उस दिन दौंडते भागते दुर्ग रेलवे स्टेशन पहुचा । गाडी स्टैंड करते ही रेलगाडी की लम्बी सीटी सुनाई देने लगी थी । तुरत फुरत प्लैटफार्म टिकट लेकर अंदर दाखिल हुआ । छत्तीसगढ एक्सप्रेस मेरे स्टेशन प्रवेश करते ही प्लेटफार्म नं. 1 पर आकर रूकी । चढने उतरने वालों के हूजूम को पार करता हुआ मैं एस 6 के सामने जाकर खडा हो गया । राजीव रंजन जी और अभिषेक सागर जी मेरे सामने खडे थे । साहित्य शिल्पी और छत्तीसगढ के साहित्यकारों पर संक्षिप्त किन्तु महत्वपूर्ण चर्चा के बीच ही राजीव जी नें सागर जी को सामने की पुस्तक दुकान से शानी का ‘काला जल’ पता करने को कहा, पुस्तक वहां नहीं मिली । तब तक गाडी की सीटी पुन: बज गई और राजीव जी एवं सागर जी से हमने बिदा लिया देर तक हाथ हिलाते हुए बब्बन मिंया स्मृति में आ गए ।
राजीव जी से क्षणिक मुलाकात उनका व्यक्तित्व मेरे लिए उनके बस्तर प्रेम के कारण बहुत अहमियत रखता है तिस पर शानी की याद । शानी नें तो बस्तर को संपूर्ण हिन्दी जगत में अमर कर दिया है, सच माने तो हमने भी बस्तर को शानी से ही जाना । उनकी कालजयी कृति ‘काला जल’ नें तो अपने परिवेश से प्रेम को और बढा दिया ।
‘काला जल’ या शानी का उल्लेख जब जब होता है जगदलपुर का वह तालाब स्मृति में जीवंत हो उठता है, उसके पात्र व कथानक गड्ड मड्ड रूप में कई कई बार मन में उमडते हैं पर ठीक से याद नहीं रह पाते । राजीव जी के याद दिलाने पर मुझे उसे पढने की इच्छा पुन: जागृत हो गई । यह उपन्यास मेरी नजरों में लगभग 1982-83 में आई थी और 1983 की गर्मियों में मैंने इसे पढा था । यह मेरे गांव में मेरी मां की सहेजी गई निजी लाईब्रेरी में थी । मेरी मॉं हंस व सारिका की अनियमित पाठक थी एवं धुर गांव में भी जिसे मैंनें बाद में समझा कि इसे साहित्य कहा जाता है, ऐसे किताबों की भी पाठक थीं और संग्रह भी करती थीं । अत: मैं ‘काला जल’ को पाने के लिए पिछले रविवार को गांव जा पहुचा जहां उनकी किताबें नहीं मिल पाई किन्तु हंस व सारिका के कुछ फटे पुराने अंक व अन्य पत्रिकायें ही मिल पाई पुस्तनकें नदारद थी ।
मेरी मॉं एवं मेरे पिता की मृत्यु के बाद गांव का घर लगभग सराय सा हो गया है और जिन्हें जो अच्छा लगा वे बहुत पहले ही ले गए । सो ‘काला जल’ मुझे वहां नहीं मिल सका । घर की देररेख के लिये जिसे हमने गांव में रखा है उसने जब हमें कागजों की ढेर में जूझते देखा तो पूछा ‘दाउ का खोजत हावस?’ उसे बताने का कोई औचित्य नहीं था किन्तु उसने एक कमरे में ले जाकर मुझे दो तीन पुस्तकें दिखाई जिसे किसी मेहमान नें मेरे पिताजी के मृतक कार्यक्रम के समय पढ कर वहीं रख दिया था और कमरा बरसों से ताले में बंद था । मेरी खुशी का ठिकाना न रहा, धूल में अटा ‘काला जल’ वहां मिल गया ।
ऐसी कृतियों को पढने के प्रति रूचि जागृत करने का पाठ मैंनें अपनी मॉं से सीखा था । मॉं मिडिल स्कूल तक ही पढी थी और इसी बीच में वह बहू बनकर मेरे दादा के गांव में आ गई थी जहां महिलाओं को पढाने का रिवाज नहीं था । मेरे दादा की मालगुजारी थी और बीसियों लठैतों के साथ पच्चीसों हल चलते थे आवश्यक संस्कृत के अतिरिक्त अन्य शिक्षा को तनिक भी महत्व नहीं दिया जाता था । ऐसी परिस्थितियों में भी मॉं की ऐसी रूचि, मानसिक क्षमता एवं साहित्तिक अभिरूचि को देखकर मुझे आश्चर्य होता था । भीष्म साहनी की तमस जब पहली बार प्रकाशित होकर बाजार में आई और मॉं के हाथ लगी तब की कुछ बातें स्मृति में हैं । मेरे बडे भाई बताते हैं, उन दिनों वो तमस के कथानकों एवं उस समय की ऐतिहासिक परिस्थितियों को तमस के कथानक में जोडने, उसमें उभारने एवं कुछ चरित्रों पर कम प्रकाश डालने के लेखक के उद्देश्यों पर चर्चा करती थी पर हमें यह सब समझ में नहीं आता था और जब तमस टीवी में आई तो उसे देखने में जो आनंद आया उसका वर्णन नहीं किया जा सकता ।
