया उड गई । ‘चिडिया अब कभी नहीं आएगी रास्‍ता मत देख सेला ‘ सेला से उसकी आत्‍मा कह रही थी ‘अब तो तू रह गया है केवल घांस गौरैया के लिए अब रखा क्‍या है तेरे पास तेरे इस अवशिष्‍ट भाग से गौरैया को क्‍या लेना देना उसे चाहिए दाने गौरैया की दोस्‍ती तुझसे नहीं तेरे दानों से थी अब तुझे चौखट से उतार कर बाहर फेंक देंगें गइया खा जायेगी गौरैया गई एक नए ‘सेला’ की खोज में । उन्‍होंनें अपने कवि निवास में बस्‍तर ज्ञान भंडार से भरे हजारों ‘सेला’ लटकाए हैं और हजारों पिपासु गौरैयों नें सेला का इसी तरह उपभोग किया है ।
  
लाला जी शतायु हों, दीर्धायु हों । इन्‍हीं कामनाओं के साथ .......
संजीव तिवारी

सत्‍य की जीत या हार ... ?

 छत्‍तीसगढ का जनादेश आ चुका है, रमन सिंह के नेतृत्‍व वाली भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ प्रदेश में सरकार बनाने की क्षमता हासिल कर चुकी है । इस चुनाव परिणाम के पीछे विकास एवं रमन की छबि है । कांग्रेस नेतृत्‍व में आपसी कलह व भितरधात नें भी इस परिणाम को भरपूर प्रभावित किया है । पूरा राज्‍य रमन के तीन रूपिया किलो चांउर में तुलता हुआ प्रतीत होता है एवं उनकी वर्तमान व भविष्‍य की योजनाओं को जनता की स्‍वीकृति मिलती दीख पडती है । 

इस परिणाम में चौकाने वाला तथ्‍य यह हैं कि प्रदेश में सत्‍ता का समीकरण तय करने वाले आदिवासी क्षेत्रों में भी भाजपा नें अपनी बढत कायम रखी है जबकि समझा यह जा रहा था कि भाजपा सरकार के ‘सडवा जूडूम’ की योजना से आदिवासी त्रस्‍त हैं । सर्वोच्‍च न्‍यायालय में प्रस्‍तुत याचिका एवं दुनिया भर के तथाकथित विचारकों द्वारा यही प्रचारित भी किया जा रहा था । इसके बावजूद आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा की बढत यह सिद्ध करती है कि ‘सडवा जूडूम’ प्रदेश के हित में है ।

प्रचारित यह भी किया जा रहा था एवं कुछ हद तक हमें भी यह लगता था कि इससे आदिवासियों के प्राकृतिक आवास से उन्‍हें विलग कर अन्‍यत्र शरणार्थी की तरह बसाना जिससे वहां उन‍की स्‍वाभाविक रीति रिवाज, परम्‍पराओं पर अघोषित बंदिसें लग रही थी एवं संस्‍कृति पर संकट गहरा रहे थे । किन्‍तु यदि ऐसा था, उन्‍हें वह स्थिति पसंद नहीं थी, तो वे इस व्‍यवस्‍था के विरोध में जनादेश देते ।

नेपाल में प्रजातांत्रिक तरीके से सत्‍ता प्राप्‍त कर लेने के बाद छत्‍तीसगढ में भी नक्‍सलियों या नक्‍सल विचार समर्थित लोगों के आगे आने एवं जीतने की संभावना देखी जा रही थी इसके बावजूद नक्‍सलियों के द्वारा चुनाव का बहिष्‍कार, वोट डालने वालों के अंगुलियां काट देने का एलान उनके खीझ को दर्शाता है । उनके पास व्‍यापक जनाधार तो है ही नहीं, शोषण और बंदूक के बल पर समानांतर शासन । कुल मिला कर ‘दादा’ लोगों की दादागिरी ही है । उनके इस दादागिरी के बावजूद लोगों नें मतदान किया यह भी उनके दिलों में ‘दादा’ लोगों के प्रति विरोध को भी स्‍पष्‍ट दर्शित करता है । 

बात उमड घुमड कर पुन: जूडूम शिविर की उपादेयता पर केन्द्रित हो जाती है । सडवा जूडूम शिविरों में हालात यद्धपि बदतर होंगें किन्‍तु जब इस शिविर के अस्तित्‍व का फैसला देने का अवसर आया तब आदिवासियों नें स्‍वयं इसके पक्ष में ही फैसला दिया । यह स्‍पष्‍ट करता है कि ‘सडवा जूडूम’ छत्‍तीसगढ के हित में है । किन्‍तु वहां का हालात सुधारा जाना आवश्‍यक है जिन्‍होंनें रमन को जिताया है उनकी सुरक्षा के साथ ही उनके जीवन स्‍तर का ख्‍याल रखना अब रमन का दायित्‍व है । 

बस्‍तर के परिणामों और मतों के आंकडों को देखते हुए मुझे यह लगता है कि, मैदानी इलाकों में बैठे हम लोग कलम से कितने ही मार्मिक तस्‍वीर उकेर लेंवें वह सत्‍यता के करीब हो सकती है, पर पूर्ण सत्‍य नहीं ।

चलते चलते .... खबर यह भी है कि रायपुर ग्रामीण से कलमकारों के संरक्षक और कलमकारों को नई उंचाईयां देने में सहयोगी, आका-काका, पूर्व मंत्री सत्‍यनारायण शमों जी चुनाव हार चुके हैं ।


संजीव तिवारी

राजीव काला जल और शानी

उस दिन दौंडते भागते दुर्ग रेलवे स्टेशन पहुचा । गाडी स्टैंड करते ही रेलगाडी की लम्बी सीटी सुनाई देने लगी थी । तुरत फुरत प्लैटफार्म टिकट लेकर अंदर दाखिल हुआ । छत्तीसगढ एक्सप्रेस मेरे स्टेशन प्रवेश करते ही प्लेटफार्म नं. 1 पर आकर रूकी । चढने उतरने वालों के हूजूम को पार करता हुआ मैं एस 6 के सामने जाकर खडा हो गया । राजीव रंजन जी और अभिषेक सागर जी मेरे सामने खडे थे । साहित्य शिल्पी और छत्तीसगढ के साहित्यकारों पर संक्षिप्त किन्तु महत्वपूर्ण चर्चा के बीच ही राजीव जी नें सागर जी को सामने की पुस्तक दुकान से शानी का ‘काला जल’ पता करने को कहा, पुस्तक वहां नहीं मिली । तब तक गाडी की सीटी पुन: बज गई और राजीव जी एवं सागर जी से हमने बिदा लिया देर तक हाथ हिलाते हुए बब्बन मिंया स्मृति में आ गए ।

राजीव जी से क्षणिक मुलाकात उनका व्यक्तित्व‍ मेरे लिए उनके बस्तर प्रेम के कारण बहुत अहमियत रखता है तिस पर शानी की याद । शानी नें तो बस्तर को संपूर्ण हिन्दी जगत में अमर कर दिया है, सच माने तो हमने भी बस्तर को शानी से ही जाना । उनकी कालजयी कृति ‘काला जल’ नें तो अपने परिवेश से प्रेम को और बढा दिया ।

‘काला जल’ या शानी का उल्लेख जब जब होता है जगदलपुर का वह तालाब स्मृति में जीवंत हो उठता है, उसके पात्र व कथानक गड्ड मड्ड रूप में कई कई बार मन में उमडते हैं पर ठीक से याद नहीं रह पाते । राजीव जी के याद दिलाने पर मुझे उसे पढने की इच्छा पुन: जागृत हो गई । यह उपन्यास मेरी नजरों में लगभग 1982-83 में आई थी और 1983 की गर्मियों में मैंने इसे पढा था । यह मेरे गांव में मेरी मां की सहेजी गई निजी लाईब्रेरी में थी । मेरी मॉं हंस व सारिका की अनियमित पाठक थी एवं धुर गांव में भी जिसे मैंनें बाद में समझा कि इसे साहित्य कहा जाता है, ऐसे किताबों की भी पाठक थीं और संग्रह भी करती थीं । अत: मैं ‘काला जल’ को पाने के लिए पिछले रविवार को गांव जा पहुचा जहां उनकी किताबें नहीं मिल पाई किन्तु हंस व सारिका के कुछ फटे पुराने अंक व अन्य पत्रिकायें ही मिल पाई पुस्तनकें नदारद थी ।

मेरी मॉं एवं मेरे पिता की मृत्यु के बाद गांव का घर लगभग सराय सा हो गया है और जिन्हें जो अच्छा लगा वे बहुत पहले ही ले गए । सो ‘काला जल’ मुझे वहां नहीं मिल सका । घर की देररेख के लिये जिसे हमने गांव में रखा है उसने जब हमें कागजों की ढेर में जूझते देखा तो पूछा ‘दाउ का खोजत हावस?’ उसे बताने का कोई औचित्य नहीं था किन्तु उसने एक कमरे में ले जाकर मुझे दो तीन पुस्तकें दिखाई जिसे किसी मेहमान नें मेरे पिताजी के मृतक कार्यक्रम के समय पढ कर वहीं रख दिया था और कमरा बरसों से ताले में बंद था । मेरी खुशी का ठिकाना न रहा, धूल में अटा ‘काला जल’ वहां मिल गया ।

ऐसी कृतियों को पढने के प्रति रूचि जागृत करने का पाठ मैंनें अपनी मॉं से सीखा था । मॉं मिडिल स्कूल तक ही पढी थी और इसी बीच में वह बहू बनकर मेरे दादा के गांव में आ गई थी जहां महिलाओं को पढाने का रिवाज नहीं था । मेरे दादा की मालगुजारी थी और बीसियों लठैतों के साथ पच्चीसों हल चलते थे आवश्यक संस्कृत के अतिरिक्त अन्य शिक्षा को तनिक भी महत्व नहीं दिया जाता था । ऐसी परिस्थितियों में भी मॉं की ऐसी रूचि, मानसिक क्षमता एवं साहित्तिक अभिरूचि को देखकर मुझे आश्चर्य होता था । भीष्म साहनी की तमस जब पहली बार प्रकाशित होकर बाजार में आई और मॉं के हाथ लगी तब की कुछ बातें स्मृति में हैं । मेरे बडे भाई बताते हैं, उन दिनों वो तमस के कथानकों एवं उस समय की ऐतिहासिक परिस्थितियों को तमस के कथानक में जोडने, उसमें उभारने एवं कुछ चरित्रों पर कम प्रकाश डालने के लेखक के उद्देश्यों पर चर्चा करती थी पर हमें यह सब समझ में नहीं आता था और जब तमस टीवी में आई तो उसे देखने में जो आनंद आया उसका वर्णन नहीं किया जा सकता ।

कथानक व कृति की तत्कालीन उपादेयता पर उनका ध्यान व बहस हमेशा केन्द्रित रहता था । ऐसे समय पर भी वे गंभीर चिंतन करती जब किसी पुस्तक का पुर्नप्रकाशन हुआ हो । संस्करणों के बीच की अवधि को अपने मोटे चश्में से निहारते हुए पहले बुदबुदातीं और हमें बतलातीं कि यह पुस्तक फलां से फलां सन् तक सर्वाधिक बिकी है । इसका भी क्या मतलब होता है यह हम नहीं जानते थे यद्धपि वह भारतीय परिस्थितियों , किताब के कथानक या विषय को उन वर्षों से जोडकर समझाती थीं पर हमारे पल्ले नहीं पडती थी । आज इन बहुत सारी यादों को संजोंना उन पर चर्चा करना अच्छा लगता है । ‘काला जल’ के कथानक की तरह ।

मेरे गांव से मेरे वर्तमान निवास दुर्ग तक का लगभग 125 किलोमीटर का सफर इन्हीं यादों में कट गया । यहां आते ही ‘काला जल’ को एक ही बैठक में पी गया । गुलशेर अहमद ‘शानी’ के इस काला पानी रूपी जीवन प्रणाली में अमानवीय और प्रगतिविरोधी मानों और मूल्यों की असहनीय सडांध में डूबते उतराते बब्बन, मिर्जा करामत बेग, बी दरोगिन, रज्जू मिंया, रोशन, मोहसिन, छोटी फूफी, सल्लो आपा नें पुन: बस्तर को जीवंत कर दिया ।

आपको भी यदि अवसर मिले तो अवश्य पढें शानी की सर्वश्रेष्ठ कृति  ‘काला जल’ ।


संजीव तिवारी

'पहल' के बंद होने पर महावीर अग्रवाल जी की त्‍वरित टिप्‍पणी

"पहल के प्रवेशांक से लेकर अभी-अभी प्रकाशित 90 अंक तक का एक-एक शव्‍द मैंने पढा है । पहल मेरे लिए एक आदर्श पत्रिका प्रारंभ से लेकर आज तक रही है । पहल के संपादक ज्ञानरंजन से प्रेरणा लेकर ही मैंने 'सापेक्ष' पत्रिका प्रारंभ की थी जिसके अभी तक 50 अंक छप चुके हैं । 

पहल का बंद होना मेरे लिए सिर्फ एक दुखद घटना नहीं है वरण मैं यह मानता हूं कि पहल के बंद होने से सुधी पाठकों की दुनियां में एक शून्‍यता और निराशा आयेगी । मेरी ज्ञानरंजन जी से दूरभाष पर चर्चा हुई उन्‍होंनें कहा - अब लिखेंगें पढेंगें और मित्रों से भेंट मुलाकात करेंगें । मुझे लगता है नई पीढी में कोई न कोई आयेगा और ''पहल'' के काम को आगे जरूर बढायेगा । "