कथानक व कृति की तत्कालीन उपादेयता पर उनका ध्यान व बहस हमेशा केन्द्रित रहता था । ऐसे समय पर भी वे गंभीर चिंतन करती जब किसी पुस्तक का पुर्नप्रकाशन हुआ हो । संस्करणों के बीच की अवधि को अपने मोटे चश्में से निहारते हुए पहले बुदबुदातीं और हमें बतलातीं कि यह पुस्तक फलां से फलां सन् तक सर्वाधिक बिकी है । इसका भी क्या मतलब होता है यह हम नहीं जानते थे यद्धपि वह भारतीय परिस्थितियों , किताब के कथानक या विषय को उन वर्षों से जोडकर समझाती थीं पर हमारे पल्ले नहीं पडती थी । आज इन बहुत सारी यादों को संजोंना उन पर चर्चा करना अच्छा लगता है । ‘काला जल’ के कथानक की तरह ।
मेरे गांव से मेरे वर्तमान निवास दुर्ग तक का लगभग 125 किलोमीटर का सफर इन्हीं यादों में कट गया । यहां आते ही ‘काला जल’ को एक ही बैठक में पी गया । गुलशेर अहमद ‘शानी’ के इस काला पानी रूपी जीवन प्रणाली में अमानवीय और प्रगतिविरोधी मानों और मूल्यों की असहनीय सडांध में डूबते उतराते बब्बन, मिर्जा करामत बेग, बी दरोगिन, रज्जू मिंया, रोशन, मोहसिन, छोटी फूफी, सल्लो आपा नें पुन: बस्तर को जीवंत कर दिया ।
आपको भी यदि अवसर मिले तो अवश्य पढें शानी की सर्वश्रेष्ठ कृति ‘काला जल’ ।
संजीव तिवारी
हमने तो काला जल कई बार पढ़ा है और हमारी प्रिय पुस्तकों में से एक है ये ।
जवाब देंहटाएंशानी को बहुत पढ़ा है, काला जल नहीं पढ़ पाया। जल्दी ही पढ़ कर आप को सूचित करूंगा।
जवाब देंहटाएंअब समझ आ रहा है कि आपके स्तरीय लेखन और बौद्धिकता के पीछे आपकी माता जी रही हैं।
जवाब देंहटाएंउन्हें श्रद्धान्जलि।
जी शनि के कला पानी के बारे में थोड़ा बिस्तृत हो जाते तो मज़ा ही आजाता,मगर आपने तो पुरी पी ली और सीसी बंद करदी काले पानी की ... मैं भी खोजता हूँ इसे .....
जवाब देंहटाएंआपके स्तरीय लेखन और बौद्धिकता के पीछे आपकी माता जी रही हैं।
उन्हें श्रद्धान्जलि।
ढेरो आभार आपका ...
आपने कहा है तो अब अवश्य ही पढने की कोशीश करेंगे !! एक अच्छी जानकारी के लिये धन्यवाद !!
जवाब देंहटाएंMauka milte hi padhungi. Dhanyawaad.
जवाब देंहटाएंDear Tiwari Ji,
जवाब देंहटाएंShani ko padha hai magar Kala Jal shayad rah gaya hai, milte hi padhunga.
Ajay Shrivastava
Dear Tiwari Ji,
जवाब देंहटाएंShani ko padha to hai par "Kala Jal" abhi bhi rah gaya hai.. Aab mouka milte hi padhunga.
Ajay shrivastava
मै काला जल अब तक नही पढी हूं|अब इसे जरुर पढूगी|आपने काफ़ी रोचक जानकारी दी है जिससे इस उपन्यास को पढने की ईच्छा हो गई|
जवाब देंहटाएंप्रथम तो माँ को नमन ,जिन्होंने इस कालजयी कृति को संभाल आगे की पीढी के लिए सुरक्षित रखा .जिसे आपने पढ़ा और हमें पढ़ने के लिए प्रेरित किया .
जवाब देंहटाएंमैंने कलाजल को दूर -दर्शन पर ही देखा है ,पर अब पढूंगी भी .
vangmay patrika agla ank shanee par hoo ga
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