डॉ. महावीर अग्रवाल 
संपादक - सापेक्ष

सापेक्ष 47 - हबीब तनवीर का रंग संसार, सापेक्ष 48 - उत्‍तर आधुनिकता और द्वंदवाद, सापेक्ष 49 विज्ञान का दर्शन (फ्रेडरिक एंगेल्‍स का योगदान), सापेक्ष 50 - हिन्‍दी आलोचना पर

इस ब्‍लाग पर कल पढें - 'राजीव रंजन, शानी और काला जल'  
 

सरखों में श्याम कार्तिक पूजा : प्रो. अश्विनी केशरवानी

छत्‍तीसगढ आदि काल से अपनी परम्परा, समर्पण की भावना, सरलता और उत्सवप्रियता के कारण पूरे देश में आकर्षण का केंद्र रहा है। यहां के लोगों का भोलापन और प्रकृति का निश्छल दुलार का ही परिणाम है कि यहां के लोग सुख को तो आपस में बांटते ही हैं, दुख में भी विचलित न होकर हर समय उत्सव जैसा महौल बनाये रखते हैं। किसी प्रकार का दुख इनके उत्सवप्रियता में कमी नहीं लाता। झूलसती गर्मी में इनके चौपाल गुंजित होते हैं, मूसलाधार बारिश में इनके खेत गमकते हैं और कड़कड़ाती ठंड में इनके खलिहान झूमते हैं। ''धान का कटोरा'' कहे जाने वाले इस अंचल के लोगों के रग रग में पायी जाने वाली उत्सवप्रियता, सहजता और वचनबद्धता कई तरीके से प्रकट होते हैं। ''श्याम कार्तिक महोत्सव ' उनमें से एक है जो छत्‍तीसगढ में अपनी तरह का अनूठा आयोजन है। नवगठित जांजगीर-चांपा जिले का एक छोटा सा गांव सरखों में मुझे यह अनूठा आयोजन देखने को मिला।

जांजगीर जिला मुख्यालय के नैला रेल्वे स्टेशन से मात्र ३-४ कि.मी. की दूरी पर एक छोटा सा गांव सरखों स्थित है। पक्की सड़क और निजी बस इस गांव को अन्य गांवों से जोड़ती है। सड़क के दोनों ओर खेत और खेतों में कटने के लिए तैयार धान की फसल। धान की सोंधी महक मेरे मन को प्रफुल्लित कर रही थी.. और हमारी मोटर सायकल धीरे धीरे प्रकृति के इस आनंद उत्सव का आनंद लेती जा रही थी। शंकर भाई गाड़ी चला रहे थे और बीच बीच में मेरे उल्टे सीधे प्रश्नों का उत्‍तर भी देते जा रहे थे। दिन भर के इंतजार के बाद शाम को सरखों जाने का संयोग बना था। कार्तिक पूर्णिमा का दिन वैसे भी छत्‍तीसगढ वासियों के लिये महत्वपूर्ण होता है। श्याम कार्तिक महोत्सव का अंतिम दिवस होने के कारण सड़कों में जबरदस्त भीड़ थी-औरत, मर्द, बच्चे, बूढ़े और मनचले युवकऱ्युवतियां पैदल, साइकिल, भैंसा गाड़ी, बस, टे्रक्टर और जीप में बैठकर जा रहे थे। सबकी एक ही मंजिल थी- सरखों। मेरी उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी, मन में कई प्रकार के प्रश्न उठ रहे थे...।

जांजगीर जिला कृषि के क्षेत्र में अत्यंत समृद्ध है और उनकी समृद्धतता यहां के खेतों में दो बार फसल होने के कारण है। यही नहीं बल्कि इस जिले में सरखों, जर्वे, सिवनी आदि गांवों में अनेक प्रतिभाएं छत्‍तीसगढ को गौरवान्वित करती रही है। उच्च शिक्षा, भारतीय प्रशासनिक सेवा, चिकित्सा आदि महत्वपूर्ण पदों पर यहां की प्रतिभाएं पदस्थ रही है। इससे यह गांव शुरू से चर्चित रहा है। ये बात अलग है कि ये प्रतिभाएं अपने गांव की ओर मुड़कर नहीं आये और उनकी उपेक्षा भाव माता पिता की बूढ़ी आंखों को जी भरकर रूलाया है और बूढ़ेपन में बिना सहारे जीने को मजबूर कर दिया है। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहें....?

शंकर भाई ने मोटर सायकल अचानक रोक दी- सरखों आ गया भई ! मेरी विचार श्रृंखला अचानक टूट गयी और मैं अपने को सरखों के भीड़ में पाया। शाम गहराती जा रही थी और रोशनी के बावजूद अंधेरापन महसूस हो रहा था। मुझे लगा दिन में आते तो अच्छा होता ? हम लोग एक भीड़ भरे घर में दाखिल हुए। लोगों ने वहां हमारा बड़ा आत्मीय स्वागत किया। एक महिला आगे आकर हमारा स्वागत करती हुई साधिकार बैठक में ले गई और मना करने के बावजूद जलपान करने के लिए ले आयी। शंकर भाई मेरा उनसे परिचय कराते हैं- ये अश्विनी केशरवानी हैं, चांपा के कालेज में पढ़ाते हैं और पेपर में लिखते भी हैं...श्याम कार्तिक महोत्सव देखने आये हैं..और ये इस गांव की सरपंच हैं- श्रीमती कुमारी बाई राठौर। मैंने हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया। उनकी सहजता, सादगी और आत्मीयता देखकर मैं अभिभूत हो गया। आज के स्वार्थी दुनियां में ऐसे लोग भी हैं जो नि:स्वार्थ होते हैं। पूरा गांव इसी भाव से से बाहर से आये मेहमानों, रिश्तेदारों के स्वागत सत्कार में लगा हुआ था। गांव में त्योहार जैसा माहौल था। गांव का ऐसा कोई भी घर नहीं था जहां मेहमान न आया हो ? वैसे भी कार्तिक मास सनातन धर्मी लोगों के लिए महत्वपूर्ण मास है। इस मास में सार्वाधिक व्रतोत्सव होते हैं। कार्तिक मास की कथाओं या पौराणिक प्रसंगों के कारण ही नहीं बल्कि भौगोलिक, पर्यावरण, वैज्ञानिक और ज्योतिष कारणों से भी महत्वपूर्ण है। कृतिका नक्षत्र जिस पूर्णिमा को होता है वह मास कार्तिक का होता है। चंद्रमा उच्च का होता है अर्थात् पितर प्राण पृथ्वी पर दूरी पर होते हैं और सौर प्राण पृथ्वी के करीब होता है। मास का प्रत्येक दिन, प्रत्येक क्षण महत्वपूर्ण होता है।

...और हम जब गांव के गुड़ी में पहुंचे तब श्री श्याम कार्तिक महाराज की शोभायात्रा निकल चुकी थी और गांव के बड़े बुजुर्ग इस आयोजन में सहभागी बने गुड़ी में उपस्थित थे। इस गांव का गुड़ी गांव के बीच में स्थित है। सामने पंचायत भवन है। गांव के चारों ओर छोटे बड़े तालाब हैं। तालाबों की उपादेयता पहले दैनिक उपभोग, स्नान-ध्यान और खेतों की सिंचाई आदि के लिए थी। छत्‍तीसगढ के गांव तालाबों के मामले में जरूर सम्पन्न है। लेकिन इन तालाबों से सिंचाई अब नाम मात्र को होता है। अब उसमें नहाने भी कोई नहीं जाता बल्कि उसमें मछली की खेती होती है। इससे ग्राम पंचायत की आमदनी होती है। शायद खेत इसीलिए सूखते जा रहे हैं? उसकी निर्भरता या तो वर्षा के पानी अथवा बिजली की मदद से बोरिंग पर है। बहरहाल, सरखों में नहर से सिंचाई होती है। यहां एक से पांच एकड़ खेत वाले किसान अधिक हैं और चांपा जमींदारी से जुड़े मालगुजार लाल अमीरसिंह जी का परिवार और कुछ ''पोठ किसान'' हैं। सभी सुसम्पन्न और तन, मन और धन से इस महोत्सव में अपनी भागीदारी देते हैं। गांव के बड़े बुजुर्ग श्री दादूराम साव, श्री झाड़ूराम साव, पूर्व सरपंच श्री भरतलाल राठौर ने मुझे बताया कि सब गांव की तरह हमारे गांव में भी दीपावली में गौरी पूजा किया करते थे। बरसों की इस परंपरा में एक बार ऐसा मोड़ आया कि श्री सोनाऊ केंवट का प्रस्ताव-'' हमारे गांव में क्यों न श्याम कार्तिक महाराज की मूर्ति स्थापित करके पूजा-अर्चना किया जाये..'' को गांव वालों ने आज से लगभग ४०-४२ साल पहले मान लिया था। तब से आज तक श्री श्याम कार्तिक महाराज की पूजा हम करते आ रहे हैं। बहुत दिनों तक श्री श्याम कार्तिक महाराज को एक लोहार के दुकान में बैठाते थे। कुछ ही वर्ष पहले सबकी सहमति से अब गांव के गुड़ी में श्री श्याम कार्तिक महाराज को बिठाने लगे हैं। एक वर्ष सरखों में तो दूसरे वर्ष बोड़सरा में यह महोत्सव होता है। जिस वर्ष सरखों में यह महोत्सव होता तो बोड़सरा में नवधा रामायण होता है। इसी प्रकार जिस वर्ष बोड़सरा में यह महोत्सव होता है तो सरखों में नवधा रामायण होता है। लेकिन सरखों में ही केवल श्री श्याम कार्तिक महाराज की मूर्ति स्थापित करके पूजा अर्चना की जाती है। कार्तिक मास के दूसरे पाख के छट से पूर्णिमा तक नौ दिन तक श्री श्याम कार्तिक महाराज की मयूर में विराजित छ: सिरों और बारह हाथ वाले मनमोहक मूर्ति की स्थापना की जाती है। साथ में शिव पार्वती और उसकी परिक्रमा करते श्री गणेश जी की प्रतिमा स्थापित करते हैं। अन्य झांकी में श्री कृष्ण जी की माखन खिलाते यशाोदा जी की मूर्ति होती है। ये मूर्तियां गांव के ही मूर्तिकार स्व. श्री शिवलाल श्रीवास, घासीराम आदि बनाते थे। वर्तमान में बलराम साव बनाते आ रहे हैं। इस उत्सव में नवयुवकों की पर्याप्त हिस्सेदारी होती है। श्री श्याम कार्तिक महोत्सव के अध्यक्ष श्री अजय सिंह राठौर, ने बताया कि इस महोत्सव मंे पूरा गांव एकजूट होकर कार्य करता है। स्वस्फूर्त होकर नवयुवक वालिंटरी करते हैं। घर की औरतें बाहर से आये बहू-बेटियों, रिश्तेदारों और मेहमानों की खातिरदारी करने में पूरा सहयोग करती हैं। इतने बड़े आयोजन में पुलिस की बिल्कुल आवश्यकता नहीं होती।

इस गांव में श्री श्याम कार्तिक महाराज की पूजा का प्रथम अधिकार पूर्व मालगुजार लाल अमीरसिंह के परिवार को प्राप्त है। नौ दिन तक चलने वाले इस महोत्सव में आप-पास के गांवों के सभी नागरिकों को सम्मिलित होने का निमंत्रण भेजा जाता है और सरखों में उनका आत्मीय स्वागत किया जाता है, जो अमूमन दूसरी जगह देखने को नहीं मिलता। चार वार्डो में निवासरत अनुसूचित जाति की बस्ती में स्वजातीय बंधुओं की मेहमान नवाजी भी उल्लेखनीय है। छोटे-बड़े हर प्रकार के दुकान, होटल आदि यहां लगता है। कार्तिक पूर्णिमा इस उत्सव का अंतिम दिन होता है। दोपहर में पूजा, हवन आदि के बाद श्री श्याम कार्तिक महाराज की शोभायात्रा निकलती है जो पूरे गांव की गलियों में भ्रमण करके पुन: गुड़ी में लायी जाती है और नवा तालाब में नाव खेलने के बाद रात्रि में उसे विसर्जित कर देते हैं। इस दृश्य को हजारों-लाखों आंखें अपलक निहारते हैं। पंचायत द्वारा जल ग्रहण मिशन के सहयोग से इस तालाब को बंधाने का कार्य किया गया है। लेकिन चारों ओर से सर्च लाइट लगाकर नांव खेलने के दृश्य को फोकस किया जाये तो यह दृश्य और आकर्षक बन सकता है। लेकिन प्रशासन, दैनिक समाचार पत्रों और मीडिया की नजरों से दूर इस गांव की यह अनूठी परंपरा स्वस्फूर्त रूप से बदस्तूर जारी है। शोभायात्रा के दौरान हर घर के सामने उनकी पूजा-अर्चना कर आरती उतारी जाती है। सबके सहयोग से श्री श्याम कार्तिक महाराज की शोभायात्रा निर्विघ्न सम्पन्न होती है। कवि किशोर पांडेय गाते हैं :-

जय स्कंद कारतिक स्वामी। चराचरन के अंतर जामी।।
सकल परानी के हिय कंदर। बइठे नित गुह बनके उज्जर।।
कउनो आरो तब नहिं पावैं। नांव ठांव सब गुपुत बतावैं।।
तैं हस स्वयं गुपुत के ज्ञाता। जय जय हे गनपति के भ्राता।।
मइहन परम अनु ले जादा। हव महान तुम कतका गादा।।
जानकार करन कारज के। तन अवतरिस पझरिहा रज के।।
गरभ ले खसल परै उमा के। पाय सरूप परम अतमा के।।

स्कंद पुराण के अनुसार श्री गणेश के अग्रज कार्तिक महाराज आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने और शिव भक्ति का दक्षिण भारत में प्रचार करने के लिए जप तप करने लगे। दक्षिण भारत में कार्तिक भगवान को ''श्री मुरगुन स्वामी'' के रूप में पूजा जाता है। कवि किशोर की बानगी पेश है :-

देउता तीरिथ रिसि अउ मुनी। दउड़य करौंच कातिक पुन्नी।।
दक्खन परमुख देव कहावैं। मुरगुन स्वामी नाव धरावैं।।
ब्रह्मचर्य के शक्ति देवैया। शुभदानी अउ पाप हरैया।।
हवै मंजुर के तुंहर सवारी। जै शिखि ध्वज अखंड ब्रह्मचारी।।

ब्रह्मचर्य, शक्ति और श्री रूद्रायामल तंत्र के अन्नो बढ़ाने वाले श्री श्याम कार्तिक महाराज के बखान इन शब्दों में सुनिये :-
छह मुखमंडल कमल हे प्रमुदित। बारह विशाल नयन आनंदित।।
बाजू बारह उठे अकाशा। बारह धरय अस्त्र अघनाशा।।
शांत चतुरभुज रूप तव सुघरा। हाथ अभय वर शक्ति अउ कुकरा।।
तैं उन मंगलवार के राजा। बाधा नाश तुंहर हे काजा।।
परम पबित हे तोर सरूपा। जय जय सुर सिरमोर युधूपा।।

दक्षिण भारत में पूजित श्री श्याम कार्तिक स्वामी यूं अचानक जांजगीर क्षेत्र में कैसे पूजे जाने लगे यह प्रश्न आज भी अनुत्‍तरित है। लेकिन इनकी पूजा की अनूठी परंपरा से सरखों, बोड़सरा और खोखरा और इस क्षेत्र के लोगों में आपसी भाईचारा का संदेश लोकहित में उचित भी है। मुझे सरपंच काकी की बात ''...कारतिक महराज के दरसन करा, घर में खाहा-पीहा, रथिया मा गम्मत देखिहा अउ बिहना जाहा..। में महोत्सव का सारा निचोड़ दिखता है। उन्हें मेरा साधुवाद।

रचना, आलेख, फोटो एवं प्रस्तुति -

प्रो. अश्विनी केशरवानी
''राघव'' डागा कालोनी,
चांपा-४५६७१ ( छत्‍तीसगढ )

नया मेहमान

कल रात  को घर आकर फ्रेश होकर बैठा तो मेरा बालक नारियल हाथ में लेकर खडा हो गया ।  अगरबत्‍ती लगाकर इसे तोडे, हमने बिना त्‍यौहार कारण पूछा तो उसनें बतलाया । हमारे कालोनी के मकानों में गार्डनिग के लिए भरपूर जगह दिये गये हैं जिसमें कईयों नें बागवानी के अपने शौक को पूरा किया है जिसमें से किसी के गार्डन में एक बिल्‍ली नें चार बच्‍चे दिये थे और बच्‍चों के आंख खुलने के बाद से वह पूरे कालोनी में कभी यहां तो कभी वहां अपने बच्‍चों को छोड कर घूमती रही है ।

अब खबर यह थी कि बिल्‍ली अपने एक एक बच्‍चों को अलग अलग घरों के गार्डन में छोड आयी है और बच्‍चे दिन भर अपनी मॉं से मिलने की आश में चिल्‍ला रहे हैं ऐसा ही एक बच्‍चा पिछले दो दिन से हमारे घर के बाउंड्री में रखे कबाडों के पीछे छुपा चिल्‍ला रहा था, मेरा बालक इससे अतिआकर्षित व उत्‍साहित हो रहा था वहीं मेरी श्रीमतीजी को इस आवाज से काफी गुस्‍सा आ रहा था पर उसे बंद कराने का जरिया मात्र उसे उसकी मॉं से मिलाना था जो संभव नहीं दिख रहा था, अब उसके क्रोध नें भक्ति का सहारा लिया जो स्‍वाभाविक तौर पर महिलाओं में देखी जाती है, उसके मॉं से उसे मिलाने की मन्‍नत स्‍वरूप नारियल 'चढाया गया और चमत्‍कार स्‍वरूप अगले दिन उसकी मां शाम को पिछवाडे वाले खण्‍डेलवाल आंटी के गार्डन में आयी तो श्रीमतिजी नें हमारे घर में छूटे बच्‍चे को भी उसके पास पहुँचा दी । बच्‍चे को पूरे तीन दिन बाद मॉं का दूध व साथ मिला था ।
उमंग व उत्‍साह को मेरे घर में पाकर मैं मुदित था ।

मेरे संस्‍था प्रमुख की कृपा से मेरे दुर्ग निवास का लगभग संपूर्ण समय कम्‍पनी के द्वारा ही उपलब्‍ध कराए गए आवास में बीत रहा है । इस आवास से मेरा लगाव इसलिये कुछ ज्‍यादा है कि मैं जब गांव में रहता था तब भी शिवनाथ नदी मेरे घर के करीब बहती थी और यहां मीलों दूर शहर में भी शिवनाथ मेरे घर के करीब ही बहती है और बरसात के दिनों में जब वह अति उत्‍श्रृंखल हो जाती है तो उसी तरह मेरे इस शहर के घर में भी घुसती है जैसे वह गांव के घर में बेरोकटोक घुस आती है, पर यहां ऐसी स्थिति दो-तीन साल में एकाध बार ही होता है सो हम जैसे तैसे सामानों को सम्‍हालते हैं और उपर व्‍यवस्थित करने की जुगत में लगते हैं कभी कभी इस जुगत में लगने वाले समय तक शिवनाथ वापस चली जाती है और हमें इसी बहाने घर के सामानों को पुन: दीपावली के पूर्व ही व्‍यवस्थित करने का बहाना मिल जाता है ।

अब बरसात और दीपावली दोनों अपने उमंग की खुशबू बिखेरती हुई गुजर गई है पर मेरे कालोनी की गलियों में अब भी फटाकों की चुट-पुट जारी है । फटाका चलाते बच्‍चों और पटाकों से बचते बंचाते कल रात आफिस से घर पहुंचा, तो घर में उत्‍साह व उमंग के साथ एक नये मेहमान को देखकर मैं चकराया । मेरा पुत्र अति उत्‍साहित नजर आ रहा था किन्‍तु श्रीमतीजी कुछ चिंतित । मेहमान महोदय को जब हम देखे तो हमारा भी प्‍यार उमड पडा । हमने श्रीमतीजी से पालतू जानवरों से चिढने वाले अपने स्‍वभाव के बावजूद बिल्‍ली के बच्‍चे को अचानक अपने घर में पनाह देने का कारण पूछा तब उसनें बतलाया कि  बिल्‍ली आज भी अपने बच्‍चे को दूध पिलाने नहीं आई है और यह दिन भर चिल्‍लाई है मेरे कान पक गये हैं इसकी आर्तनाद सुनकर मुझसे नहीं रहा गया तो इसे घर के अंदर ले आई  । स्‍वाभाविक मानवीय भावनाओं को जीवंत देखने में आनंद आता है आज भी मोगैम्‍बो खुश हुआ ।

मैं अपने ग्रामीण पन को जीवित रखने के प्रयास में ठंड आते ही सुबह-सुबह गार्डन एरिया में इंटो को चूल्‍हे का शक्‍ल देकर आग 'तापता' हूं और उसका सदुपयोग करते हुए पत्‍नीश्री उसी से सभी के लिए नहाने का पानी भी गरम कर देती है । सुबह उठकर देखा तो श्रीमतीजी ड्रापर से उस बिल्‍ली के बच्‍चे को दूध पिलाने में मगन थी,चूल्‍हा ठंडा था । सो हमने सेल्‍फ सर्विस का मंत्र बुदबुदाते हुए चाय की गंजी उठाई पर उसकी आवाज ने श्रीमतीजी के तंद्रा को तोडा और हमारी चाय से लेकर सुबह के नास्‍ते की व्‍यवस्‍था हो पाई । ड्रापर में दूध पीने के बाद इस बिल्‍ली के बच्‍चे नें घर में खूब उधम मचाया । उसे खेलते देखकर बरबस चेहरे पर मुस्‍कान आ जाती थी । देर तक उसके खेल को देखने के बाद आज वोट डालकर लेट से आफिस के लिए निकला ।
रास्‍ते में उस बिल्‍ली के बच्‍चे की यादें छाई रही । लगता है लोग इसीलिये पालतू जानवर घर में रखते हैं,  व्‍यस्‍त जिन्‍दगी में अटैचमैंट के लिए भावनाओं का बयार मनुष्‍य को छूकर नहीं निकलती । पर इन भावनाओं को महसूस  मनुष्‍य ही करता है ................ 

संजीव तिवारी

लोक गाथा : दशमत कैना

भोज राज्य का राजा भोज एक दिन अपनी सात सुन्दर राजकन्याओं को राजसभा में बुलाकर प्रश्न करता है कि तुम सभी बहने किसके भाग्य का खाती हो । छ: बहने कहती हैं कि वे सब अपने पिता अर्थात राजा भोज के भाग्य का खाती हैं और सब पाती हैं । जब सबसे छोटी बेटी से राजा यही प्रश्न दुहराता है तब, अपनी सभी बहनों से अतिसुन्दरी दशमत कहती है कि, वह अपने कर्म का खाती है, अपने भाग्य का पाती है । इस उत्तर से राजा का स्वाभिमान ठोकर खाता है और स्वाभाविक राजसी दंभ उभर आता है ।
राजा अपने मंत्री से उस छोटी कन्या के लिए ऐसे वर की तलाश करने को कहता है जो एकदम गरीब हो, यदि वह दिन में श्रम करे तभी उसे रोटी मिले, यदि काम न करे तो भूखा रहना पडे । राजा की आज्ञा के अनुरूप भुजंग रूप रंग हीन उडिया मजदूर बिहइया को खोजा गया । वह अपने भाई के साथ जंगल में पत्थर तोडकर ‘पथरा पिला-जुगनू’ निकालते थे जिसे उनकी मॉं, साहूकार को बेंचती थी जिससे उन्हें पेट भरने लायक अनाज मिल पाता था । बिहइया से दसमत कैना का विवाह कर दिया गया । दशमत अपने पति के साथ पत्थर तोडने का कार्य करने लगी जिसे उन्होंने अपना भाग्य समझकर स्वीकार कर लिया । पत्थर से निकलने वाले ‘पथरा पिला’ को दशमत कैना परख लेती है कि वे हीरे हैं जिसका साहूकार अत्यंत कम कीमत देता है और खुद लाखों में बेंचता है । तब वह उससे लड झगडकर हीरे का उचित प्रतिफल प्राप्त करती है और अपने जाति के लोगों को भी दिलवाती है । राजकुमारी होने के कारण नेतृत्व के स्वा्भाविक गुण उसमें रहते हैं । वह अपने सभी मेहनतकश रोज कमाओ रोज खाओ वाले उडिया समूह की नेत्री बन जाती है और दशमत ओडनिन के नाम से पहचानी जाती है । दशमत के भाग्य में मेहनत से ही खाना लिखा होता है, अत: वह अपने पति एवं ओडिया मजदूरों के समूह के साथ साथ क्षेत्र भर में घूम घूम कर बांध, तालाब व बावली खोदने का काम करने लगती है । इसी क्रम में दशमत ओडनिन धौंरा नगर के राजा महानदेव के पास जोहारने के बहाने 120 स्त्री और 120 पुरूषों के साथ काम पूछने जाती है । राजकुल में उत्पहन दशमत अपने पारंपरिक छत्तीसगढिया श्रृंगार में जब राजा महानदेव के सामने प्रस्तुत होती है तब राजा उसके सौंदर्य से मोहित हो जाता है । महल में फुदकने वाली गौरइया राजा को चेतावनी देती है कि इस पर आशक्त मत होवें पर राजा दशमत को स्वर्ण आसन देता है और उसका परिचय पूछता है । दशमत बतलाती है कि भोजनगर उसका मायका है और ओडार बांध उसका श्वसुराल, वह बाबली खोदने का काम करती है ।
दशमत के रूप यौवन पर मोहित राजा उसे अपने गरीब मजदूर पति को छोड पटरानी बनने का प्रस्ताव देता है और उससे विनय करने लगता है । दशमत विचलित हुए बिना राजा का अनुरोध ठुकरा देती है और ओडार बांध आकर अपने कार्य में लग जाती है ।
नव लाख ओडिया मिट्टी खोद रहे हैं और नव लाख ओडनिन ‘झउहा’ में मिट्टी ढो रही हैं जिसमें से अपने सौंदर्य के कारण दशमत कैना अलग से पहचानी जा रही है वह मिट्टी ढोनें में पूरी तन्मीयता से लगी है । राजा महानदेव दशमत के प्रेम में ओडार बांध आ जाता है और बांध के किनारे तंबू तान कर बैठ जाता है और दशमत के रूप यौवन का आंखों से रस लेने लगता है ! उसे कंकड मार मार कर छेडता है । दशमत से विवाह करने की गुहार करता है उसके इस हरकत से परेशान दशमत शर्त रखती है कि तुम भी हमारी तरह काम करो तब सोंचेंगें । प्रेम में आशक्त राजा सिर में ‘झउहा’ लिए ‘लुदरूस-लुदरूस’ मिट्टी ढोता है । पसीने से लथपथ उसका राजसी वैभव प्राप्त शरीर थककर चूर हो जाता है । दशमत की सहेलियां उससे मजाक करती है, दशमत भी कहती है, देखो रे तुम्हारे जीजा कैसे मिट्टी ढो रहे हैं, हंसी ढिठोली के बावजूद राजा वह कार्य नहीं कर पाता । वह दशमत से कोई दूसरा निम्न स्तरीय कार्य कराने को कहता है पर श्रम वाला काम करने से मना करता है । ऐश्वेर्यशाली राजा की दीनता पर मजा लेते निम्नस्तर का जीवन यापन करने वाले ओडिया लोग कहते हैं कि हमारे जाति के स्त्री को पाना है तो हमारी तरह मांस खाना होगा और दारू पीना होगा । राजा ब्राह्मण है, फिर भी वह दशमत के लिए तैयार हो जाता है । ओडिया डेरे में सुअर का मांस पकाया जाता है और राजा गरमा गरम मांस भात के साथ शराब का पान करता है एवं नशे में चूर हो जाता है । नशे में बाबरों सा हरकत करते हुए नाचने लगता है और थककर बेहोश हो जाता है । उसके बेहोश हो जाने पर सभी ओडिया उसे खाट में बांध देते हैं एवं उसकी चूटिया को ‘चबरी गदही’ के पूंछ से बांध कर गधी को डंडा मार, बिदका देते हैं । राजा का शरीर छलनी होता हुआ घिसटते जाता है और गधी ‘खार खार जंगल जंगल’ भागती है । राजा मदद के लिए पुकारता है, राजा के बेटे मदद के लिए महल से निकलने लगते हैं पर सातों रानियां अपने बेटों को रोक देती हैं कि जिस पिता ने एक विवाहित श्रमिक स्त्री के कारण तुम्हारी मां को त्याग दिया ऐसे पिता की सहायता मत करो । बेटों के पांव ठिठक गये । राजा का आर्तनाद सुन ओडिया मजे ले रहे हैं, राजा का मुहलगा नाई से यह सब देखा नहीं जाता वह उस्तरे से गदही का पूंछ काटकर राजा को बचाता है ।
राजा अपने महल में आता है क्रोध एवं प्रेम से पागल कुछ दिन बाद अपनी चतुरंगिनी सेना लेकर ओडार बांध की ओर कूच कर जाता है । राजा के सैनिक चुन चुनकर ओडियों को मारने लगते हैं नव लाख ओडिया और राजा के सैनिकों के बीच युद्ध होता है, सभी ओडिया मारे जाते हैं । राजा दशमत को खोजता है पर वह अपने पति के मृत्यु के दुख में ओडार बांध में कूदकर प्राण त्याग देती है । राजा दशमत के मृत देह को देखकर अत्यत दुखी हो जाता है । आत्मग्ला नी और संवेदना के कारण राजा बांध किनारे के पत्थर में अपना सिर पटक-पटक कर अपनी जान दे देता है ।
(वाचिक परम्परा में सदियों से इस गाथा को छत्तीसगढ के घुमंतु देवार जाति के लोग पीढी दर पीढी गाते आ रहे हैं । वर्तमान में इस गाथा को अपनी मोहक प्रस्तुति के साथ जीवंत बनाए रखने का एकमात्र दायित्व का निर्वहन श्रीमति रेखा देवार कर रही हैं । इस गाथा को रेखा से सुनने का आनंद अद्वितीय है । यह गाथा छत्तीसगढी संस्कृति के पहलुओं को विभिन्‍न आयामों में व्‍यक्‍त करती है ।  पारंपरिक धरोहर इस गाथा को हम भविष्य में मूल छत्तीसगढी भाषा में अपने ‘गुरतुर गोठ’ में प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगें )

कहानी रूपांकन -
संजीव तिवारी

रचनाओं की महक

प्रिय एबीसी,

काफी लम्‍बे अरसे के बाद आज तुम्‍हें फिर पत्र लिख रहा हूं, पिछले तीन माह से तुम्‍हें पत्र लिखना चाह रहा था किन्‍तु लिख नहीं पा रहा था । हंस में 'विदर्भ' कहानी पढने के बाद से ही, पर ...... तुम्‍हारा पता वहां नहीं था । सिर्फ ई मेल एड्रेस था वो भी याहू का जो हिन्‍दी मंगल फोंट को सहजता से स्‍वीकार नहीं करता इस कारण की बोर्ड पर खेलते मेरे हाथ रूक गये थे ।

उस कहानी एवं वहां दिये तुम्‍हारे परिचय से मुझे तुम्‍हारे संबंध में कुछ और जानकारी मिली और मुझे खुशी हुई कि तुम अब कम्‍प्‍यूटर से घोर नफरत करने वाली अपनी प्रवृत्ति बदल चुकी हो इसी लिए तो अपना स्‍थाई पता ई मेल का दिया है । चलो वक्‍त नें सहीं तुम्‍हें बदला तो ...., नहीं तो बदलना तो तुम्‍हारी तासीर में नहीं था ।

तुममें क्‍या क्‍या बदलाव आया है यह मैं जानना चाहता हूं, पर मैं यह भी जानता हूं कि इसके लिये मुझे तुमसे मिलना पडेगा, तुम यूं ही अपने राज खोलती भी तो नहीं हो । मैं तुम्‍हें तुम्‍हारी कहानियों से ही जान पाता हूं या फिर जब तुम मुझसे, आमने सामने बैठकर बातें करती हो । 

इन दिनों किस नगर में बसेरा है तुम्‍‍हारा, परिवार का क्‍या हाल चाल है, विकास को तो अब प्रमोशन भी मिल गया होगा, वैभव भी स्‍कूलिंग खत्‍म कर चुका होगा और कालेज में होगा, हो सकता है तुम्‍हारे सिर के बाल कुछ सफेद भी हो गए हों क्‍योंकि मेरे तो हो गए हैं , कुछ वेट कम किया कि वैसे ही ............। अब तो तुम साडी ही पहनती होगी, बहुत सारे प्रश्‍न हैं एक पत्र में समा नही पायेंगें किन्‍तु भावनायें उन्‍हें इसी पत्र में ही समेंटना चाहती हैं, पता नहीं तुमसे फिर मुलाकात या संवाद की स्थिति बन पायेगी । 

मुझे याद आता है मेरी पहली कविता जो मैंनें अपनी डायरी में लिखी थी उस पर तुमने इत्र का स्‍प्रे डाल दिया था, स्‍याही से लिखे शव्‍द फैल गए थे  तो मैंनें तुमसे कहा था कि रूको ...... ये तो मिट जायेगा । तुमने कहा था नहीं इससे इसकी खुशबू देर तक जीवित रहेगी, रचनाओं की महक । आज भी मेरी डायरी में वे पंक्तियां और खुशबू जीवंत है । 

इधर मैनें लिखना छोड दिया उघर तुमने कलम को अपना साथी बना लिया । लेख, कवितायें, कहानियां लगभग हर सप्‍ताह नजरों से गुजरने लगी । नगर नगर, महानगर में विकास के साथ नौकरी के स्‍थानांतरण का दुख-सुख झेलते हुए तुमने अपने लेखन को सदैव जीवित रखा । 

मेरे लिए तुम्‍हारी लेखनी पढना तुमसे मिलने से कम नहीं होता, मैं तुम्‍हारी लेखनी जब पढता हूं तो मुझे ऐसा लगता है कि तुम कालेज के गार्डन में बैठकर  मुझे दुष्‍यंत को डिक्‍टेट कर रही हो या फिर बाबा नार्गाजुन की रचनाओं पर बहस कर रही हो और मैं तुम्‍हारी बातों को दिलों से आत्‍मसाध कर रहा हूं (दिमाक से तो करता ही था, हा हा हा)।

'सागर मंथन', 'एक अकेली औरत', 'नील गगन', 'मेरी चुभन' और 'शिवनाथ की चपलता' सभी के विमोचन से लेकर समीक्षा तक के प्रकाशित कतरनों को मैं ढूंढ ढूंढ कर संग्रहित करता रहा हूं, इन पुस्‍तकों को भी क्रय करने के लिए प्रकाशकों व मित्रों को मनीआर्डर कर मंगाते रहा हूं । रचनाओं के साथ साथ शायद तुम्‍हारा पता भी मिल जाए । पर हर किताब में तुम्‍हारा पता अलग अलग ही रहा । 

इधर कुछ वर्षों से मैंनें भी कलम उठाने का प्रयास किया है, हो सकता है तुमने एकाक प्रकाशन देखा भी हो । पर ... सब डरते सहमते । तुम्‍हारे रहते मेरे शव्‍द और व्‍याकरण परिस्‍कृत हो जाते थे, भले ही मुझे तुमसे कुछ इर्ष्‍या होती थी किन्‍तु तुम्‍हारी नजर पडते ही आवश्‍यक सुधार के साथ ही भविष्‍य में उन गलतियों की संभावना पर विराम लग जाते थे । अब तुम यहां नहीं हो, मुझे पता नहीं मैं कहां कहां शव्‍द और व्‍याकरण की गलतियां कर रहा हूं । जहां से भी मेरी आलोचना के पत्र आते हैं मैं उत्‍सुकता से उसे निहारता हूं कि तुम तो नहीं । मुझे नहीं लगता कि तुमनें इन दिनों मुझे याद किया है । 

तुमसे मिलने की संभावनाओं के चलते ही मैनें इंटरनेट में अपने आप को विस्‍तार दिया है, मेरे लिए यह सब आसान नहीं है, तुम जानती हो । मेरा कार्य दायित्‍व एवं पारिवारिक दायित्‍व मुझे इसके लिए समय की इजाजत नहीं देता किन्‍तु मैं कुछ स्‍वार्थी सा होकर इसके लिए समय चुराता हूं ताकि तुमसे किसी नेट मोड पर मुलाकात हो जाय । यह भी हो सकता है कि जब तुम्‍हारी नजर मुझ पर पडे तब तक मेरे दीपक का तेल खत्‍म हो चुका हो, यह भी संभव है बुझ भी चुका हो । खैर इन मुद्दों पर बहस जरूरी भी नहीं । 

'इस सदी की नई कहानियॉं' संग्रह में तुम्‍हारी एक कहानी मैंने पढीहै, यह तो बहुत बडा अचीवमेंट है, नहीं नहीं अचीवमेंट को विलोपित करता हूं । तुम्‍हारी कहानियॉं इस संग्रह में आनी ही थी । इसे मेरी ठिठोली मत समझना, मैनें जब इस संग्रह की तीनों मेरे बजट से भी मंहगी किताबें खरीदी थी तब मुझे पता नहीं था कि इसमें तुम होगी । तुम अपनी लेखनी को इस उंचाई तक ले आवोगी खुशी मिश्रित आश्‍चर्य होता है । 

सच पूछो तो तुम्‍हारी पहली प्रकाशित कहानी के संबंध में महेश नें मुझे बतलाया था तो मैनें उस पर कोई उत्‍सुकता जाहिर नहीं किया था, मुझे हुआ भी नहीं था । मैनें सोंचा हॉं लिख दिया होगा और छप भी गया होगा झोंके में । किन्‍तु जब लगातार अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं में तुम्‍हारी लेखनी लगभग बरसने लगी, पाठकों के पत्रों पर चर्चा होने लगी तब मैनें, लगभग डेढ साल बाद तुम्‍हारी रचनाओं को संग्रहित करना चालू किया और सच मानों तो तभी मैनें उन्‍हें पढा भी । 

पत्र कुछ ज्‍यादा लम्‍बा हो रहा है, अत: अब विराम देता हूं । वक्‍त मिले एवं यदि तुम्‍‍हें सचमुच मेल खोलना आता हो तो मुझे मेल करना । रचनाओं की महक क्‍या होती है अब मैं महसूस करता हूं ।

तुम्‍हारा 

एक्‍सवाईजेड

पागल हो गया है क्या ….?

ठांय ! ठांय ! ठांय !, बिचांम ! करती हुई वह बच्ची मेरे बाईक के आगे बैठी सडक से गुजरने वालों पर अपनी उंगली से गोली चलाने का खेल खेल रही थी । अपनी तोतली बोली में उन शव्दों को नाटकीय अंदाज में दुहराते जा रही थी । मैंनें उससे पूछा-
‘क्या कर रही हो ?’
‘गोली चला रही हूं !’
‘किसे ?’
‘तंकवादी को !’ उसने अपनी तोतली जुबान में कहा । मैं हंस पडा, ‘ये तंगवादी कौन हैं ?’
‘जो मेरे पापा को तंग करते हैं !’ उसने बडे भोलेपन से कहा । मैं पुन: हंस पडा । तब तक चौंक आ गया, चौंक में उसके मम्मी-पापा खडे थे । मैं उसे उनके पास उतारकर आगे बढ गया, वो दूर तक मुझे टाटा कहते हुए हाथ हिलाते रही ।

आज लगभग चार साल बाद उससे मेरी मुलाकात हई थी, वह रिजर्व पुलिस बल के मेन गेट पर सडक में टैम्पू का इंतजार करते अपनी पत्नी व चार साल की बच्ची के साथ खडा था । मैं अपनी धुन में उसी रोड से आगे बढ रहा था, दूर से ही मुझे पहचान कर वह हाथ हिलाने लगा, ‘सर ! सर !’ मैं उसे अचानक पहचान नहीं पाया । हमेशा गार्ड की वर्दी में उसे देखा था, यहां वह टी शर्ट व जींस में खडा था । मैं किसी परिचित होने के भ्रम में उसके पास ही गाडी रोक दिया । उसने मेरा पैर छूकर प्रणाम किया, साथ ही अपनी पत्नी और बच्ची को ऐसा करवाया । उसके चेहरे में जो खुशी झलक रही थी उसे देखकर मैं आश्चर्यचकित हो रहा था । वह मुझसे मिलकर इस कदर प्रसन्न था जैसे मैं उसका खोया हुआ रिश्तेशदार हूं । मैं भी प्रसन्नता के भावों को मुखमंडल में थोपते हुए उससे मिला । बातें हुई उसने बतलाया कि वह बस्तर में संतरी वाहन चालक के पद पर पदस्थ है और भिलाई में बटालियन के क्वाटर में बच्चे रहते हैं । बातों का सिलसिला जब चला तो बस्तर की वर्तमान परिस्थितियों पर चर्चा करते हुए उसने बतलाया कि ‘सर जब भी मैं छुट्टी के बाद ड्यूटी जाता हूं, इसकी आंखों के आंसू को देखकर कलेजा मुंह को आ जाता है, अपनी आंखों में नमी ना आ जाये इसके लिए हंसते हुए कहता हूं, पगली मौत आनी होगी तो अभी यहां इसी वक्त ‘अपट’ के मर जाउंगा । दुख क्यों करती है, मैं तो अभी जिंदा हूं फिर लौट के आउंगा ।‘ माहौल कुछ गमगीन हो रहा था इसलिए मैनें बात बदली और पूछा कहां जा रहे हो, उसने बतलाया आगे चौंक तक, बाजार में कुछ खरीददारी करनी है, टैम्पू का इंतजार कर रहे हैं । हमारी बातों के बीच उसकी नन्हीं गुडिया मुझसे घुल मिल गई थी, मैंने घडी देखते हुए कहा ‘चलूं खुमान मुझे आफिस के लिए देर हो रही है ।‘ तब तक उसकी बच्ची मेरे बाईक पर बैठ गई थी । मैंनें उसे बाईक से उतारने के लिए गोद में ले लिया पर वह जिद करने लगी बाईक में बैठने के लिए । मैंनें सोंचा इसे अगले चौंक तक बाईक में ही बैठाकर ले चलू क्योंकि खुमान को टैम्पू मिल गई थी और उन्हें आगे उसी तरफ जाना था जिधर मुझे । बच्ची को गाडी में बैठाकर अगले चौंक तक के लिए बढ चला, खुमान भी अपनी पत्नीं के साथ टैम्पू से बढा ।

खुमान सिंह नाम था उसका, उंचा पूरा गठीले बदन का हलबा आदिवासी था वह । यही कोई चार साल पहले वह मेरी कम्पनी में बतौर सुरक्षा गार्ड प्रशासकीय कार्यालय के मुख्य द्वार पर नियुक्त हुआ था । कुछ ही दिनों में अपनी प्रतिभा व मिलनसारिता के बल पर कार्यालय के सभी कर्मचारियों का प्रिय बन गया था । मेरा तो वह परम भक्त था । पर्सनल डिपार्टमेंट मेरे नियंत्रण में था, शायद इसलिये या फिर यह भी हो सकता है कि वह मेरे प्रदेश का था ।

उस दिन उसने मेरा बैग उपर आफिस में ले जाते हुए मुझे रोमांचित होते हुए बताया था । ‘सर मेरी शादी तय हो चुकी है, मेरा ससुर एएसएफ में है यहीं भिलाई में !’ बातें आई गई हो गई । कुछ दिन नदारद रहने के बाद एक दिन वह आया और उसने बतलाया कि उसकी भी भर्ती एएसएफ में हो गई है और वह एक दो दिन बाद वहां ज्वाईन कर लेगा अत: उसे यहां से हिसाब किताब चुकता करना है । मैंने बातों को सामान्य लेते हुए उसे रिलीव कर दिया ।

इन यादों को कई माह गुजर गए एक दिन लंच टाईम में रिशेप्शन से फोन आया ‘कोई खुमान आपसे मिलना चाहता है ।‘ मेरे स्मृति से खुमान नाम तेजी से भागती जिन्दगी और संबंधों के मकडजाल में गुम सा हो गया था । मैनें अनमने से कहा ‘भेज दो ।‘ अगले तीन मिनट में खुमान पुलिस वर्दी में मेरे सामने खडा था । ‘अरे तुम ।‘ मैनें उत्सुकता से उसका स्वामत किया वह पुन: अपने चितपरिचित अंदाज में मेरा पैर छूकर प्रणाम किया । मैनें उसे बैठने के लिए कहा और पूछा ‘क्या हाल चाल है खुमान ‘ उसने कहा ‘बढिया है सर, मजे में हूं आजकल एंटी लैण्डमाईन चलाने लगा हूं, मेरी पत्नी की चिंता अब दूर हो गई है ।‘ कहते हुए वह हंसने लगा । मैंने भी उसका साथ दिया । वह पुन: बोला ‘सर कमाल की गाडी है, अब सडकों में गाडी चलाते हुए उबड खाबड स्थान पर दिल धक से नहीं करता, फर्राटे मारती है अब मेरी गाडी ।‘ मैंनें कहा ‘भगवान का शुक्र है कि तुम्हारी पत्नी की बात उन तक पहुच गई ।‘ पर ऐसा कहकर मैं उन सभी पुलिस कर्मियों के प्रति अपनी संवेदनाओं को भूल गया जिन्हें एंटीलैण्डीमाईन व्हीकल नसीब नहीं हुआ । ‘कैसा माहौल है वहां का ‘ मैनें पूछा । ‘मत पूछो सर बहुत खतरनाक है, हम लोगों की हालत .......? कब कौन सी गोली मौत का पैगाम लेकर आयेगी कहा नहीं जा सकता । अभी पिछले दिनों ही जंगल के बीच में मेरी गाडी एक जगह फंस गई थी हम गाडी से उतरकर गाडी को धक्का दे रहे थे कि गोलीबारी चालू हो गई एक गोली तो मेरे टखने के पास पैंट को चीरती हुई निकल गई, मेरे दो साथी वहीं ढेर हो गए, हम लोग आनन फानन में गाडी व अन्य जगह से पोजीशन लिये तब तक वे भाग गए । क्या बताये, शव्दों में बयां नहीं किया जा सकता .....।‘ मैंनें ठंडी सांस भरी । बात चल ही रही थी कि मेरे बॉस का बुलावा आ गया और हम विदा लेकर अलग अलग चले गए ।

सुबह चाय की चुस्कियां लेते हुए समाचार पत्र को अपने सामने फैलाया, हेडलाईन को देखकर चश्में को ठीक करते हुए समाचार को आंखें गडा कर पढने लगा ।हेडिंग था ‘विष्फोट से एंटीलैण्ड माईन व्हीकल चालीस फीट उछला, 12 जवान मारे गए’ तुरत खुमान का मुस्कुवराता चेहरा ध्यान में आ गया । दिल धक धक करने लगा, पूरा समाचार पढा । मारे गए जवानों में खुमान का भी नाम था । बहुत देर तक टकटकी लगाए पेपर के मुख्य, पृष्ट पर ही ठहरे रहने को देखकर पत्नी बोली ‘अजी चाय तो ठंडी हो रही है ।‘ मैंनें अनमने से ‘हां’ कहा, चाय पी नहीं सका, नास्ता भी करते नहीं बना, आंखों में खुमान बार बार आ जा रहा था जैसे मेरा कोई नजदीकी रिश्तेदार हो । पुलिस, सरकार और पत्रकार के लिए और कुछ हद तक रोज रोज ऐसे शीर्षों को पढकर संवेदनहीन हो गई जनता के लिए भी यह सिर्फ समाचार था ।

आफिस से छुट्टी लेकर तीन बजे दोपहर तक मैं उसके गांव पहुच गया, सरकारी गाडियों का हुजूम गांव में मौजूद था । मुझे उसका घर पूछना नहीं पडा, कच्ची झोपडी के इर्द-गिर्द भीड उमड पडी थी । उसके बूढे मा बाप बिलख रहे थे, उसकी पत्नी का बुरा हाल था, वह रूक रूक कर जब आर्तनाद करती तो भीड का कलेजा फटकर आंखों में पानी के रूप में उभर उभर आता था । मैं भीड का हिस्सा बना खडा रहा । मेरी आंखें उसकी बच्ची को ढूंढती रही, अब तो वह बडी हो गई होगी ........, मुझे वह नहीं दिखी । राजकीय सम्मान के साथ अंतिम यात्रा आरंभ हुई और उसके गांव के बडे मैदान में जाकर समाप्त हो गई । लाश चिता में लिटा दिया गया, अग्नि प्रज्वलित कर दी गई, लपटों से झांकता खुमान मुझे पल पल मुस्कुराता दीख पडता । सम्मान में गारद आसमान की ओर बंदूक की नली कर गोलियां चलाने लगे । गोलियों की आवाज के सिवा वातावरण निस्तब्ध था । जैसे सागर में मिलने के लिए विशालकाय नदी मंथिर गति से आगे बढ रही हो । अचानक भीड में दबा सिकुडा मैं जोरों से पागलों की भांति चिल्लाने लगा, ठांय ! ठांय ! ठांय !, बिचांम ! पूरी भीड मुझे भौंचक देखने लगी और मैं चारो ओर हाथ की अंगुलियों से गोलियां चलाते हुए चीखता रहा ठांय ! ठांय ! ठांय !, बिचांम ! एक पुलिस वाले नें मुझे झकझोरते हुए मेरे पीठ पर धौल जमाई ‘पागल हो गया है क्या ?‘

संजीव तिवारी

सलवा जूडूम पार्टी : चुनाव हेतु तैयार

राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा पिछले दिनों सर्वोच्‍च न्‍यायालय में प्रस्‍तुत जांच रिपोर्ट के अनुसार न्‍यायालयीन सत्‍य के रूप में प्रस्‍तुत नौ अध्‍यायों की कथा व्‍यथा के अनुसार छत्‍तीसगढ में ‘स्‍वस्‍फूर्त’ जागृत जन आंदोलन ‘सलवा जूडूम’ का बीज तब अंकुरित हुआ जब बीजापुर के भैरमगढ विकासखण्‍ड के गांम कुटरू के आदिवासियों नें नक्‍सली जुल्‍म व तानाशाही से मुक्ति पाने हेतु गांव में बैठक कर अपने आप को संगठित किया एवं नक्‍सलियों का प्रतिकार करने का निश्‍चय किया । इस जन आन्‍दोलन को पूर्व में भी सहयोग कर चुके नेता प्रतिपक्ष महेन्‍द्र कर्मा नें इसे नेतृत्‍व प्रदान किया । धीरे धीरे यह आंन्‍दोलन गांव गांव में बढता गया जो लगभग 644 गांवों तक बढता चला गया ।

वर्तमान में इस आंन्‍दोलन का स्‍वरूप शरणार्थी शिविर के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं रह गया है किन्‍तु जब सन् 2005 में महेन्‍द्र कर्मा नें इसे जन आन्‍दोलन का स्‍वरूप दिया एवं आदिवासियों के भाषा के अनुरूप ‘सलवा जुडूम’ का नाम दिया। तब आदिवासियों में जागरूकता फैलाने का कार्य वहां के कुछ व्‍यक्तियों नें आगे बढकर मृत्‍यु फरमान का परवाह किये बिना लम्‍बी भागदौड व जन संपर्क करते हुए किया । इनमें से एक स्‍थानीय सहायक शिक्षक सोयम मुक्‍का भी था जिसके संबंध में कहा जाता है कि वह सलवा जुडूम के परचम को फहराने में आरंभ से अहम भूमिका निभाते रहा । आदिवासी होने एवं गजब की नेतृत्‍व क्षमता के कारण आदिवासी उसकी बातों को मानते रहे हैं एवं उसका अनुयायी बनने सलवा जुडूम का साथ देते रहे हैं । नेता प्रतिपक्ष महेन्‍द्र कर्मा के अतिरिक्‍त किसी और कद्दावर जुडूम नेतृत्‍व की बातें जब होती है तब सोयम का नाम उभर कर सामने आता रहा है ।

कहते हैं सोयम मुक्‍का अपने शिक्षकीय कर्तव्‍य के निर्वहन में तदसमय असमर्थ रहा क्‍योंकि नक्‍सली स्‍कूलों में बच्‍चों को पढने से मना करते थे और स्‍कूल जला देते थे, किन्‍तु इसने अपने मानवीय कर्तव्‍यों का बेहतर निर्वहन करते हुए नक्‍सलियों के जुल्‍म के प्रतिकार के लिए आदिवासियों के दिलों में साहस का जो भाव एवं ओज पैदा किया वह अतुलनीय रहा ।

पिछले दिनों समाचार पत्रों से जानकारी मिली कि सोयम मुक्‍का के विरूद्ध विभागीय जांच कराए जाने का आदेश सरकार के द्वारा हुआ है जिसमें उस पर अपनी ड्यूटी से लम्‍बे समय से अनुपस्थित रहने व दायित्‍वों के पालन में कोताही बरतने का आरोप लगाया गया था । यह आदेश मानवाधिकार आयोग के सलवा जुडूम पर सरकार को तथाकथित ‘क्‍लीन चिट’ के तुरंत बाद जारी हुआ था । इस समाचार के पीछे की राजनीति स्‍पष्‍ट हो चुकी थी क्‍योंकि सलवा जुडूम शिविरों में सोयम की लोकप्रियता राजनैतिक चश्‍में से देखी जाने लगी थी । लगभग 60000 की संख्‍या वाले जुडूम अनुयायियों को बतौर मतदाता तौला जाने लगा था । सुगबुगाहट एवं खुशफहमी में सोयम के पर भी फडफडाने लगे थे जिसका वह अधिकारी भी था किन्‍तु उसका पर कुतरने के लिए जांच की तलवार उस पर लटका दी गई थी ।

कल समाचार आया कि सोयम मुक्‍का कोटा (अजजा) विधान सभा सीट से निर्दलीय प्रत्‍यासी के रूप में नामांकन दाखिल करने वाले हैं एवं उसने सहायक शिक्षक के पद से स्‍तीफा दे दिया है । समाचार दिलचस्‍प है एवं कोंटा से भाजपा के घोषित उम्‍मीदवार पदाम नंदा एवं कांग्रेस व कम्‍यूनिस्‍ट के उम्‍मीदवारों को चक्‍कर में डालने वाला है , क्‍योंकि सोयम को पडने वाले वोट यदि अन्‍यथा प्रभावित हुए बिना पडते हैं तो वह जुडूम के अनुयाइयों के वोट होंगें क्‍योंकि वह उनका हमसफर रहा है । इसके साथ ही वोटों की संख्‍या यह भी बतलायेगी कि सलवा जुडूम सचमुच आदिवासियों के हित के लिए समर्थित था या राजनैतिक स्‍वार्थवश ।


(मुझे चुनाव समाचार विश्‍लेषणों की समझ नहीं है किन्‍तु विमर्श के लायक समाचार पर चर्चा करने का प्रयास किया है शायद आप इससे सहमत हों ................  )


संजीव तिवारी

रावण का आकर्षण

9 अक्टूबर की संध्या दुर्ग के स्टेडियम से रावण दहन के बाद बाहर निकला । मुख्य दरवाजे के पास ही पीछे आ रहे परिवार के कुछ और सदस्यों का इंतजार करने लगा । भीड में से दस पंद्रह पुलिस वाले अचानक प्रकट हुए और सीटी बजाते हुए भीड में जगह बनाने लगे । सायरन की आवाज गूंजने लगी, मैंनें सोंचा कार्यक्रम में आये मंत्री हेमचंद यादव जी या मोतीलाल वोरा जी निकल रहे होंगें । सो अनमने से सायरन की आवाज की दिशा की ओर देखने लगा । नेताओं के लिये बनाई गई खुली जीप में रावण का श्रृंगार किये एक विशालकाय व भव्य शरीर का पुरूष हाथों में तलवार लहराते खडा था । जीप में राक्षसों का मुखौटा पहने व राजसी वस्त्र पहनें लगभग दस युवा भी थे जो लंकापति रावण की जय ! और जय लंकेश ! का जयघोष कर रहे थे । हूजूम का संपूर्ण ध्यान उस पर ही केन्द्रित हो गया । पलभर के लिए शरीर उस कृत्तिम आकर्षण व भव्यता  को देखकर रोंमांचित हो गया । गोदी में उठाए अपने भतीजे को उंगली के इशारे से रावण को दिखाया । मेरा पुत्र भी उस दृश्य व परिस्थितियों को देखकर रोमांचित हो रहा था । समूची भीड जो रास्ते के आजू बाजू खडी थी समवेत स्वर में जय लंकेश ! का घोष कर रही थी और जीप में सवार रावण अपना तलवार हलरा - लहरा कर उनका उत्साह बढा रहा था ।

लगभग दो तीन मिनट तक यह दृश्य आंखों के सामने रहा फिर जीप भीड को चीरती हुई निकल गई । मेरे परिवार के सभी सदस्य तब तक वहां आ गये । भीड कुछ कम होने पर मैंनें अपने 12 वर्षीय पुत्र से पूछा कि तुमने भी जय लंकेश ! का नारा लगाया क्या उसने कहा नहीं किन्तु मन हो रहा था, होठ बुदबुदा रहे थे ।

रावण की जीप के बाद नेताओं एवं शहर के गणमान्य व्यक्तियों की गाडियां सायरन बजाती निकली फिर सौम्य सौंदर्य के प्रतिमूर्ति दो किशोर राम व लक्षण के वेश में राज सिंहासन में एक खुले ट्रक में आसीन गुजरने लगे । माहौल राम मय हो गया, जय श्री राम के नारे गूंजने लगे । हम सब के मुह से ये शव्दे यंत्रवत निकलने लगे । स्टेयडियम से रेस्तोरॉं में खाना खाने के बाद घर आने  तक मेरे मन में रावण का वह रूप और तदसमय की परिस्थितियां उमड घुमड रही थी । लोगों का उत्साह बार बार आंखों के सामने आ जा रहे थे ।


दोपहर में ही मेरे गृह नगर में भीड द्वारा बारह बस जला दिये जाने का समाचार मिल गया था सो सुबह का प्लान वहां जाने का बनाकर मैं सोने लगा । दृश्य गांव का पुन: याद आने लगा, वहां किशोर वय में हम रामलीला में विभिन्न पात्रों को अभिनीत करते थे तब रामयाण सीरियल का प्रसारण दूरदर्शन से नहीं हुआ था । ज्यादातर पात्र मेरे भाई भतीजे या रिश्तेदार ही अभिनीत करते थे । मेरा एक चचेरा भाई अपने वृहद व्यक्तित्व के कारण सदैव रावण बनता था और दूसरा किसी वर्ष राम तो किसी वर्ष लक्ष्मण । हम पूरे दस दिन हिल मिल कर अपनी प्रस्तुति गांव के बीच बने 'गुडी' में टैम्‍परेरी स्‍टेज बनाकर देते थे किन्तु दशहरे के दिन की प्रस्तुति हमें गांव के नदी किनारे के बडे खुले मैदान 'रावण भांठा' में देनी होती थी और वहां गांव के ही पटेल के घर से पूरा श्रृंगार कर जाना होता था । वहां तक पहुचने के लिए राम लक्ष्मण व रावण को तीन सायकल की व्यटवस्था स्वयं करनी पडती थी । गांव में सबको आकर्षित करते हुए जय श्री राम ! व जय लंकेश ! के नारों के साथ मैदान तक जाने में बहुत रोमांच व आनंद आता था । परिपाटी के अनुसार राम लखन सायकल में बैठते तो थे किन्तु उनकी सायकल पैदल हाथ में लेकर कोई चलता था । रावण दस सिर का मुकुट पहने कंधे में धनुष लटकाए एक हाथ में तलवार लेकर अपनी राक्षसी दल के साथ स्वयं सायकल चलाते हुए जाता था ।


यह क्रम दो तीन साल चला फिर घर में मोटर सायकल आ गया और हममे से ज्यायदातर भाई मोटर सायकल चलाना सीख गए । इस बार के दशहरे में एक मोटर सायकल और दावेदार दो, राम और रावण । उस वर्ष राम बनने की बारी मेरे दूसरे भाई की थी, रावण के लिए परमांनेंट मेरा चचेरा भाई । उन दोनों के मन में था कि पटेल के घर से श्रृंगार करके मोटर सायकल चलाते हुए मैदान तक जांए । किन्तु, श्रृंगार कर काफी तू तू मैं मैं के बाद फैसला मेरे बाबूजी के हाथ में गया और उन्होंनें रावण को ही इसके लिये चुना । हम मुकुट पहने मुरदारशंख, काजल व रोली, अभ्रक से अटे मुख में दोनों को लडते देख देख कर हंसते रहे । रावण बना मेरा भाई राजदूत को किक मारकर स्टार्ट किया और अपने चितपरिचित अंदाज में आंखें तरेरता हुआ अपनी राक्षसी सेना के साथ बढ चला । जय लेकेश ! के नारे के साथ गांव की अधिकांश भीड रावण व राजदूत के आकर्षण में उसके पीछे पीछे दौंड पडी । राम बने दूसरे भाई को क्रोध तो काफी आया पर अगले साल देखेंगें, सोंचकर राम लक्ष्मण की टोली सायकल ठेलते पेलते रावण भाठा की ओर बढ चली ।

कुछ सालों तक यह क्रम चलता रहा फिर घर में गाडियों की संख्यां में वृद्वि के साथ ही दूसरे भाई की इच्छा की भी पूर्ति हो गई किन्तु भीड का आकर्षण रावण बना वह भाई ही रहा । रावण दहन के बाद जो स्नेह-प्रेम व श्रद्धा गांव वालों से राम लक्ष्मण बने भाईयों को मिलती थी उसके सामने सभी सम्मान व आर्कषण थोथे पडते थे । किन्तु , किशोर मन उस समय उसका अर्थ नहीं समझता था । आज जब इन दोनों घटनाओं को जोडता हूं तो भी रावण का पक्ष ही हावी नजर आता है । राम का आदर्श पारंपरिक रूप में अटक चुके रिकार्ड तवे की भांति जय जय ! के घोष में सिमट जाता है और जय लंकेश ! पूरी मुखरता के साथ होटो में बुदबुदाता है ।

संजीव तिवारी

कविता : छ.ग.के पुलिस प्रमुख के नाम एक खत

विश्‍वरंजन !
नहीं जानना चाहते हम
कि तुम कवि हो,
नहीं आत्‍मसाध होते
भारी भरकम संवेदनाओं के गीत
साहित्‍य में आपकी उंचाई कितनी है
यह भी हम नहीं जानना चाहते
जानना चाहते हैं तो बस
एक सिपाही के रूप में आपकी उंचाई कितनी है


नहीं जानना चाहते हम
कि तुमने कितनी संवेदना बटोरी है
हमारे लिए, अपनी कविताओं में
हम जानना चाहते हैं कि तुमने
कितनी संवेदना बिखेरी है बस्‍तर में


नहीं जानना चाहते हम कि तुम्‍हारी
दर्जनों किताबें छप चुकी हैं, कविताओं की
हम जानना चाहते हैं कि तुमने कितने
सिपाहियों के दिलों पर
परित्राणाय साधुनाम् का ध्‍येय वाक्‍य
अंकित कराया है


हम नहीं जानना चाहते कि तुम
किस कुल या वंशज से हो
हम जानना चाहते हैं कि तुम
मानवता के परिवार में संविधान के सच्‍चे पालक हो


हम नहीं जानना चाहते कि तुम्‍हारे
गीत कितनों नें गाया है
हम नहीं जानना चाहते कि आप समकालीन
या पूर्वकालीन कविता के बडे हस्‍ताक्षर हो
हम जानना चाहते हैं कि तुमने
ऐसी कोई कविता लिखी है जिसे बस्‍तर के जनमन नें गाया है


हम यह भी नहीं जानना चाहते
कि तुम्‍हारा बोरिया बिस्‍तर पल भर में
यहां से जाने के लिए बंध जायेगा
हम जानना चाहते हैं कि यदि ऐसा हुआ भी
तो क्‍या तुम तब भी वैसा ही हमारे लिए सोंचोगे
जो बरसों पहले बस्‍तर में एसपी होते हुए सोंचा था


मेरे मित्र, मेरे हितैषी
हम सदैव तुम्‍हारे छत्र में पनाह चाहेंगें
और तुम्‍हें संविधान के सच्‍चे रक्षक
गांधी के पक्‍के अनुयायी
आदिवासियों की रक्षा में आक्रामक
अविचल सिपाही के रूप में
तने खडे, देखना चाहेंगें
विश्‍वरंजन !
हम तुम्‍हें एक कवि के रूप में नहीं
एक सिपाही के रूप में ही अपनाना चाहेंगें


(आदरणीय श्री विश्‍वरंजन जी, शव्‍दों में संबोधन की गरिमा में हुई भावनागत त्रुटी पर क्षमा करेंगें, यह नितांत रूप से मेरे दिल की बात है हो सकता है लोग इससे सहमत न हों)


संजीव तिवारी

एक सेमीनार की ऐसी बर्बादी देखने का मेरा यह अनोखा मौका था

. . . . . इस नौजवान नें हिंसक अंदाज में मुझसे कहा – ‘तुम्ही एक युद्ध अपराधी को कई-कई किश्तों में छापते हो ।‘ 
एक पल को उस भरे हुए हॉल के एक सिरे पर खडे हुए भी मुझे लगा कि यह नौजवान हमला कर सकता है, लेकिन फिर डर को खारिज करते हुए मैंनें पूछा – ‘कौन युद्ध अपराधी ?‘ 
‘विश्वरंजन !’ 
‘मैं नहीं जानता कि वे युद्धअपराधी हैं !’ 
‘इसने सैकडों हत्यायें की है !’ 
‘मेरी जानकारी में तो एक भी हत्या नहीं की है !’ 
‘इसकी पुलिस नें सैकडों हत्यायें की है !’ 
‘मुझे ऐसी हत्याओं की जानकारी नहीं है !’

वार्ता के यह अंश हैं बर्कले विश्वविद्यालय में आयोजित उस सेमीनार में उपस्थित एक प्रदर्शनकारी छात्र एवं दैनिक छत्तीसगढ के संपादक श्री सुनील कुमार जी के । विगत दिनों भारतीय लोकतंत्र पर केन्द्रित दो दिन के सेमीनार जिसमें एक सत्र बस्तर का भी था, में वक्ता के रूप में छत्तीसगढ से पुलिस महानिदेशक श्री विश्वरंजन जी व सुनील कुमार जी गए थे । इस विश्वविद्यालय की गरिमा इस बात से आंकी जा सकती है कि एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन में अभी इसे विश्व का महानतम विश्‍वविद्यालय पाया गया है । यहां 19 नोबेल व तीन पुलित्जर पुरस्कार विजेता रहे हैं । यह 1868 से संचालित है एवं इस विश्‍वविद्यालय में 1906 से संस्कृत भी पढाई जा रही है । दुनियां के नीति निर्धारण में और बौद्धिक बहसों में यहां से निकले विद्धानों का भारी दखल रहती है । इस कारण हर कोई छत्तीसगढ सत्र का इंतजार कर रहा था । अमेरिका में कैलीफोर्निया और कैलीफोर्निया में बर्कले लोकतंत्र पर सेमीनार के लिए एक सही जगह भी थी ।
. . . इस प्रदर्शन के पहले और बाद में लोग विश्वरंजन से भी पूछते रहे और मुझसे भी उनके बारे में पूछते रहे कि वे ऐसे बागी माहौल में हमलों का सामना करने को आए ही क्यों । मैनें अपना अंदाज बताया कि शायद इसलिए कि वे बातचीत में यकीन रखते हैं । और इसी एक बात का मुझे सबसे अधिक मलाल रहा कि सेमीनार के आयोजको नें भारत के इस ज्वलंत मुद्दे पर बातचीत और बहस की मजबूत संभावना को खत्म करते हुए इसे प्रदर्शन का नुक्कड बना दिया । यह प्रदर्शन तो पूरी बातों के हो जाने के बाद भी हो सकता था । मुझे यह अफसोस इसलिए नहीं है कि मेरे उठाए गए मुद्दों पर कोई बात नहीं हुई, अफसोस यह है कि भारतीय लोकतंत्र में दिलचस्पी रखने वाले दर्जनों विद्धानों की मौजूदगी में बस्तर पर कोई सार्थक बातचीत नहीं हो पाई । विश्वरंजन को गाली गलौच की जुबान में लोगों के, पता नहीं कितने झूठे, आरोप सहने पडे ।

छत्तीसगढ सत्र पर छाए बिनायक सेन के मुद्दे नें कोई सार्थक बहस नहीं होने दी और इस कार्यक्रम की आयोजक भारतीय मूल की प्राध्यापिका राका रे थी, जिन्होंनें इस सत्र की अध्यक्षता भी की । बहस की संभावनाओं को उन्होंनें किसलिए और क्यों प्रदर्शकारियों को सौंप दिया इसे न मैं समझ पाया न कैलीफोर्निया के बहुत से और विद्धान । एक सेमीनार की ऐसी बर्बादी देखने का मेरा यह अनोखा मौका था । और छत्तीसगढ को लेकर बाहर की दुनिया में किस तरह के विरोध प्रदर्शन आयोजित किए जा रहे हैं यह भी यहां के लोगों को पता लगना चाहिए ।




'Apparently, the chief police official of Chhattisgarh is so unused
to questioning that he became flustered and signed a post-card to
the Prime Minister asking for Dr Sen's release! The card he signed
reads 'The imprisonment of this brave and good man is outrageous.
I demand his immediate unconditional release.'

यह अंश  छत्तीसगढके संपादक श्री सुनील कुमार जी के "अमरीका का सफरनामा - 3" से लिए गए हैं ।

गणतंत्र और कानून साथ में टैंडर

गणतंत्र और कानून पर कल रवीवार को रायपुर के प्रेस क्‍लब में छत्‍तीसगढ के पुलिस प्रमुख श्री विश्‍वरंजन जी नें अपना प्रभावी वक्‍तव्‍य दिया जिसे हम आज विभिन्‍न समाचार पत्रों के माध्‍यम से एवं आवारा बंजारा जी के पोस्‍ट से पढ पाये । भविष्‍य में हम आशा करते हैं कि उक्‍त कार्यक्रम में उपस्थित ब्‍लागर्स भाईयों के प्रयास से संपूर्ण वक्‍तव्‍य  पढने को मिल पायेगा । 

आज के समाचार पत्रों में इस खबर के साथ ही पुलिस विभाग का यह टैंडर भी प्रकाशित हुआ है जिसे पढने के बाद हमें लगा कि कम से कम इसे तो हमारे ब्‍लागर्स भाईयों के बीच पहुचाया जाए । तो भाईयों मत चूको चौहान .........

आर्य अनार्यों का सेतु : रावण

परम प्रतापी एवं शास्‍त्रों के ज्ञाता ब्राह्मण कुमार रावण का स्‍मरण आज समीचीन है क्‍योंकि आज के दिन का वैदिक महत्‍व उसके अस्तित्‍व के कारण ही है । हमारे पौराणिक ग्रंथों में रावण को यद्धपि विद्वान, नीतिनिपुण, बलशाली माना गया है किन्‍तु सभी नें उसे एक खलनायक की भांति प्रस्‍तुत किया है । एक कृति की प्रकृति एवं उसके आवश्‍यक तत्‍वों की विवेचना का सार यह कहता है कि, कृति में नायक के साथ ही खलनायकों या प्रतिनायकों का भी चित्रण या समावेश किया जाए । हम हमारे पौराणिक ग्रंथों को सामान्‍य कृति मानकर यदि पढते हैं तो पाते हैं कि रावण के संबंध में विवेचना एवं उसके पराक्रम व विद्वता का उल्‍लेख ही राम को एक पात्र के रूप में विशेष उभार कर प्रस्‍तुत करता है । चिंतक दीपक भारतीय जी अपनी एक कविता में कहते हैं -

रावण तुम कभी मर नहीं सकते 
क्योंकि तुम्हारे बिना राम को लोग
कभी समझ नहीं सकते. . .

खलनायक प्रतिनायक एवं सर्वथा सामान्‍य पात्रों को भी अब महत्‍व दिया जा रहा है उनके कार्यों का विश्‍लेषण कर उनके उज्‍जव पन्‍नों पर रौशनी डाली जा रही है । वर्तमान काल नें रावण के इस चरित्र का गूढ अध्‍ययन किया है, पौराणिक ग्रंथों से उदाहरणों को समेट कर कई ग्रंथ लिखे जा रहे हैं जिसमें रावण के उज्‍जव चारित्रिक पहलुओं को समाज के सामने उकेरा जा रहा है ।

रावण के चरित्र को वर्तमान समाज में अपने राक्षसी पौराणिक रूप में स्‍थापित करने का मुख्‍य श्रेय तुलसीदास जी कृत रामचरित मानस को जाता है । जैसा कि इस महाकाव्‍य के शीर्षक से ही ज्ञात हो जाता है कि इसमें राम के चरित्र का चित्रण है अत: इसमें सारी भूमिकांए राम के इर्द गिर्द ही घूमती है एवं समाज को धर्म के लिये प्रेरित करती है । रामचरित मानस की जनप्रिय भाषा एवं रागात्‍मकता, राम-रावण के इस युद्व कथा को सर्वत्र स्‍थापित करने में महत्‍वपूर्ण भूमिका अदा करता है । इसके बाद जन समझ के अनुसार बाल्‍मीकि कृत संस्‍कृत रामायण इस चरित्र को समाज के सामने प्रस्‍तुत करता है । महर्षि बाल्‍मीकि राम के संपूर्ण चरित्र के साक्षात दृष्‍टा रहे हैं, वे रावण के चरित्र को कुछ विशिष्‍ठ रूप से उभारने में सफल हुए हैं । वाल्मीकि रावण के अधर्मी होने को उसका मुख्य अवगुण मानते हैं। वहीं तुलसीदास जी केवल उसके अहंकार को ही उसका मुख्य अवगुण बताते हैं। उन्होंने रावण को बाहरी तौर से राम से शत्रु भाव रखते हुये हृदय से उनका भक्त बताया है। तुलसीदास के अनुसार रावण सोचता है कि यदि स्वयं भगवान ने अवतार लिया है तो मैं जाकर उनसे हठपूर्वक वैर करूंगा और प्रभु के बाण के आघात से प्राण छोड़कर भव-बन्धन से मुक्त हो जाऊंगा। वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस दोनों ही ग्रंथों में रावण को बहुत महत्त्व दिया गया है। राक्षसी माता और ऋषि पिता की सन्तान होने के कारण सदैव दो परस्पर विरोधी तत्त्व रावण के अन्तःकरण को मथते रहे हैं।

आर्य एवं राक्षस संस्‍कृति के ‘धर्म’ और ‘अधर्म’ के युद्ध में धर्म की अपनी अपनी परिभाषा व मान्‍यता को महर्षि बाल्‍मीकि कई स्‍थानों पर बेहतर ढंग से चित्रित करते हैं । युद्ध भूमि पर राम खडे हैं, रावण अपने पूर्ण सुसज्जित युद्ध रथ में आरूढ युद्ध भूमि पर आते हैं, राम को पैदल देखकर उन्‍हें अपना रथ देने की पेशकश करते हैं । राम के इन्‍कार करने पर रावण अपने सारथी से कहता हैं ‘सारथी रथ रोको ! मुझे भी भूमि में उतरना है, आज तक मैनें जो चाहा वही किया किन्‍तु अब तो धर्म युद्ध लडना है ।‘ एक तरफ रावण को अधर्मी स्‍थापित किया गया वहीं रावण युद्ध जैसे क्षत्रियोचित कर्म में रत होते हुए भी ऐसा धार्मिक नीतिवचन कहते हैं ।

राम-रावण युद्ध के पीछे जो यथार्थ छुपा हुआ है उसे उजागर करना कवि का मूल उद्देश्‍य रहा है, दोनों नें अपने अपने कर्तव्‍यों में आबद्ध एक रंगमंच के पात्र के अनुसार कर्म किया है । चूंकि भगवान विष्‍णु नें भी नौ माह मानवी माता के गर्भ में बिताये हैं इस कारण उनमें मानवोचित भूलों का समावेश आवश्‍यक था । इस युद्ध कथा के दौरान हमारे मन में कई प्रश्‍न उमडते हैं, जिसे राम के पक्ष से धर्म कहा गया, क्‍या धर्म है या यह शव्‍द जाल है बिल्‍कुल उसी तरह जिस तरह कानून के किताबों में किसी धारा का अपने स्‍वार्थ के अनुरूप अर्थान्‍वयन किया जाना । जब राम छुपकर बाली का वध करता है तब यह ‘धर्म’ होता है, विभीषण शरणागत होता है तब भी यह ‘धर्म’ होता है क्‍योंकि इन दोनों कार्यों के पीछे राम का स्‍वार्थ छिपा है । यह स्‍वार्थ सामाजिक मान्‍यताओं के अनुसार उद्देश्‍य है, एक साधन है, राक्षसों से पृथ्‍वी को मुक्‍त कराने के लिए । भाई-भाई में फूट डालकर राज करने की नीति भी ‘धर्म’ है । विभीषण का विलग होने का दुख , लक्ष्‍मण के शक्ति बाण लगने से मिलाकर देखें । सूर्पणखा प्रसंग, जिसके बाद से रावण के हृदय में उठी ज्‍वाला उसे यहां तक ले आई थी उसमें भी इस धर्म को अहम कहा गया, जिस धर्म की दुहाई आर्य देते हैं उसी धर्म के अनुसार स्त्रियों पर शस्‍त्रों से प्रहार न करना आर्य संस्‍कृति मानी जाती रही है किन्‍तु आर्य संस्‍कृति के ध्‍वजवाहक राम के सम्‍मुख लक्ष्‍मण नें सूर्पनखा को नासिका विहीन किया । बहुत प्रसंग हैं इस तथाकथित धर्म के एवं इसका सुविधानुसार अपने अनुरूप अर्थान्‍वयन के । इन सभी तथ्‍यों को यदि ध्‍यान पूर्वक देखा जाये, तो रावण तार्किक जरूर रहा है, लेकिन उसे धर्म विरोधी या अनैतिक नहीं कहा जा सकता ।

पौराणिक आख्‍यानों के अनुसार भगवान विष्‍णु के द्वारपालों जय विजय को शापवश मधु-कैटभ, हिरणाक्ष्‍य, हिरण्‍यकश्‍यप व रावण-कुंभकरण का पात्र अभीनित करना पडा था किन्‍तु मूलत: वे थे तो भगवान विष्‍णु के आभामंडल में दीप्‍त प्राण । इन पात्रों को निभाते हुए जय विजय नें रावण के चरित्र का गजब का अभिनय किया । अपने अन्‍य चरित्रों में उसका स्‍वरूप इतना दैदीप्‍यमान नहीं नजर आता जितना रावण के चरित्र में ।
सालों से हम रावण के जन्‍म की धिसीपिटी कहानी सुनते और टीवी में देखते आ रहे हैं । इस पर आध्‍यात्मिक व दार्शनिक दलीलें भी सुनते आ रहे हैं, यूं कहें कि हमारे कान पक गये हैं इन सपाट कहानियों से । वही उत्‍तम कुल पुलस्‍त के ‘नाती’ इस ‘नाती’ शव्‍द, पर यहां उपलब्‍ध धर्मग्रंथों के अनुसार दादा का कद बडा नहीं है, यहां रावण अपने संपूर्ण चरित्र में पुलस्‍त से भारी पडता है । अपने सभी पूर्वजनों से अलग स्‍वरूप का स्‍वामी रावण, आर्य और अनार्यों के बीच का एक महत्‍वपूर्ण सेतु था ।

वृहस्‍पति के पुत्र महर्षि कुशध्‍वज की पुत्री सौंदर्यवती पर रावण का मोहित होना व उसका कौमार्यभंग करने को उद्धत होना, नलकुबेर की प्रेयसी अप्‍सरा रंभा के साथ दुराचार करना यही दो कार्य रावण को खलनायक सिद्ध करने के लिए पौराणिक आख्‍यान बने बाद में रंभा का सीता के रूप में अवतरण व सीता का, (सूर्पनखा के नाक कान कटने की प्रतिशोधी ज्‍वाला के कारण) हरण नें रावण को महापातकी सिद्ध कर दिया । इन तीन धटनाओं के अतिरिक्‍त लाक्षणिक रूप से साक्षसी संस्‍कृति वश अत्‍याचार भले हुए हों किन्‍तु स्‍पष्‍टत: रावण नें ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिससे कि उसकी सामाजिक निंदा की जाए ।

ज्ञानी रावण के अस्तित्‍व का प्रमाण है कि हमारे पौराणिक ग्रंथों में कृष्‍ण यजुर्वेद में संग्रहित रावण की अधिकाधिक वेदोक्तियां आज तक वैदिक आर्यों को मान्‍य है, रावण ज्‍योतिष ग्रंथों एवं तात्रिक ग्रंथों के भी रचइता हैं, रावण कृत शिव ताण्‍डव स्‍तोत्र का सस्‍वर गायन पुरातन से आज तक लगातार हो रहा है । रावण मे कितना ही राक्षसत्व क्यों न हो, उसके गुणों को विस्मृत नहीं किया जा सकता। रावण एक अति बुद्धिमान ब्राह्मण तथा शंकर भगवान का बहुत बड़ा भक्त था। वह महा तेजस्वी, प्रतापी, पराक्रमी, रूपवान तथा विद्वान था। रावण के क्रूर और अनैतिक चारित्रिक उदाहरणों के अतिरिक्‍त उसके उजले पक्षों को भी यदि हम आज के दिन याद कर लेवें तो वर्तमान परिस्थितियों के लिए उचित होगा ।

सुशीला सेजवाला के शव्‍दों में -

रावण हूं मैं, कांपते थे तीनों लोक जिससे
पर आज का मानव निकला, 
चार हाथ आगे मुझसे ...  .
संजीव तिवारी


चित्र - thatshindi   एवं भास्‍कर से साभार 

इटैलिक व नीले रंग में लिखे गए वाक्‍यांश हिन्‍दी विकीपीडिया के हैं इस कारण हमने उनका लिंक हबना दिया है
(यह आलेख दैनिक छत्‍तीसगढ के 8 अक्‍टूबर'2008 के संपादकीय पेज क्र. 6 पर प्रकाशित हुआ है )

डॉ.रत्‍ना वर्मा की पत्रिका उदंती .com अंक 2, सितम्‍बर 2008 नेट में उपलब्‍ध

अंक 2, सितम्‍बर 2008

इस अंक में -

अनकही : ...पीने को एक बूंद भी नहीं


संस्मरण / उफनती कोसी को देख याद आई शिवनाथ नदी की वह बाढ़ - संजीव तिवारी

पर्यावरण/ सिक्के का दूसरा पहलू प्लास्टिक का कोई विकल्प है? - नीरज नैयर


बदलाव / स्वास्थ्य छत्तीसगढ़ के अनूठे कल्याणी क्लब - स्वप्ना मजूमदार

कला / अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समाज का हिस्सा है कलाकृति - संदीप राशिनकर

समाज / मैती आंदोलन जहां प्रेम का पेड़ लगाते हैं दूल्हा दुल्हन -प्रसून लतांत

रिश्ते / जैसे को तैसा वसीयत में ठेंगा - डॉ. रत्ना वर्मा

सपने में / बस्तर का सच यह केवल स्वप्न नहीं था - राजीव रंजन प्रसाद

आपके पत्र / इन बाक्स

उदंती.com का विमोचन

उत्पादन / फलों का सरताज हिमाचल का काला सोना - अशोक सरीन

कविता : जीवन का मतलब - बालकवि बैरागी

रंग बिरंगी दुनिया


रमन सरकार की कामयाबी पर विशेष पृष्ठ

दुर्ग में दुर्गोत्सव की धूम और उसकी जातीय चेतना

विनोद सा
रायपुर
और राजनांदगांव गणेशोत्सव मनाने के लिए प्रसिद्ध हैं तो दुर्ग में हर साल दुर्गोत्सव की धूम होती है। कहा नहीं जा सकता कि दुर्ग में दुर्गोत्सव को इतनी धूमधाम से मनाने की ललक कहां से पैदा हुई। आरंभ में यहां गुजरातियों द्वारा दुर्गा पूजा मनायी जाती थी। हिन्दी भवन में भी दुर्गा प्रतिमा रखी जाती थी। दुर्गा का पेंडाल रेलवे स्टेशन में दिखा करता था रेलवे के कुछ बंगाली बाबुओं के सौजन्य से। पर बाद में यह दुर्गा पूजा दुर्ग में बहुत तेजी से चलन में आया। और यह दुर्गा पूजा गुजराती या बंगला प्रभाव से भिन्न भी रहा। चाहे दुर्गा निर्माण की मूर्तिकला हो या पूजा स्थल इसके पेंडाल की सजावट हो या इसकी पूजा पद्धति हो यह पूरी तरह से अपनी मौलिकता और स्थानीयता बनाए हुए है। ऐसे लगता है कि दुर्ग में दुर्गा पूजा का जो चलन बढ़ा वह इस शहर से देवी के नाम का साम्य रहा। दुर्ग और दुर्गा नाम की समानता। यद्यपि एक वस्तु वाचक नाम है और दूसरा व्यक्ति वाचक। फिर दोनों के अर्थों में पर्याप्त भिन्नता है। फिर भी इस शब्दनाम का ध्वनिसाम्य कहीं दुर्ग वासियों के मनोविज्ञान को छूता रहा है और इसलिए दुर्गापूजा को यहां की जनता ने हाथोंहाथ ले लिया हो। आज भिलाई जैसे उत्सवधर्मी शहर के लोगों में भी दुर्ग के दुर्गा को देख लेने की ललक बरकरार रहती है।

दुर्ग आरंभ से ही एक जागृत शहर रहा है। शिक्षा, लोकसंस्कृति और राजनीति ये तीन ऐसे क्षेत्र हैं इस शहर के जिसमें यह न केवल छत्तीसगढ़ अंचल में बल्कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर अपनी पहचान दर्ज कराता आया है। देश के समस्त हिन्दी भाषी राज्यों में दुर्ग पहला जिला था जिसे सम्पूर्ण साक्षरता अभियान के लिए चुना गया और जैसे भी हो इसे सम्पूर्ण साक्षर घोषित कर दिया गया। आपातकाल में इसने नसबन्दी करवाने में भी देश में अव्वल होने का कीर्तिमान बनाया था। लोकसंस्कृति में इस जिले का एक छत्र राज्य रहा है। तीजनबाई और देवदास इसके अंतर्राष्ट्रीय लोकनर्तक रहे हैं। `दाउ रामचंद देशमुख` के चंदैनी गोंदा की प्रस्तुति ने छत्तीसगढ़ की लोककला के लिए लाइटहाउस का काम किया और उसके बाद तो जैसे लोकमंचों की बाढ़ आ गई। राजनीतिक चेतना में दुर्ग शहर हमेशा से पूरे अंचल के लिए पथ प्रदर्शक बना रहा। रायपुर के बाद एक यही शहर है जिसने देश को नामी मुख्यमंत्री, राज्यपाल, केन्द्रीय मंत्री और विधानसभा अध्यक्ष दिए। सीपी एंड बरार राज्य के प्रथम विधानसभा अध्यक्ष दुर्ग के दाउ घनश्याम सिंह गुप्त रहे। अपनी राजनीतिक चेतना के बाद भी इसे इस नये राज्य का कोइ्रर् विशेष लाभ नहीं मिल पाया है। प्रशासन या उद्योग का कोई मुख्यालय यहां नहीं खोला गया है। इस मामले में यह रायपुर, बिलासपुर और जगदलपुर शहर से बहुत पीछे है।


दरअसल संस्कृति या राजनीति चाहे कुछ भी हो दुर्ग की अपनी जातीय चेतना काम करती है। यद्यपि इस शहर ने कोई आई ए एस अधिकारी पैदा नहीं किया (सिवा अशोक वाजपेयी के जिन्होंने दुर्ग में केवल जन्म लिया पर इस शहर से कोई ताल्लुक नहीं रखा) न ही यह शहर कोई्र वैज्ञानिक या बड़ा साहित्य मनीषी तैयार कर सका है। पर यहां नागरिक चेतना की मिसाल हरदम देखी जा सकती है। यह अपने अधिकारों के प्रति हमेशा सतर्क और जागृत रहने वाला शहर रहा है। इस शहर के आसपास भी चाहे जिस समुदाय के श्रमजीवी लोग रहे हैं उनके भीतर उनकी जातीय और सामाजिक चेतना काम करती है। इसलिए इस शहर की प्रस्तुतियां अपना अलग छाप छोड़ती हैं और समूचे छत्तीसगढ़ राज्य को अपनी ओर देखने के लिए बाध्य करती हैं। सिविलाइजेशन में यह शहर अग्रणी रहा है। इसलिए भी छत्तीसगढ़ अंचल में स्थायी रुप से बसने के लिए अनेक अधिकारियों और उद्योगपतियों का यह पसंदीदा शहर बन गया है। क्षेत्रफल और आबादी में औसत दर्जे का शहर होते हुए भी यह प्रशासन, चिकित्सा, शिक्षा, रेलवे, बस यातायात और परिवहन व्यवस्था की दृष्टि से महानगरों जैसा प्रभाव छोड़ता है। जबकि महानगरों जैसा आतंक और प्रदूषण यहां नहीं है।


दुर्ग ज्यादा आन्दोलनकारी शहर नहीं रहा है। यद्यपि स्वतंत्रता सेनानियों की एक बड़ी संख्या यहां रही है बाद में कुछ सामाजिक कार्यकर्ता भी हुए हैं पर उनकी तासीर आक्रामक नहीं रही है। यह शहर हमेशा अपनी मांगों को अपने विवेकपूर्ण मतदान से चुने गए नेताओं के जरिए करवा लेता है। अपनी नागरिक संचेतना से स्थानीय प्रशासन पर दबाव बनाए रखने में कामयाब हो जाता है। इसे एक मायने में एक भाग्यशाली शहर भी माना जाता है जो बिना ज्यादा उठा पटक किए अपने लाभ और उपलब्धियों को प्राप्त कर लेता है।


दुर्ग की इस सामुदायिक चेतना को उसके संस्कृति कर्म में भी देखा जा सकता है और इसमें दुर्गा पूजा भी शामिल है। यहां गंजपारा और पद्मनाभपुर जैसे पूंजीपति इलाके हों या ढीमर पारा, बैगापारा, शिवपारा और मठपारा जैसे मजदूरों और श्रमजीवियों का इलाका हो। इन दो विपरीत धु्रवांत वाले क्षेत्रों में दुर्गापूजा की होड़ एक समान दिखलाई देती है। उनकी भव्यता में कहीं कोई कसर नहीं। जैसे पूंजीपतियों से होड़ लेने की ठान ली हो सर्वहारा वर्ग ने। विद्युत झालरों का बेहिसाब प्रदर्शन अगर पूंजीपति इलाके में है तो पेंडालों और मूर्तियों की कलात्मक प्रस्तुति सर्वहारा क्षेत्रों में है। यह विस्मित कर देने वाला है कि शहर में दुर्गा की श्रेष्ठ कलात्मक मूर्तियां ढीमर पारा और बैगापारा जैसे मोहल्लों में स्थापित हैं। जिसे दर्शक इस अचम्भे के साथ देखता रह जाता है कि इन पिछड़ी मानी जाने वाली जातियों में कला की यह सुघड़ चेतना आयी कहॉ से? जबकि कला समीक्षकों ने बहुत पहले ही यह स्थापित कर दिया है कि कला का प्रस्फुटन तो श्रम सीकर वाले हाथों से होता आया है। अगर इन मूर्तियों को इस समुदाय के लोगों ने अपने हाथों से नहीं भी बनाया है तो भी मूर्ति को देखने परखने का वह सौन्दर्यबोध तो है जो पूंजीपतियों और उंची जातियों की तुलना में कहीं अधिक है। जहां आस्था का सवाल है वहां दुर्गापूजा पर्व में उनकी गहरी आस्था चमक दमक वाले श्रृंगारों से ओतप्रोत मूर्ति की तुलना में चंडी और शीतला माता जैसी आदिम संस्कारों से युक्त मूर्ति और मंदिरों के प्रति है। जहां जसगीत का अनवरत गायन जोरों पर है। यहां दुर्गा, दशहरा और उर्स पाक मनाने का जुनून इस कदर सवार है कि शहर के सभी स्टेडियमों में दशहरा मनाया जाता है। यह हास्यास्पद भी हो जाता है कि इन क्रीडांगनों में शहरवासियों का सबसे प्रिय खेल राम-रावण युद़्ध है।


रोजगार के अवसर यहां कम होने, रोजगार के नाम पर केवल भिलाई पर निर्भर रहने और छत्तीसगढ़ का अपना अलग राज्य बन जाने के बाद भी कोई विशेष तवज्जो न पाने वाला दुर्ग अपने पुराने दमखम पर अब भी सम्मोहन बनाए हुए है और यह आज भी अपनी आधुनिक सुख सुविधाओं के महल के भीतर अपने लोकजीवन का दुर्ग भी खड़े रखता है।


(इसके पूर्व भी मेरे आलेख इस ब्‍लाग पर प्रकाशित हुए हैं अब मैं इस आलेख को बतौर 'आरंभ' के सहयोगी ब्‍लाग लेखक के रूप में यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं , भविष्‍य में इस मायावी दुनियां में नियमित रहने का प्रयास करूंगा)

विनोद साव

मुक्तनगर, दुर्ग ४९१००१
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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...